Wednesday, August 30, 2006

मरना कोई हार नहीं होती- हरिशंकर परसाई

http://web.archive.org/web/20110101191812/http://hindini.com/fursatiya/archives/183

मरना कोई हार नहीं होती- हरिशंकर परसाई

[ परसाईजी ने जबसे लिखना शुरू किया तबसे ही मुक्तिबोध के उनसे संबंध रहे। ताजिन्दगी संबंध रहने तथा विचारों के नितन्तर आदान-प्रदान के बावजूद दोनों ने एक दूसरे के बारे में बहुत कम लिखा। मुक्तिबोध की मृत्यु के बाद परसाई जी ने उनके बारे में दो संस्मरण लिखे। इस संस्मरणों से मुक्तिबोध की सोच,मन:स्थिति का पता चलता है । परसाईजी ने मुक्तिबोध के तनावों का जिक्र करते हुये लिखा है-


मुक्तिबोध भयंकर तनाव में जीते थे। आर्थिक कष्ट उन्हें असीम थे। उन जैसे रचनाकार का तनाव साधारण से बहुत अधिक होगा भी। वे सन्त्रास में जीते थे। आजकल सन्त्रास का दावा बहुत किया जा रहा है। मगर मुक्तिबोध का एक-चौथाई तनाव भी कोई झेलता ,तो उनसे आधी उम्र में मर जाता।

मुक्तिबोध के निधन के बाद उनपर लिखते हुये परसाई जी ने लिखा-



बीमारी से लड़कर मुक्तिबोध निश्चित जीत गये थे। बीमारी ने उन्हें मार दिया ,पर तोड़ नहीं सकी। मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अंत तक वैसा ही रहा। जैसे जिंदगी में किसी से लाभ के लिये समझौता नहीं किया,वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को वे तैयार नहीं थे।
वे मरे। हारे नहीं। मरना कोई हार नहीं होती।

परसाईजी द्वारा मुक्तिबोध पर लिखे संस्मरणों में से एक यहाँ प्रस्तुत है।]
मुक्तिबोध
मुक्तिबोध
राजनाँदगाँव में तालाब के किनारे पुराने महल का दरवाजा है- नीचे बडे़ फाटक के आसपास कमरे हैं,दूसरी मंजिल पर एक बड़ा हाल और कमरे,तीसरी मंजिल पर कमरे और खुली छत। तीन तरफ से तालाब घेरता है। पुराने दरवाजे और खिड़कियाँ ,टूटे हुये झरोखे,कहीं खिसकती हुई ईंटे,उखड़े हुये प्लास्टर की दीवारें। तालाब और उसके आगे विशाल मैदान। शाम को जब ज्ञानरंजन और मैं तालाब की तरफ गये और वहाँ से धुँधलके में उस महल को देखा तो वह भयावह रहस्य में लिपटा वह नजर आया।
आजकल सन्त्रास का दावा बहुत किया जा रहा है। मगर मुक्तिबोध का एक-चौथाई तनाव भी कोई झेलता ,तो उनसे आधी उम्र में मर जाता।
दूसरी मंजिल के हाल के एक कोने में विकलांग मुक्तिबोध खाट पर लेटे हुये थे। लगा, जैसे इस आदमी का व्यक्तित्व किसी मजबूत किले-सा है। कई लडा़इयों के निशान उस पर हैं। गोलों के निशान हैं,पलस्तर उखड़ गया है,रंग समय ने धो दिया है-मगर जिसकी मजबूत दीवारें गहरी नींव में धंसी हैं और वह सिर ताने गरिमा के साथ खड़ा है।
मैंने मजाक की,”इसमें तो ब्रह्मराक्षस ही रह सकता है।” मुक्तिबोध की एक कविता है,’ब्रह्मराक्षस’। एक कहानी भी है जिसमें शापग्रस्त ब्रह्मराक्षस महल के खँडहर में रहता है।
मुक्तिबोध हँसे। बोले,”कुछ भी कहो पार्टनर, अपने को यह जगह पसन्द है।”
मुक्तिबोध में मैत्री-भाव बहुत था। बहुत सी बातें वे मित्र को संबोधित करते हुये कहते थे। कविता,निबन्ध,डायरी सबमें यह ‘मित्र’ प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से रहता है। एक खास अदा थी उनकी। वे मित्र को ‘पार्टनर’ कहते थे। कुछ इस तरह बातें करते थे-’कुछ भी कहो पार्टनर,तुम्हारा यह विनोद है ताकतवार…आपको चाहे बुरा लगे पार्टनर पर अमुक आदमी अपने को बिल्कुल नहीं पटता।’ ज्यादा प्यार में आते तो कहते-’आप देखना मालक, ये सब भागते नजर आयेंगे।’
मुक्तिबोध जैसे सपने में डूबते से बोले,” आप जहाँ बैठे हैं वहाँ किसी समय राजा की महफिल जमती थी। खूब रोशनी होती होगी,नाच- गाने होते होंगे। तब यहाँ ऐश्वर्य की चकाचौंध चकाचौंध थी। कुछ भी कहो ,पार्टनर,”फ्यूडलिज्म’(सामन्तवाद) में एक शान तो थी…बरसात में आइये यहाँ। इस कमरे में रात को सोइये। तालाब खूब जोर पर होता है,साँय-साँय हवा चलती है और पानी रात-भर दीवारों से टकराकर छप-छप करता है…कभी-कभी तो ऐसा लगता है ,जैसे कोई नर्तकी नाच रही हो,घुँधरुओं की आवाज सुनायी पड़ती है। पिछले साल शमशेर आये थे। हमलोग २-३ बजे तक सुनते रहे…और पार्टनर बहुत खूबसूरत उल्लू…मैं क्या बताऊँ आपसे,वैसा खूबसूरत उल्लू मैंने कभी देखा ही नहीं…कभी चमगादड़ें घुस आती हैं”…बडे़ उत्साह से वे उस वातावरण की बातें करते रहे। अपनी बीमारी का जरा अहसास नहीं।
मुक्तिबोध का फौलादी व्यक्तित्व अंत तक वैसा ही रहा। जैसे जिंदगी में किसी से लाभ के लिये समझौता नहीं किया,वैसे मृत्यु से भी कोई समझौता करने को वे तैयार नहीं थे।
वे मरे। हारे नहीं। मरना कोई हार नहीं होती।
दोपहर में हम लोग पहुँचे थे। हमें देखा ,तो मुक्तिबोध सदा की तरह-’अरे वाह,अरे वाह’,कहते हुये हँसते रहे। मगर दूसरे ही क्षण उनकी आँखों में आँसू छलक पड़े। डेढ़-एक महीने वे जबलपुर रहकर आये थे। एक्जिमा से परेशान थे। बहुत कमजोर। बोलते-बोलते दम फूल आता था। तब मुझे वे बहुत शंकाग्रस्त लगे थे। डरे हुये से। तब भी उनकी आँखों में आँसू छलछला आये थे,जब उन्होंने कहा था-पार्टनर अब बहुत टूट गये हम। ज्यादा गाड़ी खिंचेगी नहीं। दस,पाँच साल मिल जायें,तो कुछ काम जमकर कर लूँ।
आँसू कभी पहले उनकी आँखों में नहीं देखे थे। इस पर हम लोग विशेष चिंतित हुये। मित्रों ने बहुत जोर दिया कि आप यहाँ एक महीने रुककर चिकित्सा करा लें। पर उन्हें रुग्ण पिता को देखने नागपुर जाना था। सप्ताह भर में लौट आने का वादा करके चले गये। फिर वे लौटे नहीं।
क्षण भर में ही वे सँभल गये।पूछा,”आप लोगों का सामान कहाँ है?”
शरद कोठारी ने कहा,”मेरे घर रखा है।”
वे बोले,”वाह साहब,इसका क्या मतलब? आप लोग मेरे यहाँ आये हैं न?”
हम लोगों ने परस्पर देखा। शरद मुस्कराया।इस पर हम लोग मुक्तिबोध को कई बार चिढ़ाया करते थे-”गुरू ,कितने ही प्रगतिशील विचार हों आपके ,आदतों में ‘फ्यूडल’ हो। मेरा मेहमान है मेरे घर सोयेगा,मेरे घर खायेगा,कोई बिना चाय पिये नहीं जायेगा,होटल में मैं ही पैसे चुकाऊँगा,सारे शहर को घर में खाना खिलाऊँगा-यह सब क्या है?”
शरद को मुस्कराते देख वे भी मुस्करा दिये। बोले,”यह आपकी अनाधिकार चेष्टा है,बल्कि साजिश है।”
यह औपचारिक नहीं था। मुक्तिबोध की किसी भी भावना में औपचारिकता नहीं- न स्नेह में ,न घृणा में ,न क्रोध में। जिसे पसंद नहीं करते थे,उसकी तरफ घंटे भर बिना बोले आँखे फाड़े देखते रहते थे। वह घबडा़ जाता था।
बीमारी की बात की तो वैज्ञानिक तटस्थता से -जैसे हाथ-पाँव और यह सिर उनके नहीं किसी दूसरे के हों। बड़ी निर्वैयक्तिकता से,जैसे किसी के अंग-अंग काटकर बता रहे होंकि बीमारी कहाँ है,कैसे हुई,क्या परिणाम है?
“तो यह है साहब अपनी बीमारी”-बोलकर चुप हो गये।
फिर बोले -”चिट्ठियाँ आती हैं कि आप यहाँ आ जाइये या वहाँ चले जाइये। पर कैसे जाऊँ? जाना क्या मेरे वस की बात है?…हाँ एक भयंकर कविता हो गयी। सुनाऊँगा नहीं। मुझे खुद उससे डर लगता है। बेहद डार्क,ग्लूमी! भयंकर ‘इमेजें’ हैं। न जाने कैसी मन:स्थिति थी। कविता वात्स्यायनजी को भेज दी है।…पर अब लगता है ,वैसी बात है नहीं। जिंदगी में दम है। बहुत अच्छे लोग हैं,साथ।कितनी चिट्ठियाँ चिन्ता की आयी हैं। कितने लोग मुझे चंगा करना चाहते हैं! कितना स्नेह ,कितनी ममता है ,आसपास! पार्टनर…अब दूसरी कविता लिखी जायेगी।”
ज्ञानरंजन ने कहा,”पिछली भी सही थी और अब जो होगी,वह भी सही होगी।”
वे आश्वस्त से लगे। हम लोगों ने समझाया कि बीमारी मामूली है,भोपाल में एक-दो महीने में ठीक हो जायेगी।
उनकी आँखों में चमक आ गयी। बोले,”ठीक हो जायेगी न! मेरा भी यही ख्याल है। न हो पूरी ठीक ,कोई बात नहीं। मैं लँगड़ाकर चल लूँगा। पर लिखने-पढ़ने लायक हो जाऊँ।”
इतने में प्रमोद वर्मा आ गये। देखते ही मुक्तिबोध फिर हँस पड़े,”लो,अरे लो,ये भी आ गये! वाह ,बड़ा मजा है ,साहब!”
प्रमोद मैं और शान्ता भाभी तथा रमेश से सलाह करने दूसरे कमरे में चले गये।इधर मुक्तिबोध ज्ञानरंजन से नये प्रकाशनों पर बात करने लगे।
तय हुआ कि जल्दी भोपाल ले चलना चाहिये। मित्रों ने कुछ पैसा जहाँ-तहाँ से भेज दिया था। हम लोगों ने सलाह की कि इसे रमेश के नाम से बैंक में जमा कर देना चाहिये।
मुक्तिबोध की किसी भी भावना में औपचारिकता नहीं- न स्नेह में ,न घृणा में ,न क्रोध में। जिसे पसंद नहीं करते थे,उसकी तरफ घंटे भर बिना बोले आँखे फाड़े देखते रहते थे। वह घबडा़ जाता था।
मुक्तिबोध पर बड़ी विचित्र प्रतिक्रिया हुई इसकी। बिल्कुल बच्चे की तरह वे खीझ उठे। बोले,” क्यों? मेरे नाम से खाता क्यों नहीं खुलेगा? मेरे ही नाम से जमा होना चाहिये। मुझे क्या आप गैर जिम्मेदार समझते हैं?”
वे अड़ गये। खाता मेरे नाम से खुलेगा। थोड़ी देर बाद कहने लगे,”बात यह है पार्टनर कि मेरी इच्छा है ऐसी। ‘आई विश इट’। मैं नहीं जानता कि बैंक में खाता होना कैसा होता है। एक नया अनुभव होगा मेरे लिये। तर्कहीन लालसा है-पर है जरूर ,कि एक बार अपना भी एकाउन्ट हो जाये! जरा इस सन्तोष को भी देख लूँ।”
मुक्तिबोध हमेशा ही घोर आर्थिक संकट में रहते थे। अभावों का ओर-छोर नहीं था। कर्ज से लदे रहते थे। पैसा चाहते थे ,पर पैसे को ठुकराते भी थे। पैसे के लिये कभी कोई काम विश्वास के प्रतिकूल नहीं किया। अचरज होता है कि जिसे पैसे-पैसे की तंगी है,वह रुपयों का मोह बिना खटके कैसे छोड़ देता है। बैंक में खाता खुलेगा-यह कल्पना उनके लिये बड़ी उत्तेजक थी। गजानन माधव मुक्तिबोध का बैंक में खाता है-यह अहसास वे करना चाहते थे। वे शायद अधिक सुरक्षित अनुभव करते।
तभी एक ज्येष्ठ लेखक की चिट्ठी आयी कि आप घबड़ायें नहीं,हम कुछ लेखक जल्दी ही अखबार में आपकी सहायता के लिये अपील प्रकाशित करा रहे हैं।
चिट्ठी पढ़कर मुक्तिबोध बहुत उत्तेजित हो गये। झटके से तकिये पर थोड़े उठ गये और बोले ,”यह क्या है? दया के लिये अपील निकलेगी! अब,भीख माँगी जायेगी मेरे लिये! चन्दा होगा! नहीं-मैं कहता हूँ-यह नहीं होगा।मैं अभी मरा थोड़े ही हूँ। मित्रों की सहायता ले लूँगा-लेकिन मेरे लिये चन्दे की अपील! नहीं । यह नहीं होगा!”
हम लोगों ने उन्हें समझाया कि आपकी भावना से उन्हें परिचित कर दिया जायेगा और अपील नहीं निकलेगी।
उस शाम को रमेश ने एक चिट्ठी लाकर दी,जिसमें बीस रुपये के नोट थे। चिट्ठी उनके एक विद्यार्थी की थी। उसने लिखा था कि मैं एक जगह काम करके पढ़ाई का खर्च चला रहा हूँ । आपके प्रति मेरी श्रद्धा है। मैं देख रहा हूँ कि अर्थाभाव के कारण आप जैसे साहित्यकार की चिकित्सा ठीक से नहीं हो पा रही है। मैंने ये बीस रुपये बचाये हैं। इन्हें आप ग्रहण करें। ये मेरी ही कमाई के हैं,इसलिये आप इन्हें लेने में संकोच न करें। स्वयं आपको रुपये देने का साहस मुझमें नहीं है,इसलिये इस तरह पहुँचा रहा हूँ।
चिट्ठी और रुपये हाथ में लिये वे बड़ी देर तक खिड़की के बाहर देखते रहे। उनकी आँखें भर आयीं। बोले,”यह लड़का गरीब है। उससे कैसे पैसे ले लूँ।”
वहाँ एक अध्यापक बैठे थे। उन्होंने कहा,”लड़का भावुक है। वापस कर देंगे , तो उसे चोट पहुँचेगी। ” मुक्तिबोध बहुत द्रवित हो गये इस स्नेह से। बड़ी देर तक गुमसुम बैठे रहे।
भोपाल जाने की तैयारी होने लगी। उनका मित्र -भाव फिरजाग उठा। मुझसे कहने लगे,”पार्टनर,मैं आपसे एक बात साफ कहना चाहता हूँ। बुरा मत मानना। देखिये, आपकी जीविका लिखने से चलती है। आप अब भोपाल मेरे साथ चलेंगे। वहाँ रहेंगे। आप लिख नहीं पायेंगे, तो आपको आर्थिक कष्ट होगा। मैं कहता हूँ कि आप मेरे पैसे को अपना पैसा समझकर उपयोग में लाइए।”
मुक्तिबोध बहुत गम्भीर थे। हम लोग एक-दूसरे को देख रहे थे।
वे मेरी तरफ जवाब के लिये आँखें उठाये थे और हम लोग हंसी रोके थे।
तभी मैंने कहा,”आपके पैसे को मैं अपना पैसा समझने को तैयार हूँ। पर पैसा है कहाँ?” प्रमोद जोर से हँस दिया। मुक्तिबोध भी हँस पड़े। फिर एकदम गम्भीर हो गये। बोले,” हाँ ,यही तो मुश्किल है,यही तो गड़बड़ है।”
जो थोडे़ से पैसे उनके हाथ में आ गये थे,वे कुलबुला रहे थे। उन्हें कितने ही कर्तव्य याद आ रहे थे। कोई मित्र कष्ट में है,किसी की पत्नी बीमार है,किसी के बच्चों के लिये कपड़े बनवान हैं। उस अवस्था में जब वे खुद अपंग हो गये थे और अर्थाभाव से पीड़ित थे,वे दूसरों पर इन पैसों को खर्च कर देना चाहते थे। आगे भोपाल में तो इस बात पर बाकायदा युद्ध हुआ और बड़ी मुश्किल से हम उन्हें समझा सके कि रोगी का किसी के प्रति कोई कर्तव्य नहीं होता,सबके कर्तव्य उसके प्रति होते हैं।
और उस रात हम लोग गाड़ी पर चढ़े ,तो साथ में रिमों कागज था। मुक्तिबोध ने हठ करके पूरी कवितायेँ,अधूरी कवितायें, तैयार पाण्डुलिपियाँ सब लदवा लीं। बोले, “यह सब मेरे साथ जायेगा। एकाध हफ्ते बाद मैं कुछ काम करने लायक हो जाऊँगा ,तो कवितायें पूरी करूँगा, नयी लिखूँगा और पाण्डुलिपियाँ दुरस्त करूँगा। अपने से अस्पताल में बेकार पडा़ नहीं रहा जायेगा,पार्टनर! और हाँ…,वह पासबुक रख ली है न?”
पर उन कागजों पर मुक्तिबोध का न फिर हाथ चल सका और न वे एक चेक काट सके।
जिंदगी बिना कविता संग्रह देख और बिना चेक काटे गुजर गयी।
-हरिशंकर परसाई

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

14 responses to “मरना कोई हार नहीं होती- हरिशंकर परसाई”

  1. समीर लाल
    बहुत मार्मिक है, पढ़्ते पढ़्ते खो गया. साधुवाद आपको इसे यहाँ तक लाने के लिये.
  2. eswami
    साहित्य को समृद्ध करने वाले स्वयं कितने अभावों में जिए जान कर दु:ख होता है!
  3. भारत भूषण तिवारी
    प्रगतिशील हिन्दी कविता के प्रमुख हस्ताक्षर का स्वयं के जीवन-काल में एक भी काव्य-संग्रह प्रकाशित न हो पाना विडम्बना ही है.
    संस्मरण उपलब्ध कराने हेतु धन्यवाद.
  4. सागर चन्द नाहर
    बहुत मार्मिक लेख; आपका यह पहला लेख है जिसे एक ही बार में पूरा और तीन बा पूरा पढ़ा। मुक्तिबोध जी के स्वाभिमानी स्वभाव के बारे में बताने के लिये धन्यवाद।
    हम अक्सर साहित्यकारों के बारे में पढ़ते हैं तो मन में एक सवाल उठता है कि क्या उन दिनों सारे साहित्यकारों, कवियों और लेखकों की आर्थिक स्थिती इसी तरह की हुआ करती थी?
  5. अनूप भार्गव
    लेख बहुत सुन्दर लगा । पता नहीं ‘यहां की व्यवस्था ही ऐसी है कि ‘पश्चिम में व्यवसायिक सफ़लता के लिये विचारों की इमानदारी से समझौता ज़रूरी नही है” ।
    कई बार प्रतिभा न हुए भी व्यवसायिक सफ़लता मिल सकती है (Better Marketing) लेकिन मुक्तिबोध या निराला जैसी प्रतिभा हो तो हालात अपनें आप बेहतर हो जाते हैं ।
  6. ई-छाया
    हममें से कितने लोग हिंदी साहित्यिक पत्रिकायें खरीद कर पढते हैं? कितने हिंदी उपन्यास पढते हैं? कितने हिंदी अखबार पढते हैं? क्या कारण है कि गत वर्षों में एक के बाद एक करके सारी नामी गिरामी हिंदी पत्रिकायें बंद होती चली गई? अगर इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढे जा सकें तो शायद आप जान सकें कि क्यों भूत में बहुत से विख्यात लेखक बेहद गरीबी का जीवन जीते रहे हैं।
  7. प्रमेन्‍द्र प्रताप सिंह
    मुक्ति बोध की एक रचना की कुछ पक्तिंयां जो मुझे अच्‍छी लगती है
    ऐसा मत कह मेरे कवि, इस क्षण संवेदन से हो आतुर
    जीवन चिंतन में निर्णय पर अकस्मात मत आ, ओ निर्मल !
    इस वीभत्स प्रसंग में रहो तुम अत्यंत स्वतंत्र निराकुल
    भ्रष्ट ना होने दो युग-युग की सतत साधना महाआराधना
    इस क्षण-भर के दुख-भार से, रहो अविचिलित, रहो अचंचल
    अंतरदीपक के प्रकाश में विणत-प्रणत आत्मस्य रहो तुम
    जीवन के इस गहन अटल के लिये मृत्यु का अर्थ कहो तुम ।
    फुरसजिया जी आपके द्वारा परसाई सीरीज बहुत ही अच्‍छी है
  8. राजीव
    परसाई जी द्वारा मुक्तिबोध जी का अति मर्मस्पर्शी संस्मरण। अनूप जी, धन्यवाद।
  9. निधि
    बहुत मर्मस्पर्शी संस्मरण। कुछेक दिन पहले श्री प्रेमचंद के बारे में पढ़ रही थी। वे भी इसी प्रकार अर्थाभाव से गुज़रे थे। सोच के बहुत दु:ख होता है कि जिन अमर लेखकों ने साहित्य को सब कुछ समर्पित कर दिया उन्हें हमारा समाज कुछ नहीं दे पाया।
  10. Rakesh
    Kshama Karen Fursatiya Ji, Hindi main type karne ka anubhav nahi hai is liye roman lipi ka sahara le raha hoon.
    Bahut hi marmik sansamran hai, sidha dil ko chhooti hai. Kabhi samay mila to main bhi hindi main likhoonga.
    Aasha hai aap aise hi lekh likhte rahenge.
    Shukriya,
    Rakesh
  11. Retrospection « Bavra Mann
    [...] The other day, I was reading one post from Fursatiya, the post actually contains a memorabilia of Harishankar Parsai. Not sure how many of us know his name now, but he was a very famous author of hindi satire. All I remember about his literature is one story called “Bhed Aur Bhediye”, a classic sarcasm on politics in general and the other piece of literature which I have found closest to it both in style and essence is George Orwell’s Animal Farm. [...]
  12. फुरसतिया » कल जो हमने बातें की थीं
    [...] [परसाई जी के अपने समकालीनों के बारे में लिखे संस्मरणों में साथियों की रुचि देखकर आज उनका एक और संस्मरण पेश कर रहा हूं जो उन्होंने अपने समकालीन कवि-मित्र श्रीकांत वर्मा के बारे में लिखा था। ] श्रीकांत वर्मा के विषय में लिखना मेरे लिए बहुत कठिन है। इसी तरह मुक्तिबोध जी की म्रत्यु के बाद तब लिखना कठिन था। हमारे संबंध शुरू तो साहित्य के बहाने हुए थे, पर आगे चलकर ये संबंध वैयक्तिक मित्रता के हो गए। श्रीकांत और मैं मुक्तिबोध के बहुत निकट थे और हम दोनो ने उनसे बहुत सीखा था। पर संबंध विशिष्ट थे। हम कभी वह नहीं करते थे जिसे ‘शाप टाकिंग’ (दुकानदारी की बात) कहते हैं। जब भी मैं श्रीकांत या मुक्तिबोध के साथ बैठता या हम तीनों साथ होते, दुनिया-भर की बाते होतीं, पर साहित्य की सबसे कम। भोपाल में एक पूरी रात हम लोंगो ने चाय पी-पीकर सड़क चलते हुए बातें करते गुजार दी। मुक्तिबोध ने लिखा भी है- कल जो हमने बातें की थी बात बात में रातें की थी [...]
  13. परसाई- विषवमन धर्मी रचनाकार (भाग 1)
    [...] मरना कोई हार नहीं होती- हरिशंकर परसाई [...]
  14. हरिशंकर परसाई- विषवमन धर्मी रचनाकार (भाग 2)
    [...] मरना कोई हार नहीं होती- हरिशंकर परसाई [...]

Leave a Reply

Monday, August 28, 2006

परदे के पीछे-कौन है बे?

http://web.archive.org/web/20140419215442/http://hindini.com/fursatiya/archives/182

परदे के पीछे-कौन है बे?

शेखचिल्ली
शेखचिल्ली
आमतौर पर हम किसी नये ब्लाग पर टिप्पणी ‘नेकी कर ब्लाग में डाल’ वाले मूड में करते हैं। वैसे भी हिंदी ब्लाग जगत में जैसे ही कोई भी नया चिट्ठा दिखा उस पर स्वागत है,बधाई है,आशा है नियमित लिखने रहेंगे आदि गोलियाँ एक ई-मेल की दूरी रखकर बरसा दी जाती हैं। यह सारा कुछ आदतन ,गैरइरादतन होता है । कुछ -कुछ ऐसे ही जैसे कि सड़क पर मुड़ चुकने के बाद हम कभी-कभी मुड़ने के लिये हाथ भी दे देते हैं।
ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी हुआ जब हमने नये पैदा हुये खबरिया ब्लाग के स्वागत के लिये बंदनवार में एक ‘वेलकमिया पत्ता’ टांग दिया। स्वागत करके हम भूल गये। लेकिन कुछ दिन बाद जब दुबारा देखा ब्लाग तो अतुल की लंबी फटकारती टिप्पणी भी दिखी जो यह बता रही थी कि पत्नी को कुछ दिन के लिये भारत भेजने के बाद उनकी मनमाफिक बोलने की आजादी बहाल हो गयी है।
अतुल ने लिखा तो बहुत कुछ है लेकिन जिसने मुझे चौंकाया वह यह है:-
कोफ्त तब होती है जब गुमनाम नामों से कुछ मघईये, तथाकथित पोलखोलक पत्रकार की आत्मा बनने का दावा करते ब्लागजगत पर अवतरित होते हैं और परोसना शुरू कर देते हैं मीडिया या राजनीति के चँडूखाने मे पक रही सड़ी खिचड़ी। जैसे किसी के चेहरे से उसका चरित्र पता नही चलता वैसे ही चँद पोस्टो से किसी ब्लाग का चरित्रान्वेषण करना उचित नही होगा। पर फिर भी खिन्नता होती हैं बल्कि उससे भी बढ़कर निराशा होती है जब देखता हूँ कि ब्लागिंग जैसे सँपादक के डँडे से मुक्त , गुमनाम रहने की स्वतँत्रता देने वाला और सर्वव्यापी माध्यम का दुरुपयोग होते देखते हूँ। उससे भी ज्यादा निराशा होती है जब अन्य चिठ्ठाकारो को इस सबकि तारीफ करते देकता हूँ? क्या यूनिकोड में कोई “अभी तो हम सिर्फ़ मीडिया वालो की लेंगे?” इतना लिखना सीख लें तो उसे आठ दस कमेंट मिलने चाहिये जब्कि दुर्लभ खबर लाने वाले देश दुनिया और बेबाक खुलासे करने वाले नीरज दीवान को महज चार या पाँच कमेंट।
मेरा मानना है कि जो पत्रकार बँधु ब्लागिंग से जुड़े है उन्हे एकसाथ दोहरी सुविधायें उपलब्ध हैं, वे अपने अपने समाचार चैनलों, अखबारो के जरिये देश और समाज की नब्ज पर सीधे हाथ रखे होते हैं। साथ ही ब्लागिंग के जरिये वे वह सब कुछ परोस सकते हैं जिन्हें कारपोरेट प्रतिबद्धतायें नहीं उजागर होने देती। वे इन्टरेट के सूचना भँडार और अपने चैनलों कि असीमित पहुँच का लाभ उठाकर मुद्दो को , समाचारों को तथ्यपरक ढँग से परोस सकते हैं , या फिर अगर वे खुद को बुद्धिजीवी मानते हैं तो स्वतँत्र कालम भी लिख सकते हैं। पर इन सबकी जगह जब अपने सहयोगियो और वरिष्ठ पत्रकारों की सरेआम छीछालेदर, ब्लागिंग में करते देखता हूँ जैसी कि अभी खबरिया चैनल पर देखी या फिर खास खबर परोसने वाले शेखचिल्ली साहब तो यही लगता है कि क्या इसकी जरूरत है हिंदी ब्लागिंग को। जो आप लोग सीधे अपने सहकर्मियों के मुँह पर नही कह सकते वह ब्लागिंग में करके कौन सा तीर मार रहे हैं?
कुछ समय पहले जादूटोने ब्लाग का सशक्त विरोध करने वाले साथी बँधुओ से पूछता हूँ कि आपको मेरी राय से सरोकार हैं या फिर जब बीच चौराहे मीडिया घरानो की लुँगी खींचने वाले इन गुमनाम पत्रकारों पर अदालती कार्यवाही के नोटिस आयेगें तो क्या फिर से आप समर्थन करेंगे।
इसके पहले देबाशीष ने भी कहा:-
बढ़िया है! बस अपना ख्याल रखियेगा, कहीं जिस थाली में खा रहे हैं उसी में छेद करते हुये पकड़े न जायें
तबसे मैं इस बारे में सोच रहा हूँ। मुझे यह बात सही लगी कि जो लोग अपनी पहचान नहीं बता सकते वो दूसरों की पोल क्या खोलेंगे? जो खुद पर्दे में है उसे दूसरे को बेपर्दा करने का हक कैसे मिल सकता है?
अब चूंकि इसके बारे में नारद जी को भी कुछ नहीं पता कि ये खबरिया कहाँ की पैदाइश है,किस लोक में विचरता है कौन जिले का है,नर है या मादा,कम है या ज्यादा ,वजीर है या प्यादा लिहाजा मैं फिलहाल यही मानने के लिये बाध्य हूँ कि यह खबरिया भाई कोई चिरकुट प्रजाति के जीव हैं जिनको हिंदी में टाइपिंग आती है। टीवी -सीवी भी देख देते हैं। पत्रकारों के नाम पता हैं। तथा लेने-देने में यकीन (अभी तो हम सिर्फ़ मीडिया वालो की लेंगे) रखते हैं। वैसे जानने वाले जानते हैं कि ये वाक्य संरचना छोटी लाइन वालों की है । कहीं यह वही तो नहीं!
हम यही समझेंगे कि ये शादी-व्याह के अवसर पर गुब्बारे में हवा भरकर उसके अंदर घुस कर नाचनेवाला कोई जमूरा है।
फिलहाल तो हमें इंतजार है खबरिया की अगली पोल-खोल का लेकिन उसके पहले चाहना है कि ये अपना नकाब खोल दें नहीं तो हम यही समझेंगे कि ये शादी-व्याह के अवसर पर गुब्बारे में हवा भरकर उसके अंदर घुस कर नाचनेवाला कोई जमूरा है। अंदर भरी हवा से कद बढ़ जाता है बच्चे खुश हो जाते हैं लेकिन हवा निकल भी बहुत जल्दी जाती है।
अतुल की टिप्पणी में ही शेखचिल्लीजी का भी जिक्र है। शेखचिल्ली के बारे में जीतेंदर चौधरी ,कुवैती ने सवाल पूछा था निरंतर के पूछिये फुरसतिया से स्तंभ के अंतर्गत। हमने जवाब देने की सोची लेकिन सुधी और कठोर संपादकों ने इसे व्यक्तिगत बता कर गांगुली की तरह प्रश्नसूची से बाहर कर दिया। बहरहाल जीतू का सवाल था:-
फुरसतिया जी, ये बताइए, कि हमारे शेखचिल्ली फोटो मे हँस रहे है या रो रहे है? जरा विस्तार से बताइएगा।
शेखचिल्ली जी ने भी अपनी फोटोलगाते हुये अपने बारे में सिर्फ यह लिखा है:-
हम ये करेंगे- हम वो करेंगे” कहने वाले नेताओं से लेकर दुनिया का चिट्ठा लिखने वाले ब्लॉगर तक- हम सभी श्री शेखचिल्ली के वंशज हैं| उन्हीं की आत्मा के निर्देश पर हिंदी मे यह ब्लॉग आरंभ किया गया है।( तस्वीर में आगे हंस रहे हम हैं और पीछे आप हैं:)))
हम ये करेंगे- हम वो करेंगे” कहने वाले नेताओं से लेकर दुनिया का चिट्ठा लिखने वाले ब्लॉगर तक- हम सभी श्री शेखचिल्ली के वंशज हैं| उन्हीं की आत्मा के निर्देश पर हिंदी मे यह ब्लॉग आरंभ किया गया है।( तस्वीर में आगे हंस रहे हम हैं और पीछे आप हैं:)))
वैसे पहली मुलाकात में “हम कौन हैं?” पूछने वाला शख्स या तो राजकुमार होता है जो कहता है जिनके घर कांच के होते हैं वे दूसरों के यहाँ पत्थर नहीं फेंकते या फिर असरानी -(आधे इधर-आधे उधर बाकी मेरे पीछे)टाइप। अब चूंकि जानी कहने वाले राजकुमार तो गो ,वेंट ,गान हो गये लिहाजा हम यही मानने को मजबूर हैं कि आप अंग्रेजों के जमाने के जेलर के खानदान के मसखरे हैं।
हमने बहुत प्रयास किया कि हम बता सकें कि शेखचिल्ली की दिव्य हंसी दारुण विलाप का कारण तलाश सकें लेकिन असफल रहा। अब हारकर कुछ अटकलें लगाने के लिये बाध्य हूँ।
वैसे रोने से जी हल्का होता है,आँखें खूबसूरत होती हैं यह सब मानने के बावजूद रोना किसी का भी अच्छा नहीं माना जाता लिहाजा हम मान लेते हैं ये सिर्फ हंस रहे हैं।
शेखचिल्ली के वंशज होने के नाते ऊल-जलूल हरकतों में बुद्धिमानी का छौंक लगाकर पेश करने की कोशिश पर इनका कापी राइट है। या फिर हो सकता है कि अपनी हर बचकानी अदा को बुद्धिमानी के चश्मे से देखने की खानदानी बीमारी हो।
शेखचिल्ली के वंशज होने के नाते ऊल-जलूल हरकतों में बुद्धिमानी का छौंक लगाकर पेश करने की कोशिश पर इनका कापी राइट है।
ये हंस शायद इसलिये रहे हैं कि पहले कभी हंसने का मौका नहीं मिला होगा। अब जब दांत टूट गये हैं तो जाते-जाते हंसने का मन करता है जैसे कि उम्र का पचासा पार करने के बाद बहुत से लोगों को लगता है -काश हम जवाँ होते या फिर हम भी अगर बच्चे होते नाम हमारा होता बबलू।
सफेद मूँछे और मुंदी हुई आंखों से लगता है कि इनकी आत्मा पर किसी राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष का कब्जा है जो मरते दम तक अपना शिकंजा कसे रहना चाहता है। पकी मूँछें, टूटे दांत,(दुनिया से )मुंदी आखें ,छिपे हुये पंजे बता रहे हैं कि ये खाये -खेले हुये हैं। साथ के छौने को उस गुर में पारंगत कर रहे हैं जिसमें ये अपने को माहिर मानने का भ्रम पाले हैं।
ये हंस क्यों रहे हैं यह बताना मुश्किल है क्योंकि हंसी की महिमा अपरंपार है। यह ज्ञानी और मूर्ख पर समान रूप से कृपालु होती है। यह बालक और वृद्ध को समान भाव से मारती है। व्यक्ति खुश होकर भी हंस सकता है तथा फंस कर भी। हंसे तो फंसे के साथ-साथ फंसे तो हंसे भी चलन में आना चाहिये। वैसे लोग बिना मतलब भी हंस सकते हैं । हंसी के पीछे कोई कारण तलाशना कुछ ऐसा ही है जैसे मेरी इस बस यूँ ही नुमा पोस्ट का कोई गंभीर मतलब निकालना ।
हंसी की महिमा अपरंपार है। यह ज्ञानी और मूर्ख पर समान रूप से कृपालु होती है। यह बालक और वृद्ध को समान भाव से मारती है। व्यक्ति खुश होकर भी हंस सकता है तथा फंस कर पर भी।
अक्सर ऐसा होता है कि आदमी को जब कुछ समझ में नहीं आता है तो हंसने लगता है कुछ-कुछ वैसे ही जब किसी नौजवान को कुछ समझ में नहीं आता तो शादी कर लेता है।
बहरहाल इतना पढ़ लेने के बाद जो थकान हो गयी उसके श्रम को भुलाने के लिये एक सत्यकथा कहता हूँ उसे ध्यान से पढ़ने का प्रयास करें:-
किसी विभाग में कुछ निर्माणकार्य कराया गया। रात को उसकी सुरक्षा के लिये एक स्टाफ को तैनात किया गया। रात में विभाग के वरिष्ठतम अधिकारी का मन किया कि देखा जाये काम कैसा हुआ है। सो वे अपने मन के आधीन होकर पैर चलाते हुये निर्माण स्थल पर पहुँचे। रात का समय था। स्टाफ को अंधेरे में दिखता नहीं था सो वह किसी को आता देखकर बोला -कौन है बे? साहब ने सहमते -सरमाते हुये अपना परिचय दिया तथा स्टाफ ने हकलाते हुये बताया साहब गलती हो गयी। लेकिन साहब खुश हुये कि चौकसी चकाचक है।
इस निहायत सहज घटना से विद्वान लोग अपने-अपने मतलब के मतलब निकाल सकते हैं। लेकिन आम मतलब निकाला गया वह यह था कि जिसको सबसे पहले नमस्ते करने में बडे़-बड़ों में मारा-मारी होती हो उससे अंधेरे का फायदा उठाकर उनसे सात पद नीचे का कर्मचारी बड़ी कर्तव्य परायणता से डांटते हुये पूछ
सकता है-कौन है बे?
संभव है शेखचिल्ली जी तथा खबरिया लोग देवरहा बाबा की तरह सिद्ध पुरुष हों जिनके लात खाने के लिये बात-बात में देश के प्रधानमंत्री तक लाइन लगा देते हों। लेकिन हम तो आम इंसान हैं। अज्ञानी हैं। हमें कुछ नहीं पता कि ये विभूतियाँ कौन हैं। लिहाजा हम अपने अज्ञानांधकार का फायदा उठाते हुये दोनों विभूतियों से पूछना चाहते हैं- हे महाराज, बतायें आप कौन हैं? अपनी नकाब उठायें हम आपके बारे में जानने के लिये व्याकुल हैं। आप कुछ बतायें वर्ना हो सकता है कि अगली किसी मुलाकात में हम पूछें -कौन है बे?
फिलहाल बस इतना ही। शेष फिर कभी…।

24 responses to “परदे के पीछे-कौन है बे?”

  1. जीतू
    सही धोए हो गुरु। जहाँ तक ब्लॉग की बात है, आजकल तो एक से एक बढकर नए नए बन्दे सामने आ रहे है। कोई पत्रकार है, कोई नेता, कोई योगी तो कोई भोगी। पुराने जमाने में( अभी तो साल पहले) अगर कोई नया ब्लॉग बनाता था, तो पूरे ब्लॉग जगत मे मिठाई रूपी टिप्पणी बाँटकर आता था, कि आओ भाई, हमारे भी द्वारे आओ। आजकल ब्लॉग उद्देश्य आधारित है,पता नही कहाँ कहाँ से आ रहे है।
    खबरिया की हमे खबर नारदमुनि को है, लेकिन वो गोपनीयता की शर्तों से बन्धे है, इसलिए नही बता सकते।
  2. निधि
    अंदर भरी हवा से कद बढ़ जाता है बच्चे खुश हो जाते हैं लेकिन हवा निकल भी बहुत जल्दी जाती है।
    बहुत गूढ़ बात कही। अच्छी लगी। मज़ेदार आलेख। बाकी मैं भी अतुल जी की बात का समर्थन करती हूँ।
  3. जगदीश भाटिया
    कहीं यह न हो कि हम कहें कौन है बे और वो खिसक लें पतली गली से क्योंकि अगर सामने आना होता तो पहले ही नकाब क्यों लगाते।
    वैसे अगर पहचान छिपाई तो जो लिखा जायेगा उस की विश्वसनियता कैसे होगी?
    यह आपने सही कहा कि हर नये ब्लाग पर हम स्वागत की टिप्पणी कर आते हैं बिना सोचे (जब तक अतुल जी चेता न दें।)
  4. जगदीश भाटिया
    अनुप जी लेख में शेखचिल्ली का लिंक ठीक नहीं है, कृपया ठीक कर दें।
  5. नीरज दीवान
    बैठे ठाले अपन लोगों को भी ये क्या सूझी कि दो-चार अनामिकाओं के चक्कर में पिले पड़े हैं. खबरिया हो या शेखचिल्ली दोनों अपनी भड़ास निकाल रहे हैं. परदे में हो या बेपरदा.. अपन को कोई फर्क नहीं पड़ने का. जिसे पढ़ना है वो तो पढ़ेगा ही. आगे से भले ही टीप ना छोड़े.
  6. समीर लाल
    “हमने नये पैदा हुये खबरिया ब्लाग के स्वागत के लिये बंदनवार में एक ‘वेलकमिया पत्ता’ टांग दिया। “…हमने भी टांग दिया था….:)वैसे, इस लेख से आपने खबर अच्छी ली है.
  7. Rahul
    Dear arrogant and haughty Mr. अनूप शुक्ला ,It seems you have appointed yourself as unofficial censor of Hindi blog world . Internet is opened for each and everyone. By the way is this platform your uncle’s ?
    Why are you to interfere in other people’s matters?
    Who are you to tell public what is right and what is not.
    If you want feelgood flavour then watch Karan Johar movies, There is nothing offensive in those blogs (Khabaria and Shekhchilli) ,we consider them as good humour.
    You have written such harsh comments on them which show how polite?? you are. Mr. Shukla mend your own house.
    What you have written is acerbic.
  8. अतुल
    यह टिप्पणी नीरज भाई के लिये
    कुछ साल पहले कानपुर में दो लड़के एक लड़की को सरेआम छेड़ते थे। सारे राहगीर वही सोचते थे जो आम भारतीय सोचते हैं, या अभी आपने सोचा “अपन को कोई फर्क नहीं पड़ने का”। हुआ यह कि जब हद हो गई तो लड़की ने पुलिस में शिकयत कर दी। पुलिस ने भी सोचा कि मामूली छेड़छाड़ है,जाने दो “अपन को कोई फर्क नहीं पड़ने का”। बाद में एकदिन दिनदहाड़े उन दोनो ने लड़की के चेहरे पर तेजाब फेंक दिया, पुलिस से शिकयत करने के जुर्म में।
    नीरज भाई हम सबकी प्रवृति हो गई है गलत का विरोध महज कागज रँगके करने की। वैसे ब्लागजगत खुला मँच है, सबको अपनी बात कहने का पूरा हक है, कोई जबरदस्ती नही। जैसे जादूटोने वाला अपना धँधा फैला सकता है ब्लागिंग पर, वैसे ही कोई मस्तराम का कचरा भी छाप सकता है।
    पर जब तक टिप्पणी का दरवाजा खुला है, हम टिप्पणी क्यों न करें? किसी डाक्टर ने थोड़े ही कहा या फिर किसी धर्मशास्त्र में भी नही लिखा है कि नये ब्लाग पर हमेशा सोहरगान ही किया जाये। जैसे खुलामँच है लिखने का, वैसे ही टिप्पणी करने की भी आजादी है। टिप्पणी उत्साह बढ़ाने को भी होती हैं और इनसे सही रास्ता भी दिखाया जा सकता है। आपका क्या कहना है?
  9. ई-छाया
    फुरसतिया जी
    आपका यह लेख पढकर बेहद क्षोभ हुआ, यह मानने को यकीन नही हुआ कि यह आपने लिखा है।
    मेरा मानना है कि आपका उद्देश्य मतलब रखता है, न कि आपका नाम, या पता।
    कोई भी व्यक्ति जान बूझ कर गुमनामी में रहकर चिठ्ठाकारी नही करना चाहता, अगर वह ऐसा करता है तो जरूर उसकी कोई मजबूरी होगी, उसे समझने का प्रयत्न करें, और जब तक उद्देश्य ठीक है, विरोध न करें।
    जब तकनीक के पुरोधा लोगों ने यह सुविधा दी है कि लोग मेरी तरह गुमनाम रहकर चिठ्ठाकारी कर सकें तो आप या और किसी को भी कोई आपत्ति नही होनी चाहिये। अगर आप लोगों को नही अच्छा लगता तो मत पढिये। जिसे अच्छा लगेगा वह पढेगा।
    बहरहाल यह लेख पढकर मुझे लगता है कि मुझे हिंदी चिठ्ठाकारी से अवकाश ले लेना चाहिये।
  10. Tarun
    खबरिया लेगा सबकी खबर लेकिन खबरिया की खबर कौन लेगा, जब तक आगे की खबर आये या खबरिया प्रेम नगर की डगरिया चले तब तक देखते रहिये आजतक…..
  11. ई-छाया
    फुरसतिया जी,
    जवाब के लिये धन्यवाद। आपका यह चिठ्ठा हम सभी उपनाम या छद्मनाम से लिखने वालों को संबोधित करता प्रतीत होता है।
    मैने कहीं भी चिठ्ठाकारी छोडने की बात नही लिखी। मैने कहा अवकाश लेने की इच्छा हो रही है। चिठ्ठाकारी छोडना शायद मेरे बस से बाहर है अब तो, जब तक कि कोई बडी मजबूरी न आ जाये।
    मै जानता हूं कि न तो मै या कोई और हिंदी में चिठ्ठाकारी कर के किसी पर कोई अहसान कर रहा है, फिर भी याद दिलाने के लिये धन्यवाद।
    बाकी रहा आज तक, हां मुझे भी अच्छा चैनल लगता है, लेकिन बुराइयां सबमें होती हैं और यदि कोई उनकी बुराइयां बताकर उन्हे सुधरने के लिये कुछ बिंदु दे रहा है, तो इसमें क्या हर्ज। हां “लेंगे” वाली भाषा जरूर गलत थी, लेकिन समय समय पर कई बार इससे भी गई गुजरी भाषा पढ जाता हूं कुछ चिठ्ठों पर। मै मानता हूं चिठ्ठालेखन “स्वान्तः सुखाय” है, होना चाहिये, बहुजन हिताय हो या न हो, अगर लिखने वाला खुश है और उसे कुछ लोग पढ रहे हैं या नही पढ रहे हैं, इससे किसी को कोई फर्क नही पडना चाहिये। यह मेरा मानना है, बाकी, सारे लोग पढे लिखे समझदार हैं, जैसी सबकी मर्जी।
  12. eswami
    मैं भी ई-स्वामी नाम से लिखता हूं लेकिन क्या लोगों का नाम लेकर उन पर अपनी सही पहचान छुपा कर कीचड उछालता फ़िर रहा हूं? और जो ऐसा कर रहे हैं क्या उचित है?
    इस लेख के बारे मे और इस मुद्दे पर मेरी राय है की छद्म नामों का प्रयोग कर ब्लाग पत्रकारिता के नाम पर लोगों का और चैनलों पर की जा रही स्तरहीन छींटाकशी पर व्यंग्य है यह लेख. चोट बहुत करारी है. यह लेख उस घटिया मजमेबाजी पर प्रश्न उठाता है जिसमें पाठक को सस्ते लेखन में रस लेने वाला तमाशबीन समझा जा रहा है.
    इन्टरनेट स्वतंत्र अभिव्यक्ति और दो तरफ़ा संवाद का माध्यम है और कोई किसी पर सेंसरशिप नही लगा सकता. कोई किसी का बडा भाई नहीं बनने चला और ये नही सिखाने चला की ब्लागिंग कैसे हो.
    हुआ बस ये है की अतुल और अनूप नामक एक-दो पाठक अपने जागरूक होने का सशक्त प्रमाण देने के लिए मुखर हो उठे हैं और जब ऐसे सजग पाठक मुखर होते हैं तो बिना सोचे समझे नही होते.
    किसी की “लेने” का भावार्थ समझते हैं आप? एक वेबसाईट बना कर कहा जा रहा है की हम फ़लाने की लेंगे और आप पढें मजे लें. सहृदय पाठक फ़िर भी हिंदी में लेखन होने की खुशी में स्वागत है करने लगते हैं. फ़िर होती है छींटाकशी शुरु कुछ लोग तीस पर भी कहते हैं चलो लगे रहो!
    अतुल का प्रश्न है की क्यों कम इस स्तरहीनता के मौन दर्शक बनें इस प्रकार की हरकतों पर अपनी मौन स्वीकृति लगा दें? हमें क्या समझा जा रहा है भई? क्या वे यह कहने का हक नहीं रखते की खबरिया/शेखचिल्ली महोदय हम आपके लेखन की चालू शैली को पसंद नही करते और आपको दोयम दर्जे का पत्रकार भी नही मानते और आपके लेखन को मजेदार लेखन भी नही मानते. आपकी दी जा रही खबरों में पठनीय और स्तरीय कुछ नही मिला.
    अतुल और अनूपजी नें उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रयोग इस घटियागिरी पर व्यंग्य करके किया है और तीर निशाने पर लगा है. मैं देखता हूं की एकाधिक लोगों ने चीजों को सही परिपेक्ष्य में देखना शुरु किया है. इस पूरे वृत्तांत में सजग पाठक का चुप्पी तोडना लाज़मी हो गया था और ये करने का सहस करके वो मेरे और प्रिय हुए हैं. फ़िर भी जिसको इस प्रकार का लेखन पढने में मजा आ रहा है वे पढें लेकिन कम से कम उन्हें सनद रहे की पाठकों का एक तबका जरा अलग मत रखता है!
    अगर ब्लाग पत्रकारिता की जा रही है और भडास निकालने के लिए ही की जा रही है तो भी भाषाई स्तरीयता का आग्रह मान कर और सामग्री के सुरुचिपूर्ण होने का मानदंड बना कर आप अपने पाठकों का सम्मान ही अर्जित करते हो – क्या होगा अगर अधिकतर पाठक नाक भौं सिकोड लें और ऐसे प्रयासों को प्रतिक्रिया देने लायक भी ना समझें? महमूद शुरु में अच्छे कामिडियन थे बाद में स्तरहीन और पकाऊ हो गए – लोग स्वस्थ्य आलोचना के अभाव में चाहे जो बेढब करने लगते हैं. मैं स्वयं उद्दंड लेखन के लिए जाना जाता हूं लेकिन “इसकी उसकी लेंगे” कहन और पाठकों की बिलौटों से तुलना की जाना तो मेरे हिसाब से भी लेखन की शालीन मर्यादाओं का उल्लंघन है और इस ये बात दूसरी ओर पहूंचाई जाना जरूरी है!
  13. प्रत्यक्षा
    कोई भी चिट्ठा अगर स्तर हीन है तो पाठक अपने आप एकाध बार को छोडकर पढना , टिप्पणी देना बन्द कर देंगे । कोई चिट्ठा पढे न पढे यह पाठक की अपनी सूझबूझ पर निर्धारित होता है । लिखने की स्वतंत्रता है , विरोध ज़ाहिर करने की भी स्वतंत्रता है । बस भाषा की शालीनता बनी रहे , भावों की शालीनता बनी रहे ।
  14. आशीष
    हम भी आपके इस लेख से असहमति जाहीर करते हैं। वैसे हम मानते है कि लिखने , पढने और उस पर अपनी राय जाहिर करने के लिये हर कोइ स्वतंत्र है बशर्ते शालीनता की सीमा ना लांघी जाये।
  15. रवि
    आपने चिट्ठाचर्चा पर राहुल द्वारा अंग्रेज़ी में हड़काने वाली बात लिखी है. मेरा मानना है कि आप उसे यहां उद्धधृत अवश्य करें. तमाम पाठकों तथा इस चिट्ठे पर भी न्याय होगा.
  16. रवि
    …There is nothing offensive in those blogs (Khabaria and Shekhchilli) ,we consider them as good humour….
    प्रिय मित्र, राहुल.
    आप इस चिट्ठे को दुबारा, तिबारा, समझ में आने तक चौबारा और हो सके तो समझ में आने के बाद भी दर्जनों बार पढ़ें.
    फिर अपनी राय दें.
    इस चिट्ठे पर आपकी राय अंततः वही होगी जो आपका लिखा ऊपर उद्धृत किया गया है. :)
  17. सागर चन्द नाहर
    मैं भी अनूप जी, अतुल जी और ई-स्वामी जी से सहमत हुँ, बहुत पहले यह बात कहना चाहता था, परन्तु खबरिया जी की आज तक वाली पोष्ट पर १५ टिप्पणीयाँ देख कर साहस नहीं जुटा पाया, क्यों कि जब उनकी टिप्पणियों में सारे श्रेष्ठ चिट्ठाकारों कि टिप्पणियाँ थी और लगभग सबने उनकी तारीफ़ की थी, फ़िर मेरी क्या हस्ती!!!!
    काश मैं अतुल जी की तरह हिम्मत जुटा पाता।
  18. SHUAIB
    बापरे – इतना लम्बा लेख और अब तक 18 टिप्पणीयाँ फिर भी निकाब नही उतारा????
    फुरसतिया जीः
    इन्टरनेट तो खुली किताब है ना और ब्लॉग तो अपने मन की भडास निकालने के लिए बेहतरीन जगाह है। सबको हक है के अपने ब्लॉग पर खुल कर लिखे और खुल कर लिखने का ये मतलब नही के हर किसी पर कीचड उछाले ये अच्छी बात नही। मैं शेखचिल्ली और खबरिया के बारे मे जानना नही चाहता मगर अच्छा होता के वोह खुद अपना परिचय करवाते – खैर उन्की अपनी मर्ज़ी।
    फुरसतिया जी अपकी बात भी सही है मगर मेरी राए मे आपको चाहिये था के पहले आप उन दोनों को मेल भेज कर फिर चैटिंग से बात चीत बढाते और उन्के बारे मे जानने की कोशिश करते और फिर अप खुद अपने ब्लॉग पर अपने अन्दाज़ मे उनका परिचय करवाते तो पढने वालों को बहुत मज़ा आता और अपने कारनामे पर बधाई पाते।
    इस टिप्पणी मे मैं ने वही लिखा जो आपका लेख पढ कर समझ आई – बाकी अगर मेरी कोई बात आपको बुरी लगे तो मैं फुरसतिया जी से क्षमा चाहता हूं।
  19. Anoop Bhargava
    अगर जवाबदेही न देनी हो तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है – चाहे सही हो या गलत । बस लिखनें वाले के मन को खुश करना चाहिये । क्या फ़र्क पड़ता है ? कुछ भी तो दाव पर नही है ? ऐसे में उस लेखन की कितनी महत्ता रह जाती है ? मेरे लिये तो बिल्कुल नहीं ।
    लेखन में शालीनता का तकाज़ा तो फ़िर भी उठता ही है , चाहे आप नाम से लिखें या बेनाम ।
  20. प्रमेन्‍्द्र प्रताप सिंह
    मै तो यही कहूगां कि छद्म नाम से लिखना गलत नही है परन्‍तु आपको अपने बचाव अर्थात गोपनीय रहने की इतनी आवाश्‍यकत है तो व्‍यक्तिगत रूप से किसी चिठ्ठेकार पर टिप्‍पडी न करे। एक तो गोपनीय रहना चाहते है तथा दूसरे को गाली दे ऐसे दोहरे मापदण्‍ड शोभा नही देता है। अगर आपको आक्षेप करना है तो सामने आना ही होगा।
    इसी से सम्‍बन्धित मेरा लेख है ”अल्प ब्लाग जीवन के फटे में पैबँद” यहां पर http://pramendra.blogspot.com
  21. anunad
    भाई अनूप जी, मैं अनाम रहकर लिखने वालों के बारे में आपके विचारों से सहमत नही हूँ; किन्तु राहुल के विचारों से भी सहमत नहीं हो सकता। राहुल् के लिये यही कहूँगा कि कोई किसी को कुछ बनाता नही है, हर व्यक्ति अपनी क्षमता से कुछ बनता है। अनूप जी ने अपनी काबिलियत से हिन्दी चिट्ठाजगत में एक सम्माननीय जगह बनायी है, आप भी बना सकते हैं।
    नाभिषेको न संस्कारः सिंहस्य कृयते मृगै:|
    विक्रमार्जितसत्वस्य स्वयमेव मृगेन्द्रता।।
    ( वन के जन्तु सिंह का न तो अभिषेक करते हैं, न कोई संस्कार। (किन्तु) अपने विक्रम से अर्जित उसकी शक्ति ही उसे मृगेन्द्र बना देती है।
  22. हिमांशु
    अरे भाइयो-बहनो माताओं-पिताओ आकाओं। ऐसी कौनसी मुई इमरजेन्सी आ गयी जो खबरिया के २-३ पेज के लेख पर ही बाहें खुल गयी,भृकुटी तन गयी और तलवारें (कलम पढें) खिँच गयीं।
    हो सकता है वो बच्चे हों, जोश है कुछ करने का। कुछ मौका तो दो।
    लिखते हैं शहसवार मैदाने ब्लॉग में,
    वो क्या खाक लिखंगे जो सिर्फ़ औरों की ‘लिया’ करते हैं।
  23. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] जाता है. 21. सीढियों के पास वाला कमरा 22. परदे के पीछे-कौन है बे? 23. मरना कोई हार नहीं होती- हरिशंकर [...]

Sunday, August 27, 2006

अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है

http://web.archive.org/web/20110926111523/http://hindini.com/fursatiya/archives/180

अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है

[अतुल ने प्रवासी जीवन के बारे में लिखी मेरी पोस्ट में डा.अंजना संधीर की कविता ,अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है, का जिक्र किया था। इस कविता का अनुवाद अनेक भाषाओं में हो चुका है। अनूप भार्गव जी ने वह कविता मुझे भेजी है। मैं यहाँ पर डा. अंजना संधीर की कविता पोस्ट कर रहा हूँ-डा. अंजना संधीर तथा अनूप भार्गव जी को धन्यवाद देते हुये।]
वे ऊँचे-ऊँचे खूबसूरत हाई-वे,
जिन पर चलती हैं कारें,
तेज रफ्तार से कतारबद्ध,
चलती कार में चाय पीते-पीते,
टेलीफोन करते,
दूर-दूर कारों में रोमांस करते,
अमरीका धीरे-धीरे सांसों में उतरने लगता है।
मूंगफली और पिस्ते का एक भाव,
पेट्रोल और शराब पानी के भाव,
इतना सस्ता लगता है,
सब्जियों से ज्यादा मांस
कि ईमान डोलने लगता है
मंहगी घास खाने से अच्छा है सस्ता मांस खाना
और धीरे-धीरे-
अमरीका स्वाद में बसने लगता है।
गरम पानी के शावर,
टेलीविजन की चैनलें,
सेक्स के मुक्त दृश्य,
किशोरावस्था से वीकेन्ड में गायब रहने की स्वतंत्रता,
डिस्को की मस्ती,
अपनी मनमानी का जीवन,
कहीं भी,कभी भी,किसी के भी साथ-
उठने-बैठने की आजादी
धीरे-धीरे हड्डियों में उतरने लगता है अमेरिका।
अमरीका जब सांसों में बसने लगा-
तो अच्छा लगा
क्योंकि सांसों को-
पंखों की उडा़न का अन्दाजा हुआ
जब स्वाद में बसने लगा अमरीका
तो सोचा -खाओ ,
इतना सस्ता कहाँ मिलेगा?
लेकिन हड्डियों बसने लगा अमरीका तो परेशान हूँ
बच्चे हाथ से निकल गये,
वतन छूट गया,
संस्कृति का मिश्रण हो गया,
जवानी बुढ़ा गई,
सुविधायें हड्डियों में समा गयीं-
अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है।
व्यक्ति वतन को भूल जाता है,
और सोचता रहता है,
मैं अपने वतन जाना चाहता हूँ,
मगर इन सुखों की गुलामी
मेरी हड्डियों में बस गयी है,
इसीलिये कहता हूँ- तुम नये हो
अमरीका जब सांसों में बसने लगे,
तुम उड़ने लगो,
तो सात समंदर पार -
अपनों के चेहरे याद रखना,
जब स्वाद में बसने लगे अमरीका-
तो अपने घर के खाने
और माँ की रसोई याद करना,
सुविधाओं में असुविधायें याद रखना
यहीं से जाग जाना,
संस्कृति की मशाल जगाये रखना,
अमरीका को हड्डियों में मत बसने देना
अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में जम जाता है।
डा.अंजना संधीर

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

15 responses to “अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है”

  1. kali
    thats why jod jod dukh raha hai, main sochun chickenguniya ho gaya hai, per nahi yeh to america hi hai jo jod-jod main baas gaya hai.
  2. निधि
    बहुत सुंदर और मर्मपूर्ण कविता। लेखिका को बधाई। आपको, अतुल जी को और अनूप भार्गव जी को यह रचना हम तक पहुँचाने के लिये हार्दिक धन्यवाद।
  3. समीर लाल
    अनूप द्वय एवं अतुल जी को रचना को यहां तक लाने और पढ़्वाने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद.
  4. Anoop Bhargava
    मुझे अंजना जी को जाननें का सौभाग्य रहा है । कोलम्बिआ यूनिवर्सिटी में पढाती हैं । अपनी कविताओं के साथ साथ वह खूबसूरत गज़ल सिर्फ़ लिखती ही नहीं , गाती भी हैं । मेरे पास उन की कुछ गज़लों की Audio Files हैं ।
    उन की एक गज़ल देखिये :
    होंठ चुप है निगाह बोले है
    आंख सब दिल के राज खोले है
    उसका दुश्मन जमाना हो ले है
    आजकल जो ज़बान खोले है
    आइना देख लीजिये साहब
    आइना साफ़ साफ़ बोले है
    मुझ को महसूस अब ये होता है
    मेरी सोचों में तू ही बोले है
    हम हों तुम हों कि बूटा बूटा हो
    मीर की ही ज़बान बोले है
    अब गुजरती नहीं गुजारते हैं
    ज़िन्दगी अब सफ़र में डोले है
    दिन गुजरता है रात होती है
    सुबह होती है शाम होले है ।
  5. जगदीश भाटिया
    दर्द और आनंद का अनूठा मिश्रण है कविता में, एक कविता में इतना कुछ कह दिया जितना पिछले दिनों इस विषय पर हिंदी चिट्ठों पर चली बहस में भी नहीं कहा गया था।
    सच्ची और बेबाक कविता।
  6. ई-स्वामी » जो सिर पर से निकल गई!
    [...] गुरुदेव के कृपा प्रसाद से कविता पढी – “अमरीका हड्डियों में समा जाता है” [...]
  7. SHUAIB
    बहुत सुंदर है – सबके साथ शेर करने के लिए धन्यवाद और बधाई
  8. सागर चन्द नाहर
    बहुत अच्छी कविता और लेख पर शायद इस कविता से सभी लोग सहमत ना हों, यह भी हो सकता है कि किसी को यह सारी बातें दकियानूसी लगे।
    ……………भाई किसने जबरदस्ती की है कि आप अमेरिका चले आओ
  9. अतुल
    अ..र..र..रे, हमे काहे का श्रेय गया भाई। साधुवाद है अनूप भाई साहब (फुरसतिया) और अनूप भाई साहब (भार्गव) को।
  10. Manoshi
    कविता पहले भी सुनी थी और अपने आप में बहुत सुंदर है कविता। सब्ज़ी से ज़्यादा माँस मिलना और यहाँ रह कर यहाँ के खाने के अभ्यस्त हो जाना, बच्चों का हाथ से निकल जाना (ऐसा हमेशा हर परिवार में नहीं होता), और जो भी बयान किया गया है इस कविता में जैसी गाडियों में दूर दूर तक काफ़ी हाथ में लिये आदि आदि यहाँ दिखता है हर जगह, बिल्कुल सही वर्णन है, मगर बस एक ही बात से नहीं सहमत हो पा रही हूँ कि “सुविधायें देकर हड्डियों में समा जाता है।” ये सच है कि सुविधायें बहुत ज़्यादा हैं बल्कि ये कहें कि हमें हमारे मेहनत और टैक्स देने का सही रिवार्ड दिया जाता है, सुविधाओं के रूप में। तो उसमें ग़लत क्या है? एक फ़ोन भर की देरी और सारा अटका काम मिनटों में हो जाना ( ९५% समय), अनुशासित ट्रैफ़िक, साफ़ सड़कें और गलियाँ, सबका काम एक हे निर्धारित समय पर होना आदि आदि, सच अमेरिका हड्डियों में उतर जाता है। मगर वतन छूटता नहीं, न मन से न ही तन से…
  11. Tarun
    कुछ दिनों से देख रहा हूँ मैं (जिस देश में रहते हैं वो देश) महान, मैं महान का गुणगान चल रहा है। मैं तो इतना ही कहूँगा –
    तुम्हें इंडिया से कब फुरसत, हम यू एस से कब खाली।
    चलो बस हो चुका कोसना, ना तुम खाली ना हम खाली।।
    जहाँ रहो वहाँ के होके रहो और मस्त रहो स्वर्ग ना भारत है ना ही अमेरिका वैसे ही नर्क ना भारत है ना ही अमेरिका इसलिये दोनो जगह के अपने अपने फायदे नुकसान हैं। अब ये रहने वाले को चुनना है कि उसकी शोपिंग लिस्ट में कौन कौन से फायदे और कौन कौन से नुकसान हैं।
  12. रजनीश मंगला
    आपकी हर बात सच्ची है लेकिन हर सच्ची बात इसमें नहीं है। विदेश में रहे बगैर हर बात समझना मुश्किल है। और इस तरह का प्रचार किसी के काम नहीं आ सकता, बल्कि दोनों ओर के लोगों का केवल मन ही बहला सकता है। वैसे भी यहां लिखी गई बातों का फ़ासला अब बहुत कम हो गया है और कम होता जाएगा। वैसे ये कविता अपनी मुफ़्त बंटने वाली इस छोटी सी पत्रिका में डाली है। आसा है कि आपको कोई आपत्ती नहीं होगी।
  13. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] गये रंगून 19. वो तो अपनी कहानी ले बैठा… 20. अमरीका सुविधायें देकर हड्डियों में स�…. 21. सीढियों के पास वाला कमरा 22. परदे के [...]
  14. rajeshri panchal
    अर्थपूर्ण कविता है,लेखिका को मेरी तरफ से हार्दिक धन्यवाद .
  15. चंदन कुमार मिश्र
    फिर भी अमेरिका के लिए हहुआए हुए हैं बहुत से लोग!
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..नीतीश कुमार के ब्लॉग से गायब कर दी गई मेरी टिप्पणी (हिन्दी दिवस आयोजन से लौटकर)My ComLuv Profile