http://web.archive.org/web/20110925160307/http://hindini.com/fursatiya/archives/84
(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत? यह वस्तुनिष्ठ प्रश्न है। वस्तुनिष्ठ बोले तो आब्जेक्टिव टाइप। इसका सवाल सिर्फ हां या नहीं होना चाहिये या बहुत अधिक खींचतान की जाये तो कुछ जवाब और जोड़े जा सकते हैं- पता नहीं ,उपरोक्त सभी या फिर इनमें से कोई नहीं। लेकिन अगर इतने से बात खतम कर देगें तो स्वामीजी बोलेंगे -आपसे ये आशा नहीं थी गुरुदेव! आप तो ऐसे न थे ।सो बात को थोड़ा लपेटा जाये ।
आदर्शवादी के पहले (अति) कुछ ऐसे ही लग रहा है जैसे आवश्यक के पहले बहुत लगा दिया जाये या फिर और जोर देने के लिये कहा जाये बहुत बहुत आवश्यक ।
आदर्शवादी का मतलब होता है ऊंचे आदर्शों को मानने वाला ,सिद्धातवादी । संस्कार के मायने हुये कर्म,कार्य,काम,रीति रिवाज । तो जो विषय है उसका लब्बोलुआब हुआ -ऊंचे आदर्शों वाले काम सही हैं या गलत? तो कौन होगा जो कहेगा कि गलत है? आदर्श होते ही हैं अनुकरण करने के लिये । जो चीज अनुकरणीय हो वह गलत कैसे हो सकती है? अगर गलत हो तो अनुकरणीय कैसे हो सकती है?
लेकिन मुझे लगता है कि शायद स्वामीजी का विषय यह रहा हो कि जो अच्छी -अच्छी बातें हमें अपने बचपने में सिखाई गईं या जो हम अपने बच्चों को सिखाते हैं वे सही हैं या गलत? उनके सवाल हैं:-
कौन से आदर्श, संस्कार और शिक्षाएं हैं जो आज के परिपेक्ष्य में अव्यव्हारिक और पुरातन लगते हैं – जिनकी वजह से आपको परिपक्वता पा लेने के बाद में सामाजिक जीवन में कठिनाईयां आईं – जिन्हें आपको छोडना या बदलना पडा. वो कौन सी शिक्षाएं हैं जिन्होंने आपको सफ़ल होंने में सहायता की? अपने अनुभवों के आधार पर आप आने वाली पीढी को कौन सी शिक्षा कुछ अलग दोगे या अलग प्रकार से सिखाओगे, और क्यों?
ये सवाल व्यक्ति सापेक्ष हैं और उनके लिये हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन में कठिनाई झेली।( वे क्या जवाब देंगे इस बात का जिनको समाज झेलता रहा ? ) मतलब यह सवाल उन लोगों से है जो लोग बचपन में कुछ आदर्श सीख गये मां-बाप के दबाव में तथा जिनके कारण सामाजिक जीवन में कुछ कठिनाई झेलनी पड़ी तथा वे लोग बतायें कि अपने बच्चों को वे अपना वाला ही आदर्श का पैकेज देंगे या कुछ नया जुगाड़ेंगे?
आदर्श बनाये जाते हैं समाज के लिये। बहुजन हिताय। उनको यदि सभी लोग पालन करें तो किसी को कष्ट न हो। लेकिन जब कुछ लोग सोचते हैं कि दूसरे तो पालन कर ही रहे हैं अगर एक हम नहीं करेंगे तो क्या बिगड़ जायेगा? होते-होते बात यहां तक पहुंचती है कि लोग कहते हैं -कोई तो चलता नहीं आदर्शों पर एक हमारे अकेले के चलने से क्या हो जायेगा?इसी हालत से परेशान स्वामी जैसे लोग पूछते हैं-(अति)आदर्शवादी संस्कार सही है या गलत?
समाज परिवर्तनशील होता है। समय के हिसाब से समाज के आदर्श बदलते रहते हैं। होते करते समाज के पल्ले आदर्शों का जखीरा पड़ता है। जिसमें तमाम आदर्श तो एक दूसरे के नितान्त विरोधी होते हैं। हमारी परीक्षा तब होती है कि हम कौन सा रास्ता अपनाते हैं? जिस रास्ते चलने से समाज का सबसे अधिक भला होता है वह आदर्श अनुकरणीय हो जाता है ।
राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। बालि का वध उन्होंने किया।बालि को वरदान था कि वह जिससे लड़ेगा उसका आधा बल बालि को मिल जायेगा। अगर राम उससे आमने-सामने लड़ते तो रामायण में लंकाकाण्ड के पहले ही खत्म हो जाती। राम ने सुग्रीव को लड़ा दिया बाकि से। तथा उसे छिपकर मारा बाण। यह उन दिनों के आदर्शों के खिलाफ था। बालि ने पूछा भी-
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहिं व्याध की नाईं।।
मैं बैरी सुग्रीव पियारा।कारन कवन नाथ मोहिं मारा।।
(हे प्रभु ,आप तो धर्म की संस्थापना के लिये अवतरित हुये हैं और मुझे शिकारी की तरह (छिपकर) मारा। मैं दुश्मन ,सुग्रीव दोस्त क्या कारण है महाराज? यह सवाल था बालि का कि ये कैसा काम कर रहे आप मर्यादा पुरुषोत्तम? कैसा आदर्श है यह? राम ने जबाव दिया-
अनुज वधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ये चारी।।
इन्हहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।
इससे लगता है कि राम को अहसास था कि उन्होंने कुछ गलत किया है लेकिन जो किया(छिपकर मारा) वह बड़े आदर्श के लिये किया अत: उसको करने से पाप नहीं पड़ेगा। मजे की बात यह है कि बालि जब लड़ने के लिये आया तो उसकी पत्नी(सुग्रीव की पूर्व पत्नी) ने समझाया सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे बहुत बलशाली हैं उनसे मत भिडो़। बाद में वह बालि के मरने पर विलाप भी करती है। इससे यह भी लगता है कि वह बालि के साथ सुखी थी। तथा आज के हिसाब से राम का बालि वध बालि-तारा की व्यक्तिगत जिंदगी में दखल माना जायेगा लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम ने नया आदर्श रखा।
इसे यह भी कहा जाता है -तुम मुझे चेहरा दिखाओ मैं तुम्हें नियम(आदर्श) बताता हूं।
जो स्वामीजी की चिंता है वह एक आम भारतीय की चिंता है जो जिस देश में रह रहा है पिछले कुछ सालों से तथा जिसके बचपन के कुछ संस्कार उसका पीछा करते हैं। नये परिवेश में नये संस्कार देख रहा है। वहां से अपने देश को देख रहा है। वर्तमान से तुलना करने को उसका अतीत है जब उसने कुछ संस्कार पाये थे। जो संस्कार उसने पाये थे वे बोझ बन रहे हैं या अप्रासंगिक हो रहे हैं। उसकी आत्मा में सवाल उठता है:–(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?
शायद ऐसी ही स्थिति के लिये हरिशंकर परसाई ने लिखा है- अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये। जिसे काम होने के बाद तहा के अलग रखा जा सके। मतलब आदर्श ऐसे होने चाहिये जिनसे काम निकालने के बाद छोड़ देना चाहिये।देखा जाये तो यह भी एक तोताचश्मी आदर्श है- मतलबी यार किसके काम निकाला खिसके।
समाज में इस तरह के लोग मिलते हैं जो कहते हैं- क्या फल मिला उन्हें ईमानदारी का। आज भूखों मर रहे हैं। क्या फायदा सच बोलने से पकड़ जाओगे? यह स्थिति बताती है कि बहुमत जिनका है आज सत्य तथा ईमानदारी अनुकरणीय आदर्श नहीं रहे। ये पुराने जमाने की कथा हो गये। आज सच्चाई मुलम्में से मात खा रही है।
कानपुर में भगवती प्रसाद दीक्षित उर्फ घोड़ेवाला जिसे अखबार वाले राबिनहुड आफ इंडिया कहते थे हर चुनाव में खड़े होते थे। वे समाज के दोहरेपन पर कहते थे- जब लड़का सरकारी नौकरी में आता है तो घर वाले कहते हैं क्या फायदा ऐसी नौकरी का जिसमे ऊपरी कमाई न हो। वही लड़का जब बाद में घूस लेते हुये पकड़ा जाता है तो कहते हैं हाथ बचाकर काम करना चाहिये था। मतलब सब चाहते हैं लड्डू फूटे चूरा होय ,हम भी खायें तुम भी खाओ।
आदर्श जैसा कि इन्द्र अवस्थी ने कहा – आदर्श स्थितियों के लिये होते हैं। स्थितियां बदलने पर आदर्श की मांग बदल जाती हैं। कभी के जौहर व्रत के आदर्श आज बेमानी हैं।राम ने राजा बनने के बाद सीता का त्याग किया यह जानते हुये भी कि सीता निर्दोष थीं। उन्होंने लोकनिंदा के प्रभाव में पत्नी को त्यागा जो कि किसी भी हिसाब से आदर्श नहीं है।
दुनिया कहती है-छल-कपट नाजायज चीजें हैं। लेकिन सफल छली अपने कपट को चतुराई के नाम से स्थापित करता है तथा असफल छली बेईमानी की सजा पाता है। परिस्थितियों के कारण आदर्शों से विचलन भी स्वाभाविक प्रकृति है।भूखे व्यक्ति के सारे पाप उसकी भूख के कारण मजबूरी में किये पाप माने जाते हैं:-
बुभुक्षितम् किम् न करोति पापम्।
-आगे जारी है अभी
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत? यह वस्तुनिष्ठ प्रश्न है। वस्तुनिष्ठ बोले तो आब्जेक्टिव टाइप। इसका सवाल सिर्फ हां या नहीं होना चाहिये या बहुत अधिक खींचतान की जाये तो कुछ जवाब और जोड़े जा सकते हैं- पता नहीं ,उपरोक्त सभी या फिर इनमें से कोई नहीं। लेकिन अगर इतने से बात खतम कर देगें तो स्वामीजी बोलेंगे -आपसे ये आशा नहीं थी गुरुदेव! आप तो ऐसे न थे ।सो बात को थोड़ा लपेटा जाये ।
आदर्शवादी के पहले (अति) कुछ ऐसे ही लग रहा है जैसे आवश्यक के पहले बहुत लगा दिया जाये या फिर और जोर देने के लिये कहा जाये बहुत बहुत आवश्यक ।
आदर्शवादी का मतलब होता है ऊंचे आदर्शों को मानने वाला ,सिद्धातवादी । संस्कार के मायने हुये कर्म,कार्य,काम,रीति रिवाज । तो जो विषय है उसका लब्बोलुआब हुआ -ऊंचे आदर्शों वाले काम सही हैं या गलत? तो कौन होगा जो कहेगा कि गलत है? आदर्श होते ही हैं अनुकरण करने के लिये । जो चीज अनुकरणीय हो वह गलत कैसे हो सकती है? अगर गलत हो तो अनुकरणीय कैसे हो सकती है?
लेकिन मुझे लगता है कि शायद स्वामीजी का विषय यह रहा हो कि जो अच्छी -अच्छी बातें हमें अपने बचपने में सिखाई गईं या जो हम अपने बच्चों को सिखाते हैं वे सही हैं या गलत? उनके सवाल हैं:-
कौन से आदर्श, संस्कार और शिक्षाएं हैं जो आज के परिपेक्ष्य में अव्यव्हारिक और पुरातन लगते हैं – जिनकी वजह से आपको परिपक्वता पा लेने के बाद में सामाजिक जीवन में कठिनाईयां आईं – जिन्हें आपको छोडना या बदलना पडा. वो कौन सी शिक्षाएं हैं जिन्होंने आपको सफ़ल होंने में सहायता की? अपने अनुभवों के आधार पर आप आने वाली पीढी को कौन सी शिक्षा कुछ अलग दोगे या अलग प्रकार से सिखाओगे, और क्यों?
ये सवाल व्यक्ति सापेक्ष हैं और उनके लिये हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन में कठिनाई झेली।( वे क्या जवाब देंगे इस बात का जिनको समाज झेलता रहा ? ) मतलब यह सवाल उन लोगों से है जो लोग बचपन में कुछ आदर्श सीख गये मां-बाप के दबाव में तथा जिनके कारण सामाजिक जीवन में कुछ कठिनाई झेलनी पड़ी तथा वे लोग बतायें कि अपने बच्चों को वे अपना वाला ही आदर्श का पैकेज देंगे या कुछ नया जुगाड़ेंगे?
आदर्श बनाये जाते हैं समाज के लिये। बहुजन हिताय। उनको यदि सभी लोग पालन करें तो किसी को कष्ट न हो। लेकिन जब कुछ लोग सोचते हैं कि दूसरे तो पालन कर ही रहे हैं अगर एक हम नहीं करेंगे तो क्या बिगड़ जायेगा? होते-होते बात यहां तक पहुंचती है कि लोग कहते हैं -कोई तो चलता नहीं आदर्शों पर एक हमारे अकेले के चलने से क्या हो जायेगा?इसी हालत से परेशान स्वामी जैसे लोग पूछते हैं-(अति)आदर्शवादी संस्कार सही है या गलत?
समाज परिवर्तनशील होता है। समय के हिसाब से समाज के आदर्श बदलते रहते हैं। होते करते समाज के पल्ले आदर्शों का जखीरा पड़ता है। जिसमें तमाम आदर्श तो एक दूसरे के नितान्त विरोधी होते हैं। हमारी परीक्षा तब होती है कि हम कौन सा रास्ता अपनाते हैं? जिस रास्ते चलने से समाज का सबसे अधिक भला होता है वह आदर्श अनुकरणीय हो जाता है ।
राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। बालि का वध उन्होंने किया।बालि को वरदान था कि वह जिससे लड़ेगा उसका आधा बल बालि को मिल जायेगा। अगर राम उससे आमने-सामने लड़ते तो रामायण में लंकाकाण्ड के पहले ही खत्म हो जाती। राम ने सुग्रीव को लड़ा दिया बाकि से। तथा उसे छिपकर मारा बाण। यह उन दिनों के आदर्शों के खिलाफ था। बालि ने पूछा भी-
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं। मारेहु मोहिं व्याध की नाईं।।
मैं बैरी सुग्रीव पियारा।कारन कवन नाथ मोहिं मारा।।
(हे प्रभु ,आप तो धर्म की संस्थापना के लिये अवतरित हुये हैं और मुझे शिकारी की तरह (छिपकर) मारा। मैं दुश्मन ,सुग्रीव दोस्त क्या कारण है महाराज? यह सवाल था बालि का कि ये कैसा काम कर रहे आप मर्यादा पुरुषोत्तम? कैसा आदर्श है यह? राम ने जबाव दिया-
अनुज वधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ये चारी।।
इन्हहिं कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।
इससे लगता है कि राम को अहसास था कि उन्होंने कुछ गलत किया है लेकिन जो किया(छिपकर मारा) वह बड़े आदर्श के लिये किया अत: उसको करने से पाप नहीं पड़ेगा। मजे की बात यह है कि बालि जब लड़ने के लिये आया तो उसकी पत्नी(सुग्रीव की पूर्व पत्नी) ने समझाया सुग्रीव जिनसे मिले हैं वे बहुत बलशाली हैं उनसे मत भिडो़। बाद में वह बालि के मरने पर विलाप भी करती है। इससे यह भी लगता है कि वह बालि के साथ सुखी थी। तथा आज के हिसाब से राम का बालि वध बालि-तारा की व्यक्तिगत जिंदगी में दखल माना जायेगा लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम ने नया आदर्श रखा।
इसे यह भी कहा जाता है -तुम मुझे चेहरा दिखाओ मैं तुम्हें नियम(आदर्श) बताता हूं।
जो स्वामीजी की चिंता है वह एक आम भारतीय की चिंता है जो जिस देश में रह रहा है पिछले कुछ सालों से तथा जिसके बचपन के कुछ संस्कार उसका पीछा करते हैं। नये परिवेश में नये संस्कार देख रहा है। वहां से अपने देश को देख रहा है। वर्तमान से तुलना करने को उसका अतीत है जब उसने कुछ संस्कार पाये थे। जो संस्कार उसने पाये थे वे बोझ बन रहे हैं या अप्रासंगिक हो रहे हैं। उसकी आत्मा में सवाल उठता है:–(अति) आदर्शवादी संस्कार सही या गलत?
शायद ऐसी ही स्थिति के लिये हरिशंकर परसाई ने लिखा है- अच्छी आत्मा फोल्डिंग कुर्सी की तरह होनी चाहिये। जिसे काम होने के बाद तहा के अलग रखा जा सके। मतलब आदर्श ऐसे होने चाहिये जिनसे काम निकालने के बाद छोड़ देना चाहिये।देखा जाये तो यह भी एक तोताचश्मी आदर्श है- मतलबी यार किसके काम निकाला खिसके।
समाज में इस तरह के लोग मिलते हैं जो कहते हैं- क्या फल मिला उन्हें ईमानदारी का। आज भूखों मर रहे हैं। क्या फायदा सच बोलने से पकड़ जाओगे? यह स्थिति बताती है कि बहुमत जिनका है आज सत्य तथा ईमानदारी अनुकरणीय आदर्श नहीं रहे। ये पुराने जमाने की कथा हो गये। आज सच्चाई मुलम्में से मात खा रही है।
कानपुर में भगवती प्रसाद दीक्षित उर्फ घोड़ेवाला जिसे अखबार वाले राबिनहुड आफ इंडिया कहते थे हर चुनाव में खड़े होते थे। वे समाज के दोहरेपन पर कहते थे- जब लड़का सरकारी नौकरी में आता है तो घर वाले कहते हैं क्या फायदा ऐसी नौकरी का जिसमे ऊपरी कमाई न हो। वही लड़का जब बाद में घूस लेते हुये पकड़ा जाता है तो कहते हैं हाथ बचाकर काम करना चाहिये था। मतलब सब चाहते हैं लड्डू फूटे चूरा होय ,हम भी खायें तुम भी खाओ।
आदर्श जैसा कि इन्द्र अवस्थी ने कहा – आदर्श स्थितियों के लिये होते हैं। स्थितियां बदलने पर आदर्श की मांग बदल जाती हैं। कभी के जौहर व्रत के आदर्श आज बेमानी हैं।राम ने राजा बनने के बाद सीता का त्याग किया यह जानते हुये भी कि सीता निर्दोष थीं। उन्होंने लोकनिंदा के प्रभाव में पत्नी को त्यागा जो कि किसी भी हिसाब से आदर्श नहीं है।
दुनिया कहती है-छल-कपट नाजायज चीजें हैं। लेकिन सफल छली अपने कपट को चतुराई के नाम से स्थापित करता है तथा असफल छली बेईमानी की सजा पाता है। परिस्थितियों के कारण आदर्शों से विचलन भी स्वाभाविक प्रकृति है।भूखे व्यक्ति के सारे पाप उसकी भूख के कारण मजबूरी में किये पाप माने जाते हैं:-
बुभुक्षितम् किम् न करोति पापम्।
-आगे जारी है अभी
Posted in अनुगूंज | 9 Responses
I’ve been around for quite a lot of time, but finally decided to show my appreciation of your work!
Thumbs up, and keep it going!
Cheers
Christian, Satellite Direct Tv