http://web.archive.org/web/20110926104422/http://hindini.com/fursatiya/archives/53
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
आज २५ सितम्बर है। हर साल आता है। पुराने कागज देख रहा था तो पता चला
हमारे लिये यह तारीख कुछ ज्यादा ही खास है। जो पुराना कागज मिला वो एक
अखबार की कतरन थी। आज से २२ साल पहले के अखबार की कतरन का मजनून कुछ यूं
था:-
ये अखबार की कतरन और ऊपर की फोटो देखकर २२ साल पहले की यादें ताजा हों गयीं।स्मृतियां हल्ला मचाने लगाने कि हमें भी बाहर निकालो। अतुल जब उधर हाईवे पर गाड़ी दौड़ा रहे हैं रविरतलामी प्यार की पींगे बढ़ा रहे हैं तो हमारी साइकिल ने क्या किसी की भैंस खोली है जिसकी कहानी न बतायी जाये?
इस फोटो तथा समाचार में तब का जिक्र है जब मैं अपने मित्र विनय अवस्थी के साथ साइकिल से भारत दर्शन करके कानपुर वापस लौटा। तीन माह सड़क पर रहकर हम घाट-घाट का पानी पी चुके थे। आज भी जिस उमर में तमाम बाप अपने लड़के को कानपुर से इलाहाबाद भेजने के लिये बाकायदा ट्रेन में सीट दिलाने / बिठाने जाते हैं ,जिस दिन लड़के का फोन न आये तो व्याकुल हो जाते हैं ,इस उमर में हम इलाहाबाद से चलकर इलाहाबाद के नीचे का भारत साइकिल से नाप चुके थे। पूरे तीन महीने घर से एकतरफा संवाद था। केवल हमारे पोस्टकार्ड आते थे घर। इधर से कोई सूचना-संवाद नहीं। लेकिन हम सैर करने में मस्त थे।
तमाम स्मृतियां हैं जो समय के साथ धुंधली हो रहीं हैं। विवरण कम होते जा रहे हैं लेकिन फिर भी लगता जैसे यह कल की बात हो।इसीलिये सोचा गया कि कुछ लिख लिया जाये। अपनी सोच के अलावा लिखाने के लिये उकसाने वाले तमाम लोग हैं। चिट्ठाजगत से ठेलुहा नरेश हैं,विनय जैन हैं तथा हमारे स्वामीजी तो हइयै हैं जिनको बताया विचार तो अगला वाक्य टाईप करने के पहले नयी कैटेगरी बना चुके थे।
यात्रा की शुरुआत हमारे ‘मोनेरेको’ से हुयी थी। ‘मोनेरेको’ मतलब मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कालेज,इलाहाबाद जहां हमने अपनी जिंदगी के शायद सबसे बेहतरीन,खुशनुमा,बिंदास,बेपरवाह चार साल गुजारे । बेहतरीन दोस्त पाये। वहीं से हमने यह भारत दर्शन साइकिल यात्रा शुरु की। स्कूल में पढ़ी राहुल सांकृत्यायन की अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा याद करते हुये:-
सैर कर दुनिया की गाफिल,जिंदगानी फिर कहां,
जिंदगानी गर कुछ रही ,तो नौजवानी फिर कहां।
लिहाजा कुछ कहानी वहां की भी। अगली पोस्ट में।
जिज्ञासु यायावर का कानपुर आगमन
कानपुर ,२५ सितम्बर। मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कालेज इलाहाबाद के दो छात्र विनय कुमार अवस्थी (लखीमपुरखीरी) एवं अनूप कुमार शुक्ल (कानपुर) जो साइकिल द्वारा १ जुलाई को भारत भ्रमण पर निकले थे, आज प्रात: झांसी से कानपुर पहुंचे। इन छात्रों का ‘गांधीनगर’ में जोरदार स्वागत किया गया। अभी तक इन्होंने ६९०० किमी की दूरी तय की है। बिहार,पश्चिम बंगाल,उड़ीसा, महाराष्ट्र ,गोवा, मध्य प्रदेश की यात्रा पूरी करके वे अब कानपुर से लखनऊ के लिये २८ सितंबर को प्रात: ७ बजे प्रस्थान करेंगे। ये छात्र प्रतिदिन लगभग १२० किमी की दूरी २० किमी प्रतिघंटा की चाल से तय करते हैं। इनकी इस साइकिल यात्रा का मुख्य उद्देश्य विभिन्न प्रान्तों की भिन्नता का अध्ययन एवं विभन्न वर्ग के व्यक्तियों से साक्षात्कार करना है।ये अखबार की कतरन और ऊपर की फोटो देखकर २२ साल पहले की यादें ताजा हों गयीं।स्मृतियां हल्ला मचाने लगाने कि हमें भी बाहर निकालो। अतुल जब उधर हाईवे पर गाड़ी दौड़ा रहे हैं रविरतलामी प्यार की पींगे बढ़ा रहे हैं तो हमारी साइकिल ने क्या किसी की भैंस खोली है जिसकी कहानी न बतायी जाये?
इस फोटो तथा समाचार में तब का जिक्र है जब मैं अपने मित्र विनय अवस्थी के साथ साइकिल से भारत दर्शन करके कानपुर वापस लौटा। तीन माह सड़क पर रहकर हम घाट-घाट का पानी पी चुके थे। आज भी जिस उमर में तमाम बाप अपने लड़के को कानपुर से इलाहाबाद भेजने के लिये बाकायदा ट्रेन में सीट दिलाने / बिठाने जाते हैं ,जिस दिन लड़के का फोन न आये तो व्याकुल हो जाते हैं ,इस उमर में हम इलाहाबाद से चलकर इलाहाबाद के नीचे का भारत साइकिल से नाप चुके थे। पूरे तीन महीने घर से एकतरफा संवाद था। केवल हमारे पोस्टकार्ड आते थे घर। इधर से कोई सूचना-संवाद नहीं। लेकिन हम सैर करने में मस्त थे।
तमाम स्मृतियां हैं जो समय के साथ धुंधली हो रहीं हैं। विवरण कम होते जा रहे हैं लेकिन फिर भी लगता जैसे यह कल की बात हो।इसीलिये सोचा गया कि कुछ लिख लिया जाये। अपनी सोच के अलावा लिखाने के लिये उकसाने वाले तमाम लोग हैं। चिट्ठाजगत से ठेलुहा नरेश हैं,विनय जैन हैं तथा हमारे स्वामीजी तो हइयै हैं जिनको बताया विचार तो अगला वाक्य टाईप करने के पहले नयी कैटेगरी बना चुके थे।
यात्रा की शुरुआत हमारे ‘मोनेरेको’ से हुयी थी। ‘मोनेरेको’ मतलब मोतीलाल नेहरू रीजनल इंजीनियरिंग कालेज,इलाहाबाद जहां हमने अपनी जिंदगी के शायद सबसे बेहतरीन,खुशनुमा,बिंदास,बेपरवाह चार साल गुजारे । बेहतरीन दोस्त पाये। वहीं से हमने यह भारत दर्शन साइकिल यात्रा शुरु की। स्कूल में पढ़ी राहुल सांकृत्यायन की अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा याद करते हुये:-
सैर कर दुनिया की गाफिल,जिंदगानी फिर कहां,
जिंदगानी गर कुछ रही ,तो नौजवानी फिर कहां।
लिहाजा कुछ कहानी वहां की भी। अगली पोस्ट में।
Posted in जिज्ञासु यायावर | 10 Responses
मेरे आदर्श पुरूष ही रहे है राहुल सांकृत्यायन जीनका सारा जीवन ही यायावरी मे बिता था.
मेरी अब तक की जिन्दगी भी यायावरी मे बिती है, लगभग सारा भारत घुमा है
कश्मीर से कन्याकुमारी तक,गुजरात से सिक्कीम तक.
नौकरी(business analyst) भी ऐसी मिली है, कि यायावरी जारी है. ब्रिटेन/जर्मनी/फ्रान्स/अमरीका/जापान तक घुम लिया है…. कामना यह ही है, परतन्त्रता की बेडिया पडने(शादी) से पहले जितना घुम सको घुम लो….
आशीष
Sahi main kafi inspire aur depress ek saath kar diye yeh khabar suna ke.
मेरी जिन्दगी में भी कोई पेंचो-खम कम नहीं!
सारा इन्डिया घूम मारा और खबर अब !!!
इसका तो उपन्यास बनना चाहिए
रवि