http://web.archive.org/web/20110925234515/http://hindini.com/fursatiya/archives/1227
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
…अथ कोलकता मिलन कथा
पिछ्ले दिनों कोलकता जाना हुआ। हल्का सा अचानक। हल्का सा अचानक
इसलिये जाने के एक हफ़्ते पहले ही दो दिन की एक ट्रेनिंग के लिये हमें सिटी
ऑफ़ जॉय जाने को कहा गया। हम तुरंत तैयार हो गये। दुर्योधन के बायोग्राफ़र और चौपटस्वामी प्रियंकरजी को इत्तला दे दिये कि आ रहे हैं कलकत्ता। फ़ूट सको तो फ़ूट लेव। फ़िर न कहना कि बताया नहीं और अचानक धमक पड़े।
जाड़े में कोहरे भीगीं ट्रेनें उत्ता आकर्षित नहीं करतीं सो हवाई यात्रा का तय हुआ। अचानक बचत-भूत सवार हुआ और सबसे सस्ती हवाई सेवा की सबसे सस्ती टिकट खरीद कर नियत समय पर एरोड्रम की तरफ़ गम्यमान हुये। लखनऊ हवाई अड्डे तक पहुंचते-पहुंचते मोबाइल सेवा से पता चला कि जहाज एक घंटा देर से उड़ेगा। अंदर पहुंचकर हमने सोचा मोबाइल चार्ज कर लिया जाये। वहां देखा कि चार्जिंग का तार आवारा, अनुशासन हीन, बेप्लग हुआ लटका हुआ था। मन मेरा मसिजीवी हो उठा और हम फ़ोटो खैंच लिये ताकि सनद रहे और वखत-जरूरत हम हवाई-अड्डों पर बरती जा रही लापरवाही पर ’सावधानी हटी-दुर्घटना घटी’ टाइप शीर्षक सटा कर कुछ लिख सकूं। तब तक ये आंकड़े भी जुटा लेंगे कि दुनिया में इत्ते प्रतिशत आगें शार्ट सर्किट से लगी हैं। इनमें से इत्ते प्रतिशत शार्ट सर्किट आवारा टाइप के तार से हुये हैं।
लखनऊ से कोलकता की यात्रा नब्बे मिनट में सलट गई। टॉफ़ी, कम्पट, चाय-कॉफ़ी-नास्ता विहीन यात्रा से यह पुष्टि हुयी कि हमने जिस एअरलाईन का टिकट लिया था उसी से आये हैं। हवाई जहाज से उतरते ही एक सुमुखि सुन्दरी की जमुहाई देखकर ख्याल आया कि शायद यात्रा की बोरियत जम्हुआई लेते समय खुले मुंह की समानुपाती होती हो।
हवाई अड्डे में अपने लिये आई गाड़ी को भूसे में सुई सरीखा खोजते रहे। लेकिन वहां भूसा ही भूसा मिला। सुई नहीं! भला हो एक और साथी का जिसके लिये आई गाड़ी में हम लद लिये। लदान सुख अभी जरा सा ही लूटे थे कि झटका दे दिये मित्र जी। पता चला कि हम जिस सबसे सस्ती एयरयात्रा करते बचतगर्व में ऐंठे हुये थे उससे यात्रा की अनुमति नहीं है। हमसे ढाई गुना पैसा खर्च करने वाला हमको हमारी बेवकूफ़ी का एहसास करा रहा था। बहरहाल आम बेवकूफ़ की तरह हम फ़ौरन बहादुर से बन गये और फ़ोन पर ही पूछपाछ कर यात्रा के लिये जरूरी अनुमति लेने का इंतजाम करके कोलकत्ता में धंस गये!
दिन भर भारत की सबसे पुरानी फ़ैक्ट्रियों में से एक, गन एंड शेल फ़ैक्ट्री काशीपुर, के अतिथिगृह में ट्रेनिंगरत रहे। जब बाहर हो तो फ़ोन करने का जी बहुत हुड़कता है। उनको भी फ़ोनिया लेते हैं जिनके नम्बर पास नहीं होते। मसिजीवी को बताये कि दो सौ नौ साल पुरानी फ़ैक्ट्री के अतिथिगृह में धंसे हैं तो मसिजीवी ने फ़ौरन फ़ोटो-सेशन की सलाह दे दी। हम अंशत: पालन भी किये। वहीं हमारे कोर्स डायरेक्टर ने पूछा कि सुना है तुम ब्लॉग-स्लॉग भी लिखते हो। हमने पूछा कि आपसे यह चुगली किसने की? पता चला कि उनमें और मनीष कुमार में इन-लॉ घराने की रिस्तेदारी है। मनीष कुमार ने ही उनसे हमारी चुगली की थी कि हम भी ब्लॉगर हैं। वो तो अच्छा रहा कि उनकी ब्लॉग और हमारी ट्रेनिंग में बराबर की रुचि थी और उनसे आगे कोई वार्तालाप न हुआ वर्ना तो न जाने क्या गजब होता।
शिवकुमार मिसिरजी शाम को आये। चलने-फ़िरने में जित्ती तकलीफ़ हैं उनको उससे अब तक उनको एक पीड़ा-महाकाव्य निकाल देना चाहिये लेकिन वे दुख के व्यापारी नहीं हैं। मिले तो इधर-उधर की, न जाने किधर-किधर की बातें करते रहे। अगले दिन मिलने का तय हुआ। मनोज कुमार के आने पहले शिव कुमार निकल लिये।
शाम को लपककर मिलने का बयान मनोज कुमार जारी कर चुके हैं। उसका खंडन करने का हमारा कोई मूड नहीं है। मनोजजी हमारे ही विभाग में हैं। प्रशासनिक और राजभाषा क्रियान्वयन अधिकारी। मिलने पर ब्लॉग जगत से संबंधित तमाम बातें हुयीं। मनोजजी को हम मनोयोग से लिंक लगाना बताये। कापी-पेन के सहारे। और बातें अगले दिन शिवकुमार मिश्र के अड्डे पर बताने का तय हुआ।
अगले दिन यानि 16 जवनरी को शिवकुमार जी आये और हमको उठा ले गये। ट्रेनिंग खतम हो गयी थी। सस्ती हवाई सेवा अगले दिन थी। हम फ़ुरसतिया हो लिये। शिवबाबू के अड्डे पर पहुंचे तो उन्होंने ट्रेलर दिखाया। अपने दफ़्तर के साथी को पहले फोन करके नीचे बुलाया। जब वह नीचे आ गया तो उसई को ऊपर बुला लिया। फ़िर नीचे जाकर टैक्सी से जाकर मृणाल को लाने को कहा। शायद वे यह दिखाना चाहते थे कि उनके दफ़्तर के लोग उनकी बात फ़ोन पर भी मान लेते हैं।
मनोज भाई हमारे इंतजार में वह बिछाये बैठे थे जिसे हिंदी में लोग पलक पांवड़ा कहते हैं। हम एक बार फ़िर लपक कर गले मिले। औकात से बाहर आते पेट ने इस गले मिलन यज्ञ में विघ्न पैदा करने की कोशिश की लेकिन उस विघ्न को कुचल कर हमने अपनी मनमानी की। बाद में मृणाल और प्रियंकरजी के आने पर फ़िर से लपक मिलन क्रिया हुई।
प्रियंकरजी ने घुसते ही हम पर आरोप लगाया कि हम ब्लॉग जगत के दो शरीफ़ों को परेशान कर रहे हैं। सच तो है प्रियंकर जी कमरे में बाद में घुसे उनका आरोप उनसे पहले घुसा और हल्का होने के कारण घुसते ही कमरे में छा गया। हम सभी लोग आरोप की आवभगत में लग गये और अपने-अपने हिसाब से उसकी देखभाल करने लगे। पहल हम खंडन करते रहे तो प्रियंकर जी उसे समर्थन देते रहे। जब हमने उससे सही मानते हुये शरीफ़ों की तारीफ़ करके आरोप को हल्का करने की कोशिश करने का प्रयास किया तो पाया कि प्रियंकरजी ने शरीफ़ो को परेशान करने के अपने आरोप से समर्थन वापस ले लिया था और जिनको वे शरीफ़ बताते हुये शुरू हुये थे उनकी ही चिरकुटईयां गिनाने लगे। मुझे एक बार फ़िर लगा कि ब्लॉग जगत का कुछ भी स्थाई नहीं है।
कुछ ही देर में ब्लॉगरों से कमरा खचाखच भर गया। एक व्यक्ति एक कुर्सी के सिद्धान्त का पालन करते हुये कुल जमा पांच कुर्सियों पर पांच ब्लॉगरों ने कब्जा कर लिया।
प्रियंकरजी ने अपने संबंध सूत्र का हवाला देते हुये बताया कि उनकी जिनसे गहरी छनती है उनसे उनकी कभी न कभी भिडंत हो चुकी होती है। कुछ इस अंदाज में कि अगर भिडंत नहीं हुई उनसे तो समझ लिये आपके उनसे संबंध स्थाई नहीं हुये हैं। हमारे तो सबंधों का भिंडंतोपरान्त प्रीतिकर स्थाईकरण हो चुका है। आप लोग अपना देख लो। अगर प्रियंकरजी से संबंध स्थाई रखना चाहते हैं तो मौका निकालकर भिड़-भिड़ा लीजिये। बवाल कटे।
वैसे आजकल प्रियंकरजी कोई भी मौका बहुत कम ही देते हैं। लिखना/टिपियाना ही बंद किये हैं तो आप उनसे भिड़ोगे क्या? पिछले साल जरूर लिखने का संकल्प लिये थे , लिये ही रहे। इस बार हमने उनको सुझाव दिया कि आप न लिखने का संकल्प लीजिये। टूटेगा तो मजा आयेगा और नहीं टूटेगा तो सुकून मिलेगा कि संकल्प तो पूरा हुआ।
अपने संबंधों का हवा-पानी दिखाने के लिये प्रियंकरजी ने बताया कि कुछ दिन पहले प्रमोद सिंह ने खुद फ़ोन करके उनको कहा कि उनको लिखते-पढ़ते रहना चाहिये।
ब्लॉगजगत के न जाने कौन-कौन किस्से दोहराये गये। कुछ पर इत्ते जोर के ठहाके लगे कि लगा छत हिल जायेगी। लेकिन छत भी अनामी ब्लॉगर सरीखी बेशरम चुपचाप तमाशा देखती रही। यह लिख चुकने के बाद मन बोला- भैये, छत को अनामी मत लिख! तटस्थ लिख! अनामी उखड़ जायेगा उसको तुमने बेशरम लिख दिया!। सो पूरी बात फ़िर से–छत भी तटस्थ ब्लॉगर की तरह चुपचाप तमाशा देखती रही! उसको इस बात की कौनौ चिन्ता फ़िकिर नहीं थी कि कोई उसके अपराध लिखेगा-कभी।
शिवकुमार मिश्र ने कई बार कहने के बावजूद अपना लैपटाप नहीं निकाला। उनको डर था कि मनोजकुमार कहीं कुछ सीख न जायें। शायद वे दुर्योधन की डायरी दिखाना नहीं चाहते होंगे।
किसी ब्लॉगर की अंग्रेजी कमजोर कमजोर होने की बात चली तो हमने कहा कि बात केवल अंग्रेजी की नहीं है। उनका अंग्रेजी और हिन्दी पर समान अधिकार है। इस सच को सुनते ही न जाने क्यों सब हंसने लगे।
आजकल के तमाम छंटे हुये ब्लॉगरों के बहाने आजकल की हिन्दी ब्लॉगिंग की प्रवृत्तियों पर चिंतन टाइप हुआ। निष्कर्षत: हमारा मानना था कि फ़िलहाल हिन्दी ब्लॉगिंग में टिप्पणियों के लिये जरूरत से ज्यादा हाहाकार है। यह भी कि टिप्पणियों को ही सब कुछ/बहुत कुछ मानने के चलते हिन्दी का ब्लॉग तंत्र में यह स्थिति पैदा हुई है कि आम तौर पर ब्लॉग लेखन का स्तर औसत सा ही है। बीच-बीच में कुछ पोस्टें कुछ बेहतर आ जाती हैं लेकिन ज्यादातर आपसी संबंधों के आधार पर हिट होती पोस्टें। इस खतरे पर भी बात हुई कि इस तरह औसत से लेखन की बहुत वाह-वाही होने से उसमें अपने को बहुत उत्तम समझने के भाव आ जाने का खतरा बढ़ जाता है और आगे और अच्छा लिखने की संभवनायें कम हो जाती हैं।
बतकही के दौरान यह भी बात चर्चा में आई कि ब्लॉग जगत में सहिष्णुता की कमी होती जा रही है। जिसको देखो वही भन्नाने लगता है। लोगों का ’मान’ इत्ता छुई-मुई हो गया है कि जरा-जरा सी बात पर उसकी ’हानि’ हो जाती है। जिन लोगों ने कभी एक-दूसरे को देखा नहीं वे जरा-जरा से मुद्दे पर दूसरे को देख लेने की धमकी दे देते हैं। लोग धमकियां ऐसे देते हैं जैसे ब्लॉगर मीट के लिये अदालत में बुला रहे हैं।
हमें याद आया कि शिवकुमार मिश्र ने बैठने के अलावा रसगुल्ला,ढोकला,चाय,पानी का भी इंतजाम भी किया है। यह याद आते ही हमने ढोकले के नमक का हक अदा किया और पांच ब्लॉगरों से भरे खचाखच कमरे में उनके लेखन-वेखन की तारीफ़ करके वहीं डाल दी। खाली तारीफ़ करने से लोग खुश तो हो जाते हैं लेकिन सच नहीं मानते इसलिये हमने एकाध ऐसी बातें भी कहीं जिससे लगे कि हम उनकी आलोचना भी कर रहे हैं। शायद इसी का असर हुआ कि अगली चाय में से शिवकुमार मिश्र ने दूध गायब कर दिया और स्पेशल चाय का नाम लेकर हमको काली चाय पिला दी। हमें पक्का भरोसा है कि अगर कुछ देर और उनके लेखन पर पर सही बात होती तो अगली चाय से चीनी, उसकी अगली से पत्ती और उसके बाद बिना पानी की स्पेशल चाय पीना ही हमारे भाग्य में बदा होता।
मनोज कुमार ने बहुत कम समय में नियमित समय में ब्लॉगर साथियों में अपनी पहचान बना ली है। तीन माह में सौ पोस्टें और उसके बाद धड़ल्ले से लेखन। उनसे बतियाने के बाद पता कि वे मंगल फ़ॉन्ट में टाइपिस्टों की तरह टाइप करके पोस्ट लिखते हैं। इसको सीखने और गति आने में दो-तीन माह लग जाते हैं। हमसे बातचीत होने के बाद मनोज जी ने बाराहा पर हाथ आजमाया और तड़ से वे इसपर फ़िदा हो गये। अब तक मेरा ख्याल है बाराहा पर हाथ साफ़ हो गया होगा
मृणाल ने शुरुआत अंग्रेजी ब्लॉग से की थी। टहलते हुये हिन्दी ब्लॉगिंग में आये थे। कुछ दिन बड़ी जबर कविताबाजी करने के बाद अब अपने ब्लॉग को कुछ दिन के लिये विराम दिये हैं। आजकल जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी समझने का प्रयास कर रहे हैं।
ब्लॉग जगत की सामान्य प्रवृत्तियों पर चर्चा करते-करते हमने बहाने से हिन्दी साहित्य पर भी हाथ साफ़ कर डाला। हिन्दी साहित्य की दो पीढियों के मित्र त्रयी (डा.रामविलास शर्मा,अमृतलालनागर, केदारनाथ अग्रवाल और मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव )का तुलनात्मक अध्ययननुमा कर डाला। प्रियंकरजी का मानना है कि मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव की मित्र त्रयी बहुत कम समय में बहुत अधिक हासिल करने की भावना से हलकान थी। मेरा मानना था कि डा.रामविलास शर्मा, अमृतलाल नागर और केदारनाथ अग्रवाल के स्थायित्व पूर्ण लेखन के पीछे इनके अपने जीवन साथी से एकनिष्ठ और स्थाई संबंधों का भी हाथ था। डा.राम विलास शर्मा की इस बात की भी चर्चा हुई कि वे अपनी रायल्टी के पैसे कम लेकर अपनी किताबों को सस्ते दामों में छपवाने का प्रयास करते रहे। पचीसो लाख के इनाम में धनराशि उन्होंने कल्याणकारी कामों के लिये वापस कर दी और केवल प्रमाणपत्र लिया।
जब वहां पर धड़ल्ले से साहित्यिक विमर्श जैसा चला रहा था तब हमने विमर्श के बीच अपना मोबाइल धर दिया। मोबाइल ने विमर्श लपक लिया। उसको नीचे आपकी सेवा में पेश किया गया है।
लगभग चार घंटे समय बेचारा स्टैचू बना खड़ा रहा। जैसे ही हमें यह ख्याल आया ,घड़ी की सुइयां सरपट दौड़ कर नौ और दस के बीच खड़ी हो गयीं। हम निकल लिये। कमरा वीरान हो गया। हमारे निकलते ही उसपर अंधेरे न कब्जा कर लिया। नीचे आये तो पता चला कि चौकीदार गेट पर ताला बंद करके कहीं चला गया था। शायद किसी को बताने गया हो कि आजकल तीन इडियट का हल्ला है, हम यहां पांच पकड़कर रखे हैं। बहरहाल जब वह आया तो शिवकुमार मिश्र ने अपने प्रभाव का उपयोग करके ताला खुलवाया और हम लोग वापस निकल लिये।
अगले दिन कोलकता की सड़के पर थोड़ा टहले। चाय की दुकानों पर अड्डेबाजी देखी। बस स्टॉप, सब्जी मंडी और वहां की आसपास की धजा देखी।
पहली बार हम कोलकता सत्ताइस साल पहले साइकिल से गये थे। इलाहाबाद से पहुंचने में नौ दिन में पहुंचे थे। इस बार लखनऊ से कोलकता हवाई जहाज से नब्बे मिनट में पहुंच गये।
लखनऊ हवाई अड्डे से कंचन से बतियाये। कुछ देर बतियाने के बाद फोन कट गया। कंचन ने बताया कि अच्छा ही हुआ क्योंकि जाड़े में गला खराब है और डाक्टर ने बोलने से मना किया है। हमने कहा- तबियत नासाज होने वाली जल्द ही लिख देंगे ताकि लोग समय पर हाल-चाल पूछ सकें। कंचन ने खराब गले के बावजूद तमाम हिदायतें दीं। हमें लग रहा था कि जब खराब गले के बावजूद इतनी समझाइस दे रही हैं कंचन तो अगर कहीं गला चकाचक होता तो क्या हाल होता।
सत्रह की शाम वापस कानपुर लौटे। पता चला कि हमारे कोलकता से चलने के कुछ पहले ही ज्योति बाबू गुजर चुके थे।
कोलकता में दोस्तों से मिलना बहुत खुशनुमा अनुभव रहा। बहुत दिन बाद खुलकर हंसे। खिंचाई की , करवाई। अब देखिये फ़िर कब जाना होता है।
जाड़े में कोहरे भीगीं ट्रेनें उत्ता आकर्षित नहीं करतीं सो हवाई यात्रा का तय हुआ। अचानक बचत-भूत सवार हुआ और सबसे सस्ती हवाई सेवा की सबसे सस्ती टिकट खरीद कर नियत समय पर एरोड्रम की तरफ़ गम्यमान हुये। लखनऊ हवाई अड्डे तक पहुंचते-पहुंचते मोबाइल सेवा से पता चला कि जहाज एक घंटा देर से उड़ेगा। अंदर पहुंचकर हमने सोचा मोबाइल चार्ज कर लिया जाये। वहां देखा कि चार्जिंग का तार आवारा, अनुशासन हीन, बेप्लग हुआ लटका हुआ था। मन मेरा मसिजीवी हो उठा और हम फ़ोटो खैंच लिये ताकि सनद रहे और वखत-जरूरत हम हवाई-अड्डों पर बरती जा रही लापरवाही पर ’सावधानी हटी-दुर्घटना घटी’ टाइप शीर्षक सटा कर कुछ लिख सकूं। तब तक ये आंकड़े भी जुटा लेंगे कि दुनिया में इत्ते प्रतिशत आगें शार्ट सर्किट से लगी हैं। इनमें से इत्ते प्रतिशत शार्ट सर्किट आवारा टाइप के तार से हुये हैं।
लखनऊ से कोलकता की यात्रा नब्बे मिनट में सलट गई। टॉफ़ी, कम्पट, चाय-कॉफ़ी-नास्ता विहीन यात्रा से यह पुष्टि हुयी कि हमने जिस एअरलाईन का टिकट लिया था उसी से आये हैं। हवाई जहाज से उतरते ही एक सुमुखि सुन्दरी की जमुहाई देखकर ख्याल आया कि शायद यात्रा की बोरियत जम्हुआई लेते समय खुले मुंह की समानुपाती होती हो।
हवाई अड्डे में अपने लिये आई गाड़ी को भूसे में सुई सरीखा खोजते रहे। लेकिन वहां भूसा ही भूसा मिला। सुई नहीं! भला हो एक और साथी का जिसके लिये आई गाड़ी में हम लद लिये। लदान सुख अभी जरा सा ही लूटे थे कि झटका दे दिये मित्र जी। पता चला कि हम जिस सबसे सस्ती एयरयात्रा करते बचतगर्व में ऐंठे हुये थे उससे यात्रा की अनुमति नहीं है। हमसे ढाई गुना पैसा खर्च करने वाला हमको हमारी बेवकूफ़ी का एहसास करा रहा था। बहरहाल आम बेवकूफ़ की तरह हम फ़ौरन बहादुर से बन गये और फ़ोन पर ही पूछपाछ कर यात्रा के लिये जरूरी अनुमति लेने का इंतजाम करके कोलकत्ता में धंस गये!
दिन भर भारत की सबसे पुरानी फ़ैक्ट्रियों में से एक, गन एंड शेल फ़ैक्ट्री काशीपुर, के अतिथिगृह में ट्रेनिंगरत रहे। जब बाहर हो तो फ़ोन करने का जी बहुत हुड़कता है। उनको भी फ़ोनिया लेते हैं जिनके नम्बर पास नहीं होते। मसिजीवी को बताये कि दो सौ नौ साल पुरानी फ़ैक्ट्री के अतिथिगृह में धंसे हैं तो मसिजीवी ने फ़ौरन फ़ोटो-सेशन की सलाह दे दी। हम अंशत: पालन भी किये। वहीं हमारे कोर्स डायरेक्टर ने पूछा कि सुना है तुम ब्लॉग-स्लॉग भी लिखते हो। हमने पूछा कि आपसे यह चुगली किसने की? पता चला कि उनमें और मनीष कुमार में इन-लॉ घराने की रिस्तेदारी है। मनीष कुमार ने ही उनसे हमारी चुगली की थी कि हम भी ब्लॉगर हैं। वो तो अच्छा रहा कि उनकी ब्लॉग और हमारी ट्रेनिंग में बराबर की रुचि थी और उनसे आगे कोई वार्तालाप न हुआ वर्ना तो न जाने क्या गजब होता।
शिवकुमार मिसिरजी शाम को आये। चलने-फ़िरने में जित्ती तकलीफ़ हैं उनको उससे अब तक उनको एक पीड़ा-महाकाव्य निकाल देना चाहिये लेकिन वे दुख के व्यापारी नहीं हैं। मिले तो इधर-उधर की, न जाने किधर-किधर की बातें करते रहे। अगले दिन मिलने का तय हुआ। मनोज कुमार के आने पहले शिव कुमार निकल लिये।
शाम को लपककर मिलने का बयान मनोज कुमार जारी कर चुके हैं। उसका खंडन करने का हमारा कोई मूड नहीं है। मनोजजी हमारे ही विभाग में हैं। प्रशासनिक और राजभाषा क्रियान्वयन अधिकारी। मिलने पर ब्लॉग जगत से संबंधित तमाम बातें हुयीं। मनोजजी को हम मनोयोग से लिंक लगाना बताये। कापी-पेन के सहारे। और बातें अगले दिन शिवकुमार मिश्र के अड्डे पर बताने का तय हुआ।
अगले दिन यानि 16 जवनरी को शिवकुमार जी आये और हमको उठा ले गये। ट्रेनिंग खतम हो गयी थी। सस्ती हवाई सेवा अगले दिन थी। हम फ़ुरसतिया हो लिये। शिवबाबू के अड्डे पर पहुंचे तो उन्होंने ट्रेलर दिखाया। अपने दफ़्तर के साथी को पहले फोन करके नीचे बुलाया। जब वह नीचे आ गया तो उसई को ऊपर बुला लिया। फ़िर नीचे जाकर टैक्सी से जाकर मृणाल को लाने को कहा। शायद वे यह दिखाना चाहते थे कि उनके दफ़्तर के लोग उनकी बात फ़ोन पर भी मान लेते हैं।
मनोज भाई हमारे इंतजार में वह बिछाये बैठे थे जिसे हिंदी में लोग पलक पांवड़ा कहते हैं। हम एक बार फ़िर लपक कर गले मिले। औकात से बाहर आते पेट ने इस गले मिलन यज्ञ में विघ्न पैदा करने की कोशिश की लेकिन उस विघ्न को कुचल कर हमने अपनी मनमानी की। बाद में मृणाल और प्रियंकरजी के आने पर फ़िर से लपक मिलन क्रिया हुई।
प्रियंकरजी ने घुसते ही हम पर आरोप लगाया कि हम ब्लॉग जगत के दो शरीफ़ों को परेशान कर रहे हैं। सच तो है प्रियंकर जी कमरे में बाद में घुसे उनका आरोप उनसे पहले घुसा और हल्का होने के कारण घुसते ही कमरे में छा गया। हम सभी लोग आरोप की आवभगत में लग गये और अपने-अपने हिसाब से उसकी देखभाल करने लगे। पहल हम खंडन करते रहे तो प्रियंकर जी उसे समर्थन देते रहे। जब हमने उससे सही मानते हुये शरीफ़ों की तारीफ़ करके आरोप को हल्का करने की कोशिश करने का प्रयास किया तो पाया कि प्रियंकरजी ने शरीफ़ो को परेशान करने के अपने आरोप से समर्थन वापस ले लिया था और जिनको वे शरीफ़ बताते हुये शुरू हुये थे उनकी ही चिरकुटईयां गिनाने लगे। मुझे एक बार फ़िर लगा कि ब्लॉग जगत का कुछ भी स्थाई नहीं है।
कुछ ही देर में ब्लॉगरों से कमरा खचाखच भर गया। एक व्यक्ति एक कुर्सी के सिद्धान्त का पालन करते हुये कुल जमा पांच कुर्सियों पर पांच ब्लॉगरों ने कब्जा कर लिया।
प्रियंकरजी ने अपने संबंध सूत्र का हवाला देते हुये बताया कि उनकी जिनसे गहरी छनती है उनसे उनकी कभी न कभी भिडंत हो चुकी होती है। कुछ इस अंदाज में कि अगर भिडंत नहीं हुई उनसे तो समझ लिये आपके उनसे संबंध स्थाई नहीं हुये हैं। हमारे तो सबंधों का भिंडंतोपरान्त प्रीतिकर स्थाईकरण हो चुका है। आप लोग अपना देख लो। अगर प्रियंकरजी से संबंध स्थाई रखना चाहते हैं तो मौका निकालकर भिड़-भिड़ा लीजिये। बवाल कटे।
वैसे आजकल प्रियंकरजी कोई भी मौका बहुत कम ही देते हैं। लिखना/टिपियाना ही बंद किये हैं तो आप उनसे भिड़ोगे क्या? पिछले साल जरूर लिखने का संकल्प लिये थे , लिये ही रहे। इस बार हमने उनको सुझाव दिया कि आप न लिखने का संकल्प लीजिये। टूटेगा तो मजा आयेगा और नहीं टूटेगा तो सुकून मिलेगा कि संकल्प तो पूरा हुआ।
अपने संबंधों का हवा-पानी दिखाने के लिये प्रियंकरजी ने बताया कि कुछ दिन पहले प्रमोद सिंह ने खुद फ़ोन करके उनको कहा कि उनको लिखते-पढ़ते रहना चाहिये।
ब्लॉगजगत के न जाने कौन-कौन किस्से दोहराये गये। कुछ पर इत्ते जोर के ठहाके लगे कि लगा छत हिल जायेगी। लेकिन छत भी अनामी ब्लॉगर सरीखी बेशरम चुपचाप तमाशा देखती रही। यह लिख चुकने के बाद मन बोला- भैये, छत को अनामी मत लिख! तटस्थ लिख! अनामी उखड़ जायेगा उसको तुमने बेशरम लिख दिया!। सो पूरी बात फ़िर से–छत भी तटस्थ ब्लॉगर की तरह चुपचाप तमाशा देखती रही! उसको इस बात की कौनौ चिन्ता फ़िकिर नहीं थी कि कोई उसके अपराध लिखेगा-कभी।
शिवकुमार मिश्र ने कई बार कहने के बावजूद अपना लैपटाप नहीं निकाला। उनको डर था कि मनोजकुमार कहीं कुछ सीख न जायें। शायद वे दुर्योधन की डायरी दिखाना नहीं चाहते होंगे।
किसी ब्लॉगर की अंग्रेजी कमजोर कमजोर होने की बात चली तो हमने कहा कि बात केवल अंग्रेजी की नहीं है। उनका अंग्रेजी और हिन्दी पर समान अधिकार है। इस सच को सुनते ही न जाने क्यों सब हंसने लगे।
आजकल के तमाम छंटे हुये ब्लॉगरों के बहाने आजकल की हिन्दी ब्लॉगिंग की प्रवृत्तियों पर चिंतन टाइप हुआ। निष्कर्षत: हमारा मानना था कि फ़िलहाल हिन्दी ब्लॉगिंग में टिप्पणियों के लिये जरूरत से ज्यादा हाहाकार है। यह भी कि टिप्पणियों को ही सब कुछ/बहुत कुछ मानने के चलते हिन्दी का ब्लॉग तंत्र में यह स्थिति पैदा हुई है कि आम तौर पर ब्लॉग लेखन का स्तर औसत सा ही है। बीच-बीच में कुछ पोस्टें कुछ बेहतर आ जाती हैं लेकिन ज्यादातर आपसी संबंधों के आधार पर हिट होती पोस्टें। इस खतरे पर भी बात हुई कि इस तरह औसत से लेखन की बहुत वाह-वाही होने से उसमें अपने को बहुत उत्तम समझने के भाव आ जाने का खतरा बढ़ जाता है और आगे और अच्छा लिखने की संभवनायें कम हो जाती हैं।
बतकही के दौरान यह भी बात चर्चा में आई कि ब्लॉग जगत में सहिष्णुता की कमी होती जा रही है। जिसको देखो वही भन्नाने लगता है। लोगों का ’मान’ इत्ता छुई-मुई हो गया है कि जरा-जरा सी बात पर उसकी ’हानि’ हो जाती है। जिन लोगों ने कभी एक-दूसरे को देखा नहीं वे जरा-जरा से मुद्दे पर दूसरे को देख लेने की धमकी दे देते हैं। लोग धमकियां ऐसे देते हैं जैसे ब्लॉगर मीट के लिये अदालत में बुला रहे हैं।
हमें याद आया कि शिवकुमार मिश्र ने बैठने के अलावा रसगुल्ला,ढोकला,चाय,पानी का भी इंतजाम भी किया है। यह याद आते ही हमने ढोकले के नमक का हक अदा किया और पांच ब्लॉगरों से भरे खचाखच कमरे में उनके लेखन-वेखन की तारीफ़ करके वहीं डाल दी। खाली तारीफ़ करने से लोग खुश तो हो जाते हैं लेकिन सच नहीं मानते इसलिये हमने एकाध ऐसी बातें भी कहीं जिससे लगे कि हम उनकी आलोचना भी कर रहे हैं। शायद इसी का असर हुआ कि अगली चाय में से शिवकुमार मिश्र ने दूध गायब कर दिया और स्पेशल चाय का नाम लेकर हमको काली चाय पिला दी। हमें पक्का भरोसा है कि अगर कुछ देर और उनके लेखन पर पर सही बात होती तो अगली चाय से चीनी, उसकी अगली से पत्ती और उसके बाद बिना पानी की स्पेशल चाय पीना ही हमारे भाग्य में बदा होता।
मनोज कुमार ने बहुत कम समय में नियमित समय में ब्लॉगर साथियों में अपनी पहचान बना ली है। तीन माह में सौ पोस्टें और उसके बाद धड़ल्ले से लेखन। उनसे बतियाने के बाद पता कि वे मंगल फ़ॉन्ट में टाइपिस्टों की तरह टाइप करके पोस्ट लिखते हैं। इसको सीखने और गति आने में दो-तीन माह लग जाते हैं। हमसे बातचीत होने के बाद मनोज जी ने बाराहा पर हाथ आजमाया और तड़ से वे इसपर फ़िदा हो गये। अब तक मेरा ख्याल है बाराहा पर हाथ साफ़ हो गया होगा
मृणाल ने शुरुआत अंग्रेजी ब्लॉग से की थी। टहलते हुये हिन्दी ब्लॉगिंग में आये थे। कुछ दिन बड़ी जबर कविताबाजी करने के बाद अब अपने ब्लॉग को कुछ दिन के लिये विराम दिये हैं। आजकल जनरल थ्योरी ऑफ़ रिलेटिविटी समझने का प्रयास कर रहे हैं।
ब्लॉग जगत की सामान्य प्रवृत्तियों पर चर्चा करते-करते हमने बहाने से हिन्दी साहित्य पर भी हाथ साफ़ कर डाला। हिन्दी साहित्य की दो पीढियों के मित्र त्रयी (डा.रामविलास शर्मा,अमृतलालनागर, केदारनाथ अग्रवाल और मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव )का तुलनात्मक अध्ययननुमा कर डाला। प्रियंकरजी का मानना है कि मोहन राकेश, कमलेश्वर और राजेन्द्र यादव की मित्र त्रयी बहुत कम समय में बहुत अधिक हासिल करने की भावना से हलकान थी। मेरा मानना था कि डा.रामविलास शर्मा, अमृतलाल नागर और केदारनाथ अग्रवाल के स्थायित्व पूर्ण लेखन के पीछे इनके अपने जीवन साथी से एकनिष्ठ और स्थाई संबंधों का भी हाथ था। डा.राम विलास शर्मा की इस बात की भी चर्चा हुई कि वे अपनी रायल्टी के पैसे कम लेकर अपनी किताबों को सस्ते दामों में छपवाने का प्रयास करते रहे। पचीसो लाख के इनाम में धनराशि उन्होंने कल्याणकारी कामों के लिये वापस कर दी और केवल प्रमाणपत्र लिया।
जब वहां पर धड़ल्ले से साहित्यिक विमर्श जैसा चला रहा था तब हमने विमर्श के बीच अपना मोबाइल धर दिया। मोबाइल ने विमर्श लपक लिया। उसको नीचे आपकी सेवा में पेश किया गया है।
लगभग चार घंटे समय बेचारा स्टैचू बना खड़ा रहा। जैसे ही हमें यह ख्याल आया ,घड़ी की सुइयां सरपट दौड़ कर नौ और दस के बीच खड़ी हो गयीं। हम निकल लिये। कमरा वीरान हो गया। हमारे निकलते ही उसपर अंधेरे न कब्जा कर लिया। नीचे आये तो पता चला कि चौकीदार गेट पर ताला बंद करके कहीं चला गया था। शायद किसी को बताने गया हो कि आजकल तीन इडियट का हल्ला है, हम यहां पांच पकड़कर रखे हैं। बहरहाल जब वह आया तो शिवकुमार मिश्र ने अपने प्रभाव का उपयोग करके ताला खुलवाया और हम लोग वापस निकल लिये।
अगले दिन कोलकता की सड़के पर थोड़ा टहले। चाय की दुकानों पर अड्डेबाजी देखी। बस स्टॉप, सब्जी मंडी और वहां की आसपास की धजा देखी।
पहली बार हम कोलकता सत्ताइस साल पहले साइकिल से गये थे। इलाहाबाद से पहुंचने में नौ दिन में पहुंचे थे। इस बार लखनऊ से कोलकता हवाई जहाज से नब्बे मिनट में पहुंच गये।
लखनऊ हवाई अड्डे से कंचन से बतियाये। कुछ देर बतियाने के बाद फोन कट गया। कंचन ने बताया कि अच्छा ही हुआ क्योंकि जाड़े में गला खराब है और डाक्टर ने बोलने से मना किया है। हमने कहा- तबियत नासाज होने वाली जल्द ही लिख देंगे ताकि लोग समय पर हाल-चाल पूछ सकें। कंचन ने खराब गले के बावजूद तमाम हिदायतें दीं। हमें लग रहा था कि जब खराब गले के बावजूद इतनी समझाइस दे रही हैं कंचन तो अगर कहीं गला चकाचक होता तो क्या हाल होता।
सत्रह की शाम वापस कानपुर लौटे। पता चला कि हमारे कोलकता से चलने के कुछ पहले ही ज्योति बाबू गुजर चुके थे।
कोलकता में दोस्तों से मिलना बहुत खुशनुमा अनुभव रहा। बहुत दिन बाद खुलकर हंसे। खिंचाई की , करवाई। अब देखिये फ़िर कब जाना होता है।
2. कंचन दीदी का गला तो हमेशा ही खराब रहता है.. वैसे भी वो मुझे नया नाम दे चुकी हैं, और उसी के मुताबिक मुझे कोस रही होंगी कि, “ये नौस्टैल्जिया को एक काम दिये थे वो भी भूल गया..” कौन सा काम? यह जानने के लिये उन्ही से संपर्क करें..
3. कलकत्ता में कुछ खास बात है क्या? कोट-वोट पहिन कर गये थे? चेन्नई में तो ऐसे नहीं आये थे? लगता है आंटी जी(आपकी मिसेज) से बात करना जरूरी हो गया है..
पर शिव कुमार जी द्वारा पानी पिला-पिला कर किये गये स्वागत को आप कैसे भूल सकते हैं?
सही कह रहे हैं. अभी तक महाकाव्य नहीं तो खंड-काव्य तो निकाल ही लेना चाहिए था. पीड़ा और दुख शायद यह सोचते हुए टिके हुए हैं कि “कुछ न कुछ तो लिखेगा ही.” पीड़ा की आशंका में दो-चार पोस्ट निकल आती हैं, सच की पीड़ा में तो न जाने क्या-क्या निकाला जा सकता है….:-) वैसे पढ़कर लगा जैसे हमें आपने केवल १०१ रूपये के निजी मुचलके पर छोड़ दिया…..:-)
सभी फोटो ध्यान से देखे, दूर्योधन की डायरी कहाँ छिपा कर रखी जा सकती है, यह निरिक्षण करते रहे.
अंग्रेजी हमसे ज्यादा किसी की कमजोर हो ही नहीं सकती, अपना नाम तक रोमन में नहीं लिख सकते.
आप हंस लिये, हँसा दिये…बहुत पुण्य का काम किया
चाय की सतत अवनति की कथा बेहद मनोरंजक रही।
1)जब बाहर हो तो फ़ोन करने का जी बहुत हुड़कता है। उनको भी फ़ोनिया लेते हैं जिनके नम्बर पास नहीं होते।
2)लेकिन छत भी अनामी ब्लॉगर सरीखी बेशरम चुपचाप तमाशा देखती रही। यह लिख चुकने के बाद मन बोला- भैये, छत को अनामी मत लिख! तटस्थ लिख! अनामी उखड़ जायेगा उसको तुमने बेशरम लिख दिया!। सो पूरी बात फ़िर से–छत भी तटस्थ ब्लॉगर की तरह चुपचाप तमाशा देखती रही! उसको इस बात की कौनौ चिन्ता फ़िकिर नहीं थी कि कोई उसके अपराध लिखेगा-कभी।
3)जिन लोगों ने कभी एक-दूसरे को देखा नहीं वे जरा-जरा से मुद्दे पर दूसरे को देख लेने की धमकी दे देते हैं। लोग धमकियां ऐसे देते हैं जैसे ब्लॉगर मीट के लिये अदालत में बुला रहे हैं।
पी डी की आंटी के लिए कोई शॉपिंग वापिंग वगैरह नहीं किए, घर में घुसने कैसे दिया गया?
शिव भाई के जल्द स्वस्थ होने की कामना करते हैं।
साहित्य विमर्श भी बड़िया रहा। मनोज जी के बारे में जानना भी सुखद रहा। वैसे आप के दफ़्तर के कितने लोग ब्लोगरस हैं?
शानदार !
पर जो भी बड़े झकास लग रहें हैं !!
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अच्छा, हमारी खिल्ली उड़ाई गई!
@PD beta ab gala bhi achchha ho gaya aur kaam bhi ho gaya….!
“बहुत बढ़िया” लिखना तनिक बोरिंग-सा हो गया है आपके ब्लौग पर कि हर पोस्ट ही तो बहुते बढ़िया होता है।
परसाई, चतुर्वेदी सबे आप हैं इस हिंदी ब्लौग-जगत के…”शुक्ल” का जिक्र नहीं कर रहे हैं कि ऊ तो खुदे ले रखे हैं अपने नाम में।
“छत की तटस्थता” वाला जुमला…आहहा…लाजवाब है।