आखिर हमनें जिता ही दिया आस्ट्रेलिया को रिकार्ड अंतर से.नागपुर टेस्ट की शानदार हार बताती है कि सच्चे मन से जो मांगा जाता है वो मिल के रहता है.भगवान के घर देर है,अंधेर नहीं.
पिछले टेस्ट में हरभजन और पठान की नासमझी के कारण हमरिकार्ड बनाने से चूके थे.इस बार भी जब दुनिया के शानदार बैट्समैनों के शानदार प्रदर्शन के बाद जहीर ,अगरकर ने बहकना शुरु किया तो हमारा जी धङकने लगा कि कहीं ये फिर न गङबङ कर दें.हारने से तो खैर हमें कोई नहीं रोक सकता पर लगा कि कहीं पुछल्ले फिर न हमें कीर्तिमानी हार से वंचित कर दें.पर शुक्र है कोई अनहोनी नहीं हुयी.शायद कहीं गाना भी बजने लगा हो:-
हम लाये हैं तूफानों से किस्ती निकाल के
इस हार को रखना मेरे बच्चों संभाल के.
कुछ सिरफिरे इस हार से दुखी हैं.कोस रहे हैं टीम को.बल्लेबाजी को.अब कैसे बताया जाये कि बल्लेबाजों का समय विज्ञापन,आटोग्राफ,बयानबाजी आदि-इत्यादि में काफी चला जाता है.थक जाते हैं सब में.ठंडा मतलब
कोकाकोला दिन में सैकङों बार बोलना पङता है .तबियत पस्त हो जाती है.इसके बाद इनसे खेलने,टिक कर खेलने, की आशा रखना तो भाई मानवाधिकार उल्लंघन है.
अक्सर मैं देश में क्रिकेट की लोकप्रियता का कारण तलासने की जहमत उठाता हूं.क्रिकेट हमारे देश का सेफ्टीवाल्व है.एक जीत हमें महीनों मदहोश रखती है.सैकङो अनियमितताओं पर परदा डाल देती है एक अददजीत.राजनीतिक पार्टियां अपनी 'भारत यात्रायें'तय करने में भारतीय क्रिकेट टीम का कार्यक्रम देखती हैं.वे देखती हैं कि यात्रा और मैच तिथियों में टकराव न हो.यह बूता क्रिकेट में ही है कि देश के करोंङो लोग अरबों घण्टे फूंक देते है इसकी आशिकी में.हर हार के बाद जीत का सपना क्रिकेट ही दिखा सकता है.हरबार यही लगता है:-सब कुछ लुट जाने के बाद भी भविष्य बचा रहता है.
कभी मैं यह सोचकर सिहर जाता हूं कि अगर क्रिकेट न होता तो हमारे देश का क्या होता.हम कहीं के न रहते.
हर विदेशी शब्द की तरह इन्टरनेट शब्द का अनुवाद हुआ.अब तक के प्रचलित शब्दानुवादों में जाल शब्द सबसे ज्यादा मान्यता हासिल कर सका है.पर जाल में लगता है कि कहीं फंसने का भी भाव है.एक हिन्दी पत्रिका में इंटरनेट का अनुवाद दिया था-अन्तरताना.वास्तव में नेट (जाल)बनता है ताने-बाने के मेल से.अन्तरताने से तो लगता है जाल को उधेङकर ताना-बाना अलग-अलग कर दिया गया हो.पत्रिका राष्टवादी है -सो इससे अधिक
और कर भी क्या सकती है?
मेरी पसंद
एक बार और जाल फेक रे मछेरे,
जाने किस मछली में बंधन की चाह हो!
सपनों की ओस गूंथती कुश की नोक है
हर दर्पण में उभरा एक दिवालोक है
रेत के घरौंदों में सीप के बसेरे
इस अंधेर में कैसे नेह का निबाह हो!
उनका मन आज हो गया पुरइन पात है
भिगो नहीं पाती यह पूरी बरसात है
चन्दा के इर्द-गिर्द मेघों के घेरे
ऐसे में क्यों न कोई मौसमी गुनाह हो!
गूंजती गुफाओं में पिघली सौगन्ध है
हर चारे में कोई चुम्बकीय गन्ध है
कैसे दे हंस झील के अनंत फेरे
पग-पग पर लहरें जब बांध रही छांह हो!
कुंकुम-सी निखरी कुछ भोरहरी लाज है
बंसी की डोर बहुत कांप रही आज है
यों ही न तोङ अभी बीन रे संपेरे
जाने किस नागिन में प्रीत का उछाह हो!
---बुद्धिनाथ मिश्र
कविता अच्छी है।हम हिन्दुस्तानी तो ज़ीरो को हीरो बनाने में माहिर हैं तो आस्ट्रेलिया तो बहुत अच्छी टीम है।
ReplyDeleteआखिर एक ना एक दिन तो रिकार्ड खोना ही था, खोया तो विश्वके सबसे अच्छी टीम से खोया, ईसमे गमकी बात क्या हे??
ReplyDeleteअबकी हारे तो क्या हुआ, अब मुम्बई नही दूर,
ReplyDeleteबहाँ भी पिटगे देखना, तीन दिन मे ही हुजूर