मैं काफी दिनों से विभिन्न चिट्ठाकारों के चिट्ठों के बारे में लिखने की सोच रहा था.ठेलुहा ,हां भाई, रोजनामचा,मेरा पन्ना.पंकज की मोहनी सूरत और मुस्कान देखकर कौन न मर जाये.इनकी जालिम मुस्कान देखने हम बार-बार चिट्ठाविश्व पर जाते हैं.रोजनामचा में अतुल की फोटो देखकर लगता है किसी फास्ट बालर का बाऊंसर फेकने के तुरंत बाद का पोज है .अवस्थी,जिनका लिखा पढने के लिये हम सबसे ज्यादा उतावले रहते हैं पर जो आलस्य को अपना आभूषण मानते हुये सबसे कम लिखते हैं,के बारे में लिखने को बहुत कुछ है .पर इन महानुभावों को छोङकर मैं शुरुआत मेरा पन्ना के जीतेन्द्र चौधरी से करता हूं .इनकी चाहत भी है कि कोई बंधु इनके लेखों का उल्लेख करके इनके दिन तार दे.हालांकि यह पढकर जब अतुल ने धीरज रखने का उपदेश दिया तो फटाक से अच्छे बच्चों की तरह मान गये.ऐसे अनुशासित बंधुओं की जायज मांगें पूरी होनी चाहिये इस कर्तव्य भावना से पीङित होकर मैं जीतेन्द्र और उनके पन्ने के बारे में लिखने का प्रयास करता हूं.
गोरे ,गोल ,सुदर्शन चेहरे वाले जीतेन्द्र के दोनों गालों में लगता है पान की गिलौरियां दबी हैं.इनके चमकते गाल और उनमें दबी गिलौरी के आभास से मुझे अनायास अमृतलाल नागर जी का चेहरा याद आ गया.आखें आधी मुंदी हैं या आधी खुली यह शोध का विषय हो सकता है.इनकी मूछों के बारे में मेरी माताजी और मेरे विचारों में मतभेद है.वो कहती हैं कि मूछें नत्थू लाल जैसी हैं जबकि मुझे ये किसी खूबसूरत काली हवाई पट्टी या किसी पिच पर ढंके मखमली तिरपाल जैसी लगती हैं.नाक के बारे में क्या कहें ये खुद ही हिन्दी ब्लाग बिरादरी की नाक हैं.
जनसंख्या का समाधान तब तक नही हो सकता, जब तक हम अपनी जिम्मेदारी नही समझेंगे.अभी भी समय है, हम चेते, अन्यथा आने वाली पीढी हमे कभी माफ नही करेगी.(20 सितंबर)से अपने लिखने की शुरुआत की जीतेंन्द्र ने.नियंत्रण जनसंख्या पर होना चाहिये लिखने पर नहीं यह जताते हुये उसी दिन राजनीति पर भी नजर दौङाई और लिखा
इस सरकार मे चार चार PM है....
PM: मनमोहन सिंह जी : जो सिर्फ सुनते है
Super PM: मैडम सोनिया :जो सिर्फ हुक्म सुनाती है
Virtual PM: CPM :जो जल्दी ही सुनाने वाले है.
Ultra PM :ळालू यादव :जो किसी की नही सुनता
अचानक इनको लगा कि अरे हम तो पोस्ट चपका दिये और कारण बताया नहीं सो इन्होंने बताया कि ये लिखते क्यो हैं .
मेरे कुछ मित्रो ने पूछा है कि मेरे को चिट्ठा(Blog) लिखने का शौक क्यो चर्राया, क्या पहले से चिट्ठा लिखने वाले कम थे जो आप भी कूद गये. मेरा उनसे निवेदन है कि इस कहानी को जरूर पढे.ऐसा ही कुछ मेरे साथ भी हुआ, जिससे मुझे चिट्ठा लिखने की प्रेरणा मिली.अब मै कहाँ तक सफल हो पाया हूँ, आप ही बता सकते है(21 सितंबर).21 सितंबर का दिन मंगलवार का था. हनुमान की फुर्ती से ये दौङ-दौङ के सबके ब्लाग में गये .तारीफ का तीर चलाया और अपने पन्ने पर आने की सुपारी बांट आये.नये ब्लाग के जन्म से खुश लोग इनके यहां सोहर (नवजात के आगमान पर गाये जाने वाले गीत)गाने इनके पन्ने पर पहुंचे.
1. Welcome to hindi blogdom. Der Aayad durast aayad :)देबाशीष
2.बधाई स्वीकार करो धुंआधार लिखाई के लिये.लिखते रहो .पढने के और तारीफ करने के लिये तो हम हइयैं है.अनूप शुक्ला
3.जीतेंद्र जी,आपके ब्लाग की भाषा तो खालिस कनपुरिया है. बधाई. एक छोटा सी धृष्टता करने के लिए क्षमा कीजियेगा, जनाब आप अपने पुराने अँक वाले लिंक का समायोजन कुछ बेहतर करे , काफी भटकना पड़ता है.महीनेवार क्रम या जैसा मैनें कर रखा है वैसा कर दीजिए|अतुल अरोरा
यहां से शुरु हुआ इनका धुंआधार सफर जारी है यह बात अलग है कि अतुल की चाह पूरी करने का मौका नहीं मिला अभी इन्हें.
खाङी में प्रवासियों की हालत के बाद राजेश प्रियदर्शी के लेख पर नजरें इनायत की इन्होंने.राजेश प्रियदर्शी का लेख सपने,संताप और सवालकाफी चर्चा में रहा.हर चर्चित चीज को किसी फार्मूले में बांधने की अमेरिकी आदत का मुजाहिरा हुआ अतुल के लिटमस टेस्ट में.एक टेस्ट चला तो इन्होंने लगे हाथ दूसराटेस्ट भीउतार दिया बाजार में.कुछ लोग उस टेस्ट से असहमत थे.पर हिट्स के नक्कारखानें में असहमतियां तूतियों की आवाज की तरह पिट गयीं.
कोई भी नही सोचता जो बच्चे स्कूल मे बात कर रहे थे, वो आपके बच्चे भी हो सकते है.कहकर फिर राजनीति, क्रिकेट और कुछ तकनीकी पोस्ट लिखी.सबसे बढिया पोस्ट पहले माह की आयी इनकी आखिरी दिन.क्रिकेट बोर्ड की राजनीति का बयान किया सटीक तरीके से.
अक्टूबर में धुंआधार बैटिंग की गयी.अभी तक स्वागत की कुंकुम रोली के अलावा एक अज्ञात वाह(Exellent) के अलावा टिप्पणी
के स्थान पर सन्नाटा पसरा था.हालात को काबू में लाने कि तमाम सवाल-जवाब जो इनके शर्मीले दोस्त इनसे अकेले में पूंछते हैं वो इन्होने बताये.यौन विषयों के बारे में न लिखने की मजबूरियां भी बतायीं.फिर तोसिलसिला चल निकला.मिर्जा,छुट्टन ,पप्पू,स्वामी के आने से इनके ब्लाग पर चहल-पहल बढी.
अक्टूबर माह में जितेन्दर जी ब्लाग मशीन हो गये.अइसा थोक में लिखा अगर थोङी जहमत उठाई जाये तो अक्टूबर माह में दुनिया में हिन्दी ब्लाग में सबसे ज्यादा शब्द लिखने के लिये गिनीज बुक में नाम छप सकता है.खाली मात्रा ही नहीं पठनीयता की नजर से सारे पोस्ट धांसू रहे.मिर्जा का अवतार हुआ.उनका, गुस्सा दिखा.पंडों की हकीकतबयान की.मिर्जा का हीरोइनों से लगाव पता चला:-
अब जहाँ तक मिर्जा का फिल्मी प्रेम की बात है, वैसे तो मिर्जा की वफादारी किसी एक हिरोइन मे कभी नही रही.. बाकायदा नर्गिस,मीनाकुमारी से लेकर ऐश्वर्या राय,अम्रता राव तक को समान रूप से चाहते रहे , उनके खुशी गम मे हँसे रोय े, ....सिन्सीरियली सब पर पूरा मालिकाना हक जताते रहे,मजाल थी जो हीरो किसी हिरोइन को छू ले..तुरन्त चैनल बदल देते ....शायद मिर्जा की बदौलत ही ऐश्वर्या और सलमान का इश्क परवान नही चढ पाया...
यह पढकर मुझे हास्टल का एक वाकया याद आ गया.एक दिन चित्रहार के दौरान कोई पुराना फिल्मी गाना आ रहा था.किसी जिज्ञासु ने हवा में सवाल उछाला- अबे ये कौन हीरोइन है.एक ने बङी मासूमियत से बताया-पता नहीं यार आजकल हम हीरोइनों के टच में नहीं रहते.
अपने प्रवासी होने को लेकर मिर्जा भावुक हो गये.बोले :-
े हम उस डाल के पन्क्षी है जो चाह कर भी वापस अपने ठिकाने पर नही पहुँच सकते या दूसरी तरह से कहे तो हम पेड़ से गिरे पत्ते की तरह है जिसे हवा अपने साथ उड़ाकर दूसरे चमन मे ले गयी है,हमे भले ही अच्छे फूलो की सुगन्ध मिली हो, या नये पंक्षियो का साथ, लेकिन है तो हम पेड़ से गिरे हुए पत्ते ही, जो वापस अपने पेड़ से नही जुड़ सकता.
उधर मिर्जा आंखें गीली कर रहे थे इधर मेरे दिमाग में भगवती चरण वर्मा की कविता गूंज रही थी और जिसे मैं चाहता था कि मिर्जा सुन सकें:-
हम दीवानों का हस्ती ,हम आज यहां कल वहां चले,
मस्ती का आलम साथ चला हम धूल उङाते जहां चले.
आंसू पोछने के बाद मिर्जा दावतनामें मे मसगूल हो गये.फिर छुट्टन की शानदार पार्टी हुयी.इसके बाद आया सवाल-जवाब का झांसा.बतया गया:-
जीवन मे हास्य हमारे आस पास फैला रहता है, जरूरत है तो बस उसे देखने की.सुबह सुबह जब नित्य क्रिया मे होते है,तेब आइडिया मिलते है
यहां पर आकर रहा नहीं गया इनसे और सामने आयी बचपन की कुटेव-छुटकी कविता:-
अश्क आखिर अश्क है,शबनम नही
दर्द आखिर दर्द है सरगम नही,
उम्र के त्यौहार मे रोना मना है,
जिन्दगी है जिन्दगी मातम नही
स्वामी का क्रिकेट प्रम और महाराष्ट चुनाव विश्लेषण के लिये ज्यादा सोचना नहीं पङा होगा इनको.कल्पना में किसी पनवाङी क ेयहां खङे हो गये होंगे थोङी देर और दो धांसू पोस्ट चिपका दी.
पप्पू भइया की इन्डिया ट्रिप के बहाने बताये प्रवासियों के वो कष्ट जो वे झेलते हैं वतन आने पर.इन कष्टों का मुझे तो अन्दाज नहीं पर जब सीसामऊ मोहल्ले में पप्पू के घर वालों से बात की तो उनके भी कुछ कष्ट पता चलेे.कुछ निम्न हैं:-
1.पप्पू के घर वाले अभी तक उस जनरेटर और एअर कंडीशनर का किराया किस्तों में चुका रहे है जो उन्होने पप्पू के आने पर लगवायेथे.
2.पप्पू के दोस्त अभी भी इस आशा में है कि पप्पू से उनको वो पैसे वापस मिल जायेंगे जो उन्होंने भारतीय मुद्रा उपलब्ध न होने के बहाने
मासूमियत से लिये थे तथा बाद में उसी तरह भूल गये जैसे दुश्यंत शकुन्तला को भूल गये थे.यह सुनकर उन मित्रों का जी और धुक-पुक कर रहा है जिनको यह पता चल चुका है कि पप्पू भइया को दूसरों से लिये पैसे के बारे में याद नहीं रहता .
३.पप्पू भइया के घर के बाहर चाय वाला अभी तक यह तय नहीं कर पाया है कि उनके आने पर जो चाय पिलाईं उसने उनको वो पप्पू के
शाश्वत खाते में डाले या बट्टे खाते में.
इसके अलावा भी कुछ बातें वो बताने जा रहे थे तब तक किसी बुजुर्ग ने टोंक दिया -क्या फायदा रोने-गाने से ? लङका जब प्रवासी हो गया तो यह सब तो झेलना ही पङेगा.
आह क्रिकेट-वाह क्रिकेट के बाद लिखा गया मोहल्ले का रावण.यह मेरे ख्याल से मेरा पन्ना की सबसे बेहतरीन पोस्ट है.चुस्त कथानक,
सटीक अंदाज .पर यहां भी जितेन्दर बेदर्द लेखक रहे.वर्मा जी की बिटिया को कुंवारा छोङ दिया.मैंने पूंछा तब भी अभी तक कहीं गठबंधन नहीं कराया अभी तक.अतुल ने बताया कि सबसे हंसोङ ब्लाग है यह.
अंग्रेजी,हिंन्दी के बाद फिर हुआ सिन्धी ब्लाग का पदार्पण.अब फोटो ब्लाग भी आ गया है.जितेन्दर की लिखने इस क्षमता देखकर मुझे
जलन होती है उनसे.इसी दौङधूप नुमा अंदाज के लिये मनोहर श्याम जोशी ने लिखा है-ये मे ले ,वो मे ले वोहू मे ले(इसमें लो,उसमें लो उसमें भी लो)
नवंबर माह में कुवैत में जाम और बिजली गुल के वावजूद लिखा.देह के बारे में फिर भारतीय संस्कृति के बारे में.चौपाल पर चर्चा हो चुकी
है इनकी.क्रिकेट के बारे में तो मेरा पन्ना बहुत उदार है.अक्सर कृपा कर देते हैं.विधानसभा में चप्पलबाजी पर जब लिखा तो मुझे लगा कि
शायद ये नेताओं की पीङा नहीं समझ पा रहे हैं.आखिर कब तक नेतागुंडे के भरोसे रहेगा? गुंडागर्दी में आत्मनिर्भरता की तरफ कदम है यह मारपीट.
मुझे धूमिल की कविता अनायास याद आ गयी:-
हमारे देश की संसद
तेली की वह घानी है
जिसमें आधा तेल है
आधा पानी है.
मेरा पन्ना में जब धुंआधार बैटिंग शुरु हुयी तो अंग्रेजी के वो शब्द मुझे अखरते थे जिनके प्रचलित हिंदी शब्द मौजूद हैं.इसके अलावा हर दूसरे वाक्य के बाद की बिन्दियां(.....)मुझे अखरती थीं.अब जब मैं सोचता हूं लो लगता है कि ये बिन्दियां उन तिलों की तरह हैं जो खूबसूरती में इजाफा करते हैं.पर यह सोच के डर भी लग रहा है कि ं यह पढकर चौधरी जी कहीं ज्यादा खूबसूरती के लालच में न पङ जायें.
मेरा पन्ना के लेखक की टिप्पणियों का रोचक इतिहास है.टिप्पणी को इन्वेस्टमेंट मानने वाले जीतू तारीफ में कंजूस नहीं है.शुरुआत में जो उदासीन टिप्पणी शून्य दौर झेला है इन्होंने ये नहीं चाहते कि कोई नया चिट्ठाकार वैसा अकेलापन झेले.अक्सर यह भी हुआ कि ब्लाग अभी मसौदा स्थिति (Draft Stage)में है पर उधर से जीतेन्द्र की वाह-वाह चली आ रही है.कई बार ऐसा हुआ टिप्पणी के मामले में कि
क्रिकेट कमेंन्टेटर की भाषा में कहें तो उसमें उत्साह अधिक और विश्वास कम था.अइसी जगहों में ये मेरा मतलब यह था या यह नहीं था कहकर
बचने की कोशिश करते हैं पर अम्पायर कब तक संदेह का लाभ देगा.
हालांकि कुछ लोगों का कहना है कि यह सलाह उछाल दो कि ब्लाग लिखने मे भले दिमाग का इस्तेमाल न करें पर टिप्पणी करते समय ध्यान रखना चाहिये.पर जब हमें याद आया कि ये महाराज तो ब्लाग पर टिप्पणी का महत्व जैसा कुछ लिख चुके हैं तब लगा बूढे तोते को राम-राम सिखाना ठीक न होगा.
यहां तक मामला ठीक था अब हमें लग रहा है कि थोङा ब्रम्हास्त्र का उपयोग जरूरी हो गया है.हिंदी चिटठा संसार में जीतेन्द्र के पन्ने का उदय धूमकेतु की तरह हुआ और छा गया.नयी चीजों को सीखने और अपनाने की ललक काबिले तारीफ है.जितेन्द्र का मेरा पन्ना हमारा ऐसा ही एक खूबसूरत पन्ना है .आशा है कि जीतेन्द्र तारीफ का बुरा नहीं मानेंगे.
लगातार अच्छा लिखते रहने के लिये जीतेन्द्र को मेरी मंगलकामनायें.
Sunday, November 28, 2004
Thursday, November 25, 2004
आत्मनिर्भरता की ओर
लिखने के तमाम बहानों का इस बीच खुलासा हो चुका है.एक और कारण श्रीलाल शुक्ल जी ने अपने एक लेख(मैं लिखता हूं इसलिये कि...)में बताया है:-
"लिखने का एक कारण मुरव्वत भी है.आपने गांव की सुंदरी की कहानी सुनी होगी .उसकी बदचलनी के किस्सों से आजिज आकर उसकी सहेली ने जब उसे फटकार लगाई तो उसने धीरे से समझाया-'क्या करूं बहन,जब लोग इतनी खुशामद करते हैं और हाथ पकङ लेते हैं तो मारे मुरव्वत के मुझसे नहीं नहीं करते बनती.तो बहुत सा लेखन इसी मुरव्वत का नतीजा है.सहयोगी और सम्पादक जब रचना का आग्रह करने लगते हैं तो कागज पर अच्छी रचना भले न उतरे ,वहां मुरव्वत की स्याही तो फैलती ही है."
अब जब मैंने यह पढा तो मेरी इस शंका का समाधान भी हो गया कि ठेलुहा नरेश तथाकथित ज्ञान प्राप्ति के बहाने केजी गुरु की तरफ काहे लपकते हैं.तथाकथित इसलिये लिखा क्योंकि जितना ज्ञान केजी गुरु से ये पाने की बात करते हैं उतना तो ये गुरुग्रह की तरफ लपकते हुये हर सांस में बाहर फेंक देते हैं प्रकृति की गोद में बिना पावती रसीद (acknowledgement)लिये.
हम अड्डेबाजी की असलियत जानने के लिये अपने उन आदमियों को लगा दिये जो वैसे तो किसी के नहीं होते पर लफङा अनुसंधान के लिये सारी दुनिया के होते हैं.जो रिपोर्ट मिली उसके अनुसार दो कारण समझ में आये अड्डेबाजी के:-
1.गुरुपत्नी का गुरु के साथ व्यवहार से उनको (ठेलुहा नरेश को)यह सुकून मिलता है कि ऐसा दुनिया मे सब पतियों के साथ होता है अकेले उन्हीं के साथ नहीं.
2.गुरुपत्नी से मिली तारीफ उनको यह खुशफहमी पालने का मौका देती है कि उनमें कुछ खास है जो दूसरों में नहीं.
दुनिया के सारे पति बराबर होते हैं पर कुछ पति ज्यादा बराबर होते हैं का झुनझुना थमा देती है केजी गुरु के घर की हर विजट इन्हें .इस मुरव्वत की चाहना में अपने मन की आवाज को अनसुना करके लपकते हैं ये तथाकथित ज्ञान की तलाश में.
हम भी मुरव्वत के मारे हैं.लोगों की तारीफ को सच मानकर या फिर जवाबी कीर्तन के फेर में पङकर हम जो लिख गये उसको जितनी बार हम पढते हैं उतनी बार गलतफहमी का शिकार होते हैं.हर बार मुग्धा नायिका की स्थिति को प्राप्त होते हैं जो अपने सौंदर्य पर खुद रीझती है. मुग्ध होती है खुद अपनी खूबसूरती के ऊपर .मेरे लिखे की तारीफ जब कोई करता है तो लगता है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं जितना लोग बताते हैं.अभी भी दुनिया में गुणग्राहकों की कमी नही है.
मेरे मित्र नीरज केला के पिताजी कहते हैं -" तारीफ दुनिया का सबसे बङा ब्रम्हास्त्र है.इसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.इसका वार कभी बेकार नहीं जाता सिर्फ आपको इसके प्रयोग की सही विधि पता होना चाहिये."
इस सूत्र वाक्य की सत्यता मैं कई बार परख चुका हूं.हर बार यह खरा उतरा.जिन अवसरों पर यह विफल रहा वहां खोज करने पर पता चला कि प्रयोगविधि में दोष था.सही विधि वैसे तो 'गूंगे का गुङ' है फिर भी बताने का प्रयास करता हूं.
आमतौर पर जिन गुणों की समाज में प्रतिष्ठा है वे आंख मींच कर किसी पर भी आरोपित कर दिये जायें तो उस 'किसी भी' का प्रभावित होना लाजिमी है.किसी भी महिला को खूबसूरत ,बुद्धिमती, पुरुष को स्मार्ट ,बुद्धिमान आदि कह दें तो काम भर का काम तो हो ही जाता है.कुछ लोग दूसरे गुणों की तारीफ भी चाहते हैं.इसमें सारी कलाकारी इस बात पर निर्भर करती है कि आप यह जान सकें कि तारीफ किस चीज की चाही जा रही है.चाहने और करने में जितना साम्य होगा ब्रम्हास्त्र का असर उतना ही सटीक होगा.जितना अंतर होगा मांग और पूर्ति में उतना ही कम असर होगा तारीफ का.
गङबङी तब होती है जब आप किसी सुंदरी की तारीफ में कसीदे काढ रहे होते हैं और वह चातक की तरह आपके मुंह की तरफ इस आशा से ताकती रहती है कि आप उसकी उस बुद्धि की तारीफ करें जिसने उस पर स्पर्श रेखा(Tangent) तक नहीं डाली.किसी कूढमगज व्यक्ति की स्मार्टनेस के बारे में कहे हजारों शब्द बेकार हैं अगर आपको उसकी इस इच्छा का पता नहीं कि वह अपनी त्वरित निर्णय क्षमता को अपना खास गुण मानता है.
देखा गया है कि लोग अपने उन गुणों की तारीफ के किये ज्यादा हुङकते हैं जो उनमें कम होता है या कभी-कभी होता ही नहीं.
तारीफ के इस हथियार की मारक क्षमता दोगुनी करने भी तरीके हैं.एक राजा के दरबार में एक कवि के किसी जघन्य अपराध की सजा मौत सुनायी गयी.राजा के मंत्री ने कहा-महाराज इसके अपराध की तुलना में मौत की सजा कम है.इसे और बङी सजा मिलनी चाहिये.राजा बोला-मौत से बङी और क्या सजा हो सकती है?मंत्री ने कहा -महाराज, हो सकती है.इस कवि के सामने दूसरे कवि कीतारीफ की जाये .यह सजा मौत की सजा से भी बङी सजा है किसी कवि के लिये.
आज का समय आत्म निर्भरता का है.हर समझदार अपने कार्यक्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की कोशिश करता है.नेता अब चुनाव जीतने के लिये गुंडे के भरोसे नहीं बैठा रहता.खुद गुंडागर्दी सीखता है ताकि किसी के सहारे न रहे. नेतागिरी केविश्वविद्धालयमें प्रवेश के लिये गुंडागर्दी के किंडरगार्डन की शिक्षा जरूरी हो गयी है.
आत्मनिर्भरता की इसी श्रंखला की एक कङी है-अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता(self reliance in self praise).लोग अब गुणग्राहक की प्रतीक्षा में अहिल्या की तरह राम का इंतजार नहीं करते.अपनी तारीफ खुद करना आज के सक्षम व्यक्ति का सबसे बङा हथियार है. मेरे एक मित्र अपना सारा समय यह बताने में गुजारते हैं कि उन्होने अपनी जिंदगी में कितने तीर मारे.चालीस साल का आदमी अपने पांच साल के कुछ कामों का बखान पूरे साठ साल करता है.खाली आत्मप्रसंशा को अपना पराक्रम समझता है.मैं डरने लगा हूं उसके पास जाने में.पर वह भी चालाक हो गया है.देखता हूं कि अपनी तारीफ का मंगलाचरण (शुरुआत)अब वह मेरी तारीफ से करता है.मैं मुरव्वत का मारा फिर सुनने पर मजबूर हो जाता हूं उसकी आत्मप्रसंशा.
किसी व्यक्ति की अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की मात्रा उसके नाकारेपन की मात्रा की समानुपाती होती है.जो जितना बङा नाकारा होगा वह अपनी तारीफ में उतना ही अधिक आत्मनिर्भर होगा.
इस कङी में तमाम बातें उदाहरण हैं.देखा गया है कि गंुडे अपनी शराफत की,बेईमान अपनी ईमानदारी की , हरामखोर अपनी कर्तव्य निष्ठा की तारीफ करते रंगे हाथ पकङे जाते है. सच्चा ज्ञानी अपने ज्ञान की ध्वजा नहीं फहराता .लोग खुद उसके मुरीद होते जाते हैं.बुद्धिमान अपनी बुद्धि की तारीफ में बुद्धि नहीं खराब करता.जब इन गुणों का अभाव होता है तो लोग क्षतिपूर्ति के लिये तारीफ में आत्मनिर्भरता की डगर पर कदम रखते हैं.जैसे बुढापे में लोग वियाग्रा का प्रयोग करने लगते हैं.जवान लोगों को वियाग्रा की जरूरत नहीं पङती.
आज जब मैं यह लिख रहा था तो एक मित्र का फोन आ गया.मैंने उनको अपने सारे पुराने लेख पढ कर सुनाने शुरु किये.कुछ देर बाद मेरे लङके ने टोका -पापा आप फोन हाथ में किये क्यों पढ रहे है ? मैंने बताया फोन पर अपने दोस्त को अपना लिखा सुना रहा हूं.उसके पास पीसी नहीं है.मेरे लङके ने बताया -पर फोन तो मेरे दोस्त का आया था.आधा घंटा पहले.मैंने पैरालल(समातंर)लाइन पर बात करके फोन रख दिया था.मैंने देखा फोन जिसको मैं हाथ में पकङे था उसमें डायलटोन बज रही थी.
मुझे लगा हम मुग्धानायिका की स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं.
मेरी पसंद
आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.
बहके हुये समंदर
मन के ज्वार निकाल रहे
दरकी हुई शिलाओं में
खारापन डाल रहे
मूल्य पङे हैं बिखरे जैसे
शीशे के टुकङे.
अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें ऐसे करें गवाही
जैसे परदेसी
सरेआम नीलाम रोशनी
ऊंचे भाव चढे.
नजरों के ओछेपन
जब इतिहास रचाते हैं
पिटे हुये मोहरे
पन्ना-पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर पहरे तगङे
आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भारी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.
कन्हैयालाल नंदन
"लिखने का एक कारण मुरव्वत भी है.आपने गांव की सुंदरी की कहानी सुनी होगी .उसकी बदचलनी के किस्सों से आजिज आकर उसकी सहेली ने जब उसे फटकार लगाई तो उसने धीरे से समझाया-'क्या करूं बहन,जब लोग इतनी खुशामद करते हैं और हाथ पकङ लेते हैं तो मारे मुरव्वत के मुझसे नहीं नहीं करते बनती.तो बहुत सा लेखन इसी मुरव्वत का नतीजा है.सहयोगी और सम्पादक जब रचना का आग्रह करने लगते हैं तो कागज पर अच्छी रचना भले न उतरे ,वहां मुरव्वत की स्याही तो फैलती ही है."
अब जब मैंने यह पढा तो मेरी इस शंका का समाधान भी हो गया कि ठेलुहा नरेश तथाकथित ज्ञान प्राप्ति के बहाने केजी गुरु की तरफ काहे लपकते हैं.तथाकथित इसलिये लिखा क्योंकि जितना ज्ञान केजी गुरु से ये पाने की बात करते हैं उतना तो ये गुरुग्रह की तरफ लपकते हुये हर सांस में बाहर फेंक देते हैं प्रकृति की गोद में बिना पावती रसीद (acknowledgement)लिये.
हम अड्डेबाजी की असलियत जानने के लिये अपने उन आदमियों को लगा दिये जो वैसे तो किसी के नहीं होते पर लफङा अनुसंधान के लिये सारी दुनिया के होते हैं.जो रिपोर्ट मिली उसके अनुसार दो कारण समझ में आये अड्डेबाजी के:-
1.गुरुपत्नी का गुरु के साथ व्यवहार से उनको (ठेलुहा नरेश को)यह सुकून मिलता है कि ऐसा दुनिया मे सब पतियों के साथ होता है अकेले उन्हीं के साथ नहीं.
2.गुरुपत्नी से मिली तारीफ उनको यह खुशफहमी पालने का मौका देती है कि उनमें कुछ खास है जो दूसरों में नहीं.
दुनिया के सारे पति बराबर होते हैं पर कुछ पति ज्यादा बराबर होते हैं का झुनझुना थमा देती है केजी गुरु के घर की हर विजट इन्हें .इस मुरव्वत की चाहना में अपने मन की आवाज को अनसुना करके लपकते हैं ये तथाकथित ज्ञान की तलाश में.
हम भी मुरव्वत के मारे हैं.लोगों की तारीफ को सच मानकर या फिर जवाबी कीर्तन के फेर में पङकर हम जो लिख गये उसको जितनी बार हम पढते हैं उतनी बार गलतफहमी का शिकार होते हैं.हर बार मुग्धा नायिका की स्थिति को प्राप्त होते हैं जो अपने सौंदर्य पर खुद रीझती है. मुग्ध होती है खुद अपनी खूबसूरती के ऊपर .मेरे लिखे की तारीफ जब कोई करता है तो लगता है कि दुनिया उतनी बुरी नहीं जितना लोग बताते हैं.अभी भी दुनिया में गुणग्राहकों की कमी नही है.
मेरे मित्र नीरज केला के पिताजी कहते हैं -" तारीफ दुनिया का सबसे बङा ब्रम्हास्त्र है.इसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.इसका वार कभी बेकार नहीं जाता सिर्फ आपको इसके प्रयोग की सही विधि पता होना चाहिये."
इस सूत्र वाक्य की सत्यता मैं कई बार परख चुका हूं.हर बार यह खरा उतरा.जिन अवसरों पर यह विफल रहा वहां खोज करने पर पता चला कि प्रयोगविधि में दोष था.सही विधि वैसे तो 'गूंगे का गुङ' है फिर भी बताने का प्रयास करता हूं.
आमतौर पर जिन गुणों की समाज में प्रतिष्ठा है वे आंख मींच कर किसी पर भी आरोपित कर दिये जायें तो उस 'किसी भी' का प्रभावित होना लाजिमी है.किसी भी महिला को खूबसूरत ,बुद्धिमती, पुरुष को स्मार्ट ,बुद्धिमान आदि कह दें तो काम भर का काम तो हो ही जाता है.कुछ लोग दूसरे गुणों की तारीफ भी चाहते हैं.इसमें सारी कलाकारी इस बात पर निर्भर करती है कि आप यह जान सकें कि तारीफ किस चीज की चाही जा रही है.चाहने और करने में जितना साम्य होगा ब्रम्हास्त्र का असर उतना ही सटीक होगा.जितना अंतर होगा मांग और पूर्ति में उतना ही कम असर होगा तारीफ का.
गङबङी तब होती है जब आप किसी सुंदरी की तारीफ में कसीदे काढ रहे होते हैं और वह चातक की तरह आपके मुंह की तरफ इस आशा से ताकती रहती है कि आप उसकी उस बुद्धि की तारीफ करें जिसने उस पर स्पर्श रेखा(Tangent) तक नहीं डाली.किसी कूढमगज व्यक्ति की स्मार्टनेस के बारे में कहे हजारों शब्द बेकार हैं अगर आपको उसकी इस इच्छा का पता नहीं कि वह अपनी त्वरित निर्णय क्षमता को अपना खास गुण मानता है.
देखा गया है कि लोग अपने उन गुणों की तारीफ के किये ज्यादा हुङकते हैं जो उनमें कम होता है या कभी-कभी होता ही नहीं.
तारीफ के इस हथियार की मारक क्षमता दोगुनी करने भी तरीके हैं.एक राजा के दरबार में एक कवि के किसी जघन्य अपराध की सजा मौत सुनायी गयी.राजा के मंत्री ने कहा-महाराज इसके अपराध की तुलना में मौत की सजा कम है.इसे और बङी सजा मिलनी चाहिये.राजा बोला-मौत से बङी और क्या सजा हो सकती है?मंत्री ने कहा -महाराज, हो सकती है.इस कवि के सामने दूसरे कवि कीतारीफ की जाये .यह सजा मौत की सजा से भी बङी सजा है किसी कवि के लिये.
आज का समय आत्म निर्भरता का है.हर समझदार अपने कार्यक्षेत्र में आत्मनिर्भर होने की कोशिश करता है.नेता अब चुनाव जीतने के लिये गुंडे के भरोसे नहीं बैठा रहता.खुद गुंडागर्दी सीखता है ताकि किसी के सहारे न रहे. नेतागिरी केविश्वविद्धालयमें प्रवेश के लिये गुंडागर्दी के किंडरगार्डन की शिक्षा जरूरी हो गयी है.
आत्मनिर्भरता की इसी श्रंखला की एक कङी है-अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता(self reliance in self praise).लोग अब गुणग्राहक की प्रतीक्षा में अहिल्या की तरह राम का इंतजार नहीं करते.अपनी तारीफ खुद करना आज के सक्षम व्यक्ति का सबसे बङा हथियार है. मेरे एक मित्र अपना सारा समय यह बताने में गुजारते हैं कि उन्होने अपनी जिंदगी में कितने तीर मारे.चालीस साल का आदमी अपने पांच साल के कुछ कामों का बखान पूरे साठ साल करता है.खाली आत्मप्रसंशा को अपना पराक्रम समझता है.मैं डरने लगा हूं उसके पास जाने में.पर वह भी चालाक हो गया है.देखता हूं कि अपनी तारीफ का मंगलाचरण (शुरुआत)अब वह मेरी तारीफ से करता है.मैं मुरव्वत का मारा फिर सुनने पर मजबूर हो जाता हूं उसकी आत्मप्रसंशा.
किसी व्यक्ति की अपनी तारीफ में आत्मनिर्भरता की मात्रा उसके नाकारेपन की मात्रा की समानुपाती होती है.जो जितना बङा नाकारा होगा वह अपनी तारीफ में उतना ही अधिक आत्मनिर्भर होगा.
इस कङी में तमाम बातें उदाहरण हैं.देखा गया है कि गंुडे अपनी शराफत की,बेईमान अपनी ईमानदारी की , हरामखोर अपनी कर्तव्य निष्ठा की तारीफ करते रंगे हाथ पकङे जाते है. सच्चा ज्ञानी अपने ज्ञान की ध्वजा नहीं फहराता .लोग खुद उसके मुरीद होते जाते हैं.बुद्धिमान अपनी बुद्धि की तारीफ में बुद्धि नहीं खराब करता.जब इन गुणों का अभाव होता है तो लोग क्षतिपूर्ति के लिये तारीफ में आत्मनिर्भरता की डगर पर कदम रखते हैं.जैसे बुढापे में लोग वियाग्रा का प्रयोग करने लगते हैं.जवान लोगों को वियाग्रा की जरूरत नहीं पङती.
आज जब मैं यह लिख रहा था तो एक मित्र का फोन आ गया.मैंने उनको अपने सारे पुराने लेख पढ कर सुनाने शुरु किये.कुछ देर बाद मेरे लङके ने टोका -पापा आप फोन हाथ में किये क्यों पढ रहे है ? मैंने बताया फोन पर अपने दोस्त को अपना लिखा सुना रहा हूं.उसके पास पीसी नहीं है.मेरे लङके ने बताया -पर फोन तो मेरे दोस्त का आया था.आधा घंटा पहले.मैंने पैरालल(समातंर)लाइन पर बात करके फोन रख दिया था.मैंने देखा फोन जिसको मैं हाथ में पकङे था उसमें डायलटोन बज रही थी.
मुझे लगा हम मुग्धानायिका की स्थिति को प्राप्त हो चुके हैं.
मेरी पसंद
आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भरी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.
बहके हुये समंदर
मन के ज्वार निकाल रहे
दरकी हुई शिलाओं में
खारापन डाल रहे
मूल्य पङे हैं बिखरे जैसे
शीशे के टुकङे.
अंधकार की पंचायत में
सूरज की पेशी
किरणें ऐसे करें गवाही
जैसे परदेसी
सरेआम नीलाम रोशनी
ऊंचे भाव चढे.
नजरों के ओछेपन
जब इतिहास रचाते हैं
पिटे हुये मोहरे
पन्ना-पन्ना भर जाते हैं
बैठाये जाते हैं
सच्चों पर पहरे तगङे
आंखों में रंगीन नजारे
सपने बङे-बङे
भारी धार लगता है जैसे
बालू बीच खङे.
कन्हैयालाल नंदन
Thursday, November 18, 2004
कविता का जहाज और उसका कुतुबनुमा
हम कल से अपराध बोध के शिकार हैं.अलका जी की कविता जहाज पर हमारी टिप्पणी के कारण पंकज भाई जैसा शरीफ इंसान चिट्ठा दर चिट्ठा टहल रहा है.कहीं माफी मांग रहा है.कहीं अपने कहे का मतलब समझा रहा है. हमें लगा काश यह धरती फट जाती .हम उसमें समा जाते.पर अफसोस ऐसा कुछ न हुआ.हो भी जाता तो कुछ फायदा न होता काहे से कि जब यह सुविचार मेरे मन में आया तब हम पांचवीं मंजिल पर थे.फर्श फटता भी तो अधिक से अधिक चौथी मंजिल तक आ पाते.धरती में समाने तमन्ना न पूरी होती.
अपराध बोध दूर करने का एक तरीका तो यह है कि क्षमायाचना करके मामला रफा-दफा कर लिया जाये.शरीफों के अपराधबोध दूर करने का यह शर्तिया इलाज है.पर यह सरल-सुगम रास्ता हमारे जैसे ठेलुहा स्कूल आफ थाट घराने के लोगों को रास नहीं आता.जहां किसी भी अपराधबोध से मुक्ति का एक ही उपाय है,वह है किसी बङे अपराधबोध की शरण में जाना(जैसे छुटभैये गुंडे से बचाव के लिये बङे गुंडे की शरण में जाना) ताकि छोटा अपराधबोध हीनभावना का शिकार होकर दम तोङ दे.
चूंकि सारा लफङा कविता के अनुवाद में कमी बताने को लेकर रहा सो अपराधबोध से मुक्ति के उपाय भी कविता के आसपास ही मिलने की संभावना नजर आयी.कुछ उपाय जो मुझे सूझे :-
1.कविता का और बेहतर अनुवाद किया जाये.
2.एक धांसू कविता अंग्रजी में लिखी जाये.
3.एक और धांसू तारीफ की टिप्पणी कविता के बारे में की जाये.
4.कविता के दोष खोजे-बताये जायें.
पहले तीनों उपाय हमें तुरन्त खारिज कर देने पङे.दीपक जी ने कविता के अनुवाद को बेहतर करने की कोई गुंजाइश छोङी नहीं हमारे लिये. अंग्रेजी हमारी हमीं को नहीं समझ आती तो दूसरे क्या बूझेंगे हमारी अंग्रजी कविता. टिप्पणी वैसे ही 29 हो चुकीं कविता पर अब 30 वीं करने से क्या फायदा?सिवाय संख्या वृद्धि के.इसलिये कविता में कमी बताने का विकल्प हमें सबसे बेहतर लगा.चूंकि कविता की तारीफ काफी हो चुकी इसलिये संतुलन के लियेआलोचना भी जरूरी है.(जैसा मकबूल पिक्चर में ओमपुरी कहते हैं).'द शिप' कविता एक प्रेम कविता है.इसकी पहली दो लाइने हैं:-
बाहों के उसके दायरे में
लगती हूँ,ज्यूँ मोती सीप में
इसके अलावा कविता में कश्ती,साहिल,सीना,धङकन,जलते होंठ,अनंत यात्रा जैसे बिम्ब हैं जो यह बताते हैं कि यह एक प्रेम कविता है.अब चूंकि इसकी तारीफ बहुत लोग कर चुके हैं सो हम भी करते हैं(खासतौर पर यात्रा ही मंजिल है वाले भाव की).आलोचना की शुरुआत करने का यह सबसे मुफीद तरीका है.
कविता की दूसरी पंक्ति का भाव पूरी कविता के भाव से मेल नहीं खाता.बेमेल है यह.पूरी कविता प्रेम की बात कहती है.प्रेम ,जिसमें सीना,धङकन,जलते होंठ हैं ,दो युवा नर-नारी के बीच की बात है.जबकि दूसरी पंक्ति (सीप में मोती)में मां-बेटी के संबंध हैं.सीप से मोती पैदा होता है.यह संबंध वात्सल्य का होता है.हालांकि प्रेमी -प्रेमिका के बीच वात्सल्य पूर्ण संबंधपर कोई अदालती स्टे तो नहीं है पर बाहों के घेरे में जाकर वात्सल्य की बात करना समय का दुरुपयोग लगता है.खासकर तब और जब आगे सीना,साहिल,गर्म होंठ जैसे जरूरी काम बाकी हों.
चूंकि अलका जी ने यह कविता जो मन में आया वैसा लिख दिया वाले अंदाज में लिखी है.स्वत:स्फूर्त है यह.ऐसे में ये अपेक्षा रखना ठीक नहीं कि सारे बिम्ब ठोक बजाकर देखे जायें.पर यह कविता एक दूसरे नजरिये से भी विचारणीय है.अलका जी की कविता के माध्यम से यह पता चलता है कि आज की नारी अपने प्रेमी में क्या खोजती है.वह आज भी बाहों के घेरे रहना चाहती है और सीप की मोती बनी रहना चाहती है. पुरुष का संरक्षण चाहती है.उसकी छाया में रहना चाहती है.यह अनुगामिनी प्रवृत्ति है.सहयोगी, बराबरी की प्रवृत्ति नहीं है.
इस संबंध में यह उल्लेख जरूरी है आम प्रेमी भी यह चाहता है कि वह अपनी प्रेमिका को संरक्षण दे सके.इस चाहत के कारण उन नायिकाओं की पूंछ बढ जाती जो बात-बात पर प्रेमी के बाहों के घेरे में आ जायें और फिर सीने में मुंह छिपा लें.अगर थोङी अल्हङ बेवकूफी भी हो तो सोने में सुहागा.अनगिनत किस्से हैं इस पर. फिल्म मुगलेआजम में अनारकली एक कबूतर उङा देती है.सलीम पूछता है-कैसे उङ गया कबूतर ?इस पर वह दूसरा कबूतर भी उङाकर कहती है -ऐसे.अब सलीम के पास कोई चारा नहीं बचता सिवाय अनारकली की अल्हङता पर फिदा होने के.
मेरे यह मत सिर्फ कविता 'द शिप' के संदर्भ में हैं.अलका जी के बारे में या उनकी दूसरी कविताओं के संबंध में नहीं हैं.आशा है मेरे विचार सही संदर्भ में लिये जायेंगे.
यह लिख कर मैं पंकज जी के प्रति अपराध बोध से अपने को मुक्त पा रहा हूं.बङा अपराध कर दिया .बोध की प्रतीक्षा है.
मेरी पसंद
(कच-देवयानी प्रसंग)
असुरों के गुरु शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या आती आती थी.इसके प्रयोग से वे देवता-असुर युद्ध में मरे असुरों को जिला देते थे.इस तरह असुरों की स्थिति मजबूत हो रही थी .देवताओं की कमजोर.देवताओं ने अपने यहां से कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिये भेजा.कच नेअपने आचरण से शुक्राचार्य को प्रभावित किया और काफी विद्यायें सीख लीं.
असुरों को भय लगा कि कहीं शुक्राचार्य कच को संजीवनी विद्या भी न सिखा दें.इसलिये असुरों ने कच को मार डाला. इस बीच शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी कच को प्यार करने लगी थी .सो उसके अनुरोध पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का प्रयोग करके कच को जीवित कर दिया.असुरों ने कच से छुटकारे का नया उपाय खोजा. शुक्राचार्य को शराब बहुत प्रिय थी.असुरों ने कच को मार कर जला दिया और राख को शराब में मिलाकर शुक्राचार्य को पिलादिया.कच ने शुक्राचार्य के मर्म में स्थित संजीवनी विद्या ग्रहण कर ली और पुन: जीवित हो गया.
जीवित होने के बाद देवयानी ने अपने प्रेम प्रसंग को आगे बढाना चाहा.पर कच ने यह कहकर इंकार कर दिया --मैं तुम्हारे पिता के उदर(पेट) में रहा अत: हम तुम भाई-बहन हुये .इसलिये यह प्रेम संबंध अब अनुचित है.यह कहकर कच संजीवनी विद्या के ज्ञान के साथ देवताओं के पास चला गया.
बाद में देवयानी का विवाह राजा ययाति से हुआ.
(संदर्भ-ययाति.लेखक-विष्णु सखाराम खाण्डेकर)
अपराध बोध दूर करने का एक तरीका तो यह है कि क्षमायाचना करके मामला रफा-दफा कर लिया जाये.शरीफों के अपराधबोध दूर करने का यह शर्तिया इलाज है.पर यह सरल-सुगम रास्ता हमारे जैसे ठेलुहा स्कूल आफ थाट घराने के लोगों को रास नहीं आता.जहां किसी भी अपराधबोध से मुक्ति का एक ही उपाय है,वह है किसी बङे अपराधबोध की शरण में जाना(जैसे छुटभैये गुंडे से बचाव के लिये बङे गुंडे की शरण में जाना) ताकि छोटा अपराधबोध हीनभावना का शिकार होकर दम तोङ दे.
चूंकि सारा लफङा कविता के अनुवाद में कमी बताने को लेकर रहा सो अपराधबोध से मुक्ति के उपाय भी कविता के आसपास ही मिलने की संभावना नजर आयी.कुछ उपाय जो मुझे सूझे :-
1.कविता का और बेहतर अनुवाद किया जाये.
2.एक धांसू कविता अंग्रजी में लिखी जाये.
3.एक और धांसू तारीफ की टिप्पणी कविता के बारे में की जाये.
4.कविता के दोष खोजे-बताये जायें.
पहले तीनों उपाय हमें तुरन्त खारिज कर देने पङे.दीपक जी ने कविता के अनुवाद को बेहतर करने की कोई गुंजाइश छोङी नहीं हमारे लिये. अंग्रेजी हमारी हमीं को नहीं समझ आती तो दूसरे क्या बूझेंगे हमारी अंग्रजी कविता. टिप्पणी वैसे ही 29 हो चुकीं कविता पर अब 30 वीं करने से क्या फायदा?सिवाय संख्या वृद्धि के.इसलिये कविता में कमी बताने का विकल्प हमें सबसे बेहतर लगा.चूंकि कविता की तारीफ काफी हो चुकी इसलिये संतुलन के लियेआलोचना भी जरूरी है.(जैसा मकबूल पिक्चर में ओमपुरी कहते हैं).'द शिप' कविता एक प्रेम कविता है.इसकी पहली दो लाइने हैं:-
बाहों के उसके दायरे में
लगती हूँ,ज्यूँ मोती सीप में
इसके अलावा कविता में कश्ती,साहिल,सीना,धङकन,जलते होंठ,अनंत यात्रा जैसे बिम्ब हैं जो यह बताते हैं कि यह एक प्रेम कविता है.अब चूंकि इसकी तारीफ बहुत लोग कर चुके हैं सो हम भी करते हैं(खासतौर पर यात्रा ही मंजिल है वाले भाव की).आलोचना की शुरुआत करने का यह सबसे मुफीद तरीका है.
कविता की दूसरी पंक्ति का भाव पूरी कविता के भाव से मेल नहीं खाता.बेमेल है यह.पूरी कविता प्रेम की बात कहती है.प्रेम ,जिसमें सीना,धङकन,जलते होंठ हैं ,दो युवा नर-नारी के बीच की बात है.जबकि दूसरी पंक्ति (सीप में मोती)में मां-बेटी के संबंध हैं.सीप से मोती पैदा होता है.यह संबंध वात्सल्य का होता है.हालांकि प्रेमी -प्रेमिका के बीच वात्सल्य पूर्ण संबंधपर कोई अदालती स्टे तो नहीं है पर बाहों के घेरे में जाकर वात्सल्य की बात करना समय का दुरुपयोग लगता है.खासकर तब और जब आगे सीना,साहिल,गर्म होंठ जैसे जरूरी काम बाकी हों.
चूंकि अलका जी ने यह कविता जो मन में आया वैसा लिख दिया वाले अंदाज में लिखी है.स्वत:स्फूर्त है यह.ऐसे में ये अपेक्षा रखना ठीक नहीं कि सारे बिम्ब ठोक बजाकर देखे जायें.पर यह कविता एक दूसरे नजरिये से भी विचारणीय है.अलका जी की कविता के माध्यम से यह पता चलता है कि आज की नारी अपने प्रेमी में क्या खोजती है.वह आज भी बाहों के घेरे रहना चाहती है और सीप की मोती बनी रहना चाहती है. पुरुष का संरक्षण चाहती है.उसकी छाया में रहना चाहती है.यह अनुगामिनी प्रवृत्ति है.सहयोगी, बराबरी की प्रवृत्ति नहीं है.
इस संबंध में यह उल्लेख जरूरी है आम प्रेमी भी यह चाहता है कि वह अपनी प्रेमिका को संरक्षण दे सके.इस चाहत के कारण उन नायिकाओं की पूंछ बढ जाती जो बात-बात पर प्रेमी के बाहों के घेरे में आ जायें और फिर सीने में मुंह छिपा लें.अगर थोङी अल्हङ बेवकूफी भी हो तो सोने में सुहागा.अनगिनत किस्से हैं इस पर. फिल्म मुगलेआजम में अनारकली एक कबूतर उङा देती है.सलीम पूछता है-कैसे उङ गया कबूतर ?इस पर वह दूसरा कबूतर भी उङाकर कहती है -ऐसे.अब सलीम के पास कोई चारा नहीं बचता सिवाय अनारकली की अल्हङता पर फिदा होने के.
मेरे यह मत सिर्फ कविता 'द शिप' के संदर्भ में हैं.अलका जी के बारे में या उनकी दूसरी कविताओं के संबंध में नहीं हैं.आशा है मेरे विचार सही संदर्भ में लिये जायेंगे.
यह लिख कर मैं पंकज जी के प्रति अपराध बोध से अपने को मुक्त पा रहा हूं.बङा अपराध कर दिया .बोध की प्रतीक्षा है.
मेरी पसंद
(कच-देवयानी प्रसंग)
असुरों के गुरु शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या आती आती थी.इसके प्रयोग से वे देवता-असुर युद्ध में मरे असुरों को जिला देते थे.इस तरह असुरों की स्थिति मजबूत हो रही थी .देवताओं की कमजोर.देवताओं ने अपने यहां से कच को शुक्राचार्य के पास संजीवनी विद्या सीखने के लिये भेजा.कच नेअपने आचरण से शुक्राचार्य को प्रभावित किया और काफी विद्यायें सीख लीं.
असुरों को भय लगा कि कहीं शुक्राचार्य कच को संजीवनी विद्या भी न सिखा दें.इसलिये असुरों ने कच को मार डाला. इस बीच शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी कच को प्यार करने लगी थी .सो उसके अनुरोध पर शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का प्रयोग करके कच को जीवित कर दिया.असुरों ने कच से छुटकारे का नया उपाय खोजा. शुक्राचार्य को शराब बहुत प्रिय थी.असुरों ने कच को मार कर जला दिया और राख को शराब में मिलाकर शुक्राचार्य को पिलादिया.कच ने शुक्राचार्य के मर्म में स्थित संजीवनी विद्या ग्रहण कर ली और पुन: जीवित हो गया.
जीवित होने के बाद देवयानी ने अपने प्रेम प्रसंग को आगे बढाना चाहा.पर कच ने यह कहकर इंकार कर दिया --मैं तुम्हारे पिता के उदर(पेट) में रहा अत: हम तुम भाई-बहन हुये .इसलिये यह प्रेम संबंध अब अनुचित है.यह कहकर कच संजीवनी विद्या के ज्ञान के साथ देवताओं के पास चला गया.
बाद में देवयानी का विवाह राजा ययाति से हुआ.
(संदर्भ-ययाति.लेखक-विष्णु सखाराम खाण्डेकर)
Sunday, November 14, 2004
`भारतीय संस्कृति क्या है
जबसे पंकज ने पूंछा-भारतीय संस्कृति क्या है तबसे हम जुट गये पढने में.सभ्यता,संस्कृति क्या है .भारतीय संस्कृति और सभ्यता के बारे में जितना इन दो दिनों में हम पढ गये उतना अगर हम समय पर पढ लिये होते तो शायद आज किसी वातानुकूलित मठ में बैठे अपना लोक और भक्तों का परलोक सुधार रहे होते.पर क्या करें जब भक्तों का परलोक सुधरना नहीं बदा है उनके भाग्य में तो हम क्या कर सकते हैं?
संस्कृति की बात करें तो सभ्यता का भी जिक्र आ ही जाता है.सभ्यता और संस्कृति की परस्पर क्रिया -प्रतिक्रिया होती है और दोनो एक-दूसरे को प्रभावित भी करती हैं.
यह माना जाता है कि सभ्यता बाहरी उपलब्धि है और संस्कृति आन्तरिक.मनुष्य ने अपने सुख-साधन के लिये जो निर्मित किया वह सभ्यता है.इसमें मकान से लेकर महल और बैलगाङी से लेकर हवाईजहाज हैं.सुख की सामग्री है.
परंतु मनुष्य केवल बाहरी सुख-साधनों से संतुष्ट नहीं होता.वह मंगलमय जीवन मूल्यों को ग्रहण करना चाहता है.दया,प्रेम,सहानुभूति तथा दूसरे की मंगलकामना है.यह उदात्त है .इसमें सौन्दर्य की चाह है.यह संस्कृति है.
नेहरूजीने लिखा है-संस्कृति की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती.संस्कृति के लक्षण देखे जा सकते हैं.हर जाति अपनी संस्कृति को विशिष्ट मानती है.संस्कृति एक अनवरत मूल्यधारा है.यह जातियों के आत्मबोध से शुरु होती है और इस मुख्यधारा में संस्कृति की दूसरी धारायें मिलती जाती हैं.उनका समन्वय होता जाता है.इसलिये किसी जाति या देश की संस्कृति उसी मूल रूप में नहीं रहती बल्कि समन्वय से वह और अधिक संपन्न और व्यापक हो जाती है.
भारतीय संस्कृति के बारे में जब बात होती है तो उसकी प्रस्तावना काफी कुछ इस श्लोक में मिलती है:-
सर्वे भवन्ति सुखिन:,सर्वे सन्तु निरामया,
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु,मा कश्चिद् दुखभाग् भवेत्.
सब सुखी हों,सभी निरोग हों,किसी को कोई कष्ट न हो.यह लोककल्याण की भावना भारतीय संस्कृति का प्राण तत्व है.पर देखा जाये तो सभी संस्कृतियां किसी न किसी रूप में लोककल्याण की बात करती हैं.फिर ऐसी क्या विशेष बात है भारतीय संस्कृति में?नेहरूजी अनुसार -समन्वय की भीतरी उत्सुकता भारतीय संस्कृति की खास विशेषता रही है.
आर्य जब भारत आये तो वे विजेता थे.तब यहां द्रविङ(उन्नत सभ्यता)और आदिवासी (आदिम अवस्था)थे.समय लगा पर आर्यों-द्रविङों में समन्वय हुआ .दोनों ने एक दूसरे के देवताओं और अनेक दूसरे तत्वों को अपना लिया.समन्वय की यह परंपरा तब से लगातार कायम है.तब से अनेक जातियां भारत आईं.कुछ हमला करने और लूटने और कुछ यहीं बस जाने.कुछ व्यापार के बहाने आये तो कुछ ज्ञान की खोज में. ग्रीक, शक, हूण, तुर्क, मुसलमान,अंग्रेज आदि -इत्यादि आये.रहे.कुछ लिया,कुछ दिया.कुछ सीखा कुछ सिखाया.जो आये वे यहीं रह गये.किसी जाति में समा गये.
जिस समय मारकाट चरम पर था उसी समय सूफी-संत प्रेम की अलख जगा रहे थे.धार्मिक कट्टरता को मेलजोल, भाईचारे,मानवतावाद , सदाचरण में बदलने की कोशिश की.अमीर खुसरो ने फारसी के साथ भारतीय लोक भाषा में लिखा:-
खुसरो रैन सुहाग की जागी पी के संग,
तन मेरो मन पीउ को दोऊ भये एक रंग.
यह समन्वय की प्रवत्ति ही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.यह वास्तव में लोक संस्कृति है.वह लोक में पैदा होती है और लोक में व्याप्त होती है.यह सामान्य जन की संस्कृति होती है-मुट्ठी भर अभिजात वर्ग की दिखावट नहीं.
जब संस्कृतियों की बात चलती है तो उनके लक्षणों की तुलना होती है.कहते हैं भारतीय संस्कृति त्याग की संस्कृति है जबकि पश्चिमी संस्कृति भोग की संस्कृति है.लोककल्याण की भावना हमारी विशेषता है, आत्मकल्याण की भावना उनकी आदत.यह सरलीकरण करके हम अपनी संस्कृति के और अपने को महान साबित कर लेते हैं. स्वतंत्रता,समानता और खुलापन पश्चिमी संस्कृति के मूल तत्व है.हमारे लिये ये तत्व भले नये न हों पर जिस मात्रा में वहां खुलापन है वह हमें चकाचौंध और नये लोगों को शर्मिन्दगी का अहसास कराता है-क्या घटिया हरकतें करते हैं ये ससुरे.फिर कालान्तर में वही घटिया हरकतें पता नही कैसे हमारी जीवन पद्धति बन जाती है ,पता नहीं चलता.इस आत्मसात होने में कुछ तत्वों का रूप परिवर्तन होता है.यही समन्वय है.तो देखा जाये तो हर संस्कृति में समन्वय की भावना रहती है.
अमेरिका की तो सारी संस्कृति समन्वय की है.पर मूल तत्व की बात करें तो यह दूसरों के प्रति असहिष्णुता की संस्कृति है.अमेरिका में जब अंग्रेज आये तो यहां के मूल निवासियों (रेड इंडियन) को मारा,बरबाद कर दिया. रेड इंडियन उतने सक्षम ,उन्नत नहीं थे कि मुकाबला कर पाते (जैसा भारत में द्रविङों ने आर्यों का किया होगा). मिट गये.यह दूसरों के प्रति सहिष्णुता का भाव अमेरिकी संस्कृति का मूल भाव हो गया. जो हमारे साथ नहीं है वह दुश्मनों के साथ है यह अपने विरोध सहन न कर पाने की कमजोरी है.यह डरे की संस्कृति है .जो डरता है वही डराता है.
यह छुई-मुई संस्कृति है.हजारों परमाणु बम रखे होने बाद भी जो देश किसी दूसरे के यहां रखे बारूद से होने के डर से हमला करके उसे बरबाद कर दे.उससे अधिक छुई-मुई संस्कृति और क्या हो सकती है?
भोग की प्रवत्ति के बारे में तो लोग कहते हैं भोग की बातें वही करेंगे जिनका पेट भरा हो.जो सभ्यतायें उन्नत हैं .रोटी-पानी की चिन्ता से मुक्त है जो समाज वो भोग की तरफ रुख करेगा.रोमन सभ्यता जब चरम पर थी तो वहां लोग गुलामों(ग्लैडियेटर्स)को तब तक लङाते थे जब तक दो गुलामों में से एक की मौत नहीं हो जाती थी. रोमन महिलायें नंगे गुलामों को लङते मरते देखती थीं.इससे यौन तुष्टि ,आनन्द प्राप्त करती थीं.सभ्यता के चरम पर यह रोम की संस्कृति के पतनशील तत्व थे.बाद में उन्हीं गुलामों ने रोम साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया.
खुलेपन के नामपर नंगापन बढने की प्रवत्ति के बारे में रसेल महोदय ने कहा है:-जब कोई देश सभ्यता के शिखर पर पहुंच जाता है तब उस देश की स्त्रियों की काम- लिप्सा में वृद्धि होती है और इसके साथ ही राष्ट्र का अध:पतन प्रारम्भ हो जाता है.इस समय अमेरिकन स्त्रियों में यह काम-लोलुपता अधिक दृष्टिगोचर होती है और 35 से 40 वर्ष की अवस्था की अमेरिकन स्त्री वेश्या का जीवन ग्रहण करना चाहती है ,जिससे उसकी कामपिपासा शान्त हो सके.
हम खुश हो के सारे विकसित देशों के लिये कह सकते हैं- इसकी तो गई.पर हम अपने यहां देखें क्या हो रहा है.हम पुराने आदर्शों को नये चश्में से देख रहे है.तुलसीदास ने उत्तम नारी के गुण बताये हैं:-
उत्तम कर अस बस मन माहीं,
सपनेंहु आन पुरुष जग नाहीं .
उत्तम नारी सपने में भी पराये पुरुष के बारे में नहीं सोचती. आज की जरूरतें बदली हैं.लिहाजा हमने इस चौपाई का नया अर्थ ले लिया(उत्तम नारी के लिये सपने में भी कोई पुरुष पराया नहीं होता).पंजाब में लोगों ने इस समस्या का और बेहतर उपाय खोजा.महिलाओं की संख्या ही कम कर दी.न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. महिलायें रहेंगी ही नहीं तो व्यभिचार कहां से होगा.प्रिवेन्शन इज बेटर दैन क्योर.
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी कविता भरत तीर्थ में कहा है-भारत देश महामानवता का पारावार है.यहां आर्य हैं,अनार्य हैं,द्रविङ हैं और चीनी वंश के लोग भी हैं.शक,हूण,पठान और मुगल न जाने कितनी जातियों के लोग इस देश में आये और सब के सब एक ही शरीर में समाकर एक हो गये.
यह समन्वय की प्रवत्ति ही भारतीय संस्कृति का मूल तत्व है.
मेरी पसंद
आधे रोते हैं ,आधे हंसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं
कृपा है ,महाकाल की
आधे मानते हैं,आधा
होना उतना ही
सार्थक है,जितना पूरा होना,
आधों का दावा है,उतना ही
निरर्थक है पूरा
होना,जितना आधा होना
आधे निरुत्तर हैं,आधे बहसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं
कृपा है ,महाकाल की
आधे कहते हैं अवन्ती
उसी तरह आधी है
जिस तरह काशी,
आधे का कहना है
दोनों में रहते हैं
केवल प्रवासी
दोनों तर्कजाल में फंसते हैं
दोनों अवन्ती में बसते हैं
हंसते हैं
काशी के पण्डित अवन्ती के ज्ञान पर
अवन्ती के लोग काशी के अनुमान पर
कृपा है ,महाकाल की.
--श्रीकान्त वर्मा
Monday, November 08, 2004
झाङे रहो कलट्टरगंज
मैं काफी दिनों से कानपुर के बारे में लिखने की सोच रहा था.आज अतुल के फोटो देखे तो लगा कि लिखने के लिये सोचना कैसा ?अगर लिखने के लिये भी सोचना पङे तो हालत सोचनीय ही कही जायेगी.
मेरे अलावा जो चिट्ठाकार कानपुर से किसी न किसी तरह जुङे रहे हैं(अतुल,इंद्र अवस्थी,जीतेन्द्र,आशीष और राजेश)उनको लिखने के लिये उकसाने की कोशिश भी कानपुर के बारे में लिखने का कारण है .अवस्थी की हरकतें तो कुछ-कुछ शरीफों जैसी लगती हैं:-
लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो
शरीफ लोग उठे और दूर जाके बैठ गये.
ज्यादा दिन नही हुये जब कानपुर "मैनचेस्टर आफ इंडिया" कहलाता था.यहां दिनरात चलती कपङे की मिलों के कारण.आज मिलें बंद है और कानपुर फिलहाल कुली कबाङियों का शहर बना अपने उद्धारक की बाट जोह रहा है.कानपुर को धूल,धुआं और धूर्तों का शहर बताने वाले यह बताना नहीं भूलते कि प्रसिद्ध ठग नटवरलाल ने अपनी ठगी का बिसमिल्ला (शुरुआत)कानपुर से ही किया था.
फिलहाल शहर के लिये दो झुनझुने बहुत दिनों से बज रहे हैं .गंगा बैराज और हवाई अड्डा.देखना है कि कब यह बनेगे.कानपुर अपने आसपास के लिये कलकत्ता की तरह है. जैसे कलकत्ते के लिये भोजपुरी में कहते हैं-लागा झुलनिया(ट्रेन)का धक्का ,बलम कलकत्ता गये.इसी तरह आसपास के गांव से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक जिसका मूड उखङा वो सत्तू बांध के कानपुर भाग आता है और यह शहर भी बावजूद तमाम जर्जरता के किसी को निराश करना अभी तक सीख नहीं पाया.
टेनरियों और अन्य प्रदूषण के कारण कानपुर में गंगा भले ही मैली हो गयी हो,कभी बचपन में सुनी यह पंक्तियां आज भी साफ सुनाई देती हैं:-
कानपुर कनकैया
जंह पर बहती गंगा मइया
ऊपर चलै रेल का पहिया
नीचे बहती गंगा मइया
चना जोर गरम......
चने को खाते लछमण वीर
चलाते गढ लंका में तीर
फूट गयी रावण की तकदीर
चना जोर गरम......
कितना ही चरमरा गया हो ढांचा कानपुर की औद्धोगिक स्थिति का पर कनपुरिया ठसक के दर्शन अक्सर हो ही जाते हैं, गाहे-बगाहे.एक जो नारा कनपुरियों को बांधता है,हिसाबियों को भी शहंशाही-फकीरी ठसक का अहसास देता है ,वह है:-
झाङे रहो कलट्टरगंज,
मंडी खुली बजाजा बंद.
कनपरिया टकसाल में हर साल ऐसे शब्द गढे जाते हैं जो कुछ दिन छाये रहते हैं और फिर लुप्त हो जाते हैं.कुछ स्थायी नागरिकता हासिल कर लेते है.चिकाई /चिकाही, गुरु ,लौझङ जैसे अनगिनत शब्द स्थायी नागरिक हैं यहां की बोली बानी के.गुरु के इतने मतलब हैं कि सिर्फ कहने और सुनने वाले का संबंध ही इसके मायने तय कर सकता है ."नवा(नया) है का बे?" का प्रयोग कुछ दिन शहर पर इतना हावी रहा कि एक बार कर्फ्यू लगने की नौबत आ गयी थी. चवन्नी कम पौने आठ उन लोगों के परिचय के लिये मशहूर रहा जो ओवर टाइम के चक्कर में देर तक (पौने आठ बजे)घर वापस आ पाते थे.आलसियों ने मेहनत बचाने के लिये इसके लघु रूप पौने आठ से काम निकालना शुरू किया तो चवन्नी पता ही नही चला कब गायब हो गयी
कनपुरिया मुहल्लों के नामों का भी रोचक इतिहास है.
तमाम चीजें कानपुर की प्रसिद्ध हैं. ठग्गू के लड्डू (बदनाम कुल्फी भी)का कहना है:-
1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं
2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की
3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.
4.बदनाम कुल्फी --
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब
5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो--
शराब नहीं ,जलजीरा.
मोतीझील ( हंस नहीं मोती नहीं कहते मोतीझील ),बृजेन्द्र स्वरूप पार्क,कमला क्लब,कभी सर्व सुलभ खेल के मैदान होते थे.आज वहां जाना दुर्लभ है. कमला टावर की ऊंचाई पर कनपुरिया कथाकार प्रियंवदजी इतना रीझ गये कि अपनी एक कहानी में नायिका के स्तनों का आकार कमला टावर जैसा बताया.
नाना साहब ,गणेश शंकर विद्धार्थी,नवीन,सनेही जी ,नीरज आदि से लेकर आज तक सैकङों ख्यातनाम कानपुर से जुङे हैं.
एक नाम मेरे मन में और उभरता है.भगवती प्रसाद दीक्षत "घोङेवाला" का.घोङेवाले एकदम राबिनहुड वाले अंदाज में चुनाव लङते थे.उनके समर्थक ज्यादातर युवा रहते थे.हर बार वो हारते थे.पर हर चुनाव में खङे होते रहे.एक बार लगा जीत जायेंगे.पर तीसरे नंबर पर रहे.उनके चुनावी भाषण हमारे रोजमर्रा के दोमुहेपन पर होते थे.एक भाषण की मुझे याद है:-
जब लङका सरकारी नौकरी करता है तो घरवाले कहते हैं खाली तन्ख्वाह से गुजारा कैसे होगा?ऐसी नौकरी से क्या फायदा जहां ऊपर की कमाई न हो.वही लङका जब घूस लेते पकङा जाता है तो घर वाले कहते है-हाथ बचा के काम करना चाहिये था.सब चाहते हैं-लड्डू फूटे चूरा होय, हम भी खायें तुम भी खाओ.
"डान क्विकजोट" के अंदाज में अकेले चलते घोङेवाले चलते समय कहते-- आगे के मोर्चे हमें आवाज दे रहे है.
सन् 57 की क्रान्ति से लेकर आजादी की लङाई,क्रान्तिकारी,मजदूर आन्दोलन में कानपुर का सक्रिय योगदान रहा है.शहर की बंद पङी मिलों की शान्त चिमनियां गवाह हैं ईंट से ईंट बजा देने के जज्बे को लेकर हुये श्रमिक आन्दोलनों की.ईंटे बजने के बाद अब बिकने की नियति का निरुपाय इन्तजार कर रही हैं.
आई आई टी कानपुर,एच बी टी आई ,मेडिकल कालेज से लैस यह शहर आज कोचिंग की मंडी है.आज अखबार कह रहा था कि अवैध हथियारों की भी मंडी है कानपुर.
कानपुर के नये आकर्षणों में एक है -रेव-3.तीन सिनेमा घरों वाला शापिंग काम्प्लेक्स. मध्यवर्गीय लोग अब अपने मेहमानों को जे के मंदिर न ले जाकर रेव-३ ले जाते हैं.पर मुझसे कोई रेव-3 की खाशियत पूंछता है तो मैं यही कहता हूं कि यह भैरो घाट(श्मशान घाट) के पीछे बना है यही इसकी खाशियत है.बमार्फत गोविन्द उपाध्याय(कथाकार)यह पता चला है कि रेव-3 की तर्ज पर भैरोघाट का नया नामकरण रेव-4 हो गया है और चल निकला है.
कानपुर में बहुत कुछ रोने को है.बिजली,पानी,सीवर,सुअर,जाम,कीचङ की समस्या.बहुत कुछ है यहां जो यह शहर छोङकर जाने वाले को बहाने देता है.यह शहर तमाम सुविधाओं में उन शहरों से पीछे है जिनका विकास अमरबेल की तरह शासन के सहारे हुआ है.पर इस शहर की सबसे बङी ताकत यही है कि जिसको कहीं सहारा नहीं मिलता उनको यह शहर अपना लेता है.
जब तक यह ताकत इस शहर में बनी रहेगी तब तक कनपुरिया(झाङे रहो कलट्टरगंज) ठसक भी बनी रहेगी.
आज दीपावली है.सभी को शुभकामनायें.
मेरी पसंद
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.
नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल
उङे मर्त्य मिट्टी गगन स्र्वग छू ले
लगे रोशनी की झङी झूम ऐसी
निशा की गली में तिमिर राह भूले.
खुले मुक्ति का वह किरण- द्वार जगमग
उषा जा न पाये निशा आ न पाये.
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.
-----गोपाल दास "नीरज"
मेरे अलावा जो चिट्ठाकार कानपुर से किसी न किसी तरह जुङे रहे हैं(अतुल,इंद्र अवस्थी,जीतेन्द्र,आशीष और राजेश)उनको लिखने के लिये उकसाने की कोशिश भी कानपुर के बारे में लिखने का कारण है .अवस्थी की हरकतें तो कुछ-कुछ शरीफों जैसी लगती हैं:-
लहूलुहान नजारों का जिक्र आया तो
शरीफ लोग उठे और दूर जाके बैठ गये.
ज्यादा दिन नही हुये जब कानपुर "मैनचेस्टर आफ इंडिया" कहलाता था.यहां दिनरात चलती कपङे की मिलों के कारण.आज मिलें बंद है और कानपुर फिलहाल कुली कबाङियों का शहर बना अपने उद्धारक की बाट जोह रहा है.कानपुर को धूल,धुआं और धूर्तों का शहर बताने वाले यह बताना नहीं भूलते कि प्रसिद्ध ठग नटवरलाल ने अपनी ठगी का बिसमिल्ला (शुरुआत)कानपुर से ही किया था.
फिलहाल शहर के लिये दो झुनझुने बहुत दिनों से बज रहे हैं .गंगा बैराज और हवाई अड्डा.देखना है कि कब यह बनेगे.कानपुर अपने आसपास के लिये कलकत्ता की तरह है. जैसे कलकत्ते के लिये भोजपुरी में कहते हैं-लागा झुलनिया(ट्रेन)का धक्का ,बलम कलकत्ता गये.इसी तरह आसपास के गांव से लेकर पूर्वी उत्तरप्रदेश तक जिसका मूड उखङा वो सत्तू बांध के कानपुर भाग आता है और यह शहर भी बावजूद तमाम जर्जरता के किसी को निराश करना अभी तक सीख नहीं पाया.
टेनरियों और अन्य प्रदूषण के कारण कानपुर में गंगा भले ही मैली हो गयी हो,कभी बचपन में सुनी यह पंक्तियां आज भी साफ सुनाई देती हैं:-
कानपुर कनकैया
जंह पर बहती गंगा मइया
ऊपर चलै रेल का पहिया
नीचे बहती गंगा मइया
चना जोर गरम......
चने को खाते लछमण वीर
चलाते गढ लंका में तीर
फूट गयी रावण की तकदीर
चना जोर गरम......
कितना ही चरमरा गया हो ढांचा कानपुर की औद्धोगिक स्थिति का पर कनपुरिया ठसक के दर्शन अक्सर हो ही जाते हैं, गाहे-बगाहे.एक जो नारा कनपुरियों को बांधता है,हिसाबियों को भी शहंशाही-फकीरी ठसक का अहसास देता है ,वह है:-
झाङे रहो कलट्टरगंज,
मंडी खुली बजाजा बंद.
कनपरिया टकसाल में हर साल ऐसे शब्द गढे जाते हैं जो कुछ दिन छाये रहते हैं और फिर लुप्त हो जाते हैं.कुछ स्थायी नागरिकता हासिल कर लेते है.चिकाई /चिकाही, गुरु ,लौझङ जैसे अनगिनत शब्द स्थायी नागरिक हैं यहां की बोली बानी के.गुरु के इतने मतलब हैं कि सिर्फ कहने और सुनने वाले का संबंध ही इसके मायने तय कर सकता है ."नवा(नया) है का बे?" का प्रयोग कुछ दिन शहर पर इतना हावी रहा कि एक बार कर्फ्यू लगने की नौबत आ गयी थी. चवन्नी कम पौने आठ उन लोगों के परिचय के लिये मशहूर रहा जो ओवर टाइम के चक्कर में देर तक (पौने आठ बजे)घर वापस आ पाते थे.आलसियों ने मेहनत बचाने के लिये इसके लघु रूप पौने आठ से काम निकालना शुरू किया तो चवन्नी पता ही नही चला कब गायब हो गयी
कनपुरिया मुहल्लों के नामों का भी रोचक इतिहास है.
तमाम चीजें कानपुर की प्रसिद्ध हैं. ठग्गू के लड्डू (बदनाम कुल्फी भी)का कहना है:-
1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं
2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की
3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.
4.बदनाम कुल्फी --
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब
5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो--
शराब नहीं ,जलजीरा.
मोतीझील ( हंस नहीं मोती नहीं कहते मोतीझील ),बृजेन्द्र स्वरूप पार्क,कमला क्लब,कभी सर्व सुलभ खेल के मैदान होते थे.आज वहां जाना दुर्लभ है. कमला टावर की ऊंचाई पर कनपुरिया कथाकार प्रियंवदजी इतना रीझ गये कि अपनी एक कहानी में नायिका के स्तनों का आकार कमला टावर जैसा बताया.
नाना साहब ,गणेश शंकर विद्धार्थी,नवीन,सनेही जी ,नीरज आदि से लेकर आज तक सैकङों ख्यातनाम कानपुर से जुङे हैं.
एक नाम मेरे मन में और उभरता है.भगवती प्रसाद दीक्षत "घोङेवाला" का.घोङेवाले एकदम राबिनहुड वाले अंदाज में चुनाव लङते थे.उनके समर्थक ज्यादातर युवा रहते थे.हर बार वो हारते थे.पर हर चुनाव में खङे होते रहे.एक बार लगा जीत जायेंगे.पर तीसरे नंबर पर रहे.उनके चुनावी भाषण हमारे रोजमर्रा के दोमुहेपन पर होते थे.एक भाषण की मुझे याद है:-
जब लङका सरकारी नौकरी करता है तो घरवाले कहते हैं खाली तन्ख्वाह से गुजारा कैसे होगा?ऐसी नौकरी से क्या फायदा जहां ऊपर की कमाई न हो.वही लङका जब घूस लेते पकङा जाता है तो घर वाले कहते है-हाथ बचा के काम करना चाहिये था.सब चाहते हैं-लड्डू फूटे चूरा होय, हम भी खायें तुम भी खाओ.
"डान क्विकजोट" के अंदाज में अकेले चलते घोङेवाले चलते समय कहते-- आगे के मोर्चे हमें आवाज दे रहे है.
सन् 57 की क्रान्ति से लेकर आजादी की लङाई,क्रान्तिकारी,मजदूर आन्दोलन में कानपुर का सक्रिय योगदान रहा है.शहर की बंद पङी मिलों की शान्त चिमनियां गवाह हैं ईंट से ईंट बजा देने के जज्बे को लेकर हुये श्रमिक आन्दोलनों की.ईंटे बजने के बाद अब बिकने की नियति का निरुपाय इन्तजार कर रही हैं.
आई आई टी कानपुर,एच बी टी आई ,मेडिकल कालेज से लैस यह शहर आज कोचिंग की मंडी है.आज अखबार कह रहा था कि अवैध हथियारों की भी मंडी है कानपुर.
कानपुर के नये आकर्षणों में एक है -रेव-3.तीन सिनेमा घरों वाला शापिंग काम्प्लेक्स. मध्यवर्गीय लोग अब अपने मेहमानों को जे के मंदिर न ले जाकर रेव-३ ले जाते हैं.पर मुझसे कोई रेव-3 की खाशियत पूंछता है तो मैं यही कहता हूं कि यह भैरो घाट(श्मशान घाट) के पीछे बना है यही इसकी खाशियत है.बमार्फत गोविन्द उपाध्याय(कथाकार)यह पता चला है कि रेव-3 की तर्ज पर भैरोघाट का नया नामकरण रेव-4 हो गया है और चल निकला है.
कानपुर में बहुत कुछ रोने को है.बिजली,पानी,सीवर,सुअर,जाम,कीचङ की समस्या.बहुत कुछ है यहां जो यह शहर छोङकर जाने वाले को बहाने देता है.यह शहर तमाम सुविधाओं में उन शहरों से पीछे है जिनका विकास अमरबेल की तरह शासन के सहारे हुआ है.पर इस शहर की सबसे बङी ताकत यही है कि जिसको कहीं सहारा नहीं मिलता उनको यह शहर अपना लेता है.
जब तक यह ताकत इस शहर में बनी रहेगी तब तक कनपुरिया(झाङे रहो कलट्टरगंज) ठसक भी बनी रहेगी.
आज दीपावली है.सभी को शुभकामनायें.
मेरी पसंद
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.
नयी ज्योति के धर नये पंख झिलमिल
उङे मर्त्य मिट्टी गगन स्र्वग छू ले
लगे रोशनी की झङी झूम ऐसी
निशा की गली में तिमिर राह भूले.
खुले मुक्ति का वह किरण- द्वार जगमग
उषा जा न पाये निशा आ न पाये.
जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना
अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाये.
-----गोपाल दास "नीरज"