प्रमोद तिवारी
कवि सम्मेलन अपने पूरे शबाब पर था । विनोद श्रीवास्तव पूरे हाल की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सोम ठाकुर जी का आशीर्वाद पाकर बैठ चुके थे। संचालक डा. हसन मेंहदी ने कहा:-
मैं चाह रहा हूं कि मैं आपकी मुलाकात एक ऐसे कवि और शायर दोनों से करवाऊँ जिसका आजका दिन बड़ी उपलब्धियों का दिन है।गणेश चतुर्थी के अवसर पर ‘हेलो कानपुर’ के माध्यम से प्रमोद तिवारी मुख्य संपादक के रूप में पहचाने गये। एक अच्छा पत्रकार,एक अच्छा लेखक,एक अच्छा गीतकार और आज का दिन उनके लिये और भी खास है कि आज उनकी शादी की वर्षगाँठ भी है। यह संयोग है कि इस समय इनको जहाँ होना चाहिये वहाँ नहीं हैं और जहाँ नहीं होना चाहिये वहाँ हैं। लेकिन फिर भी आपका स्नेह इनको ऐसा मिलना चाहिये कि इन्हें लगे कि यह इनकी जिंदगी का खास दिन है।मैं भाई प्रमोद तिवारी को पूरे प्यार-सम्मान से बुलाते हुये अनुरोध कर रहा हूँ कि वे गीत पढें,गज़ल पढ़ें जो मन आये पढ़ें पर मेरी खास फरमाइस उनसे रिश्तों वाला वह गीत सुनाने की है जो कि गीत की विधा में अभिनव प्रयोग है।प्रमोद तिवारी अपनी तमामतर शायरी के हुस्न के साथ-
इस अनौपचारिक आमंत्रण के बाद प्रमोद तिवारी खड़े हुए। शुरु किया:-
आज सारा दिन इसी प्रेक्षागृह मे बीत गया। यहाँ कुछ चेहरे सुबह से मेरे साथ हैं इस समय भी हैं।क्या कहें कुछ समझ में नहीं आ रहा ।अपने घर में खड़े हैं।चार पंक्तियों से सीधे-सीधे अपनी बात शुरु कर रहा हूं:-
सच है गाते गाते हम भी थोड़ा सा मशहूर हुए,
लेकिन इसके पहले पल-पल,तिल-तिल चकनाचूर हुए।
चाहे दर्द जमाने का हो चाहे हो अपने दिल का,
हमने तब-तब कलम उठाई जब-जब हम मजबूर हुए।
हाल तालियों से गूँजने लगा।कई बार सुनानी पड़ीं ये लाईने प्रमोद तिवारी को। प्रमोद तिवारी कानपुर के दुलरुआ कवि हैं। ये कनपुरियों को तथा कनपुरिये इनकी कविता को बहुत अपना मानते हैं। अपनी पूरी कनपुरिया ठसक के साथ कविता पढ़ते हैं।प्रमोद तिवारी के बारे में शायर शाह मंजूर आलम ने लिखा है:-
हमारे प्रमोद तिवारी दीवाने पैदा हुये हैं, दीवाने होकर जवान हुये और जब भी इस दुनिया से उस दुनिया का सफर करेंगे तो दीवानगी के साथ ही झूमते हुये छलांग लगायेंगे।
कइयो कवितायें मुंहजवानी याद हैं लोगों को ।अक्सर होता है कि इधर मंच से प्रमोद कविता पढ़ रहे होते हैं,उधर श्रोता तालियों के कोरस में साथ दे रहे होते हैं। मुझे लगता है आज के देश के सबसे बेहतरीन गीतों का संकलन अगर किया जाये तो उनमें कुछ गीत प्रमोद तिवारी के जरूर होंगे।नीरज ने इनके बारे में लिखा है:-
हिंदी कविता के मंचों पर मुझे प्रमोद की तरह गजलें कहता और पढ़ता कोई दूसरा नहीं दिखाई देता।हिंदी में जब भी सही गजल लिखने वालों की तलाश होगी तो प्रमोद का नाम प्रथम पंक्ति में लिखा जायेगा।
अगला गीत जो प्रमोद तिवारी ने पढ़ा उसके पहले उनका परिचय जरूरी है। ३१जनवरी,१९६० को कानपुर में जन्में प्रमोद तिवारी पत्रकारिता में दैनिक जागरण समूह से १२ वर्ष तक जुड़े रहे। नरेन्द्र मोहन के रहने तक प्रमोद तिवारी जागरण समूह से जुड़े रहे। नरेन्द्र मोहन के बाद शायद उस समूह में प्रमोद की दीवानगी को सहेजने का माद्दा नहीं रहा ।बहरहाल वे जागरण ग्रुप से अलग होने बाद कुछ दिन इधर-उधर रहने के बाद प्रमोद तिवारी ने कानपुर से ‘हेलो कानपुर’ साप्ताहिक का प्रकाशन उसी दिन सबेरे शुरु किया था। यह अखबार उन स्थानीय समस्याओं को सामने लाने के उद्देश्य से शुरु किया गया जिनको बड़े, अखबार समूह अपनी व्यवसायिक मजबूरियों /समझदारी के चलते सामने लाने में हिचकते हैं। साप्ताहिक सहारा समय में शहरनामा में प्रमोद तिवारी के मखंचू मियां पूरे शहर का जायजा लेते रहते हैं। अगला गीत जिस तेवर का था वह प्रमोद तिवारी का खास ठसक वाला तेवर है:-
हम तो पिंजरों को परों पर रात-दिन ढोते नहीं,
आदमी हैं -हम किसी के पालतू तोते नहीं ।
क्यों मेरी आँखों में आँसू आ रहे हैं आपके
आप तो कहते थे कि पत्थर कभी रोते नहीं।
आप सर पर हाथ रखकर खा रहे हैं क्यों कसम,
जिनके दामन पाक हों वो दाग को धोते नहीं।
ख्वाब की चादर पे इतनी सिलवटें पड़ती नहीं,
हम जो सूरज के निकलने तक तुम्हें खोते नहीं।
दिल के बटवारे से बन जातीं हैं घर में सरहदें,
कि सरहदों से दिल के बटवारे कभी होते नहीं।
क्यों अँधेरों की उठाये घूमते हो जूतियाँ,
क्यों चिरागों को जलाकर चैन से सोते नहीं।
हम तो पिंजरों को परों पर रात-दिन ढोते नहीं,
आदमी हैं -हम किसी के पालतू तोते नहीं ।
संयोग कि मंच के एकदम सामने जागरण ग्रुप के वर्तमान प्रबंध संपादक बैठे थे।जब हमने पूछा कि क्या खासतौर पर उन्हीं को सुनाने के लिये था!
प्रमोदजी मुस्कराते हुये बोले-यार ,यह तो संयोग है -चपक गया ।
अगला गीत चांद के विभिन्न रूपों के बारे में था । कुछ पंक्तियाँ थीं:-
चाँद तुम्हें देखा है पहली बार
ऐसा क्यों लगता लगता हर बार
कभी मिले फुरसत बतलाना यार,
ऐसा क्यों लगता मुझको हर बार!
बादल के घूँघट से बाहर जब भी तू निकला है
मैं क्या,मेरे साथ समंदर तक मीलों उछला है,
आसन पर बैठे जोगी को जोग लगे बेकार,
चाँद तुम्हें देखा है पहली बार,
ऐसा क्यों लगता मुझको हर बार।
प्रमोद तिवारी किस संवेदना के कवि हैं यह बानगी मिलती है उनके उस समर्पण से जो उन्होंने अपने गज़ल संग्रह सलाखों के पीछे को अपने स्वर्गीय पिता को समर्पित करते हुये ने लिखा है:-
परम पूज्य स्वर्गीय पिता को जिन्हें मैं कभी अपनी ग़जलें न तो सुना सका और न पढ़ सका लेकिन छुप-छुपकर उन्होंने मुझे सुना भी और पढ़ा भी और फिर अपने मित्रों के बीच सराहा भी,भर-भर मुंह आशीष के साथ।
प्रमोद तिवारी कविता पाठ करते हुये
अगला गीत जो प्रमोद जी ने पढ़ा वह एकदम नये अंदाज में था।अभिनव प्रयोग। जिसके लिये संचालक ने खास फरमाइस की थी -रिश्तों वाला गीत।अहसास का यह गीत अपना पूरा मजा रूबरू होकर सुनने में ही दे सकता है। पचीसों बार सुन चुका हूं यह गीत। हर बार दुबारा सुनने का मन करता है। आओ बच्चों तुम्हें दिखायें झांकी हिंदुस्तान की या फिर मां कह एक कहानी वाले एकदम हल्के-फुल्के ,मजे-मजे वाले दोस्ताना अंदाज में शुरु हुई बात कैसे संवेदनात्मक अहसास से जुड़ती चली जाती है यह पता ही नहीं चलता। गीत है:-
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।
मेरे घर के आगे एक खिड़की थी,
खिड़की से झांका करती लड़की थी,
इक रोज मैंने यूँ हीं टाफी खाई,
फिर जीभ निकाली उसको दिखलाई,
गुस्से में वो झज्जे पर आन खड़ी,
आँखों ही आँखों मुझसे बहुत लड़ी,
उसने भी फिर टाफी मंगवाई थी,
आधी जूठी करके भिजवाई थी।
वो जूठी अब भी मुँह में है,
हो गई सुगर हम फिर भी खाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
दिल्ली की बस थी मेरे बाजू में,
इक गोरी-गोरी बिल्ली बैठी थी,
बिल्ली के उजले रेशम बालों से,
मेरे दिल की चुहिया कुछ ऐंठी थी,
चुहिया ने उस बिल्ली को काट लिया,
बस फिर क्या था बिल्ली का ठाट हुआ,
वो बिल्ली अब भी मेरे बाजू है,
उसके बाजू में मेरा राजू है।
अब बिल्ली,चुहिया,राजू सब मिलकर
मुझको ही मेरा गीत सुनाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
एक दोस्त मेरा सीमा पर रहता था,
चिट्ठी में जाने क्या-क्या कहता था,
उर्दू आती थी नहीं मुझे लेकिन,
उसको जवाब उर्दू में देता था,
एक रोज़ मौलवी नहीं रहे भाई,
अगले दिन ही उसकी चिट्ठी आई,
ख़त का जवाब अब किससे लिखवाता,
वह तो सीमा पर रो-रो मर जाता।
हम उर्दू सीख रहे हैं नेट-युग में,
अब खुद जवाब लिखते हैं गाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इक बूढ़ा रोज गली में आता था,
जाने किस भाषा में वह गाता था,
लेकिन उसका स्वर मेरे कानों में,
अब उठो लाल कहकर खो जाता था,
मैं,निपट अकेला खाता सोता था,
नौ बजे क्लास का टाइम होता था,
एक रोज ‘मिस’नहीं मेरी क्लास हुई,
मैं ‘टाप’ कर गया पूरी आस हुई।
वो बूढ़ा जाने किस नगरी में हो,
उसके स्वर अब भी हमें जगाते हैं ।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
इन राहों वाले मीठे रिश्तों से,
हम युगों-युगों से बँधे नहीं होते,
दो जन्मों वाले रिश्तों के पर्वत,
अपने कन्धों पर सधे नहीं होते,
बाबा की धुन ने समय बताया है,
उर्दू के खत ने साथ निभाया है,
बिल्ली ने चुहिया को दुलराया है,
जूठी टाफी ने प्यार सिखाया है।
हम ऐसे रिश्तों की फेरी लेकर,
गलियों-गलियों आवाज लगाते हैं,
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं।
राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं,
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।
गीत समाप्त हो गया ।गीत और तालियाँ मेरे कानों में अब भी गूँज रहीं हैं।
मुझे गर्व है कि ऐसे दौर में जब कवियों को देखकर श्रोताओं के भाग खड़े होने के तमाम चुटकुले चलन में हैं तब हमारे कानपुर शहर में प्रमोद तिवारी जैसे कवि हैं जिनके कुछ गीत बार-बार सुनने का मन करता है ।इनकी गजलों कुछ चुनिंदा शेर हैं:-
मुश्किलों से जब मिलो आसान होकर ही मिलो,
देखना,आसान होकर मुश्किलें रह जायेंगीं।
दिल़ में वो महकता है किसी फूल की तरह,
कांटे की तरह ज़ेहन में जो है चुभा हुआ ।
ये क्यों कहें दिन आजकल अपने खराब हैं,
कांटों से घिर गये हैं ,समझ लो गुलाब हैं।
मैं झूम के गाता हूँ ,कमज़र्फ जमाने में,
इक आग लगा ली है,इक आग बुझाने में।
ये सोच के दरिया में ,मैं कूद गया यारों,
वो मुझको बचा लेगा ,माहिर है बचाने में।
आये हो तो आँखों में कुछ देर ठहर जाओ
इक उम्र गुज़रती है ,इज ख्वाब सजाने में।
मैं दोस्ती में दोस्तों के सितम सह लूंगा,
दगा ने दें तो दुश्मनों के साथ रह लूँगा।
क्यों किसी भी हादसे से कोई घबराता नहीं ,
इस शहर को क्या हुआ ,कुछ समझ में आता नहीं।
कुछ न कुछ मकसद रहा होगा भी शायर का जरूर,
बेवजह हर शेर चट्टानों से टकराता नहीं।
मैना हमारे सामने गिरते ही मर गई,
कैसे कहें गुलेल मदारी के पास है।
मुस्करा कर जो सफर में चल पड़े होंगे,
आज बन कर मील के पत्थर खड़े होंगे।
ऐसा क्या है खास तुम्हारे अधरों में,
ठहर गया मधुमास तुम्हारे अधरोंमें।
लाख था दुश्मन मगर ये कम नहीं था दोस्तों,
बद्दुआओं के बहाने नाम वो लेता तो था।
मुझे सर पे उठा ले आसमां ऐसा करो यारों,
मेरी आवाज में थोडा़ असर पैदा करो यारो।
यूं सबके सामने दिल खोलकर बातें नही करते,
बड़ी चालाक दुनिया है जरा समझा करो यारो।
Posted in कविता, मेरी पसंद | 26 Responses
फुरसतिया जी, ये तो पूरा पूरा कवि सम्मेलन ही हो गया, मजा आ गया,
कई कई बार पढा, बहुत अच्छा लगा, ऐसे कवियों को वैब पर लाइये, चाहे तो हम सभी ब्लागर भाईयों की सेवायें लीजिये, हम उनके लिये टाइप कर देंगे. लेकिन ऐसे कवियों को बहुत बड़ा वर्ग मिलेगा देखने और पढने को. जैसे नर्मदातीरे टाइप की साइट है वैसी ही साइट बनायी जा सकती है, कानपुर के कवियों और साहित्यकारों के लिये.
धन्यवाद
सारिका
मुश्किलों से जब मिलो आसान होकर ही मिलो,
देखना,आसान होकर मुश्किलें रह जायेंगीं।
प्रमोद जी से परिचय करवाने के लिये धन्यवाद। जब आपने यह लिखा था तब हम चिट्ठाकारी में न थे।
सुना है कि आप हमेशा दूसरों को उपहार में किताबीं ही देते हैं आज आपसे हक के साथ प्रमोद जी की ’सलाखों के पीछे’ मांग रहे हैं।
Pramod Tewari
प्रमोद तिवारी की कविताएं शानदार है।
उन्हें जैजै
mujhe apne par ashchary ho raha hai ki itni behtareen link kaise meri nazar se bachi rahi ab tak.
bhale hi 5 sal baad padh raha hu lekin jeetu ji ke 5 sal pahle kahe gaye kathan se sehmat hu, agar aise kavi ho to unke liye type karne ko ham taiyar hain…
aur han
khud pramod tiwari ji ka comment dekh kar lagaa ki ve anoop shukl aur fursariya ka bhed nahi jante,,,,, please unhe clear kijiye…
Anwar Ahamad c/o sri Nawab khan(Dainik Jgran)
Mere Kavya guru to Kavi Ansar Kambari Sahab hai lakin Pramod ji ki Kavitao ka asar bhi mere lekhan par pada hai. Unki kavitao ko adarsh mankar ham likhate rahe hai.
Eshwar unko wo sabhi kuch pradan kare jiski unhone kalpana ki ho.
Jai Hind
Dr Mukesh Kumar Singh
Govt Central Textile Institute, Souterganj Kanpur