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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
भैंस बियानी गढ़ महुबे में
लक्ष्मी नारायण जी की नकल करते हुये हमने जब कुछ तुकबंदियां
कीं तो पता चला कि कुछ साथी आल्हा से परिचित नहीं हैं। वास्तव में आल्हा
उत्तरभारत के गांवों में बहुतायत में प्रचलित है। जिनका संपर्क गांवों से
कम रह पाया वे शायद इसके बारे में कम जानते हों। साथियों की जानकारी के
लिये आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखित ‘हिंदी साहित्य का इतिहास ‘से आल्हा से
संबंधित जानकारी यहां दी जा रही है:-
आल्हाखंड में युद्ध में लड़ते हुये मर जाने को लगभग हर लड़ाई में महिमामंडित किया गया है:-
पुत्र का महत्व पता चला है जब कहा जाता है:-
हरे बांस आल्हा मंगवाये औ उदल को मारन लाग।
ऊदल चुपचाप मार खाते -बिना प्रतिरोध के। तब आल्हा की पत्नी ने आल्हा को रोकते हुये कहा:-
मैंने जब यह लेख लिखा तब माड़ो की लड़ाई का लल्लू बाजपेई का आल्हा का कैसेट सुना। सुनते ही ये बाहें फड़कने लगीं तभी यह लेख टाइप हो गया।
ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे,जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल(उदयसिंह)- के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषाभाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी-आल्हाखंड में तमाम लड़ाइयों का जिक्र है। शुरूआत मांडौ़ की लड़ाई से है। माडौ़ के राजा करिंगा ने आल्हा-उदल के पिता जच्छराज-बच्छराज को मरवा के उनकी खोपड़ियां कोल्हू में पिरवा दी थीं। उदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिताकी मौत का बदला लिया तब उनकी उमर मात्र १२ वर्ष थी।
बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार,
बरिस अठारह छत्री जिऐं ,आगे जीवन को धिक्कार।
इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है,वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नये अस्त्रों ,(जैसे बंदूक,किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित होते गये हैं और बराबर हो जाते हैं। यदि यह साहित्यिक प्रबंध पद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था । इसमें पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा के लिये नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूंज बनी रही-पर यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं।
आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केन्द्र माना जाता है,वहाँ इसे गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं। बुंदेलखंड में -विशेषत: महोबा के आसपास भी इसका चलन बहुत है।
इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण ‘आल्हाखंड’ कहते हैं जिससे अनुमान मिलता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और बनाफर शाखा के छत्रिय थे।इन गीतों का एक संग्रह ‘आल्हाखंड’ के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि.चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इनगीतों का संग्रह करके छपवाया था।
आल्हाखंड में युद्ध में लड़ते हुये मर जाने को लगभग हर लड़ाई में महिमामंडित किया गया है:-
मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला,उदल कहैं पुकारि-पुकारि,अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है:-
भागि न जैयो कोऊ मोहरा ते यारों रखियो धर्म हमार।
खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ,होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।
‘जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।’इसी का अनुसरण करते हुये तमाम किस्से उत्तर भारत के बीहड़ इलाकों में हुये जिनमें लोगों ने आल्हा गाते हुये नरसंहार किये या अपने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा।
पुत्र का महत्व पता चला है जब कहा जाता है:-
जिनके लड़िका समरथ हुइगे उनका कौन पड़ी परवाह!स्वामी तथा मित्र के लिये कुर्बानी दे देना सहज गुण बताये गये हैं:-
जहां पसीना गिरै तुम्हारा तंह दै देऊं रक्त की धार।आज्ञाकारिता तथा बड़े भाई का सम्मान करना का कई जगह बखान गया है।इक बार मेले में आल्हा के पुत्र इंदल का अपहरण हो जाता है। इंदल मेले में उदल के साथ गये थे। आल्हा ने गुस्से में उदल की बहुत पिटाई की:-
हरे बांस आल्हा मंगवाये औ उदल को मारन लाग।
ऊदल चुपचाप मार खाते -बिना प्रतिरोध के। तब आल्हा की पत्नी ने आल्हा को रोकते हुये कहा:-
हम तुम रहिबे जौ दुनिया में इंदल फेरि मिलैंगे आयआल्हा में वीरता तथा अन्य तमाम बातों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है। तभी किसी ने अतिशयोक्ति के अंदाज में कहा है:-
कोख को भाई तुम मारत हौ ऐसी तुम्हहिं मुनासिब नाय।
भैंस बियानी गढ़ महुबे में पड़वा गिरा कनौजै जाय।आल्हा गाने वाले लोग अल्हैत कहलाते हैं। अपने गांव में छुटपन में गर्मी की छुट्टियों में हम लोग किसी घर के दरवाजे दुपहर में बैठे किसी को आल्हा गाते सुनते थे। आल्हा का मजा पढ़ने से ज्यादा सुनने में है।पढ़ने का भी पूरा मजा वही ले सकता है जिसने इसे कम से कम एक बार सुन रखा हो।
मैंने जब यह लेख लिखा तब माड़ो की लड़ाई का लल्लू बाजपेई का आल्हा का कैसेट सुना। सुनते ही ये बाहें फड़कने लगीं तभी यह लेख टाइप हो गया।
Posted in सूचना | 16 Responses
ऐसा प्रतीत होता है कि आल्हा शैली आपकी पसन्दीदा शैलियों में से है। सभी पाठकों को इस विधा के उद्गम एवं विकास से परिचित कराने का धन्यवाद! आशा है कि इस लेख को परिप्रेक्ष्य में सुधी पाठक प्रेम पचीसी में निहित वीर रस का रसास्वदन सम्यक रूप से करेंगे ।
http://www.bhojpuriduniya.com/VIDEOmain.html
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हालांकि मैने लय मे झूम के गाते भी सुन रखा है.
यह लेख लिख कर आपने बहुत जनसेवा की है। कुछ और तथ्य जोड़ रहा हूं। परमार को परमाल या परिमालिक भी कहा जाता है। जच्छराज को देशराज भी कहा जाता है। जगनिक के आल्हाखन्ड में, कहा जाता है, कि बावन गढ़ों की लड़ाइयाँ हैं। हर शादी में लड़ाई होती थी। मेरे बचपन में नम्बर्दार कुँअर अमोलसिँह का आल्हा विख्यात था। आपने जो उदाहरण दिये हैं उनके दूसरे versions भी हैं जैसे:
1। भैंस बियानी है गाँजर माँ, पड़वा गिरो जहानाबाद
2। आठ बरस लौं कुत्ता जीवे औ दस बारा जिये सियार
बरस अठारह क्षत्रिय जीवै, आगे जीवै तो धिक्कार
एक और उदाहरण से इस टिप्पणी को समाप्त करता हूं:
काहे ते निम्बिया करुई लागै, काहे ते लागै शीतली छाँह
काहे ते भैया बैरी लागे, काहे ते लागै दाहिनी बाँह
खाये ते निम्बिया करुई लागै, बैठे ते लागै शीतली छाँह
हींसा माँ भैया बैरी लागै, रण माँ लागै दाहिनी बाँह
लक्ष्मीनारायण
*निम्बिया=नीम,हींसा=बटवारा
आशीष
आल्हा-उदल के बारे मे अन्य जानकारी यहां देखे
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बड़े लड़ाइया महोबे वाले ..जिनसे हार गयी तलवार
kadva paani re mahobbe ka kadvi baat sahi jaye,…
Abhi ladakpan me khele ho muh par bahe dudh ki dhaar….
Hum bhi sunte hai, gate hai, aalha khand . Ye hamare liye lokgeet hai hum ahiro ko yehi geet pasand hai….
bavan garh ki ladaaiya sun rakhi hai ..