Monday, July 31, 2017

लाला भइया की फेमस चाय


कल टहलते हुये तमाम लोगों से मेल-मुलाकात हुई। गये थे ’सैंट्रो सुन्दरी’ की सर्विंग कराने। गाड़ी को सर्विस के लिये छोड़कर पैदल , ऑटो , बस से टहलते हुये आये।
फ़जलगंज से ’ई रिक्शा’ में बैठकर आये नरेन्द्र मोहन सेतु तक। वहां उतारकर रिक्शावाला चला गया। हम आगे चल दिये। कुछ देर बाद फ़िर पीछे से आया और हमको जबरियन टाइप बैठाकर पचास कदम और आगे छोड़ दिया। मुफ़्त में।
रीजेन्सी में एक साथी को देखने गये। बिजली मिस्त्री का काम करते हैं। ओईएफ़ में। पिछले हफ़्ते खम्भे की बिजली ठीक कर रहे थे। ’ऊंचे वाले प्लेटफ़ार्म’ गाड़ी पर। अचानक ढाल पर खड़ी गाड़ी पीछे चल दी। खम्भों से टकराती हुई गाड़ी पीछे चल दी। एक गड्डे में घुस गयी। जान बचाने के लिये ऊंचाई से कूद गये सत्यवान। दोनो पैर, दोनो हाथ और जबड़ा टूट गये। जान बच गई का सुकून लिये रीजेन्सी में इलाज करा रहे हैं।
जरा सी असावधानी जिन्दगी के लिये कितनी भारी पड़ जाती है इसका एहसास फ़िर से हुआ कल।
रीजेन्सी के बाहर ही ’लाला भइया की फ़ेमस चाय’ की दुकान’ बैनर फ़ड़फ़ड़ा रहा था। बैनर चाय का लेकिन बिक चाय के अलावा और तमाम कुछ रहा था। हम भी फ़ेमस चाय का जायका लेने के लिये रुक गये। चाय बनने की जगह दुकान ’लाला टी स्टॉल’ हो गयी थी। भइया गोल हो गये। चुनाव घोषणा पत्र और उसके अमली जामें में अन्तर टाइप।
बड़े भगौने में चाय ’चुर’ रही थी। भइया जी सफ़ेद दाढी में तल्लीनता से चाय बनाये जा रहे थे। बनने के बाद सबको बांटी। कुछ लोग ले जाने के लिये भी आये थे चाय। चार चाय का एक नपना भी था। उसमें पॉलीथीन को घुसाकर चाय डालते और फ़िर लपेटकर दे देते। नपाई और सफ़ाई की व्यवस्था एक साथ। फ़िर भी काउंटर पर काम भर की गंदगी थी। एल्युमिनियम का प्लेटफ़ार्म काला पड़ गया था। लेकिन कहे कौन ? कहते तो क्या पता अगल-बगल की दुकानों की गंदगी दिखाते हुये कहते उनसे तो साफ़ है। राजनीतिक दल ऐसा ही तो करते हैं। किसी की कोई गड़बड़ी की बात करो तो दूसरे दल की बड़ी गड़बड़ी का हवाला देते हुये अपनी गड़बड़ी को दुरुस्त बताता है।
एक चाय के दाम छह रुपये। हमने कुल्हड़ में ली। चाय बढिया लगी। तारीफ़ की तब थोड़ा खुश हुये भइया जी। छह रुपये लिये। हम आगे बढे!
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जीवित रहने की इच्छा का गोंद

रीजेंसी से टहलते हुए रावतपुर क्रासिंग पर आए। सवारी तलाश रहे थे कि सामने से बस धड़धड़ाती हुई आई। हम लपककर चढ़ लिए। किनारे की सीट खाली थी। हम बैठ गए। बैठने से पहले देख लिया कि सीट महिला और बुजुर्ग की तो नहीं है।
रावतपुर से फूलबाग का टिकट काट दिया कंडक्टर ने 12 रुपये। हम सालों बाद शहर में किसी बस में बैठे थे। अकेले ऑटो इत्ती दूर के सौ-दो सौ लेता। ओला कम से कम 200 रुपये का गोला छोड़ता। लेकिन सार्वजनिक बस 12 रुपये की। ये खूब सारी चलनी चाहिए।
ड्राइवर गाड़ी चला रहा था और कंडक्टर को हिदायत भी देता जा रहा था। एक तरह से ड्राइवरी और कंडक्टरी एक साथ कर रहा था। इसके बाद उसको हड़काता भी जा रहा था कि तुम्हारा काम भी मैं ही कर रहा हूँ। किसी सरकार के ऐसे मुखिया की तरह जो अपने काम के साथ अपने सहयोगियों के काम भी करता रहे।
फूलबाग दस-बारह मिनट में ही पहुँच गए। उतरकर पैदल चल दिये कैंट की तरफ। रास्ते में कई नजारे दिखे। एक जगह एक रिक्शा वाले फुटपाथ पर बैठे लकड़ी चीरने का जुगाड़ कर रहे थे। बताया कि बिठूर से आये थे। सालों पहले। तबसे यहीं फुटपाथ पर बसेरा है। मिट्टी, मोमिया और कबाड़ के गठबंधन की झोपड़ी। अतिक्रमण करके रहते हुए बीस साल गुजर गए।
बिठूर के रहने वाले सत्यप्रकाश गुप्ता मुंह में फुल मसाला भरे अपने बिठूर से कैंट आने की कहानी सुनाते रहे। पचास की उम्र है। चार बच्चों में एक बिटिया की शादी कर चुके। तीन को पालना है। बच्चे अब्बी पढ़ते हैं। फुटपाथ में रहते हुए क्या पढ़ते होंगे, क्या जीते होंगे समझना मुश्किल।
हमारे घर की बाउंड्री के बाहर एक रिक्शेवाले गद्दी पर बैठे खाना खा रहे थे। साथ में रिक्शे के पास खड़े कुत्ते को खिला रहे थे। पता चला शुक्लागंज में रहते हैं। रिक्शा लेकर अभी कुछ देर पहले घर से निकले हैं। खाना लेकर। अभी खाना खाकर कुछ देर आराम करेंगे फिर दो बजे से रिक्शा चलाएंगे।
हमने पूछा -'जब घर से निकलते ही खाना खाना था तो खाना खाकर निकलते। आराम से दो बजे।' इस पर बोले -'घर से खाकर निकलते तो फिर निकल नहीं पाते। खाना खाने के बाद आलस आता है । निकलने का मन नहीं करता।'
'किधर चलाओगे रिक्शा आज' पूछने पर बोले बेगमगंज, परेड की तरफ जायेंगे। उधर सवारी मिल जाती हैं आज के दिन।
और बात करने पर पता चला कि गोण्डा के रहने वाले हैं मोहम्मद शामी उर्फ छिद्दन मियां। लेकिन रहे शुरू से कानपुर में। ससुराल रानीगंज पश्चिम बंगाल।
हम पूछे कि गोण्डा, कानपुर के आदमी की ससुराल बंगाल। फिर किस्सा सुनाया कि उनकी पत्नी कहीं आईं थीं किसी शादी में वहीं किसी ने दिखाया। तो हो गयी शादी।
किस्से पर किस्से बताते गए छिद्दन मियां। बोले-'हमारे ससुर बड़े रईस आदमी थे। मिल चलती थीं उनकी। ऊंचे खानदान की है हमारी बीबी। हम तो अनपढ़ हैं लेकिन वो खूब पढ़ी लिखी हैं। अंग्रेजी 9 तक पढ़ी हैं, उर्दू की बड़ी वाली किताब पढ़ी हैं, बंगला भी जानती है।'
फिर ऐसे अंतर के बाद तुम्हारी शादी कैसे हुई? हमारे इस सवाल के जबाब में जो बताया छिद्दन ने उसका लब्बो लुआब यह था कि उनके चेहरे में कुछ ट्यूमर टाइप था। इन्होंने कहा-'शक्ल तो अल्लाह ने दी। हो गयी शादी।'
बात फिर दिहाड़ी की तरफ मुड़ी। बोले -'जबसे ये बैटरा (ई रिक्शा) चला है , रिक्शेवालों की आफत है। पहले रोज चार-पांच सौ कमा लेते थे। अब 200 रुपया कमाना मुहाल हो गया है। उसमें भी 50 रुपये रिक्शे वाले को किराए के देने होते हैं।'
हमने कहा -'तुम भी ले लो बैटरा लोन लेकर।' बोले-'अब बन्द होने वाले हैं। रजिस्ट्रेशन होगा तो कम हो जाएगे सब।'
बच्चों के बारे में बताया - 'बेटा कैरीबैग का काम करता है। दो बेटे रहे नहीं। पता होता कि ऐसा हो सकता तो पत्नी का ऑपरेशन न करवाते।'
बातें तो औऱ तमाम हुईं। जो याद रहीं वो लिखी यहां।
आप देखिए अपना देश कितनी तेजी से तरक्की कर रहा है। शहर स्मार्ट हो रहे हैं। मंगल पर पहुँच रहे है हम। लेकिन उसी हिंदुस्तान का बहुत बड़ा तबका जिस तरह जी रहा है वह बेहद कठिन जिंदगी है। उस पर भी तुर्रा यह कि हममें से तमाम लोगों को यह पता भी नहीं कि ऐसा हिंदुस्तान हमारे अगल-बगल भी है जिसके लिए आज का दिन जी लेना भी एक चुनौती है। संग्राम है। मजे की बात वह जी भी रहा है बिना शिकवे-शिकायत के। मजबूर है - क्या करे।
बकौल परसाई जी -''हड्डी ही हड्डी, पता नहीं किस गोंद से जोड़कर आदमी के पुतले बनाकर खड़े कर दिए गए हैं। यह जीवित रहने की इच्छा ही गोंद है।'

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Sunday, July 30, 2017

ठेले पर भुनता भुट्टा




ठेले पर भुनता भुट्टा और थर्मोकोल की फ्रिज में रखा पाउच का पानी।
मिट्टी की अंगीठी ईंटों के ऊपर रखी लोहे की कड़ाही पर रखी है। उस पर भुट्टे भून कर बेचे जा रहे हैं। समय क्रम के हिसाब से देखा जाए तो आग सबसे बुजुर्ग है इनमें जिसका अविष्कार सबसे पहले हुआ। फिर शायद लोहा और उसके बाद भुट्टा। लेकिन लकड़ी तो उसके पहले आ चुकी थी। शायद सबसे पहले। आदमी लकड़ी के बाद।
थर्मोकोल सबसे युवा अविष्कार है। पालीथिन काफी पहले शुरू हुई लेकिन उसमें पानी के पाउच अभी कुछ साल से बिकना शुरू हुए। 'पानी पाउच' थर्मोकोल से उम्र में छोटा पड़ेगा लेकिन बिकता सबसे फुर्ती से है।
इतने अलग- अलग कालखण्ड में जन्मे सामान एक ही ठेलिया में मोहब्बत के साथ बिक रहे हैं बिना हल्ला-गुल्ला किये। सबको मिलकर पेट की आग बुझानी है।
लाखों साल की समयावधि में पैदा हुये सामान जब एक ही ठेलिया में बिक सकते हैं धड़ल्ले से तो फिर एक ही कालखण्ड में पैदा हुए राजनीतिक दल सरकार चलाने के लिए मिलकर क्यों नहीं चल सकते।

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Thursday, July 27, 2017

देश के राजनीतिज्ञ समझदार होते जा रहे हैं


देश में ट्रक बनाने वाली दो प्रमुख कंपनियां टाटा और अशोक लेलैंड हैं। वी एफ जे में काम करने के दौरान अशोक लेलैंड के कुछ सीनियर अफसरों से मिलने पर पता चलता था कि वे अशोक लेलैंड में आने के पहले 20-30 साल टाटा में काम कर चुके थे। बाद में उन्नति के लिए उन्होंने कम्पनी बदली।
प्राइवेट संस्थानों में उन्नति के लिए कुछ साल बाद कंपनी बदलने का चलन आम बात है। नौकरी वहां 'कांट्रैक्ट मैरिज' टाइप होती है।
सरकारी नौकरियां हिंदुस्तानी विवाह की तरह होती हैं। नौकरी करने वाला इंसान हिंदुस्तानी बहुओं की तरह होता है। जिस घर मे डोली आई वहीं से अर्थी निकलने की तर्ज पर जहां ज्वाइन करता है वहीं से रिटायर मेन्ट लेता है।
पहले की राजनीति भी आमतौर पर सरकारी नौकरियों की तरह करते थे लोग। जिस दल, विचार धारा से शुरू करते थे, आमतौर पर उसी से जुड़े रहते थे।
इधर सरकारी नौकरियां तेजी से कम हुई हैं। काम चलाने के लिए कांट्रैक्ट वर्कर का चलन बढा है। ठिकाना नहीं कि कब निकाल दिए जाएं।
राजनिति में भी प्राइवेटाइजेशन बढ़ा है। लोग मौका देखकर धुर विरोधी पार्टी में शामिल होने में गुरेज नहीं करते। बल्कि मौके पर पार्टी और स्टैंड बदल लेना सबसे बड़ी समझदारी मानी जाती है। जिसको गरियाते हुए सत्ता में पाई बाद में उसी के साथ सरकार बनाना सफल और समझदार राजनीतिज्ञ की निशानी है।
देश के राजनीतिज्ञ समझदार होते जा रहे हैं। वे ठेके पर काम करने वाले मजदूरों की तरह काम करने लगे हैं।जो ठेकदार रोजी-रोटी देगा उसी के जुड़कर जनता की सेवा करने पर मजबूर है।
आज राजनीति का सबसे बड़ा ठेकेदार बाजार है। क्या पक्ष क्या विपक्ष सब बाजार के इशारे पर उठते-बैठते, हिलते-डुलते हैं। बाजार के इशारे पर पक्ष-विपक्ष आपस में ग्लेडियेटर की तरह लड़ने का नाटक करते हैं। बाजार दोनों में से किसी को मरने नहीं देता। जिंदा रखता है दोनों को। आखिर दोनों को बनाने में उसका ही पैसा लगता है।
जनता बेचारी इन्हीं लोगों से अपनी सेवा कराने को मजबूर है। जिसको वह अपनी सेवा के लिए चुनती है वह अगर बाजार को पसन्द नहीं आता तो वह उसे बदल देता है। आखिर सेवक चुनने में पैसा तो उसी का लगता है। इसलिए जनता का सेवक चुनने का हक भी उसी को है।
जनता को तो बस सेवा से मतलब होना चाहिये। सेवक कौन होगा यह तय करना बाजार का काम है।


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Wednesday, July 26, 2017

सूरज भाई भी रोशनी की जलेबी नहीं जलेबा बनाते हैं

सुबह बरामदे में आये तो सूरज भाई ने चमकते हुए गुडमार्निंग किया। 15 डिग्री ऊपर चमक रहे थे। तीन चार काले बादल उनको कमांडो की तरह घेरे हुए थे। सुबह जब निकले होंगे तब आसमान में रोशनी का खूंटा गाड़ा होगा। फिर उसके चारों तरफ किरणें छितरा दी होंगी। जैसेे जलेबी बनाते हुए हलवाई पहले कपड़े से थोड़ा मैदा कड़ाही में चुआने के बाद उसके आसपास जलेबी की कढ़ाई करता है वैसे ही सूरज भाई भी रोशनी की जलेबी नहीं जलेबा बनाते हैं। हलब्बी जलेबा।।
फोटो खींचते हैं तो सूरज भाई चमकते हुए दिखते हैं। काले बादल गोल। नेपथ्य में चले गए। हमको सामने सूरज को घेरे हुए काले बादल दिख रहे। लेकिन फोटो में केवल चमकदार सूरज भाई और उनकी किरणें। मने कैमरा भी टीवी चैनल हो गया और सूरज भाई सरकार। सिर्फ चमक दिखानी है। कुछ भी धुंधला दिखे उसे चमक के पीछे कर दो। वाह रे मेरे कैमरे। जियो।
कैमरे से ध्यान आया कल दफ्तर जाते समय कुछ फ़ोटो खैंचे थे। पानी बरस रहा था। गाड़ी में बैठे-बैठे फोटो खैंचे। देखिये आप भी। बताते चलते हैं उनके बारे में।
घर से निकलते ही एक बुजुर्ग साइकिल पर मोमिया की चादर लपेटे जाते दिखे। देखते ही आइडिया आया कि जिस तरह जाड़ो में कम्बल बांटते हैं गरीबों को उसी तर्ज पर गरीबों को बरसात में मोमिया की चादर बांटी जाए।
एक जगह लोग ठेलिया के ऊपर काली बरसाती की छत के नीचे बैठे पानी के नजारे देख रहे थे। एक आदमी छाता लिए बैठा था। हमने रुक कर फोटो कहीं खींची तो 'बरसाती कैम्प' के नीचे बैठे लोग ध्यान से हमको देखने लगे। हमने भी 'जैसे को तैसा' के नियम का पालन करते हुये उनको देखा और आगे बढ़ गए।
आगे एक आदमी साइकिल पर छाता लगाए जाते दिखा। जब तक फोटो खींच पाते वह निकल गया बगल से। हमने कैमरे को डांटा कि इतने सुस्त हो। कैमरा बेचारा चुप।
सड़क पर एक आदमी दाएं हाथ में छाता पकड़े और बाएं हाथ में दूध का डब्बा लिए तसल्ली से चला जा रहा था। उसकी चाल में किसी बहुमत वाली सरकार का आत्मविश्वास था।
वहीं पानी की लाइन में काम के लिए गहरा गड्डा खुदा था। गहराई में काम के लिए रोशनी की दरकार होती है। भाई लोगों ने पास खड़े बिजली के खम्भे को गर्दनिया नीचे झुका लिया था। प्राइवेट संस्थानों में गर्दन पकड़कर काम कराने का खुला इश्तहार कर रहा था गड्ढे के ऊपर झुका हुआ खम्भा।
आगे सड़क पर तमाम लोग बारिश से अपनी-अपनी तरह से मुकाबला करते हुए सड़क पर जा रहे थे। एक बुजुर्ग बिना छाते के भीगते चले जा रहे थे। उनका कुर्ता कमर के जरा उपर तक भीगा हुआ था। पानी की बूँदे शायद बुजुर्गियत का लिहाज करते हुए आगे और नीचे बढ़ने में संकोच कर रहीं थीं।
सड़क पर कुछ बच्चियां भी जाती दिखीं। सहेलियों के साथ एक छाते में किनारे से भीगते हुए हाथ थामे एक -दूसरे का हाथ थामे। हाथ पकड़ने के पीछे 'ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे' वाला भाव रहा होगा। वैसे हो तो यह भी सकता है कि सड़क पर चलते हुए सुरक्षा के लिहाज से दोनों ने एक दूसरे का हाथ पकड़ रखा हो।
कोई लड़का नहीँ दिखा एक दूसरे का हाथ थामे सड़क पर जाता।
पुल पर एक आदमी स्कूटर धकेलते आता दिखा। शायद उसका पेट्रोल खत्म हो गया हो। पुल के बीच पहुंचकर सुस्ताने के लिए खड़े होकर कुछ देर उसने इधर-उधर देखा। लेकिन इधर-उधर देखने से कुछ होता तो नहीं है न। अगर होता तो दुनिया इधर-उधर ही देखती रहती। कुछ देर बाद फिर वह स्कूटर को धकेलते हुए आगे बढ़ गया।
इस बीच एक जगह पानी का भराव मिला। पानी से गाड़ी गुजरी तो पहिये के नीचे आया पानी कुचलने के डर से छिटककर फुटपाथ पर गुजरते आदमी के सीने से चिपक गया। हमने हमेशा की तरह एक बार फिर से सोचा कि पानी में गाड़ी धीमी करनी चाहिए। लेकिन तब तक गड्डा पार हो गया था।
बारिश के सीन देखते हुये शेर अपने आप याद आ गया:
तेरा साथ रहा बारिशों में छाते की तरह
भीग तो पूरा गए पर हौसला बना रहा।
आज पानी तो नहीं बरस रहा। लेकिन दफ्तर तो जाना है। इसलिए निकलते हैं। आप भी मजे करिये।

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Monday, July 24, 2017

हम तो रोज आस्तीन के सांप देखते हैं


माल रोड पर बीच सड़क पर साइकलें दिखीं। सोचा--'सड़क खाली है। फिर सड़क जाम का क्या मतलब।'
विपक्षी पार्टी का चुनाव चिह्न होने के नाते यही सोचा कि शायद सड़क जाम का कार्यक्रम हो। लेकिन आगे बढ़े तो देखा दो मेनहोल खुले थे। उनकी मुंडी उतरी हुई अलग रखी थी। जैसे कोई महराजा दरबार के बाद अपना ताज उतारकर सर सहला-खुजला रहा हो। कुछ हुजुरेआला तो इसी बहाने बचे हुए बाल भी नोच लेते हैं।
मेनहोल में सीढ़ी लगी हुई थी। नई नीचे केबलों का जाल बिछा हुआ था। कोई गिरे तो गोद ले लें उसको। केबल के जाल के पहले भी एक सरिया का जाल होता है। जिसके कारण कोई सीधे अंदर गिरने से बच सकता है।
जाल के पहले मेनहोल का ढक्कन तो होता ही है।लेकिन जब आये दिन लोगों के मेनहोल में गिरने-बहने की खबर सुनते हैं तो लगता है यह 'सरिया सुरक्षा जाल' गायब होता होगा। शायद जंग लगकर नीचे गिर जाता हो या फिर कोई स्मैकिया उसको बेंचकर उड़ा जाता हो।
कुछ लोग अंदर घुसे काम कर रहे थे। कोई टेलीफोन की लाइन गड़बड़ थी। हमने बाहर खड़े लोगों से पूछा -'हमारे इधर भी हफ्ता हुआ टेलीफोन, नेट सब गोल है। क्या इसी के चलते खराब है?'
जबाब में जिस तरह केंद्र सरकार के लोग तमाम समस्याओं को राज्य सरकार की बताकर रफा-दफा कर देते हैं उसी तरह उसने बताया कि वह उसी एरिया के लोग देखेंगे।
अंदर काम करने वाले सड़क के नीचे दो मेनहोल के बीच की जगह पर काम कर रहे होंगें। दिखे नहीं। लेकिन उनकी चप्पलों का जोड़ा सड़क से चार फीट नई नीचे अलसाया सा पड़ा था।
बाहर खड़े आदमी से देश-दुनिया के हाल पर चर्चा हुई। साथ ही टेलीफोन विभाग में कम होते लाइनमैनों की संख्या पर बात हुई। टेलीफोन विभाग में लाइनमैन सबसे महत्वपूर्ण होता है। आपने लाइनमैन को पटा लिया तो समझिए काम हो गया।
अम्बानी का जियो अगर टनाटन पसर रहा है तो इसका मतलब उसमें लाइनमैन चाहिए नहीं होगा। बीएसएनएल में लाइनमैन कम होते जा रहे हैं और सेवाएं चौपट।
इस बीच अंदर घुसे आदमी ने हांक लगाकर बाहर खड़े आदमी से 'मसाला पुड़िया' की मांग की। सप्लाई के बाद काम आगे बढ़ा होगा।
हम वहां खड़े थे तब तक देश के दो नौनिहाल टुकनिया में सांप धरे उधर नमूदार हुए। सावन के महीने में 'सर्प दर्शन'
करा रहे थे। हमने देखा नहीं। वे जिद पर अड़ गए। मन किया कह दें -'हम तो रोज आस्तीन के सांप देखते हैं।' लेकिन सुबह-सुबह झूठ बोलने का मन नहीं हुआ। हमको तो आजकल अपनी आस्तीन में कोई सांप नहीं दिखा। जिसको दिखा होगा वे जानें।
फिर भी कुछ पैसे देने की जिद बच्चे करने लगे। गोया सौदा कर रहे थे - ' देव नहीं तो दिखा देंगे सांप।' बिगड़कर यही अंदाज आक्रामक होकर जनसेवकों में बदल जाता है जो गाहे-बगाहे समाज सेवा, देश भक्ति की धमकियां देते हैं।
हमने भी ताव में आकर पर्स निकाला लेकिन संयोग कि उसमें सौ रुपये से कम कोई था नहीं। बच गए। अंदर से नोट भी फुसफुसाए होगे -' जाको राखै साईंयां, निकाल सके न कोय।'
बालक लोग बोहनी कराने आगे बढ़ गए। हम भी चल दिये। आगे के मोर्चे हमको आवाज दे रहे थे। 

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Sunday, July 23, 2017

किसी अखबार से आये हैं क्या?

सुबह घास छीलने के बाद घर से निकले। घर के पास ही एक जगह सड़क खुदी हुई थी। तीन इंसानों की गहराई के बराबर। ऊपर मिट्टी के ढेर पर एक महिला सुर्ती रगड़ते हुए नीचे जाते आदमियों को देख रही थी।
हम भी 'सैन्ट्रो सुंदरी' को किनारे ठढ़िया दिए। मौका मुआयना करने लगे।
पता चला कि पानी की पाइपलाइन साफ हो रही थी। आदमी की ऊंचाई के बराबर सीमेंट पाइप में लोग घुस रहे थे। आगे करीब 100 मीटर की दूरी तक अंदर जाकर उसकी मिट्टी बाहर करते हुए पाइप लाइन साफ करनी थी।
हमने पूछा -'अंदर तो अंधेरा होगा। कुछ दिखेगा नहीं। मिट्टी कैसे दिखेगी?'
'आगे वाले के पास टार्च है। रोशनी का इंतजाम है।' - वहां खड़े आदमी ने हमारी जानकारी बढ़ाई।
हाथ में मोबाइल कैमरा देखते ही उसने पूछा -' किसी अखबार से आये हैं क्या?'
मन किया कह दें -'हां, फुरसतिया टाइम्स से आये हैं।' लेकिन फिर नहीं बताये। बेकार घबड़ा जाता।
इस बीच किनारे बैठी महिला ने तम्बाकू ठोंकते हुए होंठ के नीचे दबाई और गड्ढे में उतर गई। नीचे बिछी सीढ़ी के पुल पर डगमग चलती हुई पाइप की सुरंग में चली गई। कम से कम चार -पांच लोग तो मेरे सामने अंदर गए। उसके पहले का पता नहीं।
हमने पूछा कि अंदर हवा का , सांस लेने का इंतजाम भी है कुछ? बाहर खड़े आदमी ने हमको समझाया कि हवा का इंतजाम है। तीन जगह खुली है पाइपलाइन। लेकिन जिस तरह उसने समझाया उससे हमको कुछ समझ नहीं आया।
हमारी बुद्धि कुछ देर अंदर गए आदमियों के हाल और हवा का इंतजाम समझने के लिए फड़फड़ाती रही। पास में ही मीट की दुकान पर जंगलों के अंदर कुछ मुर्गे भी फड़फड़ा रहे थे। बगल की दुकान में एक बालक मीट का कीमा बनाते हुए ग्राहक को निपटा रहा था।
हम आगे बढ़ गए।

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Saturday, July 22, 2017

पंचबैंक


1. जो भक्त शिक्षा से दूर रहे, वे हमेशा धर्मगुरुओं के प्रिय रहे हैं। - जवाहर चौधरी
2. धर्म को सेल्फ़ी की तरह लेने लगे हैं लोग, अपनी मर्जी अपना क्लिक। - जवाहर चौधरी
3. संतों पर संदेह करने वालों के लिये फ़ट्ट से नरक का पासपोर्ट बन जाता है। - जवाहर चौधरी
4. आजकल उच्चजाति के नाम में शुभलाभ नहीं, अशुभ हानि ही है। - दामोदर दीक्षित
5. अधिकांश हिन्दी लेखक साहस पर प्रवचन तो अच्छा देते हैं , बस साहस दिखा नहीं पाते। - दामोदर दीक्षित
6. शरीफ़ लोग बहुत समझदार होते हैं। रास्ते में कोई दुर्घटनाग्रस्त हो जाये तो जल्दी से जल्दी वहां से निकल लेते हैं। भाई, हम शरीफ़ आदमी हैं। -दिनेश बैस
7. शरीफ़ लोगों को पुलिस-कचहरी के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिये। -दिनेश बैस
8. शरीफ़ आदमी सुविधाजनक रूप में गांधी को पूजता है। वह भले ही गांधी की ’मनुष्य मात्र एक है’ की शिक्षा को बेतुका मानता है। मगर मौके पर चुप लगा जाने के सिद्धांत का पूर्णत: पालन करता है। -दिनेश बैस
9. शरीफ़ आदमी को तनिक भी चिंता नहीं होती कि सरकार कैसी होनी चाहिये। समाज कैसा होना चाहिये। वह समाज की चिंता करना समाजशास्त्रियों का काम मानता है। सरकार की चिंता करना राजनीति करने वालों का। अपना क्या है। एक वोट ही तो देना है। जो जीतता दिखेगा , उसी को दे देंगे। अपना वोट खराब थोडे ही करेंगे। हम शरीफ़ लोग हैं।
-दिनेश बैस
10. शरीफ़ आदमी दूरदर्शी होता है। वह बेटी को बिगड़ने नहीं देना चाहता है। वोट को खराब नहीं करना चाहता है। बाकी तो सब काम एक से होते हैं। कोई दूध का धुला नहीं होता है। -दिनेश बैस
11. शरीफ़ आदमी यथास्थितिवादी होता है। अतीत उसे गौरवशाली लगता है। वर्तमान से अंतुष्ट रहता है। भविष्य उसके लिये भ्रामक होता है। वे भ्रम में नहीं पड़ना चाहते! - दिनेश बैस
12. प्रेम को विवाह के मुकाम से दूर रहकर ही असफ़ल प्रेमी बना जा सकता है, यही आज के प्रेम का फ़ंडा है। - Dilip Tetarbe
13. पहले प्रेम दो रेखाओं का कोण हुआ करता था, फ़िर वह त्रिकोण हो गया। फ़िर चतुष्कोण हो गया और अब तो प्रेम कोण-लेस हो गया है, मल्टीडायमेंशनल हो गया है। - Dilip Tetarbe
14. ऊंधना मस्तिष्क की वह अवस्था है, जिसमें कुछ लोगों पर बहुत महान विचार अवतरित होते हैं। - Narendra Kohli
15. इस देश की पुलिस के पास उतना भी अधिकार नहीं है, जितना कोठे की लड़कियों के पास है। - Narendra Kohli
16. जो अफ़सर आता है, कहता है काम ही पूजा है, अत: सिर्फ़ काम करो। अरे भईया , मान लिया, काम ही पूजा है, मगर हम सुबह-सुबह घर में दो घंटा करते तो हैं पूजा। जरूरी है क्या कि काम करो तभी प्रभु प्रसन्न होंगे। -,मलय जैन
17. कानून और न्याय के साथ जितना अन्याय बुद्धिजीवियों ने किया, शायद ही किसी और ने किया हो। -मीना अग्रवाल
18. दुनिया में बुद्धिजीवियों से ज्यादा मूर्ख और मसखरा कोई नहीं होता। इन्हें जो महारत तिल का पहाड़ और पर का कौआ बनाने में हासिल होती है, वह किसी और में नहीं होती। - मीना अग्रवाल
19. यदि आप किसी बड़े आदमी के आदमी हैं तो आपके लिये कोई भी काम मुश्किल नहीं। मुन्ना भाई एम.बी.बी.एस. ही नहीं एम.डी. भी हो सकते हैं। - Yashwant Kothari
20. यदि आप डाक्टर और किसी मंत्री के आदमी हैं तो आपको ये अधिकार है कि आप मरीज की बाईं टांग के बजाय दांई टांग का आपरेशन कर दें। - Yashwant Kothari
21. समीक्षकों का आदमी होना भी साहित्य, संस्कृति और कला के क्षेत्र में काफ़ी मायने रखता है। आप रातोंरात बड़े लेखक, कलाकार या नाटककार बन सकते हैं। किसी को भी बाप बना लीजिये। - Yashwant Kothari

22. आप प्रमोशन की सीढियां चढना चाहते हैं, तुरंत बॉस को अपना बना लीजिये। स्वयं को बॉस का आदमी या औरत घोषित कर दीजिये। - Yashwant Kothari
23. जो लोग भवसागर को पार करने के लिये ईश्वर पर आश्रित हैं वे अपने मामले में पुनर्विचार करें और किसी बड़े आदमी के आदमी बन जायें ताकि भौतिक संसार में प्रगति होती रहे। आध्यात्मिक संसार किसने देखा है। - Yashwant Kothari
24. आज जब पुराने तिल में तेल नहीं मिला तो पाला बदलने में क्या हर्ज है ? अरे इसी को बुद्धिजीवी कहते हैं भाई। जो इस महानपंथ का अनुसरण न करे वो बुद्धिहीन है, वज्रमूर्ख है और भी न जाने क्या क्या है... Ramesh Tiwari
25. ’अधिकारी’ का कुर्सी पर बैठने के लिये ’विशेष योग्यता’ का होना बहुते जरूरी होता है, आ सबसे जरूरी है ’रीढ’ का त्याग-पुण्य ! साथ में ’जुगाड़’ हो तो सोने में सुहागा। - Ramesh Tiwari
डॉ गिरिराजशरण और डॉ रमेश तिवारी के संपादन में प्रकाशित पुस्तक समकालीन हिंदी व्यंग्य से चयन।

Friday, July 21, 2017

पंचबैंक


1. जो किसी की समझ में न आये , वह सबसे अच्छी कविता मानी जाती है। -अश्वनीकुमार दुबे
2. हिन्दी साहित्य में आजकल लोग कवि नहीं सीधे महाकवि बनते हैं। -अश्वनीकुमार दुबे
3. अगर अकल हो तो मरा हुआ कुत्ता भी मौज करा सकता है। - Alok Puranik
4. कुक्कुट पालन से लेकर इराक में मगरमच्छाधिकार हनन , किसी भी मसले पर एन.जी. ओ. बनाया जा सकता है। - Alok Puranik
5. आजकल लोग अपने राजाओं पर इतना विश्वास नहीं करते जितना कि बाबाओं पर। -Alok Saxena Satirist
6. नेताओं के हृदय में अमर हो जाने की पवित्र भावना होती है, जो इन्हें अपने और दूसरों के लिये स्मारक बनवाने की प्रेरणा देती रहती है। -Kamlesh Pandey
7. कई महापुरुषों के चिर स्मरणीय़ होने के पीछे खास वजह ये होती है कि वे लोग अपने पीछे स्मरण करते रहने को एक साधन संपन्न अगली पीढी छोड़ गये होते हैं। Kamlesh Pandey
8. बहुत बार महापुरुष कोई ऐसी राह बता जाते हैं , जिस पर चलना एक फ़ैशन या महामारी का रूप ले लेता है। इन राहों पर चलते हुये महापुरुष अपने-आप स्मृति में आता रहता है। Kamlesh Pandey
9. निन्दा अगर ’कडी’ की जाये तो तो वह ज्यादा प्रभावी मानी जाती है और अखबार वाले उसे ज्यादा तवज्जो देते हैं। - कृष्णकुमार आशु
10. सभ्य लोग रात-दिन इसी गुमान में रहते हैं कि वे पढे-लिखे हैं ,और ये देश तथा दुनिया उन्हीं के कारण चल रही है। - कैलाश मंडलेकर
11. घरेलू लड़ाइयों की यही फ़ितरत है, वे शुरु भले ही नीबू से हों, खत्म कहां होंगी, इसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है। - कैलाश मंडलेकर
12. बेटा बाप के और नेता जनता के निद्रा में लीन होने की प्रतीक्षा करता रहता है। यह सोये तो वे सेवा से मुक्त हों। पर न तो पिता लोग आसानी से सोते हैं और न जनता के लोग। Giriraj Sharan Agrawal
13. छोटे अपनी मर्जी से बडों की सेवा नहीं करते, उनसे जबर्दस्ती सेवा ली जाती है। बड़े अपनी सेवा का मुआवजा लेते हैं और छोटे मात्र आशीर्वाद। Giriraj Sharan Agrawal
14. जो मतदाताओं को डरा नहीं सकता, वह स्वयं को जिता भी नहीं सकता। Giriraj Sharan Agrawal
15. प्रजातंत्र में प्रजा को पिटना और मिटना पड़ता ही है। - गिरीश पंकज
16. आत्मा की आवाज बड़ी भयानक चीज होती है। अच्छे-अच्छों को ठिकाने लगा देती है। - गिरीश पंकज
17. उसके एक साथ कई धंधे हैं लेकिन सबसे बड़ा धंधा समाज सेवा है। समाज सेवा की भावना उसमें इतनी कूट-कूटकर भरी है कि गरीब कन्याओं की शादी करवाते-करवाते वह ऐसी तीन कन्याओं से खुद भी शादी कर चुका है। तीनों उम्र में उससे आधी हैं और वह बड़ा है। यही उसका बड़प्पन है। - गुरमीत बेदी
18. सरकारी स्कूलों के मिड डे मील ने ऐसी प्रसिद्धि अर्जित की है कि इधर भूखे बच्चे भी उससे कतराते हैं। -- गोपाल चतुर्वेदी
19. कायरता समझदारी का लक्षण है। बहादुर से बहादुर सिपाही भी दुश्मन के गोला बारूद से बचने की कोशिश करता है। वह जानता है शहादत से पेंशन कहीं अधिक उपयोगी है। -गोपाल चतुर्वेदी
20. कोसने से समर्थ का भले न कुछ बिगड़े, पर अपने ऐसे असहाय के मन को अमन-चैन जरूर मिल जाता है। -गोपाल चतुर्वेदी
21. रोशनी दिये की हो या बल्ब की, कुछ अंधेरा स्वाभाविक है। पर जगमगाहट से चौंधियाई आंखें लेकर कोई भी सफ़र सुरक्षित नहीं है। - गोपाल चतुर्वेदी
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Thursday, July 20, 2017

जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए खुरदुरापन भी जरूरी होता है

सबेरे उठते ही सोचते है कुछ लिख मारें। जहां लिखना शुरू करते हैं तो लगता है कि कुछ पढ़ डालें। लिख मारे और पढ़ डालें के दोनों पाटों के बीच समय पिस जाता है।
आज सोचा कि थोड़ी व्यंग्य के बारे में चिंता व्यक्त कर लें। लेकिन बहुत कोशिश करने के बावजूद चिंता आई ही नहीं। पता नहीं कहाँ रह गई। चिंता हो रही है 'व्यंग्य की चिंता' के लिए। कहीं बहला-फुसला के गड़बड़ न करे उसके साथ। लेकिन फिर देखा कई समर्थ ,अच्छे, भले टाइप के लोगों के साथ थी 'व्यंग्य की चिंता'। हम चिंता की तरफ से निशा खातिर हो गए।
व्यंग्य की चिंता खत्म होने के बाद देखा सुबह हो गयी। चाय बनाने के बाद देखा एक केचुआ कमरे में टहल रहा है। कमरे की फर्श पर पेट के बल टहलते हुए आगे-पीछे, पीछे-आगे हो रहा था। टाइल्स वाली चिकनी फर्श पर चिकने कछुए को चलने में मेहनत बहुत लग रही थी लेकिन आगे नहीं जा पा रहा था। एक ही जगह 'कदमताल' कर रहा था।
हमें फिर घर्षण के महत्व का अंदाज हुआ। जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए खरदुरापन भी जरूरी होता है। यही अगर कच्ची फर्श होती तो अब तक केचुआ सरपट आगे बढ़ गया होता।
हमको केचुए की हिम्मत पर भी ताज्जुब हुआ। दस फुट दूर मिट्टी वाली जमीन छोड़कर सड़क पारकर, बरामदे में टहलते हुए कमरे तक आ गया। कष्ट में रहा। नई जगह की तलाश में आया या भूख मिटाने के लिए पता नहीं चला। बात भी नहीं हो पाई।
कुछ देर देखते रहने के उसको एक कागज पर धरकर बाहर मिट्टी में छोड़ दिया। कागज पर चढ़ते हुए पहले तो थोड़ा कुनमुनाया कछुआ लेकिन फिर पसरकर बैठ गया। एक मिनट की एयरलिफ्ट के बाद उसको बगीचे में लैंड करा दिए। कोई मेहनताना नहीं लिए। कारण यह कि हमको पता नहीं कि केचुये को एयरलिफ्ट करने पर कित्ते प्रतिशत जीएसटी है। दूसरा लफड़ा यह कि हमें पता नहीं केचुआ जीएसटी में रजिस्टर्ड है कि नहीं। उसको क्रेडिट मिलेगा कि नहीं। और भी पचास बवाल। इसलिए मुफ्त सेवा देकर बवाल काटे।
मिट्टी से जुड़ते ही केचुआ सरपट सरकने लगा। समर्थकों के बीच जैसे नेता अलाय-बलाय हांकने लगते हैं वैसे ही कुछ हाँकने भी लगा होगा। क्या पता कुछ केचुओं ने उसे कोलम्बस बताते हुए केचुआ अभिनन्दन भी कर डाला हो। जो किया हो करें। हम क्यों किसी केचुए के सम्मानित होने से जलें।
हड़बड़ी में गड़बड़ी यह हुई कि केचुए की फोटो लेने से रह गयी। कोई बात नहीं दूसरी हैं वो दिखाते हैं लेकिन पहले उनके बारे में बताते हैं।
कल जब घर से निकले तो मोड़ पर एक बच्चा रिक्शे पर उचकते हुए उसको चलाने की कोशिश कर रहा था। स्कूल नहीं जाता होगा। तमाम स्कूल चलो अभियानों से बचकर जिंदगी के स्कूल में दाखिल हो गया जहां फीस नहीं पड़ती। किताब-कॉपी का खर्च नहीं होता।
हीर पैलेस के सामने कुछ महिलाएं सड़क पर बैठी पत्तल बना रहीं थीं। हमने उनका फोटो लेंने के बारे में पूछा तो बोली -'लई लेव।' हमारे फोटो लेने पर हंसने भी लगीं। सोचती होंगी -'अजीब है। पत्तल बनाने का फोटो लेने क्या मतलब।'
आज सबेरे का समय व्यंग्य चिंता और केचुआ चिंतन में निकल गया। मन किया दोनों को एक बता दें। लेकिन अब नौकरी की चिंता हावी हो गयी । नौकरी की चिंता व्यंग्य और केचुए की चिंता से ज्यादा बड़ी है। खासकर तब जब हाजिरी आधारकार्ड से जुड़ी हो।
फिलहाल इतना ही। आगे फिर जल्दी ही।

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Wednesday, July 19, 2017

पंचबैंक





पहले लेखक एक किताब लिखकर सैकड़ों सालों के लिये अमर हो जाता था, अब सैंकड़ों लिखकर एक वर्ष की गारंटी नहीं बैठती है। - अनुज खरे
--------फ़ैशन के दौर में गारन्टी की बात करना ठीक नहीं !
आज का सबसे बड़ा संकट यही है कि नैतिकता स्वयं ही स्वार्थों की मोटी चद्दर ओढकर सो गयी है। कितना भी जगाओ, जागती ही नहीं है और यदि जाग भी गई तो घंटो कायरता की जम्हुआई ले आंखें चुराती रहती है। -DrAtul Chaturvedi
नैतिकता के खिलाफ़ चोरी की एफ़ आई आर लिखाई जाये -फ़ौरन !
आजकल नैतिक होना महान अनैतिक और अराजक
समझा जाता है- DrAtul Chaturvedi
-----इसीलिये हम जरा नैतिकता से बचकर चलते हैं।
कुछ लोग दंगा कराने के लिये पागल हो जाते हैं और कुछ दंगे के बाद पागल हो जाते हैं - Anoop Mani Tripathi
----खूब बोला है पगलवा
सभ्य आदमी वह होता है, जिसके यहां से कभी भी, कोई वस्तु ’एक्सक्यूज मी’ कहकर उठा ली जाती है। -Arvind Tiwari
-----हम उठाये हैं यह अंश आपके लेख से। एक्सक्यूज मीं भी बोल देंगे अभी।
बीमार या गरीब होना उतना बुरा नहीं है जितना बीमारी या गरीबी का जग-जाहिर होना।- Arvind Tiwari
------ अपने यहां तो ढिढोरा पीटने का भी चलन है।
गुंडा कभी यतीम नहीं होता, उसके पीछे उसके राजनीतिक आका होते हैं- Arvind Tiwari
------ काहे नहीं होंगे भाई। अपनों का ख्याल दुनिया रखती है।
महिलाओं का दिल अटकने के मामले में ज्यादा कमजोर होता है। ये मुंआ तो हर उस चीज पर अटक जाता है , जो उसकी पडोसन के पास होगी या किट्टीपार्टी में किसी सहेली के पास दिख जायेगी। -. अर्चना चतुर्वेदी
------ महिलाओं के दिल की बात ही कुछ और होती है।
आशिकी बेहद खर्चीला काम है और इस काम में बंदे की जेब को पेचिश हो जाता है और टाइम की फ़र्म का दीवाला निकल जाता है- अर्चना चतुर्वेदी
------ विख्यात आशिक बांकेलाल के अनुभव नवोदित आशिकों के लिये। टॉपर का मतलब अब विषय का ज्ञाता न होकर सब्जेक्स्टस का मैनेजमेंट गुरु ज्यादा हो गया। - अलंकार रस्तोगी
---------एक पहुंचे हुये गुरु का बयान।
पहले पढकर टॉप किया जाता था, अब जुगाड़ को गढकर मैरिट में जगह पाई जाती है- Alankar Rastogi
-------एक टॉपर लेखक का खुलासा।
अनारकली अभी रूप के भरोसे मार खाती , कभी प्रेम के। कभी बुद्धि के, कभी ओज के, कभी तेज के। भूल ही जाती कि गुलाम में एक ही गुण होना चाहिये -’जी बेहतर’। --------Alka Pathak
------’प्यार किया तो डरना क्या ' के नशे में सब भूल गयी अनारकली।
गुलाम और बांदियों को यह पता होना चाहिये , जो हुकुम उन्हें दिया जा रहा है, उसको बजा लाना ही उनका काम नहीं है, उन्हें यह भी बताते रहना है कि उस हुकुम से बेहतर और कुछ हो ही नहीं सकता। - Alka Pathak
-----------इससे बेहतर क्या हो सकता है भला अनारकली के लिये।
मलिका बनने के लिये सिर्फ़ खरापन काफ़ी नहीं होता। उसमें कूटनीति, चाटुकारी आदि का खोट मिलाना ही पड़ता। गले में हार पहनना है तो सिर झुकाना ही पड़ता है। -Alka Pathak
---------मलिका बनने के आवश्यक सूत्र।
दीवार-दीवार अनारकली है। कहीं उसका रूप दफ़न है, कहीं उसकी बुद्धि। कहीं उसका तेज और ओज। उसकी इच्छायें, उमंगे और सपने, उसके विश्वास उसके निर्णय। -Alka Pathak
--------गली-गली शंहशांह हैं तो अपने आस-पास की अनारकलियों को दीवार में चिनवा रहे हैं।
आज Alka Pathak जी का जन्मदिन है। उनको जन्मदिन की बधाई।
ये पंच डॉ Giriraj Sharan Agrawal डॉ Ramesh Tiwari संपादित समकालीन हिंदी व्यंग्य से बिना एक्सक्यूज मी कहे लिये गये !
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आम और आदमी

आजकल आम चलाचली की बेला पर हैं। पहले दशहरी , फिर चौसा और अब सफेदा के दिन हैं। कुछ दिन और खा लें। फिर यह भी निकल लेंगे।
इतवार को एक किलो लेने पर आम वाला बोला-'ज्यादा-ज्यादा ले जाओ। जल्दी खत्म हो जाए तो फिर दूसरे फल लगाए।' आम के भी दिन पूरे हुए लगता है।
आम के भाव अस्सी रुपये किलो हो गए हैं। जब भी आम खरीदते हैं शाहजहांपुर के आम के दाम याद आते हैं। आठ-दस रुपये किलो के। दस गुना मंहगे हो गए भई। बीस साल पहले के दाम दिमाग में चिपके हुए हैं। हटते ही नहीं।
एक दिन रात को तो गजब हुआ। रात खाने के समय देखा आम खत्तम। अमास लगी थी। रोज लगती है। लपक कर पहुंचे सड़क पर। बाहर ही मिल गया आम वाला। आम कम बचे थे। भाव 40 रुपये। आम हो या जनप्रतिनिधि, संख्या में कम होने पर भाव कम ही हो जाते हैं। तौला लिये। घर आकर पता चला आधे आम दागी। हिसाब बराबर हो गया।
जब भी आम खाते हैं अम्मा की बात चलती है। अम्मा आम बहुत चाव से खाती थीं। गुठली पर गूदे का रेशा तन बचता। जब तक आम की फसल रहती खाती। आम के बहाने अम्मा की रोज याद आती है। इसी महीने विदा हुई थीं। पुरानी पोस्टें उछलकर फेसबुक पर आतीं। हम उनको पढकर वापस दबा देते।
आम की तरह आम आदमी के किस्से रोज देखते हैं। सडक पर आते-जाते लोगों को देखते हैं। पूरा शहर गड़बड़ हड़बड़ी में भागता दिखता है। कहीं कोई किसी को जगह नहीं देता। चौराहे पर लोग लाइट नहीं सिपाही देखते हैं। इतवार को लाल बत्ती देख तीन चौराहे पर रुके हम। सिपाही नहीं था। पीछे की गाड़ियों ने मार हॉर्न बजाबजा कर वो हाल कर दिया कि आसमान चिल्लाया -'अरे हमको तो सर से उतार दो मालिक।'
हमको लोगों को भागते देख हमको याद आता है:
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है
बस जीने के खातिर मरती है
पता नहीं कहां पहुंचेगी
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी।
शार्टकट की प्रवृत्ति हर जगह दिखती है। हीर पैलेस के पास डिवाइडर पर प्लासटिक के खम्भे लगे हैं। मोटरसाइकल पर सवार उनको दबाकर बगल से निकलते हैं। दबते-दबाते अब तो खम्बा निकल ही गया। जहां अवरोध की जगह रास्ता बन गया है।
हम कनपुरिये बड़े बिंदास टाइप होते हैं। नियम-कानून की पुड़िया बनकर जेब में धरे रहते हैं।' झाड़े रहो कलटरगंज' हमारा नारा है।
ऊपर पढ़ने से लगता है हम बड़े शरीफ चालक हैं। हमको भी लगता है ऐसा है। लेकिन कई बार ओवरब्रिज पर गाड़ी बीच से मोड़ते हैं तो लोगों के अंदाज से लगता है कि लोग कह रहे हैं -' अजीब अहमक सवार है।' लोग कहते तो कुछ नही लेकिन गाड़ी के आगे-पीछे से निकलते हुए हमको मुड़ने नही देते। हमारे अहमकपन की सजा वहीं सुना देते हैं। हम उसी समय तय करते हैं अब बीच से नहीं मुड़ेंगे। कई बार तय किया। लेकिन मुड़ते बीच से ही हैं।
आप भी ऐसा ही करते हैं क्या ?

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Tuesday, July 18, 2017

पंचबैंक


1. विदेशों में कैंडल लाइट डिनर एक रोमांस की घट्ना है, अपने यहां तो यह रोजमर्रा की दुर्घटना है।- Gopal Chaturvedi
2. चश्मा साफ करते हुए बोलने से बात में वजन आ जाता है और आम बात भी खास बन जाती है। Suresh Kant
3. जीवन की गंदगी को आत्मीय भाव से ग्रहण कर उससे लिपटे सूअर को आपने देखा है, चेहरे पर कैसा संतई का भाव होता है! ऐसा ही सन्तई का भाव मुझे आजकल के बाबाओं और संतों के चेहरे पर दिखाई देता है। प्रेम जनमेजय
5. जो व्यक्ति राष्ट्रभक्त होता है, वह या तो पागल होता है या फिर गरीब होता है। Arvind Tiwari
6. गॉडफादर सदैव हंसता रहता है। उसके चेहरे से सदैव आत्मविस्वास झलकता रहता है। DrAtul Chaturvedi
7. अगर सिंचाई सूखे की समस्या हल हो गई, तो फिर मंत्रियों के रोजगार में गिरावट आने की आशंका है, यह कोई राजनीतिक पार्टी होने नहीं देगी। Alok Puranik
8. कलियुग है तो आदमी को कलियुग टाईप ही काम भी करना पड़ेगा। बब्बा बोई करते थे। कभी कोई गरीब-गुरबा नीच आदमी सामने पड़ जाए तो शुरू में ही उसकी माँ-भैंन कर लेते थे, कि कहीं बाद में गरियाना भूलभाल न जाएं तो दिल कचोटता फिरे ...... Gyan Chaturvedi
9. हर फाइल में एक किस्सा है। हर किस्से में हिस्सा है।हिस्सा चुकाइये। पूण्य कमाइये। वरना फाइल जो है , वह फाइल हो जाएगी। Subhash Chander
10. सरकारी नेता या असरकारी नेता न केवल हमें कंबल, रोटी और शराब देते हैं बल्कि हमारी किस्मत भी बदल देते हैं। - Harish Naval
11. राजनीति में रहना है तो सोचना पड़ता है। ऐसे में विचार तो बदलेगा ही। और जिस अखबार के लिये बोलना है उसके अनुसार बदलेगा ! Sushil Siddharth
------सिलसिला जारी है। आपके पंच कतार में हैं।