tag:blogger.com,1999:blog-7993318.post111703572025649153..comments2024-03-29T07:42:45.782+05:30Comments on फ़ुरसतिया: चिट्ठी चिट्ठाकारों को बमार्फत रवि रतलामीअनूप शुक्लhttp://www.blogger.com/profile/07001026538357885879noreply@blogger.comBlogger1125tag:blogger.com,1999:blog-7993318.post-1118493903795003942005-06-11T18:15:00.000+05:302005-06-11T18:15:00.000+05:30अनूप जी,आपकी चिठ्ठी पढकर कालेज के जमाने की याद आ ग...अनूप जी,<BR/>आपकी चिठ्ठी पढकर कालेज के जमाने की याद आ गई. विश्वविद्यालय के कुछ उत्साही छात्रों ने एक अखबार निकालना शुरू किया.उद्देश्य था छात्रों की आवाज विश्वविद्यालय के प्रशासन तक पहुँचाना,छात्रों को अपने प्रश्न उठाने के लिये मंच देना,विश्वविद्यालय में हो रही गड़बड़ियों की तरफ ध्यान आकर्षित करना इत्यादि. शुरू शुरू में अखबार धूम धड़ाके से चला. विद्यार्थियों को इस मासिक पत्र का इंतजार रहने लगा.लेकिन धीरे धीरे अखबार चलाने वालों के ऊपर अन्य जिम्मेदारियाँ आ गईं, विशेषकर करियर की.करीब १ साल तक चलने के बाद वो अखबार बंद हो गया.<BR/>मैने "निरंतर" में कुछ योगदान नहीं किया है, इसलिये उसको चलाने या ना चलाने के बारे में राय नहीं दे सकता. लेकिन इतना जरूर कहूँगा कि जब "अभिव्यक्ति" जैसी पत्रिका को इतने दिनों तक चलाया जा सकता है, तो "निरंतर" को क्यों नहीं? और कारवाँ बढाते चलिये लोग तो जुड़ते जायेंगे.शैलhttps://www.blogger.com/profile/05576373810855503870noreply@blogger.com