Sunday, October 23, 2005

चलो चलें भारत दर्शन करने

http://web.archive.org/web/20110926091656/http://hindini.com/fursatiya/archives/61

कल रात मेरी साइकिल सपने में आई और मुझे फटकारते हुये बोली- हमें रास्ते में खड़ा करके कहां घूम रहे हो? जब ठीक से चला नहीं सकते तो शुरु क्यों किया चलाना ? मुझे लगा जैसे कोई कर्कशा पत्नी ताना मार रही हो जब खिला नहीं सकते तो शादी क्यों की थी? या जब पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों किये थे बच्चे?

मैंने कहा-साइकिल जी, आपका गुस्सा जायज है। लेकिन आप नाराज न हों।मैं अब नियमित रूप से यायावरी के किस्से लिखूंगा। साइकिल पसीज सी गई। थोड़ा नरम लहजे में , दूध में पानी की तरह,अपनापा मिलाकर बोली-लेकिन समस्या क्या है ? तुम इतने ढीले तो कभी न थे कि सारा मसाला सोचकर भी लिख नहीं रहे हो?
मैंने बताया कि कालेज की यादें इतनी ज्यादा हैं कि समझ में नहीं आता क्या भूलूं क्या याद करूं? किसको छांटू,किसको बांटू। बहरहाल अब आगे शिकायत का मौका नहीं दूंगा।

साइकिल संतुष्ट होकर चुनाव के बाद नेता की तरह सपने से गायब हो गई।हमने अपनी यादों की पोटली से यादें टटोलना शुरु किया। सारी यादें गड्ड-मड्ड एक दूसरे से गुंथी थीं। ऐसे में छांटना मुश्किल लेकिन कोशिश करने में हर्जा क्या?

इलाहाबाद में हमारे लिये एक नई दुनिया खुल गई थी। नये लोग,नया माहौल। सब कुछ लागे नया-नया। कुछ ही दिन में अंदाजा लग गया कि यहां फेल होना बहुत मुश्किल काम है। कुछ दिन तक हम पढ़ाई से लौ लगाने का प्रयास करते रहे लेकिन ये प्रेमसंबंध बहुत जल्द ही टूट गये। पढ़ाई में चुनौतियां कम होती गईं। जो क्लास में पढ़ाया जाता वही परीक्षा में आता। रोमांच तथा अप्रत्याशितता कम होती गई।

कालेज में फेल होना होना बहुत मुश्किल था फिर भी कुछ लोग होते हैं जो असंभव को संभव कर दिखाते हैं।हमारे दोस्त मृगांक अग्रवाल जो कि आजकल यू.पी.एस.आर.टी.सी. में अधिकारी हैं, हापुड़ में बसें चलवाते हैं, प्रथम वर्ष में ९ में से ६ विषयों में फेल थे। उन दिनों ६ विषयों में फेल छात्र सप्लीमेंट्री परीक्षा दे सकता था। मृगांक ने परीक्षा दी और छहों विषय में पास हुये।

कुछ दिन पहले यादें यादें दोहराते हुये मृगांक बता रहे थे कि जब वो गर्मी की छुट्टियों में हास्टल में सप्लीमेंट्री परीक्षा की तैयारी कर रहे थे तो वायदे के अनुसार मैं उनको घर से रोज एक पत्र पोस्टकार्ड हौसला बढ़ाने के लिये लिखता था। एक दिन चाय पीने के लिये एक रुपये का नोट भेजा था । वणिक पुत्र ने वो नोट खर्च नहीं किया। आज तक सहेज कर रखा है।

इलाहाबाद की यादों में कालेज और पढ़ाई का हस्तक्षेप बहुत कम है। ज्यादातर हिस्सा हास्टल की यादों से घिरा है। हास्टल की जिंदगी गूंगे का गुड़ होती है। जो रहा है वही समझ सकता है इसका आनंद। बाकी केवल कल्पना कर सकते हैं।

मेस
हास्टल की मेस
हमारे यहां मेस लड़के चलाते थे। जो लड़के कल तक अपना खाना खुद नहीं खा पाते रहे होंगे वो तीस-चालीस लड़कों के खाने के इन्तजाम वाली मेस चलाते। मेस भी कालेज की तरह मिनी इंडिया थी। जाट मेस,बिहारी मेस, अन्ना मेस, बंगाली मेस,और न जाने कौन कौन सी मेस। १००० हजार लड़कों के लिये सारी मेसें सारी मेस एक छत के नीचे। किसी को अपनी मेस में कुछ पसंद नहीं आ रहा तप बगल की मेस से कुछ आ गया। एक दरवाजे से शुरु करके दूसरे से निकलने तक किसी न किसी कोने से कुछ न कुछ खाने का निमंत्रण लोगों की गति में फरक जरूर डालता।

अभी इस बार जब जाकर देखा तो पाया कि मेस का बड़ा हाल दो भागों में बांट दिया है। बीच में दीवार देखकर बहुत दुख हुआ। यह दुख कुछ उसी वर्ग का था जिस वर्ग का दुख महात्मा गांधी को हिंदुस्तान का बंटवारा होने पर हुआ होगा।

फिर बाहर दुकाने थीं । चाय-नास्ते की। लड़के देर रात तक लकड़ी की बेंचों को पांव के नीचे कैंची की तरह फंसाये चाय सुड़कते रहते। काफी देर हो जाने पर मन मारकर उठना पड़ता तो अक्सर ऐसा होता कि कमरे तक पहुंचने के पहले ही कोई दूसरा ग्रुप आपको दुबारा उसी दुकान में ले आता।

रैगिंग के दौरान सीखे हुये कुछ अलिखित नियम भी अमल में आने लगे थे। अगर सीनियर, जूनियर के साथ चाय-नास्ता-खाना करेगा तो खर्चे का जिम्मा सीनियर का ही होगा। अधिकांशतया लोग लोग इसे अमल में लाते।

हम मस्ती में जी रहे थे। तमाम खुराफातें को देख रहे थे। अश्लील साहित्य से भी वहीं रूबरू हुये। जम के पढ़ागया। इतना कि अब मन ही नहीं करता उधर देखने का।

इस अश्लील साहित्य की विरतण व्यवस्था बड़ी निर्दोष, त्रुटिहीन थी। ओलम्पिक मशाल की तरह एक कमरे से दूसरे कमरे होते हुये हास्टल दर हास्टल टहल आता साहित्य। रात को कोई बालक दरवाजा खटखटा कर साहित्य ऐसे मांगता जैसे आजकल लोग पड़ोसी से बुखार ,सरदर्द होने पर ‘पैरासिटामाल’ मांगते हैं।उपलब्धता पर इंकार का चलन उन दिनो नहीं था।

पढ़ाकू लड़के तक जनवरी तक मस्ती मारते। जनवरी के बाद किताबों की धूल झाड़ते। वहीं कुछ लड़के थे जिनकी जान ही किताबों में बसती थी। रात देर तक पढ़ते या सबेरे जल्दी उठकर पढ़ते। अपनी जिंदगी नरक करे रहते। एक किस्सा बकौल अवस्थी

एक रात को सुरेंद्र गुप्ता जल्दी सो गये जुगनू गुप्ता से यह कहकर कि तुम सबेरे तक पढ़ोगे । चार बजे जब सोने लगना तब मुझे जगा देना। रात को बारह बजे करीब कमरे में सरसराहट हुई तो सुरेंद्र गुप्ता की नींद खुली। देखा एक पर्ची दरवाजे नीचे से उनके कमरे में सरक कर आ गयी थी। पर्ची में लिखा था- मैंने तुम्हे जगाने की कोशिश की लेकिन तुम उठे नहीं अब चार बजे मैं सोने जा रहा हूं-जुगनू। (अवस्थी पुष्टि करें या सुधारें)
दूसरा किस्सा भी अवस्थी के मुंह से फिर से सुना गया :

 मनोज अग्रवाल हकलाते थे- खासतौर से ‘ म’ बोलने में । रैगिंग पीरीयड के दौरान उनको एक सीनियर ने साइकिल पर बैठा लिया कि नाम पता पूछ लेने के बाद छोड़ देंगे। अवस्थी को लगा कि कुछ देर में लौट आयेगा मनोज।
काफी देर बाद भी जब नहीं लौटे तो अवस्थी लौट आये हास्टल। घंटे भर बाद जब मनोज लौटे तो स्वाभाविक रूप में पूछा – इतनी देर कैसे हो गई वो तो कह रहा था कि नाम पूछ के छोड़ देंगे।मनोज भुनभुनाते हुये बोले- साले को नाम के साथ ,शहर तथा स्कूल का नाम पूछने की क्या जरूरत थी?
पता चला सीनियर ने कोई वायदा खिलाफी नहीं की थी। उसने केवल नाम ,शहर का नाम तथा स्कूल का नाम पूछने के बाद छोड़ दिया था। अब यह संयोग है कि मनोज अग्रवाल,मुजफ्फरपुर के महात्मा गांधी इंटर कालेज से पढ़े थे। ‘म’ बोलने में हकलाते हकलाने वाले मनोज,’म’ के चक्रव्यूह में फंसे रहे बहुत देर।

जहां तक मुझे याद है उसी साल एक ‘स्पीच थेरेपिस्ट’ ने तमाम हकलाने वाले लोगों को फर्राटे से बोलना सिखाया। मनोज भी उनमें से एक थे। जहां मन किया वहां ये लोग माइक लगा कर जोर-जोर से बोलने का अभ्यास करते। हकले लोग हकलाने का,उल्टा-पुल्टा बोलने का अभ्यास करते।कुछ दिन में बहुतों की हकलाहट बहुत कुछ खतम हो गई थी। अभ्यास ने हिचक तथा आत्मविश्वासहीनता खत्म कर दी।

तिलक छात्रावास
तिलक छात्रावास
पहले साल हम तिलक हास्टल में रहते थे। बगल में मेस। सामने क्लब। तथा थोड़ी दूर पर ‘मोनेरेको ट्रायेंगल’ । ये ‘मोनेरेको ट्रायेंगल’ हमारा अकाल तख्त था। जिसको कालेज जाने का मन नहीं करता वह अपना मिनीड्राफ्टर लहराता हुआ पहले पहुंच आ जाता वहां तथा क्लास बंक करने का प्रस्ताव रखता। आम तौर पर यह प्रस्ताव स्वीकृत हो जाता जैसे सांसदों के भत्ते हो जाते हैं। क्लास की तरफ बढ़ते कदम चाय की दुकान की तरफ बढ़ जाते। पढ़ाकू बच्चे भुनभुनाते हुये कमरों में अपने को कैद करके किताबों में डूब जाते। क्लास बंकिग के भी तीन रूप प्रचलित थे। पीएफ,जीएफ,बीएफ। पीएफ माने पर्सनल फूटिंग ,जीएफ माने जनरल(क्लास) फूटिंग तथा बीएफ माने बंपर फूटिंग(कालेज बंद)। जाहिर है जीएफ तथा बीएफ में कुछ मेहनत पड़ती। नेताओं की रैलियों की तरह तमाम इंतजाम करने पड़ते।

इसके अलावा भी यह त्रिभुज एक ऐसी जगह थी जाहें सारे महत्वपूर्ण निर्णय लिये जाते। यहीं से सारे हास्टल के रास्ते कालेज की तरफ जाते थे। लिहाजा यहां चौपाल करना ज्यादा आसान रहता। यह जगह का प्रताप था कि यहां लिये निर्णय मान्य होते।

पिछली यात्रा में देखा कि इस सर्वशक्तिमान त्रिभुज की छाती के ऊपर नोटिस बोर्ड सा लग गया है। तो मन खट्टा हो गया । कुछ ऐसा ही लगा जैसा लेनिन को मास्को में अपनी गिरी मूर्ति देख कर लगता। वहीं बगल में ‘ मोनेरेकन पौरुष’ का गर्वोन्नत प्रतीक पेड़ का तना भी कट गया था। हमें राम द्वारा शिवधनुषभंग के बाद धनुष को गले से चिपटा कर विलाप करते परशुराम याद आये:-

यह दुर्गति हो गयी तुम्हारी!
आशुतोष के हृदय दुलारे,
पार्वती के प्राण पियारे,
यह दुर्गति हो गयी तुम्हारी,
क्या मुझपर विश्वास नहीं था।
मैं कमरा नम्बर ५७ में रहता था। ५९ में रहते थे विनय कुमार अवस्थी। विनय नाटे कद के खूबसूरत घुंघराले बाल युक्त सुदर्शन दुबले-पतले बालक थे। ४ बहनों के बाद पैदा हुआ लाड़-प्यार में पला बालक कालेज आने तक अपने पिता को ११ वर्ष की उम्र में खो चुका था। जिस समय तहसीलदार पिता की किडनी फेल होने से मौत हुई ,वे मात्र ४६ साल के थे। बाद में अध्यापिका मां ने अपने छहों बच्चों को पाल-पोसकर,लिखा-पढ़ाकर बड़ा किया।हर तरह से काबिल बनाया।
विनय के परिवार का परिवेश साहित्यिक-सांस्कृतिक था। वीररस के सुप्रसिद्ध कवि बृजेन्द्र अवस्थीसे इनके पारिवारिक संबंध थे। उनको बचपन में विनय के पिता ने सहारा दिया था। विनय उनकी कवितायें पूरे मनोयोग से सुनाते। नाटे कद के विनय सिर को झटका देते हुये,आंखे मूंद कर वीर रस की कवितायें सुनाते तो वातावरण झनझना जाता।

लाड़ले होने की जो खूबियां होती हैं उनसे अलंकृत थे विनय। मूडी थे। दिखावे के भी मरीज । प्रदर्शन प्रिय।एक बार परीक्षा के बाद मैं अपनी विंग में पहुंचा तो देखा विनय रेलिंग पर पैर हिला रहे थे। बोले- इतनी देर कैसे हो गयी? हमने कहा -हो गयी। तुम कितनी देर पहले आये। बोले-हम तो चारो सवाल करके आधे घंटे पहले आ गये।हमने कहा कि लेकिन सवाल तो पांच करने थे। पता चला महाराज एक सवाल कम करके आधे घंटे से रेलिंग पर पैर हिला रहे थे।

विनय को सांस की तकलीफ थी। धूल से एलर्जी। जब कभी अटैक होता तबियत बहुत खराब हो जाती। फिर हमारी ‘विंग वालों’ का मार्शल लागू हो जाता इनपर। ये छटपटाते लेकिन शिकंजा मजबूत होता जाता । तभी छूटता जब तबियत सुधर जाती।

एक दिन शनिवार की रात को हम चाय की दुकान पर बैठे थे। तीन-चार चाय हो चुकी थी फिर भी मन कमरे में जाने का हो नहीं रहा था। अचानक ख्याल आया कि कुछ किया जाये। दस मिनट में तय हुआ कि ‘वालमैगजीन‘ निकाली जाये ।दो मिनट में नाम तय हो गया -सृजन

तुरंत कागज आया। तुरंत लिखना शुरु किया गया। हिंदी में। राइटिंग हम दोनों की ही अच्छी ही थी। कुछ कवितायें लिखीं थी,कुछ कमेंट हास्टल के साथियों के बारे में कुछ कालेज पर। सब कुछ कुल मिलाकर चटर-पटर टाइप का । सबेरे चार बजे करीब मेस के नोटिस बोर्ड पर जाकर चिपका आये।आकर सो गये।
अगला दिन रविवार था। सबेरे देर से उठे।नास्ता करने गये। दूर से ही देखा लोग सृजन को पढ़ रहे थे। कुछ तारीफ कर रहे थे। कुछ कह रहे क्या फालतू का काम है। बहरहाल हम दिन भर मस्त रहे। मजा लेते रहे जब हमारे दोस्त कयास लगा रहे थे कि ये खुराफात है किसकी?कुछ दिन बाद लोगों को पता चल गया। काफी दिन निकालते रहे हम यह साप्ताहिक भित्ति पत्रिका-सृजन।

यह हमारा पहला संयुक्त उद्यम था। आगे अभी और होने थे।

दूसरे वर्ष की परीक्षायें शुरु होने वाली थीं। कक्षायें बंद हो चुकी थीं।बच्चे पढ़ाई में जुटे थे।अचानक हम लोगोंने सोचा कि छुट्टियों में कहीं ट्रेनिंग की जाये।जरूरी कागज पत्र बनवाने के लिये धूप में चलते हुये हास्टल से कालेज गये। वहां इधर-उधर टहलते रहे। जबतक कागज वगैरह बने तबतक हमारे मूड उखड़ चुके थे। गर्मी,देरी संबंधित लोगों के व्यवहार से हम झल्ला गये।तय किया कि अब ट्रेनिंग करने इस साल नहीं जायेंगे। अगले साल जाना अनिवार्य है -तभी जायेंगे।

स्वाभाविक सवाल उठा – तो इस साल क्या करेंगे?
तुरंत तय हुआ -इस साल साइकिल पर भारत भ्रमण किया जाये।
अगले ही क्षण हमने ट्रेनिंग से संबंधित सारे कागज फाड़ दिये।

हास्टल की तरफ लौटते हुये हम, आसन्न परीक्षाओं से बेखबर,भारत भ्रमण की योजनाओं में डूब गये थे। 

सुनील दीपक जी की तर्ज पर हम भी आज एक तस्वीर दे रहे हैं।जब मैं कार में बैठा अपने लैपटाप पर इतवार चौपट होने के अफसोस से उबरने के लिये यह लेख टाइप कर रहा था,तब हमारे छोटे सुपुत्र अनन्य स्थानीय अर्पिता महिला मंडल द्वारा आयोजित कला प्रतियोगिता में हाथ आजमा रहे थे। मेरा लेख तो आपने पढ़ लिया अब अनन्य को उसकी कलाकारी के साथ देखिये जिसपर उसको पहला पुरुस्कार भी मिला जिसने कि हमारे ‘इतवारी अफसोस’ की खटिया खड़ी कर दी।
अनन्य
अनन्य अपनी पेंटिंग के साथ

मेरी पसंद

वामन हुये विराट चलो वंदना करें,
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।

माली को वायरल,कलियों को जीर्णज्वर,
कागज के फूल वृंतों पर बैठें हैं सज-संवर,
आंधी मलयसमीर का ओढ़े हुये खिताब,
निर्द्वन्द व्यवस्था ने अपहृत किये गुलाब,
निरुपाय हुये आज अपने ही उपवन में ,
कांटे हुये एलाट चलो वंदना करें।
था प्रश्न हर ज्वलंत किंतु टालते रहे,
उफ!धार में होने का भरम पालते रहे,
पतवार,पाल,नाव सभी अस्त-व्यस्त हैं,
इस भांति सिंधु थाहने का पथ प्रशस्त है,
उपलब्धियों के वर्ष,दिवस जोड़ते रहे,
देखा तो नहीं धार चलो वंदना करें।
वामन हुये विराट चलो वंदना करें,
जर्रे हैं शैलराट चलो वंदना करें।
-अजय गुप्त,शाहजहांपुर।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

11 responses to “चलो चलें भारत दर्शन करने”

  1. kali
    maaja aa gaya padh ke. Bahut bhaidiya guru. kalam rupi danda nostalgia main dooba dooba ke mar rahe ho, aise lekh likhna baand karo nahi to India trip nikalni pad jayegi.
  2. जीतू
    बहुत शानदार। तुम्हारा हास्टल विवरणी पढकर लगा जैसे किसी ने तकिये के नीचे दबाकर रखे, हास्टल के फ़ोटोग्राफ़ का एलबम हमारे सामने कर दिया। आपके साथ साथ ही हम जा पहुँचे आपके हास्टल मे, अब हमको भी लगता है कि हम आपके साथ ही उस हास्टल मे समय गुजारे थे। बहुत सुन्दर। यह लेख तो फ़्रेम मे मढाने लायक है। मजा आ गया। लिखे रहो गुरु।
  3. देबाशीष
    भई वाह! यह भित्ति पत्रिका का किस्सा तो कॉमन हो गया। आपकी किस्सागोई वाकई गज़ब है।
  4. Atul
    बधाई आपको नही , अनन्य भईया को शानदार चित्रकारी पर। वाकई सुन्दर चित्र बनाया है। परँतु आपका रविवार कैसे खराब हो गया?
  5. kkpandey
    का शुकुल् रामायण की चौपाइ लइके बैठ गयो, सुनेव नही तुम्हरे सुक्लो लिखै मां बाधा आगयी है दलित जन कोरट्वा मा केस बनाय है कि ई ऊच जात वाले शुकुल, मिश्र, चौधरी, लिख के हमार इज्जत खराब करत है. तवन एइसा होय कि कौनो अपने नमवा के आगे कुछो ना लिख सकै. बचावा भाई खतरा बहुत मड्ररात है.
  6. फ़ुरसतिया » क्षितिज ने पलक सी खोली
    [...] ासु यायावर क्षितिज ने पलक सी खोली तो इस तरह हमने तय किया कि इस बार जाना है- सा� [...]
  7. फ़ुरसतिया » क्षितिज ने पलक सी खोली
    [...] ासु यायावर क्षितिज ने पलक सी खोली तो इस तरह हमने तय किया कि इस बार जाना है- सा� [...]
  8. अजित वडनेरकर
    बहुत अच्छे। कुछ बातें हमने भी जान लीं :)
  9. anitakumar
    हमें भी किस्से सुनने में मजा आ रहा है, जारी रहे। बिटवा को बधाई और ढेर सारा प्यार
    होनहार बियाबान के होत चीकने पात
  10. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] 1.गालियों का सामाजिक महत्व 2.रास्तों पर जिंदगी बाकायदा आबाद है 3.कमजोरी 4.मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो 5.जहां का रावण कभी नहीं मरता 6.हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी 7.चलो चलें भारत दर्शन करने [...]
  11. कुछ साज़ बज रहे हैं, मेरे मन की सरगमों में : चिट्ठा चर्चा

Wednesday, October 19, 2005

हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी

http://web.archive.org/web/20140419052744/http://hindini.com/fursatiya/archives/60


आजकल जीतेन्दर अक्सर नेट पर मिल जाते हैं। ‘जब मैं परेशानी में होता हूं तो अपने दोस्तों को याद करता हूं और मेरा दर्द कम हो जाता है‘ का बोर्ड लगाये हुये। अब चूकिं मैसेंजर याहू का छोटा होता है तो इसलिये आगे क्या लिखा होता है मैं पढ़ नहीं पाता। लेकिन अनुमान लगा सकता हूं कि शायद लिखा हो- और मेरे मित्र का दर्द दोगुना हो जाता है।
जब से जीतू ने नारद की कमान संभाली है ,नारद किसी हसीन माडल की तरह नित नये रूप बदल रहा है। जब कोई औरत पहली बार मां बनती है तो बच्चे का भांति-भांति से श्रंगार करती है। उसके रूप पर बार-बार मुग्ध होती है ,बलैयां लेती है, कजरौटा करती है। उसी तरह जीतू भी नारद को नित नया रूप देने में जुटे हैं।
नवीनतम रूपश्रंगार है नारद की चिट्ठा रेटिंग पता नहीं कौन फार्मूला लगाइन हैं चौधरी कि जिसका चिट्ठा टाप पर है वह भी चुटकी काट रहा है अपने आश्चर्य से और जो रोज अपडेट करता है वह भी सोच रहा है- ये क्या गजब हुआ, ये क्या जुलम हुआ!
वर्डप्रेस वालों को कोई तवज्जो नहीं दे रहे नारद जी ब्लाग रेटिंग में। हम जीरो रेटिंग के साथ नींव की ईंट बने कोस रहे हैं स्वामीजी को जिनके फुसलाने पर हम अपना आशियाना छोड़ के आ गये इधर । और ये लो अपने शाहिद रज़ा, शाहजहांपरी की प्यारी गज़ल के दुलारे शेर भी याद आ गये:-
जहां भी खायी है ठोकर निशान छोड आये,
हम अपने दर्द का एक तर्जुमान छोड आये.

हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी,
जमीं के इश्क में हम आसमान छोड आये.
किसी के इश्क में इतना भी तुमको होश नहीं
बला की धूप थी और सायबान छोड आये
.
जीतू जब भी दिखते हैं कहते हैं कुछ लिखे नहीं! हम कहते हैं आज लिखेंगे । अगले दिन फिर तकादा। हम रोज सोचते हैं कि लिखें लेकिन हम भी देवाशीष हो गये हैं लगता है- सोच-सोच के हालत सोचनीय बना लेते हैं। आज सोचा कि बिना सोचे लिखा जाये।
जीतू की दूसरी चिंता भी है कि लोग बहुत कम लिख रहे हैं। लिख भी रहे हैं तो दूसरे लोग उसे तवज्जो नहीं दे रहे हैं। टिपिया नहीं रहे हैं। वो तो ये घोषणा तक करने जा रहे थे कि सारे सीनियर ब्लागर खाली बातें मारते हैं। कोई कुछ करता नहीं। कोई कुछ लिखता नहीं है। बड़ी मुश्किल से यह समझाने पर माने कि लोग लिखने की सोच रहे हैं बस आने ही वाला है मामला सामने।
पिछले रविवार को ज्ञान चतुर्वेदी का एक लेख पढ़ा। लेख का लब्बो-लुआब यह था कि हम कहानी सुनाते-सुनाते कब कहानी बन गये पता नहीं चलता। बचपन में हमारे पास इतनी मस्ती थी कि समय की फिकर करने का समय ही नहीं था। अब हालात हैं कि मस्ती की बात सोचने की फुरसत ही नहीं हालत तो यह है कि आशीष गर्ग कहते हैं कि जीवन भी क्या बला है?मन किया कि उनको अपनी कविता की लाइनें भेज दें:-
हम कब मुस्काये याद नहीं
कब लगा ठहाका याद नहीं।

ये दुनिया बड़ी तेज चलती है
बस जीने के खातिर मरती है।
पता नहीं कहां पहुंचेगी ?
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी?

लेकिन कविता की ही तर्ज पर हमने सोचा भेजकर क्या कर लेंगे? सो भेजने का विचार छोड़ दिया। डाकखर्च की जोकाल्पनिक बचत हुई उसे प्रधानमंत्री राहत कोष में भेजने का निश्चय किया।
कल कुछ दोस्तों से पता चला कि लोग सस्ते में मिल रहे डोमेन की सुविधा का लाभ उठाने के लिये तमाम नामों से डोमेन खरीद रहे हैं। इनमें से ऐसे लोग ही ज्यादा हैं जो अभी इनका कोई उपयोग नहीं कर रहे हैं। आगे की कभी बखत-जरूरत पर काम आने के लिये कर रहे हैं यह काम। यह बात तो अच्छी है लेकिन कुछ ऐसी ही लगती है जैसे कि लोग प्लाट खरीदकर डाल देते हैं कि आगे दाम बढ़ेंगे तो वसूले जायेंगे। शुक्र है कि आदमी के नाम डोमेन की तरह नहीं रखे जाते और कई लोगों के एक ही नाम रखने पर कोई पाबंदी नहीं है ,वर्ना लोग पीढ़ियों के नाम रजिस्टर्ड करा लेते या फिर नाम भी अंकों में रखे जाते कार-स्कूटर के नंबरों की तरह।
बहुत दिनों से तत्काल एक्सप्रेस मय डिब्बों के गायब है,कब आयेगी ? प्रेमपीयूष ,तुम आये इतै न कितै दिन खोये?
हमारे कुछ दोस्त जब गुस्सा करते हैं तो बड़े हसीन लगते हैं। कुछ दोस्तों को हसीन दिखने का कुछ ज्यादा ही शौक है। इसलिये अक्सर गुस्साते हैं। इस मामले में हमने अतुल को कुछ ज्यादा ही बदनाम कर दिया है। इस अपराधबोध से उबरने के लिये आज मेरी पसंद में एक कविता दे रहा हूं जो शायद अतुल और दूसरे साथियों (जो भी शामिल होना चाहें हो जायें। कोई फीस नहीं है।)की बात कहती है।
मेरी पसंद
किसी नागवार गुज़रती चीज पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना,
उबल कर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
कमज़ोरी नहीं है
मैं जिंदा हूं
इसका घोषणापत्र है
लक्षण है इस अक्षय सत्य का
कि आदमी के अंदर बंद है एक शाश्वत ज्वालामुखी
ये चिंगारियां हैं उसी की
जो यदा कदा बाहर आती हैं
और
जिंदगी अपनी पूरे ज़ोर से अंदर
धड़क रही है-
यह सारे संसार को बताती हैं।

शायद इसीलिए जब दर्द उठता है
तो मैं शरमाता नहीं, खुलकर रोता हूं
भरपूर चिल्लाता हूं
और इस तरह निष्पंदता की मौत से बच कर निकल जाता हूं
वरना
देर क्या लगती है
पत्थर होकर ईश्वर बन जाने में
दुनिया बड़ी माहिर है
आदमी को पत्थर बनाने में
अजब अजब तरकीबें हैं उसके पास
जो चारणी प्रशस्ति गान से
आराधना तक जाती हैं
उसे पत्थर बना कर पूजती हैं
और पत्थर की तरह सदियों जीने का
सिलसिला बनाकर छोड़ जाती हैं।
अगर कुबूल हो आदमी को
पत्थर बनकर
सदियों तक जीने का दर्द सहना
बेहिस,
संवेदनहीन,
निष्पंद……
बड़े से बड़े हादसे पर
समरस बने रहना
सिर्फ देखना और कुछ न कहना
ओह कितनी बड़ी सज़ा है
ऐसा ईश्वर बनकर रहना!
नहीं,मुझे ईश्वरत्व की असंवेद्यता का इतना बड़ा दर्द
कदापि नहीं सहना।
नहीं कबूल मुझे कि एक तरह से मृत्यु का पर्याय होकर रहूं
और भीड़ के सैलाब में
चुपचाप बहूं।
इसीलिये किसी को टुच्चे स्वार्थों के लिये
मेमने की तरह घिघियाते देख
अधपके फोड़े की तपक-सा मचलता हूं
क्रोध में सूरज की जलता हूं
यह जो ऐंठने लग जाते हैं धुएं की तरह
मेरे सारे अक्षांश और देशांतर
रक्तिम हो जाते हैं मेरी आंखों के ताने-बाने
फरकने लग जाते हैं मेरे अधरों के पंख
मेरी समूची लंबाई
मेरे ही अंदर कद से लंबी होकर
छिटकने लग जाती है
….और मेरी आवाज में
कोई बिजली समाकर चिटकने लग जाती है
यह सब कुछ न पागलपन है, न उन्माद
यह है सिर्फ मेरे जिंदा होने की निशानी
यह कोई बुखार नहीं है
जो सुखाकर चला आयेगा
मेरे अंदर का पानी!
क्या तुम चाहते हो
कि कोई मुझे मेरे गंतव्य तक पहुंचने से रोक दे
और मैं कुछ न बोलूं?
कोई मुझे अनिश्चय के अधर में
दिशाहीन लटका कर छोड़ दे
और मैं अपना लटकना
चुपचाप देखता रहूं
मुंह तक न खोलूं!
नहीं, यह मुझसे हो नहीं पायेगा
क्योंकि मैं जानता हूं
मेरे अंदर बंद है ब्रह्मांड का आदिपिंड
आदमी का आदमीपन,
इसीलिए जब भी किसी निरीह को कहीं बेवजह सताया जायेगा
जब भी किसी अबोध शिशु की किलकारियों पर
अंकुश लगाया जायेगा
जब भी किसी ममता की आंखों में आंसू छलछलायेगा
तो मैं उसी निस्पंद ईश्वर की कसम खाकर कहता हूं
मेरे अंदर बंद वह जिंदा आदमी
इसी तरह फूट कर बाहर आयेगा।
जरूरी नहीं है,
कतई जरूरी नहीं है
इसका सही ढंग से पढ़ा जाना,
जितना ज़रूरी है
किसी नागवार गुजरती चीज़ पर
मेरा तड़प कर चौंक जाना
उबलकर फट पड़ना
या दर्द से छटपटाना
आदमी हूं और जिंदा हूं,
यह सारे संसार को बताना!

-डा. कन्हैया लाल नंदन

11 responses to “हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी”

  1. Atul
    आधा लेख जिसमें जितू और स्वामि कि मौज ली गई है, बहुत जबरदस्त तरीके से हँसा रहा है। बाकि हमारी खातिर लिखी गयी कविता को हम बारंबार पढ रहे है , आत्ममुग्धता की वजह से ।
    जय हो।
  2. kali
    ustad bhadiya likhe rahe bahut dino baad. Lagta hai Jitu bhaiya google se prerit ho gaye hain aur number of links se ranking baana rahe hai. Google Bomb maro unpar aur har chitthe per ja kar swayam ko link karo phir dekho avval nambar per aa jaoge :)
  3. Manoshi
    आपका लिखा पढ कर हँसी नही रुकती…
    –मानोशी
  4. प्रत्यक्षा
    नंदन जी की कविता पढ कर आज की सुबह बन गई.शुक्रिया
    और आपका लिखा पढकर मुस्कुराहट आ गई.दिन की शुरुआत तो अच्छी कर दी आपने.
    प्रत्यक्षा
  5. सुनील
    शायद यह चिट्ठा रेटिंग की ही नजर लगी है कि “जो न कह सके”, अड़ियल गधे की तरह अटक गया है ? भारत जाने से पहले, ९ तारीख से यह समस्या शुरु हुई थी, यानि कुछ नया संदेश नहीं छाप पाता . कल भारत से वापस आया तो बहुत कोशिश की पर अभी तक कोई समाधान नहीं मिला.
    २३ से २८ तक फिर विदेश यात्रा है तो लिखना मुश्किल होगा. शायद इसी बहाने रेटिंग कम हो और चिट्ठा देवता के क्रोध को शांति मिले! और इसी बहाने अपने चिट्ठा लिखने के बजाय अन्य चिट्ठों को पढ़ने का अधिक समय मिल रहा है.
    सुनील
  6. जीतू
    तुम भी ना शुकुल, मौज मस्ती के लिये तुमको हमई मिलते है का? सबसे पहले रेटिंग की बात, वहाँ हिन्दी मे लिखा है, रेटिंग जो है सक्रियता रेटिंग है, जो चिट्ठा जितनी जल्दी सक्रिय उसकी पायदान बढती रहेगी, जहाँ सोया वो गया नीचे। अब तत्काल को देखो ८७ नम्बर पर है आज। इस रेटिंग को करने से एक फ़ायदा होगा, हर व्यक्ति अपने चिट्ठे को टाप पर देखना चाहता है इसलिये अपडेट करेगा, यदि करेगा तो ऊपर के पायदान पर जायेगा। और वहाँ हिन्दी मे साफ़ साफ़ लिखा है अभी वर्डप्रेस के चिट्ठे इस रेटिंग मे शामिल नही है, तुम का है कि रेटिंग देखने के चक्कर मे उसके पहले का पैराग्राफ़ पढना भूल गये लगता है। जल्द ही बहुत कुछ नया देखने को मिलेगा, नारद पर। तब तक के लिये नारायण नारायण!
  7. प्रत्यक्षा
    सुनील जी की बात सही. मैं भी कल से कोशिश कर थक गई हूँ. कुछ नया छपता ही नहीं.क्या माजरा है ? महारथी, कुछ मदद करें
    हवन,पूजन ,चढावा..क्या शान्त करेगा देवता को ?
  8. Atul
    सुनील जी और प्रत्यक्षा बहन जी
    जबसे ब्लागर वालो ने बैकलिंक नाम की बला जोड़ी है ब्लाग प्रकाशन में कुछ लोचा हो गया है। ब्लाग पब्लिश करते ही अड़ियल गधे कि तरह अतक जाता है किसी को ३३ प्रतिशत तो किसी को कुछ और दिखाता रहता है। एक बार सेटिंग मे जाकर तारीख का फार्मेट बगल कर अँग्रेजी वाला करके सेव करिये फिर देखिये शायद कुछ फर्क पड़े।
  9. प्रत्यक्षा
    जरा विस्तार से समझायें.
    सुनिल जी तो छाप लिये, पर मेरा तो अटका ही पडा है
  10. जीतू
    प्रत्यक्षा जी, आप ब्लागर की सैटिंग मे जाकर,अपनी तारीख अमरीका या यूके कि हिसाब से सैट कर दें। बस इतना करना है।
    फ़िर आप झकास अपने चिट्ठे पर पोस्ट लिखिये, खटाक से १००% पार न करे तो कहना। अभी तो यही देसी तरीका है। ब्लागर वालों को शिकायत ठोक दीजिये।
    फ़ुरसतिया जी ये कमेन्ट प्रत्यक्षा जी को फ़ारवर्ड कर दें, अति कृपा होगी।

Wednesday, October 12, 2005

जहां का रावण कभी नहीं मरता

http://web.archive.org/web/20140419102347/http://hindini.com/fursatiya/archives/59

[आज दशहरा है। दशहरा के अवसर पर ठेलुहा नरेश के पिताश्री डा.अरुण प्रकाश अवस्थी से सुने मौरावां के रावणों के बारे में संस्मरण और अवसरानुकूल एक कविता आपके लिये पेश हैं। ये संस्मरण निरंतर के अक्टूबर अंक के लिये अभी तक बचा के रखे गये थे। अब लगता है कि आज ही सबसे बढ़िया मौका है इनको पेश करने का।देशी-प्रवासी मित्रों को दशहरा के अवसर पर तमाम शुभकामनाओं समेत ]
रावण

रावण
मौरावां की रामलीला प्रसिद्ध है। यहां का रावण कभी नहीं मरता। रामलीला मैदान में बड़ा विशाल रावण बना है। मौरावां के रावण के कुछ इतिहास रहे हैं। जिन लोगों ने मौरावां में रावण का अभिनय किया है ,उनके बारे तमाम कथायें प्रसिद्ध हैं।
एक रावण का पार्ट करने वाले थे पंडित दुर्गादीन बाजपेयी । लंबा-चौड़ा सात फुटा शरीर। देखने में विशालकाय सचमुच के रावण लगते। ऊंची गरजदार आवाज। उस जमाने में माइक तो थे नहीं। लेकिन उनकी आवाज तीन किलोमीटर दूर पिंजरा तक जाती। अंग्रेज कलक्टर उनका अभिनय देखने आता था।
एक बार जब वो रामलीला में पार्ट कर रहे थे तो जिसको अंगद बनना था वो बीमार हो गया। अब क्या किया जाये ? रात को रामलीला थी। तो वहीं गांव में एक महावीर भुजवा थे। उन्होंने कहा -”मुझे अंगद का पाठ याद है। मैं कर दूंगा।” लोग बोले ठीक है किसी तरह काम संभाल लो।
रामलीला शुरु हुई । अंगद के वेश में महावीर भुजवा रावण के दरबार में आये । दुर्गादीन जी रावण बने थे। वे पहाड़ की तरह तो थे ही। दस सिर वाला मुकुट लगाते।बीस हाथ। वो तलवार लेकर एकदम गरज के बोले- कौन हो तुम?
गरज सुनकर अंगद का पाठ करने वाला घबड़ा गया। सिटपिटाकर बोला-महाराज हम महावीर भुजवा अहिन ,तुम्हार परजा।
तो अइसे-अइसे लोग थे।
एक शिवनारायन शनीचर थे। कुसुम्भी के थे। वे सीता का पार्ट करते थे।मौरावां के राजा शंकरसहाय ने उस जमाने में उनको सीता का पार्ट करने के लिये बनारस से साढ़े तीन सौ रुपये की साड़ी मंगा के दी थी। आज वो पांच हजार रुपये में भी नहीं मिलेगी।
एक बार रामलीला के दौरान जैसे ही अशोक वाटिका में दुर्गादीन दादा पहुंचे और गरज के तलवार लहराते हुयेकहा-
मास दिवस जो कहा न माना,
तौ मैं मारब काढ़ि कृपाना ।

आवाज की गरज और तलवार के पैंतरे से घबरा जाने से सीता का पार्ट करने वाले शिवनारायन जी की धोती गीली हो गयी।
झूला

झूला
रावणों के इतिहास में हमारे भैया भी थे। हमारे भैया जब रावण बनते थे तो दुर्गादीन मिसिर विभीषण बनते थे। एक बार रावण के दरबार से विभीषण को लात मारके निकालने का अभिनय करते समय भैया ने वो लात मारी कि दुर्गादीन मिसिर पड़े रहे तीन महीना । उनकी कमर की नस ही नहीं उतरी तीन महीना। फिर उन्होंने विभीषण का पार्ट करना ही छोड़ दिया।
भैया का रावण अंग्रेजी भी जानता था। विभीषण को लात मार के कहते-गेट आउट फ्राम माई दरबार।
एक्टिंग में भैया दुर्गादीन दादा से बेहतर थे। लेकिन आवाज की बुलंदी और भयंकरता में दुर्गादीन दादा का कोई जोड़ नहीं था। अंग्रेज डी.एम. उनका पार्ट देखने आता था। कहता था कि पंडित दुर्गादीन का पार्ट हो तो हमको जरूर बुलाना।
एक और रावण का पार्ट अदा करने वाले थे -पंडित रामिकिसुन। रामकिसुन जी ट्यूशन करते थे। दूसरे-तीसरे दर्जे के बच्चों को पढ़ाते थे। गांव में एक थे बलभद्दर बनिया। उनके बच्चों के लिये मैंने पंडित रामकिसुन का ट्यूशन लगवा दिया।यह कह कर कि पैसे आप लोग आपस में तय कर लेना। यहां का क्या हिसाब है मैं नहीं जानता।
ट्यूशन तय हो गया। वे जोर से पढ़ाते थे। पढ़ो -’क’ माने कबूतर।बच्चे जब कहते ‘क’ माने कबूतर तो वे कहते- “जोर से कहो। अभी तुम्हारे बाप ने नहीं सुना। घर के भीतर घुसा हुआ है।”
लड़का जोर से बोलता- ‘क’ माने कबूतर। जब वे देखते बलभद्दर नहीं हैं तो वे डंडा लहराते हुये ,कभी उसके मुंह में लगाते हुये कहते-“अरे बनिया, ब्याचै क सार हरदी-नून औ ससुर वेद पढ़ी! वेद पढ़ै क आवा है। न ससुर कबहूं सीधा देय न कुछ। मारब सारे तौ दांत भीतर हुइ जइहैं।”
जहां देखें कि बलभद्दर आ रहे हैं तो बोलें- पढौ़ ‘ख’ माने खरगोश।
एक बार जोर से पढ़ा रहे थे। ध्यान से उतर गया कि पूरब में निकलता है । तो बोले-‘सूरज पश्चिम में निकलता है।’
लड़के से कहा, जोर से बोलो- सूरज पश्चिम में निकलता है। लड़का बोला। बलभद्दर ने सुन लिया। भागते हुये आये। बोले- वाह रे महाराज!यहै पढ़ावति हौ? सूरज पच्छिम मां निकरत है?
रामकिसुन महाराज घूम के बैठ गये। बोले- ये बनेऊ, देंय का चार ठौ रुपया। चार रुपया मां सूरज पच्छिम मां न निकरी तो का पूरब मां निकरी? अगले महीना जौ पैसा न बढायेव तो अबकी दक्खिनै मां निकारव।
अगले महीने उनकी फीस चार रुपये से बढ़ के पांच रुपये हो गयी। सूरज पूरब में निकलने लगा। तब से अभी तक निकल रहा है। पैसा न बढ़ते तो शायद सूरज पूरब में न निकलता।
रामकिसुन महाराज हारते हुये भी जीत गये।
इसी तरह के तमाम संस्मरण हैं मौरावां की रामलीला के जहां का रावण कभी नहीं मरता। उनके बारे में बाकी फिर कभी।
पुनश्च : कभी न मरने वाले रावण के बारे में पूर्णिमाजी ने जानकारी चाही थी कि यह किस संदर्भ में कहा गया है कि मौरावां का रावण कभी नहीं मरता ? जानकारी करने पर डा.अवस्थी ने बताया कि मौरावां के राजा चन्दन लाल ने २०१ वर्ष पूर्व मौरावां में रावण की पत्थर की मूर्ति बनवाई थी। सिंहासन पर बैठे रावण की मूर्ति की ऊंचाई करीब ६-७ मीटर है। जहां मूर्ति है वह जगह लंका के नाम से तथा वहां के शिवजी लंकेश्वर महादेव के नाम से जाने जाते हैं। रावण की हर साल रंगाई-पुताई होती है। कुछ लोग व्यक्तिगत तौर पर रावण की पूजा-आरती भी करते हैं। वहीं लेटे हुये कुंभकर्ण की भी मूर्ति बनी है। कुंभकर्ण, जो कभी नहीं जागता।

मेरी पसंद

इस बार रामलीला में
राम को देखकर-
विशाल पुतले का रावण थोड़ा डोला,
फिर गरजकर राम से बोला-
ठहरो!
बड़ी वीरता दिखाते हो,
हर साल अपनी कमान ताने चले आते हो!
शर्म नहीं आती,
कागज के पुतले पर तीर चलाते हो।
मैं पूछता हूं
क्या मारने के लिये केवल हमीं हैं
या तुम्हारे इस देश में जिंदा रावणों की कमी है?
प्रभो, आप जानते हैं
कि मैंने अपना रूप कभी नहीं छिपाया
जैसा भीतर से था
वैसा ही तुमने बाहर से पाया है।
आज तुम्हारे देश के ब्रम्हचारी,
बंदूके बनाते-बनाते हो गये हैं दुराचारी।
तुम्हारे देश के सदाचारी,
आज हो रहे हैं व्याभिचारी।
यही है तुम्हारा देश!
जिसकी रक्षा के लिये
तुम हर साल-
कमान ताने चले आते हो।
आज तुम्हारे देश में
विभीषणों की कृपा से
जूतों दाल बट रही है।
और सूपनखा की जगह
सीता की नाक कट रही है।
प्रभो,
आप जानते हैं कि
मेरा एक भाई कुंभकरण था,
जो छह महीने में
एक बार जागता था।
पर तुम्हारे देश के ये
नेता रूपी कुंभकरण
पांच बरस में एक बार जागते हैं।
तुम्हारे देश का सुग्रीव
बन गया है तनखैया,
और जो भी केवट हैं
वो डुबो रहे हैं देश की
बीच धार में नैया।
प्रभो,
अब तुम्हारे देश में
कैकेयी के कारण
दशरथ को नहीं मरना पड़ता है,
बल्कि कम दहेज लाने के कारण
कौशल्याओं को
आत्मदाह करना पड़ता है।
अगर मारना है
तो इन जिंदा रावणों को मारो
इन नकली हनुमानों के
मुखौटों के मुखौटों को उतारों।
नाहक मेरे कागजी पुतले पर तीर चलाते हो
हर साल अपनी कमान ताने चले आते हो।
मैं पूछता हूं
क्या मारने के लिये केवल हमीं हैं
या तुम्हारे इस देश में जिंदा रावणों की कमी है?
-डा. अरुण प्रकाश अवस्थी

15 responses to “जहां का रावण कभी नहीं मरता”

  1. sarika
    बहुत अच्छा लेख लिखा है। यूं तो हम भारत में रह कर भी कभी दशहरा देखने नहीं जाते थे पर आपके ये वर्णन सुन कर लगा कि ये मेले देखने लायक होते होंगे।
    डा. अरुण प्रकाश अवस्थी की कविता बहुत अच्छी लगी
  2. Laxmi N. Gupta
    फुरसतिया जी,
    बढ़िया लिखा है। चित्र भी अच्छे हैं और शब्दचित्र और भी अच्छे हैं। कविता भी बहुत सामयिक और उत्तम है।
  3. जीतू
    क्या गुरु, याद करा दी, रामलीला की बात, इस बार सोचा था, रामलीला वाले प्रसंग पर लिखेंगे, लेकिन सही मूड नही बन सका,चलो आगे कभी। हम भी मोहल्ले की रामलीला खेलते थे,हमे सुषमा आंटी जबरद्स्ती सीता का रोल टिकाय दिये रही, अब मरता ना क्या करता, निभाना पड़ा।
    रावण कभी नही मरता। यदि मरता तो हर साल वापस ना आता। मारना है तो हमारे दिलो मे बसे रावण(भावना) को मारो,जो ईर्ष्या,द्वेष और अन्य विकार उत्पन्न करती है। उस सोच को मारो जो लोगों को लोगो से भेद करना सिखाती है। शायद यही संदेश देने के लिये हर साल रामलीला का मंचन किया जाता हैं।
  4. Atul
    जीतू भाई
    रामलीला की कहानी सभी सुनना चाहेंगे। अगली बार हाईकू या गजल चेंपने की जगह रामलीला पर लिख मारियेगा।
    शुकुल जी यह झूला दो तरह का होता था। एक तो फेरी व्हील जो आपने दिखाया है, दूसरा लकड़ी का जो काफी चूँ चूँ की आवाज करता था। लगता है अब वह विलुप्त हो गया।
  5. आशीष
    मुझे ये संसमरण (अंगद वाला )पढा हुवा लग रहा है, शायद कादम्बिनी मे.
    मजा आ गया.
    आशीष
  6. अक्षरग्राम  » Blog Archive   » उसका शब्दमेघ मेरे शब्दमेघ से कड़कदार कैसे?
    [...] �� कभी नहीं मरता। उनके बारे में बाकी फिर कभी। यह विषयान्तर हो गया.इस बारे में फ� [...]
  7. फुरसतिया » अपनी फोटो भेजिये न!
    [...] जोशीजे बताया कि उन्होंने मेरे लेख हैरी का जादू बनाम हामिद का चिमटा और जहां का रावण कभी नहीं मरता पढ़ रखे हैं। इन दोनों लेखों से ही उन्होंने अन्दाजा लगा लिया कि हम कोई लेखक टाइप के आइटम होंगे। और उन्होंने हमारी फोटो मांगी संग्रह के लिये। [...]
  8. नीरज दीवान
    मस्त वर्णन हुआ है. आस्था के साथ भाईचारे के लिए उपयुक्त परंपराएं हैं.. हम सभी को ऐसे आयोजनों में बढ़-चढ़कर भाग लेना चाहिए।
  9. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] 3.कमजोरी 4.मुझसे बोलो तो प्यार से बोलो 5.जहां का रावण कभी नहीं मरता 6.हमारी उम्र तो शायद सफर में गुजरेगी [...]
  10. सन्तोष त्रिवेदी
    …महावीर भुजवा का प्रसंग जबरदस्त रहा !
    सन्तोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..चींटी और हाथी !
  11. amit srivastava
    मौरावां का क्या , अब तो सब जगहों का रावण कभी नहीं मरता |
    amit srivastava की हालिया प्रविष्टी.." कच्ची रसीद………"
  12. वीरेन्द्र कुमार भटनागर
    रावण का रोल करने वाले कलाकारों से सम्बन्धित संस्मरण बहुत रोचक बन पड़ें हैं। आपका लेख एक बार पढ़ना शुरू करने पर पूरा पढ़े बिना छोड़ा नहीं जा सकता। डा॰ अवस्थी की कविता सोने पर सुहागा है। बधाई।
  13. रावणजी के बहाने कुछ इधर-उधर की
    [...] दशहरा मनाया। सबेरे-सबेरे फ़ेसबुक पर सात साल पहले की पोस्ट का लिंक चस्पा करके आज का स्टेटस सटाया: [...]
  14. देवांशु निगम
    बढ़िया है जी !!!!
    दस रूपया दई दिहिन होते तो चारँव ओर सेने सूरज निकाल दिहन होते पंडीजी !!!! :) :) :)
    देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..The “Talented” Culprit Since 1992
  15. : विदा होना एक दुर्लभ व्यक्तित्व का
    [...] मौरावां के रावण के बारे में बताया जो कि कभी नहीं मरता।मौरावां की लाइब्रेरी के बारे में भी [...]

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