बनारस हमें कई तरह से आकर्षित करता रहा है।वहां के लोगों के
अलमस्त तबियत को बयान करने के सैकड़ो किस्से प्रचलित हैं। बनारस हिंदू
विश्वविद्यालय के एक कुलपति बनारस के बारे में कहा करते थे-बनारस इज अ सिटी व्हिच हैज रिफ्यूज्ड टु माडर्नाइज इटसेल्फ
. काशीनाथ सिंह ने अपने तमाम संस्मरणों में बनारस को चित्रित किया
है।उनके बहुचर्चित लेख ‘देख तमाशा लकड़ी का’ एक अंश के देखें:-
शादी भले ही हमारी एक ही हुयी है पर गवाह मैं सैकड़ों शादियों का रहा।हालांकि मैं यह अक्सर कहता हूं कि अपनी शादी के अलावा किसी दूसरे की शादी में जाना निहायत बेवकूफाना हरकत है।पर फिर भी जाना पड़ता है दुनियादारी निभाने के लिये।इसी दुनियादारी के चक्कर में मैंने पिछले कुछ दिनों में सैकड़ों दूल्हों तथा हजारों बारातियों का दीदार किया है।हालांकि कोई आंकड़ा नहीं है(इसीलिये मैं दावे के साथ कह सकता हूं )पर हमारे देश में सड़कों पर शाम के बाद होने वाले सबसे ज्यादा जाम जुलूसों के कारण होते हैं।तथा इन जुलुसों में सबसे ज्यादा संख्या बारातों की होती है।जब भी मैं ऐसे किसी जाम में फंसता हूं तो कभी दायें-बायें से होकर निकलने की कोशिश नहीं करता।पूरे इत्मिनान और सम्मान के साथ दूल्हे तथा बारातियों का दर्शन-लाभ करता हूं।
पिछले दिनों मैं एक शादी में गया।बारात आम बरात की तरह चली। वही बैंड ।वही बाजा। गाने भी वही -यह देश है वीर जवानों का,अलबेलों का मस्तानों का तथा आज मेरे यार की शादी है। इन दो गानों की बल्ली के बिना किसी की शादी का तम्बू गड़ता आज भी।किसी बरात की नैया पार नहीं लगती बिना इन दो पतवारों के।
पर बारात का केन्द्रीय तत्व तो दूल्हा होता है। जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार।कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स रजिया सुल्तान हैं या वीर शिवाजी ।पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव बांगड़ू कोलाज चला आ रहा है।
सजधज में मामूली परिवर्तन हो सकता है। संभव है कि सर पर मुकुट की जगह पगड़ी हो,नवाबी पोशाक की जगह टाईयुक्त सूट हो जो दूल्हे को इक्कीसवीं सदी की तरफ घसीटने की कोशिश करें पर इस साजिश को विफल करने के लिये हो सकता है कि घोड़ों की संख्या एक से सात हो जाये तथा लगे कि साक्षात सूर्यदेव रश्मिरथ पर सवार होकर तिमिरनाश के लिये निकल पड़े हों।कुल मिलाकर सारा गठबंधन मिलकर दूल्हे को बांगड़ूपने से बचाने की हर साजिश को विफल कर देता है।
मुझे लगता है कि भारत में तलाक का औसत कम होने का कारण भी यही है कि खुद को दूल्हे के रूप में दुबारा देखने की हिम्मत नहीं कर पाते होंगे लोग।कहां से लाये इतनी शताब्दियां समेट कर बार-बार!
दूल्हा तो हंडिया का चावल होता है।उसको देखकर बारातियों का अंदाज लगाया जा सकता है-‘जस दूलहु तस सजी बराता’ ।रास्ते भर बाराती अपने शरीर के सारे अंगों को एक दूसरे से दूर फेंकने की कोशिश में पसीने-पसीने होते हैं।कुछ आधुनिकता के चपेटे में आकर तथा कुछ पसीने की गंध से आकर्षित होकर अब तो दूल्हे भी मेहनत करने लगे हैं।इससे कुढ़ के अपनी शादी में नाचने से वंचित रह गये कोई गुजरा हुआ दूल्हा कहता है:-
दूल्हे भी करने लगे निज बारात में डांस,
हो सकता कल शुरु हो मंडप में रोमांस।
मंडप में रोमांस,जमाने की बलिहारी,
शर्म-हया इन नचकइयों के सम्मुख हारी।
पी शराब ‘प्रियभाष’हिलाते जब ये कूल्हे,
बैंड मास्टर या जोकर लगते तब दूल्हे।
मेरे एक जानने वाले स्लिम-ट्रिम ,स्मार्टनुमा अधिकारी , जिनको मैंने कभी सूट-टाई-बूट के बिना कभी नहीं देखा था ,वे अचानक ऐसी ही किसी बारात में पगड़ी पहने पकड़े गये।उनको पगड़ी में देखकर लगा कि गोदान का होरी बेगार करने आया है।पर पगड़ी के नीचे चेहरा-गरदन तथा शेरवानी देखकर मुझे लगा कि शायद ये शहनाई बजायें।पर मेरी दोनो धारणायें बेकार हो गयीं जब वे कन्या के पिता से समधौर करते पाये पाये गये।पता चला कि दूल्हा उन्हीं का लड़का था।
महिलाओं का जिक्र करना उचित न होगा क्योंकि वे सौन्दर्य की प्रतीक मानी जाती हैं। सुन्दरता को अपने इजाफे के लिये हर लटका-झटका करने की छूट सदियों से है। कभी-कभी कुछ महिलाओं को बारातों में देखकर लगता है कि सर्राफा बाजार टहल रहा है।
रवीन्द्रनाथ त्यागीजी की तर्ज पर कहें तो-इस सर्राफा बाजार से घिरे सौन्दर्य -समुद्र को हम थक जाने तक निरखते हैं(खारे समुद्र का पान नहीं किया जाता ) तथा बाकी छोड़ देते हैं दूसरों के लिये।
शादी में बढ़ते दहेज की बात करना अब ‘आउट आफ फैशन’ हो गया है।भ्रष्टाचार की तरह यह बहुत पहले से समाज में मान्यता प्राप्त है।यह जरूर विकास हुआ है कि अब लड़कियां भी कोशिश में रहती हैं कि उनको पति को खूब दहेज मिले ताकि जिंदगी चीजों का इंतजाम करने में न जाया हो जाये।उनकी समझदारी बढ़ गयी है। दूल्हों ने भी अनावश्यक संकोच को झटक दिया है तथा भारत के राष्ट्रपतिजी से प्रेरणा पाकर ऊंचे लक्ष्य रखना सीख लिया है।कल तक बेरोजगार लड़के जो साइकिल का पंचर बनवाने में पंचर से हो जाते थे वे क्लर्क की नौकरी लगते ही दहेज में कार की मांग करने लगते हैं-मय जिंदगी भर पेट्रोल के खर्चे के।इसीलिये हरिशंकर परसाईजी कहते थे–इस देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी में जा रही है।
हमारे पिताजी बड़े बतरसिया थे ।उनके एक गुजराती मित्र थे।वे भी खूब बतरसिया थे।वे एक बारात का किस्सा सुनाते थे:-
एक गांव से बारात गयी।जब बारात लड़की के गांव पहुंच गयी तो पता चला कि दूल्हे के कपड़े नहीं मिल रहे हैं।लोग परेशान।बारात चलने का समय होने वाला था।लोगों ने सोच-विचार कर एक दूल्हे जैसी ही कद-काठी के लड़के के कपड़े बारात की इज्जत का हवाला देकर दूल्हे को दिला दिये।लड़के ने कपड़े तो दे दिये पर उसे खल रहा था। किसी ने उत्सुकता वश उससे पूछा-दूल्हा कहां है ? वो बोला-दूल्हा वो बैठा है लेकिन जो पायजाम वो पहने है वो मेरा है।लोग हंसने लगे दूल्हे तथा बारात पर।इस पर बुजुर्गों ने उन्हें डांटा -ये बताने की क्या जरूरत है कि पायजामा तुम्हारा है?बारात की बेइज्जती होती है।कुछ देर बाद फिर किसी ने दूल्हे के बारे में पूछा तो वह बोला-दूल्हा तो वो बैठा है लेकिन जो पायजामा वो पहने है वो भी उसी का है।लोग फिर हंसे।दूल्हा शरमाया।बुजुर्गों ने फिर उसे डांटा-क्या जरूरत है तुमको पायजामें के बारे में बताने की?इस पर वह बहुत देर तक चुप रहा ।फिर कुछ लोगों ने जब उसे बार-बार दूल्हे के बारे में पूछा तो वह झल्लाकर बोला-दूल्हा तो वो बैठा है लेकिन उसके पायजामें के बारे में मैं कुछ नहीं बताऊंगा।
- तो ,सबसे पहले इस मुहल्ले का मुख्तसर सा बायोडाटा-कमर में गमछा, कंधे पर लंगोट और बदन पर जनेऊ- यह यूनीफार्म है अस्सी का !
हालांकि बम्बई-दिल्ली के चलते कपड़े-लत्ते की दुनिया में काफी प्रदूषण आ
गया है।पैंट-शर्ट,जीन्स,सफारी और भी जाने कैसी हाई-फाई पोशाकें पहनने लगे
हैं लोग!लेकिन तब, जब कहीं नौकरी या जजमानी पर मुहल्ले के बाहर जाना
हो!वरना प्रदूषण ने जनेऊ या लंगोट का चाहे जो बिगाड़ा हो,गमछा अपनी जगह
अडिग है!
-
खड़ाऊं पहनकर पांव लटकाए पान की दुकान पर बैठे तन्नी गुरु से एक आदमी बोला-
“किस दुनिया में हो गुरु!अमरीका रोज-रोज आदमी चांद पर भेज रहा है और तुम
घंटे भर से पान घुला रहे हो?”
मोरी में ‘पच्’से पान की पीक थूककर गुरु बोले-”देखौ!एक बात नोट कर
लो!चन्द्रमा हो या सूरज-साले कि जिसको गरज होगी ,खुदै यहां आयेगा।तन्नी
गुरु टस-से-मस नहीं होंगे हियां से!समझे कुछ?”
‘जो मजा बनारस में ;न पेरिस में न फारस में’-इस्तहार है इसका।
यह इस्तहार दीवारों पर नहीं ,लोगों की आंखों और ललाटों पर लिखा रहता है!
‘गुरु’यहां की नागरिकता का सरनेम है।
न कोई सिंह ,न पांड़े,न जादो ,न राम!सब गुरु!जो पैदा भया ,वह भी गुरु.जो मरा वह भी गुरु!
वर्गहीन समाज का सबसे बड़ा जनतंत्र है यह।
शादी भले ही हमारी एक ही हुयी है पर गवाह मैं सैकड़ों शादियों का रहा।हालांकि मैं यह अक्सर कहता हूं कि अपनी शादी के अलावा किसी दूसरे की शादी में जाना निहायत बेवकूफाना हरकत है।पर फिर भी जाना पड़ता है दुनियादारी निभाने के लिये।इसी दुनियादारी के चक्कर में मैंने पिछले कुछ दिनों में सैकड़ों दूल्हों तथा हजारों बारातियों का दीदार किया है।हालांकि कोई आंकड़ा नहीं है(इसीलिये मैं दावे के साथ कह सकता हूं )पर हमारे देश में सड़कों पर शाम के बाद होने वाले सबसे ज्यादा जाम जुलूसों के कारण होते हैं।तथा इन जुलुसों में सबसे ज्यादा संख्या बारातों की होती है।जब भी मैं ऐसे किसी जाम में फंसता हूं तो कभी दायें-बायें से होकर निकलने की कोशिश नहीं करता।पूरे इत्मिनान और सम्मान के साथ दूल्हे तथा बारातियों का दर्शन-लाभ करता हूं।
पिछले दिनों मैं एक शादी में गया।बारात आम बरात की तरह चली। वही बैंड ।वही बाजा। गाने भी वही -यह देश है वीर जवानों का,अलबेलों का मस्तानों का तथा आज मेरे यार की शादी है। इन दो गानों की बल्ली के बिना किसी की शादी का तम्बू गड़ता आज भी।किसी बरात की नैया पार नहीं लगती बिना इन दो पतवारों के।
पर बारात का केन्द्रीय तत्व तो दूल्हा होता है। जब मैं किसी दूल्हे को देखता हूं तो लगता है कि आठ-दस शताब्दियां सिमटकर समा गयीं हों दूल्हे में।दिग्विजय के लिये निकले बारहवीं सदी किसी योद्धा की तरह घोड़े पर सवार।कमर में तलवार। किसी मुगलिया राजकुमार की तरह मस्तक पर सुशोभित ताज (मौर)। आंखों के आगे बुरकेनुमा फूलों की लड़ी-जिससे यह पता लगाना मुश्किल कि घोड़े पर सवार शख्स रजिया सुल्तान हैं या वीर शिवाजी ।पैरों में बिच्छू के डंकनुमा नुकीलापन लिये राजपूती जूते। इक्कीसवीं सदी के डिजाइनर सूट के कपड़े की बनी वाजिदअलीशाह नुमा पोशाक। गोद में कंगारूनुमा बच्चा (सहबोला) दबाये दूल्हे की छवि देखकर लगता है कि कोई सजीव बांगड़ू कोलाज चला आ रहा है।
सजधज में मामूली परिवर्तन हो सकता है। संभव है कि सर पर मुकुट की जगह पगड़ी हो,नवाबी पोशाक की जगह टाईयुक्त सूट हो जो दूल्हे को इक्कीसवीं सदी की तरफ घसीटने की कोशिश करें पर इस साजिश को विफल करने के लिये हो सकता है कि घोड़ों की संख्या एक से सात हो जाये तथा लगे कि साक्षात सूर्यदेव रश्मिरथ पर सवार होकर तिमिरनाश के लिये निकल पड़े हों।कुल मिलाकर सारा गठबंधन मिलकर दूल्हे को बांगड़ूपने से बचाने की हर साजिश को विफल कर देता है।
मुझे लगता है कि भारत में तलाक का औसत कम होने का कारण भी यही है कि खुद को दूल्हे के रूप में दुबारा देखने की हिम्मत नहीं कर पाते होंगे लोग।कहां से लाये इतनी शताब्दियां समेट कर बार-बार!
दूल्हा तो हंडिया का चावल होता है।उसको देखकर बारातियों का अंदाज लगाया जा सकता है-‘जस दूलहु तस सजी बराता’ ।रास्ते भर बाराती अपने शरीर के सारे अंगों को एक दूसरे से दूर फेंकने की कोशिश में पसीने-पसीने होते हैं।कुछ आधुनिकता के चपेटे में आकर तथा कुछ पसीने की गंध से आकर्षित होकर अब तो दूल्हे भी मेहनत करने लगे हैं।इससे कुढ़ के अपनी शादी में नाचने से वंचित रह गये कोई गुजरा हुआ दूल्हा कहता है:-
दूल्हे भी करने लगे निज बारात में डांस,
हो सकता कल शुरु हो मंडप में रोमांस।
मंडप में रोमांस,जमाने की बलिहारी,
शर्म-हया इन नचकइयों के सम्मुख हारी।
पी शराब ‘प्रियभाष’हिलाते जब ये कूल्हे,
बैंड मास्टर या जोकर लगते तब दूल्हे।
मेरे एक जानने वाले स्लिम-ट्रिम ,स्मार्टनुमा अधिकारी , जिनको मैंने कभी सूट-टाई-बूट के बिना कभी नहीं देखा था ,वे अचानक ऐसी ही किसी बारात में पगड़ी पहने पकड़े गये।उनको पगड़ी में देखकर लगा कि गोदान का होरी बेगार करने आया है।पर पगड़ी के नीचे चेहरा-गरदन तथा शेरवानी देखकर मुझे लगा कि शायद ये शहनाई बजायें।पर मेरी दोनो धारणायें बेकार हो गयीं जब वे कन्या के पिता से समधौर करते पाये पाये गये।पता चला कि दूल्हा उन्हीं का लड़का था।
महिलाओं का जिक्र करना उचित न होगा क्योंकि वे सौन्दर्य की प्रतीक मानी जाती हैं। सुन्दरता को अपने इजाफे के लिये हर लटका-झटका करने की छूट सदियों से है। कभी-कभी कुछ महिलाओं को बारातों में देखकर लगता है कि सर्राफा बाजार टहल रहा है।
रवीन्द्रनाथ त्यागीजी की तर्ज पर कहें तो-इस सर्राफा बाजार से घिरे सौन्दर्य -समुद्र को हम थक जाने तक निरखते हैं(खारे समुद्र का पान नहीं किया जाता ) तथा बाकी छोड़ देते हैं दूसरों के लिये।
शादी में बढ़ते दहेज की बात करना अब ‘आउट आफ फैशन’ हो गया है।भ्रष्टाचार की तरह यह बहुत पहले से समाज में मान्यता प्राप्त है।यह जरूर विकास हुआ है कि अब लड़कियां भी कोशिश में रहती हैं कि उनको पति को खूब दहेज मिले ताकि जिंदगी चीजों का इंतजाम करने में न जाया हो जाये।उनकी समझदारी बढ़ गयी है। दूल्हों ने भी अनावश्यक संकोच को झटक दिया है तथा भारत के राष्ट्रपतिजी से प्रेरणा पाकर ऊंचे लक्ष्य रखना सीख लिया है।कल तक बेरोजगार लड़के जो साइकिल का पंचर बनवाने में पंचर से हो जाते थे वे क्लर्क की नौकरी लगते ही दहेज में कार की मांग करने लगते हैं-मय जिंदगी भर पेट्रोल के खर्चे के।इसीलिये हरिशंकर परसाईजी कहते थे–इस देश की आधी ताकत लड़कियों की शादी में जा रही है।
हमारे पिताजी बड़े बतरसिया थे ।उनके एक गुजराती मित्र थे।वे भी खूब बतरसिया थे।वे एक बारात का किस्सा सुनाते थे:-
एक गांव से बारात गयी।जब बारात लड़की के गांव पहुंच गयी तो पता चला कि दूल्हे के कपड़े नहीं मिल रहे हैं।लोग परेशान।बारात चलने का समय होने वाला था।लोगों ने सोच-विचार कर एक दूल्हे जैसी ही कद-काठी के लड़के के कपड़े बारात की इज्जत का हवाला देकर दूल्हे को दिला दिये।लड़के ने कपड़े तो दे दिये पर उसे खल रहा था। किसी ने उत्सुकता वश उससे पूछा-दूल्हा कहां है ? वो बोला-दूल्हा वो बैठा है लेकिन जो पायजाम वो पहने है वो मेरा है।लोग हंसने लगे दूल्हे तथा बारात पर।इस पर बुजुर्गों ने उन्हें डांटा -ये बताने की क्या जरूरत है कि पायजामा तुम्हारा है?बारात की बेइज्जती होती है।कुछ देर बाद फिर किसी ने दूल्हे के बारे में पूछा तो वह बोला-दूल्हा तो वो बैठा है लेकिन जो पायजामा वो पहने है वो भी उसी का है।लोग फिर हंसे।दूल्हा शरमाया।बुजुर्गों ने फिर उसे डांटा-क्या जरूरत है तुमको पायजामें के बारे में बताने की?इस पर वह बहुत देर तक चुप रहा ।फिर कुछ लोगों ने जब उसे बार-बार दूल्हे के बारे में पूछा तो वह झल्लाकर बोला-दूल्हा तो वो बैठा है लेकिन उसके पायजामें के बारे में मैं कुछ नहीं बताऊंगा।
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कान पकड़ता हूं – फिर कभी दुल्हा जो बना!