पिछले दिनों फ़ेसबुक पर हमारा परिचय हुआ सुरेशकांत जी से। तारीख के हिसाब से दो हफ़ते पहले वरिष्ठ नागरिक हुये । दैनिक 'सन स्टार' में नियमित व्यंग्य लिखते हैं सुरेश जी। ’अर्थसत्य’ नाम से जिसको हम बहु दिनों तक ’अर्धसत्य’ समझते रहे। (बलिहारी है बेअकली की न )
समसामयिक घटनाओं पर रोज लिखते रहना अपने-आप में चुनौती है जिसको वे निबाहते रहते हैं। इसके अलावा प्रभात खबर में ’कुछ अलग’ में उनका लेख हफ़्ते में एक के हिसाब से छपना शुरु हुआ कुछ दिन से।
बीच-बीच में सुरेश जी ’व्यंग्य जगत के त्रिदेवों’ अपनी साजिशन उपेक्षा की बात कहानी सुनाते रहते थे। व्यंग्य में त्रिदेव कहकर किसको संबोधित करते हैं सुरेशजी यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। नाम न बताने की शर्त पर उनके नाम मैं भी बता सकता हूं लेकिन जो बात सबको पता है उस पर संसय बना ही रहे तो अच्छा। वैसे व्यंग्य, जिसके लिये कहा जाता है कि वह विसंगति से साक्षात्कार करवाता है, अगर कोई देव जैसी विभूति है तो अपने आप में यह बड़ी विसंगति है।
वैसे बड़े-बुजुर्गों की इस तरह की इशारे-इशारे में की गयी बयानबाजी से नये लोगों और पाठकों भी इस बात की सीख मिलती रहती है कि कैसे मन की भड़ास निकाली जाये ताकि साफ़ पता भी चलता रहे कि किसके लिये लिखा गया है और किसी का नाम भी न लेना पड़े।
बहरहाल पिछले दिनो बिहार बोर्ड में ’नकल टापर’ के किस्से पर सुरेश जी ने लेख लिखा ’पोडिकल सेंंस में लल्लन टाप’। प्रभात खबर में छपे अपने इस लेख को साझा करते हुये सुरेश जी ने ’स्टार्टर’ के रूप में अपना एक संस्मरण पेश किया जिसमें उन्होंने ’व्यंग्य के बड़े कारोबारियों’ द्वारा अपनी उपेक्षा की बात फ़िर से बयान की थी। मजे की बात जिनके खिलाफ़ वे सांकेतिक रूप से बिना नाम लिये लिखते रहते हैं उन्होंने भी उनकी पीड़ा से सहमति व्यक्त करते शुभकामनायें दीं। नतीजा यह कि लेख नेपथ्य में चला गया और संस्मरण साझा होने लगा। मैंने उस पर टिप्पणी करते हुये लिखा :
"बढ़िया है। आप लिखिए। खूब लिखिये। संस्मरण अलग से लिखिए। रचना के साथ क्यों नत्थी करते हैं संस्मरण? रचना नेपथ्य में चली गयी। संस्मरण साझा हो रहा है। यह रचना के साथ अन्याय है। सादर।"
सुरेश जी ने इस सुझाव को मानने की बात कहते हुये टिपियाया:
आपने सही कहा अनूप जी| आगे ध्यान रखूँगा| धन्यवाद|
मुझे सुरेश जी की प्रतिक्रिया इतनी अच्छी लगी कि फ़ौरन आनलाइन होकर उनका उपन्यास ’ब से बैंक’ मंगा लिया। इस उपन्यास का सुरेश जी अक्सर जिक्र करते रहते हैं अपनी बातचीत में, संस्मरण मे और जो धर्मयुग में धारावाहिक रूप से तब छपता था जब उसकी लाखों प्रतियां छपतीं थीं।
उपन्यास आ भी जल्दी ही गया। कल जैसे ही यह आया वैसे ही इसको हम बांचना शुरु कर दिये। पठनीयता ऐसी कि एक कम नब्बे पेज का उपन्यास चौबीस घंटे में ही पढ गये। उपन्यास में बैंक के रोचक किस्से हैं। जब लिखा गया होगा यह उपन्यास तबसे अब तक बैंको का काम-काज का तरीका बहुत बदल गया है। बहुत सारा काम-काज आनलाइन बैंकिग से होने से होने लगा है लेकिन फ़िर भी वे सब कारोबार अभी भी होते हैं बैंको में जिनका जिक्र इस उपन्यास में हुआ है। वाकई एक बहुत अच्छे उपन्यास को पढ़ने से वंचित थे हम जो झटके में मंगाया गया और सटक से पढ़ लिया गया।
’ब से बैंक’ उपन्यास सुरेशकांत जी ने ’न से नरेन्द कोहली’ को समर्पित किया है। जिस उमर में लिखा होगा उस उमर की लोकप्रियता नास्टेलजिया की तरह उनके मन में रहना सहज है। इसीलिये इसका जिक्र अक्सर करते हैं सुरेशकांत जी अपने लेखों में। साइज में उपन्यास का गुटका संस्करण टाइप लगने वाले उपन्यास का पहला संस्करण 2003 में छपा था। अभी तक वही चल रहा है। इसके पीछे मझे प्रकाशक की उदासीनता तो लगती ही है और किसी हद तक व्यंग्य के लोगों द्वारा इसका ठीक से इज्जत न देना भी रहा होगा। हमारे जैसे अनाम लेखक की भी किताब आते ही 200 के करीब बिक गयी फ़िर एक ऐसा उपन्यास जो धारावाहिक छपा उसका 13 साल तक पहला संस्करण भी नहीं खपा यह अपने आप में हिन्दी व्यंग्य की बड़ी विसंगति है। मेरी समझ में सुरेश जी को अपने इस उपन्यास का पेपर बैक संस्करण फ़िर से छपवाना चाहिये। फ़िर से विमोचन करना चाहिये। बैंकिग सेक्टर से जुड़े लोगों को तो यह उपन्यास जरूर पसंद आयेगा।
सुरेशकांत जी का यह उपन्यास पढ़ने के बाद उनसे भी सवाल पूछने का मन है कि ब से बैंक का खिलन्दड़ापन किस बैंक के लॉकर में रख दिया उन्होंने। उस अदा वाले सुरेशकांत कोई और हैं क्या?
उपन्यास के कुछ अंश नमूने के लिये आपके सामने पेश हैं:
1. इन कुत्तों को देखकर यह निष्कर्ष बडी आसानी से निकाला जा सकता था कि अपने देश में मनुष्यों का जीवन स्तर निम्न और कुत्तों का उच्च है।
2. यों तो गैर-कानूनी काम अपने देश में बुरा नहीं समझा जाता, और फ़लस्वरूप अनेकानेक गैर कानूनी काम यहां बाइज्जत संपन्न किये जाते हैं।
3. दफ़्तर में यूनियन इसलिये होती है कि ज कोई कर्मचारी मैनेजमेंट को गालियां सुना आये तो उसे मैनेजमेंट के षड़यंत्रों से बचाया जा सके।
4. सभ्य आदमियों को घृणा करने का शौक होता है। नित्य प्रति उन्हें कोई न कोई सामग्री ऐसी मिलती रहनी चाहिये, जिससे कि वे घृणा कर सकें, अन्यथा उनका स्वास्थ्य खराब होने का अंदेशा रहता है।
5. और यह सब मैनेजर की नाक के नीचे होता था, जिससे कि अनुमान लगाया जा सकता है कि मैनेजर की नाक कितनी लंबी थी।
6. मैनेजमेंट का जो आदमी फ़ालतू हो जाता है, उसे मैनेजर बना दिया जाता है।
7. मैनेजमेंट की नजरों में वही कर्मचारी ज्यादा काम करता है जो दफ़्तर में देर तक बैठा रहे, फ़िर चाहे वह सारा समय हाथ पर हाथ धरे ही क्यों न बैठा रहे।
8. इतना सब होने के बावजूद वहां कोई फ़्राड नहीं होता था, तो यह ब्रांच के दुर्भाग्य के अलावा अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता था।
9. ईमानदार वे इतने अधिक थे कि अध्यापिकाओं को जितना वेतन देते थे, ठीक उससे दुगुने पर ही हस्ताक्षर करवाते थे।
10. प्रेम खेत में नहीं पैदा होता और न ही ब्लैक में मिलता है। इसे पाने के लिये तो सिर तक देना पड़ता है और यही कारण है कि सच्चे प्रेमी अपनी प्रेमिका को प्राप्त करने के लिये अपनी पत्नी का सिर तक दे डालते हैं।
बाकी अंश के लिए आप खुद किताब मंगवाएं न।
उपन्यास पढ़ते हुये कहीं-कहीं रागदरबारी की याद आती रही। शायद पहले पढ़े उपन्यास का सहज प्रभाव टाइप। "रेजगारी आ जाती , तब तो उसकी पौ (जिस्म में वह जहां कहीं भी होती हो) बारह हो जाती" पढकर रागदरबारी का अंश "और उसकी बाछें- वे जिस्म में जहां कहीं भी होती हों- खिल गयीं।" याद आ गया।
कुल मिलाकर 95 रुपये की कीमत में राजकमल प्रकाशन में उपलब्ध यह किताब बेहतरीन उपन्यास है। मजे-मजे में पढा जाने वाला उपन्यास। और येल्लो किताब की कीमत और दस रुपये कम हो गयी और दाम हो गये 85 रुपये। खरीदिये और आनन्दित होइये। तब तक हम सुरेश जी की अगली किताब मंगाते है सुरेश कांत जी। लिंक यह रहा ’ब’ से बैंक किताब मंगाने के लिये।
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