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शंकरजी बोले- तथास्तु
By फ़ुरसतिया on May 9, 2006
विष्णुजी बहुत देर तक नारद जी की राह देखते
रहे। लेकिन नारदजी पुराने हिंदी ब्लागरों की तरह नजर से गायब थे। बहुत देर
तक सोचते रहने के बाद जब कुछ भी समझ में नहीं आया तो उन्होंने टेलीफोन
आपरेटर से कहा -शंकरजी से बात कराओ।
लाइन तुरंत मिल गयी। घंटी जा रही थी। शंकरजी के मोबाइल से रिंग टोन आ रही थी-
डमऽडमऽडमऽ निनाद ,डमऽडमऽडमऽ वयम,
चिकाड़ चारु ताण्डवम्,तनों-तुन: शिव:शिवम्।
रिंग टोन बजने के दौरान विष्णुजी भी सोचते रहे कि अपने मोबाइल में भी शंकरजी के मोबाइल की रिंगटोन की तरह विष्णुसहस्रनाम का रिंगटोन लोड करा लें। मुफ्त में प्रचार होता रहेगा।
विष्णुजी जानते थे कि फोन रिंगटोन पूरी होने के बाद ही उठेगा। इसलिये उन्होंने इस बीच चाय-पानी का आर्डर दे दिया ताकि आराम से शंकरजी से चाय पीते हुये बतिया सकें। बहुत दिन से दोनों लोगों की बातचीत नहीं हुयी थी।
फोन शंकरजी के किसी गण ने उठाया। विष्णुजी ने बताया -मैं विष्णु बोल रहा हूं। शंकरजी से बात कराओ।
गण बोला-भगवन,भगवन से तो अभी वार्ता सम्भव नहीं है।कुछ देर लगेगी। उनके आने पर मैं आपसे बात कराता हूं।
विष्णुजी ने सहज कौतूहल वस पूछा- क्यों? कहां गये हैं भोले भण्डारी? क्या कर रहे हैं?
इधर ही हैं। डमरू बजा रहे हैं।-गण ने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया।
डमरू बजा रहे हैं! इतनी सड़ी गर्मी में! क्या हो गया?
अरे भगवन ,हम यहां कैलाश पर्वत से बोल रहे हैं। यहां तो मारे सर्दी के कांप रहे हैं हम। भगवान के डमरू से तेज आवाज तो सर्दी के मारे दांतों के किटकिटाने से आ रही है। सारा शरीर विदेश में अंग्रेजी न जानने वाले प्रवासी के आत्मविश्वास सा थरथरा रहा है।
अच्छा शंकरजी कितनी देर में खाली होंगे? डमरू बजाने के बाद क्या करेंगे?-विष्णुजी ने शंकरजी की दिनचर्या में दिलचस्पी दिखाई।
डमरू के बाद भगवान शंकर रोज थोड़ी देर त्रिशूल चलाने की पैक्टिस करते हैं। बस आने ही वाले हैं। किसी भी क्षण पधार सकते हैं।
गण अपनी बात खतम करता तब तक उधर से भगवान शंकर अपने शरीर पर भभूत लपेटे चेहरे पर तेज धारण किये आते दिखाई दिये।गण से दोनों आंखों से ही इशारा करके पूछा -किसका फोन है? गण ने रिसीवर पर हाथ रखकर बताया-क्षीरसागर से भगवान विष्णु का। यह कहते हुये उसने फोन भगवान शंकर को थमा दिया। भगवान शंकर विष्णुजी से बतियाने लगे।
हालचाल के बाद विष्णुजी ने पूछा- क्या बात है आजकल डमरू-त्रिशूल का अभ्यास चल रहा है। कहीं फिर प्रलय का प्रोग्राम है क्या? किसकी शामत आ रही है?
शामत-वामत तो खैर क्या! लेकिन मुझे लगता है कि डमरू,त्रिशूल,तीसरा नेत्र मेरे ‘कोर कम्पीटेंस’ के आइटम हैं। लिहाजा इन पर पकड़ बनी रहनी चाहिये। सो मैं रोज डमरू,त्रिशूल चलाने की नेट प्रैक्टिस करता हूँ।-शंकरजी ने बताया।
और प्रलय नेत्र! उसको भी रोज खोलने का अभ्यास करते हैं?-विष्णुजी ने पूछा।
अरे नहीं भगवन,आप भी मजाक करते हैं। तीसरा नेत्र खुलेगा ,आपके भक्त मरेंगे, तो आप भला मुझे जीने देंगे? उसे तो मैंने अब ‘कम्प्यूटराइज’ करवा लिया है। बिना ‘पासवर्ड’ के खुलता ही नहीं । ‘पासवर्ड’ भी मैंने याद नहीं किया है। अपने कैलाश बैंक के लाकर में रखा है। इससे यह फायदा होगा किसी के भड़काने पर मेरा नेत्र तुरंत नहीं खुलेगा। गुस्सा आयेगा भी तो जब तक बैंक जाकर लाकर खोलकर पासवर्ड देखूंगा तब तक सारा गुस्सा शांत हो जायेगा। क्योंकि यहां की बैंकें अभी भी भारत देश की दूसरी बैंकों की तरह हैं। यहां अगर सबेरे लाकर खुलवाने,पैसा निकलवाने जाओ तो शाम तक तो काम ही हो पाता है। इतनी देर में गुस्सा क्या लोग तक ठंडे हो जाते हैं। इससे तमाम निरपराध लोग बच जायेंगे।
अच्छा तो जो अभी पिछले दो तीन सालों में कुछ जगहों में प्रलय आई उसमें आपने अपने ‘पासवर्ड’ का प्रयोग करके काम किया था। मतलब वो सारी ‘हाईटेक’ प्रलय थीं?
उसका भी यार बड़ा किस्सा हैं। जब मैंने अपने प्रलयनेत्र का ‘कम्प्यूटराइजेशन’ कराया तो ऐसे कुछ ही दिनों में पता नहीं किस शातिर ‘हैकर’ ने मेरा ‘पासवर्ड’ पता नहीं कैसे चुरा लिया । तथा तमाम जगह प्रलय मचा दी। कहीं बम कहीं तूफान कहीं कुछ कहीं कुछ। सारी जगहों में हाहाकार मच गया। जब मुझे पता चला तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गयीं। ससुरा एक भूस्खलन और हो गया।
उस दिन से मैं बहुत सावधान हो गया। अपने पासवर्ड के किसी असफल आशिक के दिल की तरह कई टुकडे़ किये। किसी को इस लाकर में रखा किसी को उस लाकर में। अब हालत यह है कि अगर तुम सोचो कि हम आज प्रलय ला दें तो दिन बीत जायेगा पासवर्ड ही ‘असेम्बल’ करने में।
इसका मतलब आप अपनी ताकतों पर लगाम लगा रहे हैं। विष्णुजी ने बातचीत को आगे बढ़ाते हुये पूछा।
कैसी ताकत विष्णुजी ! आप भी दुनिया के बहकावे में आ जाते हो। हमारे पास क्या ताकत है? अपने मन से हम किसी को मारना चाहे तो मार नहीं सकते। मारने के पहले उसके कर्मों की बैलेंस सीट देखो। अगर कहीं कोई गलती से मारा जाय तो जवाबदेही अलग से बनती है।
ताकत क्यों नहीं शंकरजी ! आप जिसकी तरफ नजर उठा के देख लो तो वो तो गया काम से।-विष्णुजी ने शंकर जी को पानी पर चढ़ाते हुये कहा।
अरे नहीं भाई,हम कोई किसी प्रजातंत्र के नेता तो हैं नहीं जो कि जो मन में आये करते रहें ।कोई टोंकने वाला नहीं। यहां तो हमेशा जी धुकुर-पुकर करता रहता है कि कहीं कोई बेगुनाह न मारा जाय।-शंकरजी संजीदगी से बोले।
विष्णुजी ने फिर कहना जारी रखा-आप किसी को मारो या न मारो लेकिन आपके पास जो संहार की ताकत है उसका जलवा तो है ही।
कैसा जलवा प्रभो लगता है आप भी भ्रम में हैं। हमारे एक भक्त कवि हैं -कविवर सुरेंद्र शर्मा। उन्होंने बताया कि असली ताकत तो देवियों के हाथ में हैं। धन-सम्पदा तो लक्ष्मीजी के पास है,विद्या-बुद्धि सरस्वतीजी के पास है,शक्ति की देवी दुर्गा हैं।पेटपूजा का विभाग अन्नपूर्णा के पास है। सारे ताकतवार काम तो देवियों के पास हैं। फिर हमारा किस बात का जलवा!
हमारी ‘सर्विस कंडीशन’ भी कितनी जटिल हैं। मुझे बैठा दिया पहाड़ पर। कपड़े के नाम पर मृगछाला। मारे ठंड के हाल खराब हैं। सवारी भी क्या गजब! बैल दिया है। पहाड़ से उतरो तो लड़खड़ाते हुये पाताल लोक में गिरो जाकर। हथियार बेशक हम प्रयोग न करें लेकिन ये भी क्या तुक कि त्रिशूल है हमारे पास। ऐके-४७ के जमाने में भला त्रिशूल क्या करेगा?
शंकरजी की आवाज का दर्द विष्णुजी महसूस कर रहे थे।उनके दर्द को कम करने की गरज से बोले- हां आप सही कहते हैं भगवन! हम लोगों की हालत सही में उतनी अच्छी नहीं है जितनी दिखती है। अब देखिये मुझे डाल दिया है यहां क्षीरसागर में। करवटें बदलते रहते हैं सारा दिन इधर -उधर। जरा सा झपकी लगी नहीं कि नींद टूट जाती है शेषनाग के हिलने-डुलने से। पर क्या करें निभाना है।पालनकर्ता जो हैं पूरे ब्रह्मांड के।
शंकरजी को लगा कि विष्णुजी अपनी हालत कहीं उनसे भी दयनीय न साबित कर लें सो बात टालने के लिये उन्होंने कहा- वहां तो बहुत गर्मी पड़ रही होगी। यहां आ जाइये न ! कुछ दिन मन बहल जायेगा।
विष्णुजी को अपना दुख प्रकट करने का मौका अनायास मिल गया। बोले- हां सोच तो मैं भी रहा था।लेकिन पेट्रोल का खर्चा सोचकर हिम्मत नहीं होती। वैसै भी गरुड़ का माडल इतना पुराना है कि ‘एवरेज’ बहुत बढ़ गया है। सोच रहा हूं कि सीएनजी किट लगवा लूं तब कहीं निकलूँ।
अपनी बात खतम करते -करते विष्णुजी को कुछ याद आया। बोले- शंकरजी इस बार की बातचीत में आपने अंग्रेजी के बहुत शब्द प्रयोग किये। ऐसा बदलाव किस कारण? आप तो अंग्रेजी के मामले में पाकिस्तानी क्रिकेटर इंजमाम थे। अंग्रेजी बोलने वाले लोग भी आपसे आपकी भाषा में बात करते थे। यह अच्छी बात है, लेकिन सोच में यह बदलाव कैसे हुआ।
शंकरजी बोले -एक तो हमें यह लगा कि भाषा तो पुल के समान होती है। दो दिलों को,देशों को, संस्कृतियों को जोड़ती है। फिर यह भी कि पुल जहां बनते हैं वहां विकास होता है। लिहाजा हमने धीरे-धीरे अंग्रेजी का पुल भी बनवा लिया। लेकिन यह उतना महत्वपूर्ण कारण नहीं जितना कि दूसरा कारण है।
विष्णुजी ने पूछा-क्या कारण है दूसरा?
शंकरजी ने बताना शुरू किया- आप तो जानते हैं कि हम भोले भंडारी के रूप में जाने जाते हैं। हमारे यहां जो कोई कुछ भी मांगता है वह मैं बिना सोचे दे देता हूं। कई बार तो हमारी ही जान के लाले पड़ जाते हैं क्योंकि हमने बिना सोचे वरदान दे दिये। भस्मासुर का किस्सा तो पता है ही आपको!
हां,उस किस्से को कौन नहीं जानता ! विष्णुजी पहलू बदलते हुये बोले।
हां तो ऐसा हुआ कि हमारे नंदीजी को भी चेला बनाने को शौक है। बनाये होंगे तमाम चेला । कुछ ज्यादा मुंह लगे हैं। इनका मोबाइल खराब था तो उनको ये हमारा मोबाइल नम्बर दे दिये हैं। एक दिन हमारे मोबाइल की घंटी बजी तो हमने ही उठाया।
उधर से आवाज आई- हू इज देयर आन द लाइन?
उस समय हम अंग्रेजी तो जानते नहीं थे। लेकिन आवाज मरी-मरी सी थी।हम समझे कि कोई साधारण सा वरदान मांग रहा है। हम उस दिनों बहुत उदार थे। चिंता नहीं करते थे कि कोई क्या मांग रहा है? सो हम बोले -तथास्तु।
फिर आवाज ने पूछा- इज ‘मि.नंडी’ देयर? कैन आई टाक टु हिम?
हमें लगा कि शायद ये नंदी से जानपहचान का सहारा लेकर और कुछ वरदान मांग रहा है-हम फिर बोल दिये- तथास्तु।
इस तरह विष्णुजी आपको बतायें कि करीब आधे घंटे हमसे वह आवाज अंगेजी में बतियाती रही और हर बार यह सोचकर कि वह आवाज कुछ वरदान मांग रही है- हम हर बार तथास्तु कहते रहे।
इस तरह आधे घंटे के बाद जब पता नहीं कैसे फोन कटा तो हमें लगा कि पता नहीं कितने वरदान मांग किये गये नंदी का नाम लेकर। हमें उस दिन की किसी बात का कोई मतलब याद नहीं इसीलिये यह भी डर लगता रहा कि कहीं कुछ आत्मघाती वरदान न दे दिया हो हमने अनजाने में।
उसी दिन हमने तय किया कि अब तो अंग्रेजी सीखनी ‘मस्ट ‘है।बिना इसके काम नहीं चलने वाला। इसीलिये हम आजकल रोज एक घंटा एक अमेरिकन एजेंसी से आनलाइन अंग्रेजी सीखते हैं। इसी कारण बातचीत में अंग्रेजी शब्द आ जाते हैं-’अननोइंगली।’
विष्णु ने पूछा – अंग्रेजी तो ठीक लेकिन अमेरिकन अंग्रेजी ही किसलिये?
शंकरजी ने बताया -कुछ खास बात नहीं लेकिन हमारे नंदी का एक भक्त है वो बताता रहता है कि अंग्रेजी सीखो तो अमेरिकन वर्ना न सीखो। उसने यह भी बताया कि अगर सही तरीके से बोली जाये तो जो आत्मविश्वास अमेरिकन अंगरेजी के बोलने में आता है वह और किसी अंग्रेजी में नहीं आता। उसने बहुत मेहनत करके बताया कि अगर अमेरिकन अंदाज अपनाया जाय तो उजड्डता भी आत्मविश्वास की तरह लगती है। इसीलिये हमने पुरानी सारी अंगरेजी भूल कर अब अमेरिकन अंगरेजी सीखना शुरू कर दिया।
अब तो धीरे-धीरे अंग्रेजी भाषा पर पकड़ भी बढ़ रही है। बोलने में भले कुछ अटकन होती है लेकिन समझने में कतई भटकन नहीं होती।
देर बहुत हो गयी थी। विष्णुजी को नारदजी आते दिखाई दिये। वे शंकरजी से बोले-अच्छा शंकरजी,बहुत अच्छा लगा बहुत दिन बाद बात करके आपसे।
शंकरजी बोले- हां,हमें भी बहुत अच्छा लगा। ऐसे ही कभी-कभी बात करते रहा करिये।
विष्णुजी विदा लेते-लेते शंकरजी के अंग्रेजी ज्ञान की बात का ध्यान करते हुये अंग्रेजी मोड में आ गये। बोले-ओके देन सी यू,टाक टु यू लेटर,टेक केयर,बाय-बाय।
शंकरजी तुरंत बोले- तथास्तु।
लाइन तुरंत मिल गयी। घंटी जा रही थी। शंकरजी के मोबाइल से रिंग टोन आ रही थी-
डमऽडमऽडमऽ निनाद ,डमऽडमऽडमऽ वयम,
चिकाड़ चारु ताण्डवम्,तनों-तुन: शिव:शिवम्।
रिंग टोन बजने के दौरान विष्णुजी भी सोचते रहे कि अपने मोबाइल में भी शंकरजी के मोबाइल की रिंगटोन की तरह विष्णुसहस्रनाम का रिंगटोन लोड करा लें। मुफ्त में प्रचार होता रहेगा।
विष्णुजी जानते थे कि फोन रिंगटोन पूरी होने के बाद ही उठेगा। इसलिये उन्होंने इस बीच चाय-पानी का आर्डर दे दिया ताकि आराम से शंकरजी से चाय पीते हुये बतिया सकें। बहुत दिन से दोनों लोगों की बातचीत नहीं हुयी थी।
फोन शंकरजी के किसी गण ने उठाया। विष्णुजी ने बताया -मैं विष्णु बोल रहा हूं। शंकरजी से बात कराओ।
गण बोला-भगवन,भगवन से तो अभी वार्ता सम्भव नहीं है।कुछ देर लगेगी। उनके आने पर मैं आपसे बात कराता हूं।
विष्णुजी ने सहज कौतूहल वस पूछा- क्यों? कहां गये हैं भोले भण्डारी? क्या कर रहे हैं?
इधर ही हैं। डमरू बजा रहे हैं।-गण ने विनम्रतापूर्वक जवाब दिया।
डमरू बजा रहे हैं! इतनी सड़ी गर्मी में! क्या हो गया?
अरे भगवन ,हम यहां कैलाश पर्वत से बोल रहे हैं। यहां तो मारे सर्दी के कांप रहे हैं हम। भगवान के डमरू से तेज आवाज तो सर्दी के मारे दांतों के किटकिटाने से आ रही है। सारा शरीर विदेश में अंग्रेजी न जानने वाले प्रवासी के आत्मविश्वास सा थरथरा रहा है।
अच्छा शंकरजी कितनी देर में खाली होंगे? डमरू बजाने के बाद क्या करेंगे?-विष्णुजी ने शंकरजी की दिनचर्या में दिलचस्पी दिखाई।
डमरू के बाद भगवान शंकर रोज थोड़ी देर त्रिशूल चलाने की पैक्टिस करते हैं। बस आने ही वाले हैं। किसी भी क्षण पधार सकते हैं।
गण अपनी बात खतम करता तब तक उधर से भगवान शंकर अपने शरीर पर भभूत लपेटे चेहरे पर तेज धारण किये आते दिखाई दिये।गण से दोनों आंखों से ही इशारा करके पूछा -किसका फोन है? गण ने रिसीवर पर हाथ रखकर बताया-क्षीरसागर से भगवान विष्णु का। यह कहते हुये उसने फोन भगवान शंकर को थमा दिया। भगवान शंकर विष्णुजी से बतियाने लगे।
हालचाल के बाद विष्णुजी ने पूछा- क्या बात है आजकल डमरू-त्रिशूल का अभ्यास चल रहा है। कहीं फिर प्रलय का प्रोग्राम है क्या? किसकी शामत आ रही है?
शामत-वामत तो खैर क्या! लेकिन मुझे लगता है कि डमरू,त्रिशूल,तीसरा नेत्र मेरे ‘कोर कम्पीटेंस’ के आइटम हैं। लिहाजा इन पर पकड़ बनी रहनी चाहिये। सो मैं रोज डमरू,त्रिशूल चलाने की नेट प्रैक्टिस करता हूँ।-शंकरजी ने बताया।
और प्रलय नेत्र! उसको भी रोज खोलने का अभ्यास करते हैं?-विष्णुजी ने पूछा।
अरे नहीं भगवन,आप भी मजाक करते हैं। तीसरा नेत्र खुलेगा ,आपके भक्त मरेंगे, तो आप भला मुझे जीने देंगे? उसे तो मैंने अब ‘कम्प्यूटराइज’ करवा लिया है। बिना ‘पासवर्ड’ के खुलता ही नहीं । ‘पासवर्ड’ भी मैंने याद नहीं किया है। अपने कैलाश बैंक के लाकर में रखा है। इससे यह फायदा होगा किसी के भड़काने पर मेरा नेत्र तुरंत नहीं खुलेगा। गुस्सा आयेगा भी तो जब तक बैंक जाकर लाकर खोलकर पासवर्ड देखूंगा तब तक सारा गुस्सा शांत हो जायेगा। क्योंकि यहां की बैंकें अभी भी भारत देश की दूसरी बैंकों की तरह हैं। यहां अगर सबेरे लाकर खुलवाने,पैसा निकलवाने जाओ तो शाम तक तो काम ही हो पाता है। इतनी देर में गुस्सा क्या लोग तक ठंडे हो जाते हैं। इससे तमाम निरपराध लोग बच जायेंगे।
अच्छा तो जो अभी पिछले दो तीन सालों में कुछ जगहों में प्रलय आई उसमें आपने अपने ‘पासवर्ड’ का प्रयोग करके काम किया था। मतलब वो सारी ‘हाईटेक’ प्रलय थीं?
उसका भी यार बड़ा किस्सा हैं। जब मैंने अपने प्रलयनेत्र का ‘कम्प्यूटराइजेशन’ कराया तो ऐसे कुछ ही दिनों में पता नहीं किस शातिर ‘हैकर’ ने मेरा ‘पासवर्ड’ पता नहीं कैसे चुरा लिया । तथा तमाम जगह प्रलय मचा दी। कहीं बम कहीं तूफान कहीं कुछ कहीं कुछ। सारी जगहों में हाहाकार मच गया। जब मुझे पता चला तो मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गयीं। ससुरा एक भूस्खलन और हो गया।
उस दिन से मैं बहुत सावधान हो गया। अपने पासवर्ड के किसी असफल आशिक के दिल की तरह कई टुकडे़ किये। किसी को इस लाकर में रखा किसी को उस लाकर में। अब हालत यह है कि अगर तुम सोचो कि हम आज प्रलय ला दें तो दिन बीत जायेगा पासवर्ड ही ‘असेम्बल’ करने में।
इसका मतलब आप अपनी ताकतों पर लगाम लगा रहे हैं। विष्णुजी ने बातचीत को आगे बढ़ाते हुये पूछा।
कैसी ताकत विष्णुजी ! आप भी दुनिया के बहकावे में आ जाते हो। हमारे पास क्या ताकत है? अपने मन से हम किसी को मारना चाहे तो मार नहीं सकते। मारने के पहले उसके कर्मों की बैलेंस सीट देखो। अगर कहीं कोई गलती से मारा जाय तो जवाबदेही अलग से बनती है।
ताकत क्यों नहीं शंकरजी ! आप जिसकी तरफ नजर उठा के देख लो तो वो तो गया काम से।-विष्णुजी ने शंकर जी को पानी पर चढ़ाते हुये कहा।
अरे नहीं भाई,हम कोई किसी प्रजातंत्र के नेता तो हैं नहीं जो कि जो मन में आये करते रहें ।कोई टोंकने वाला नहीं। यहां तो हमेशा जी धुकुर-पुकर करता रहता है कि कहीं कोई बेगुनाह न मारा जाय।-शंकरजी संजीदगी से बोले।
विष्णुजी ने फिर कहना जारी रखा-आप किसी को मारो या न मारो लेकिन आपके पास जो संहार की ताकत है उसका जलवा तो है ही।
कैसा जलवा प्रभो लगता है आप भी भ्रम में हैं। हमारे एक भक्त कवि हैं -कविवर सुरेंद्र शर्मा। उन्होंने बताया कि असली ताकत तो देवियों के हाथ में हैं। धन-सम्पदा तो लक्ष्मीजी के पास है,विद्या-बुद्धि सरस्वतीजी के पास है,शक्ति की देवी दुर्गा हैं।पेटपूजा का विभाग अन्नपूर्णा के पास है। सारे ताकतवार काम तो देवियों के पास हैं। फिर हमारा किस बात का जलवा!
हमारी ‘सर्विस कंडीशन’ भी कितनी जटिल हैं। मुझे बैठा दिया पहाड़ पर। कपड़े के नाम पर मृगछाला। मारे ठंड के हाल खराब हैं। सवारी भी क्या गजब! बैल दिया है। पहाड़ से उतरो तो लड़खड़ाते हुये पाताल लोक में गिरो जाकर। हथियार बेशक हम प्रयोग न करें लेकिन ये भी क्या तुक कि त्रिशूल है हमारे पास। ऐके-४७ के जमाने में भला त्रिशूल क्या करेगा?
शंकरजी की आवाज का दर्द विष्णुजी महसूस कर रहे थे।उनके दर्द को कम करने की गरज से बोले- हां आप सही कहते हैं भगवन! हम लोगों की हालत सही में उतनी अच्छी नहीं है जितनी दिखती है। अब देखिये मुझे डाल दिया है यहां क्षीरसागर में। करवटें बदलते रहते हैं सारा दिन इधर -उधर। जरा सा झपकी लगी नहीं कि नींद टूट जाती है शेषनाग के हिलने-डुलने से। पर क्या करें निभाना है।पालनकर्ता जो हैं पूरे ब्रह्मांड के।
शंकरजी को लगा कि विष्णुजी अपनी हालत कहीं उनसे भी दयनीय न साबित कर लें सो बात टालने के लिये उन्होंने कहा- वहां तो बहुत गर्मी पड़ रही होगी। यहां आ जाइये न ! कुछ दिन मन बहल जायेगा।
विष्णुजी को अपना दुख प्रकट करने का मौका अनायास मिल गया। बोले- हां सोच तो मैं भी रहा था।लेकिन पेट्रोल का खर्चा सोचकर हिम्मत नहीं होती। वैसै भी गरुड़ का माडल इतना पुराना है कि ‘एवरेज’ बहुत बढ़ गया है। सोच रहा हूं कि सीएनजी किट लगवा लूं तब कहीं निकलूँ।
अपनी बात खतम करते -करते विष्णुजी को कुछ याद आया। बोले- शंकरजी इस बार की बातचीत में आपने अंग्रेजी के बहुत शब्द प्रयोग किये। ऐसा बदलाव किस कारण? आप तो अंग्रेजी के मामले में पाकिस्तानी क्रिकेटर इंजमाम थे। अंग्रेजी बोलने वाले लोग भी आपसे आपकी भाषा में बात करते थे। यह अच्छी बात है, लेकिन सोच में यह बदलाव कैसे हुआ।
शंकरजी बोले -एक तो हमें यह लगा कि भाषा तो पुल के समान होती है। दो दिलों को,देशों को, संस्कृतियों को जोड़ती है। फिर यह भी कि पुल जहां बनते हैं वहां विकास होता है। लिहाजा हमने धीरे-धीरे अंग्रेजी का पुल भी बनवा लिया। लेकिन यह उतना महत्वपूर्ण कारण नहीं जितना कि दूसरा कारण है।
विष्णुजी ने पूछा-क्या कारण है दूसरा?
शंकरजी ने बताना शुरू किया- आप तो जानते हैं कि हम भोले भंडारी के रूप में जाने जाते हैं। हमारे यहां जो कोई कुछ भी मांगता है वह मैं बिना सोचे दे देता हूं। कई बार तो हमारी ही जान के लाले पड़ जाते हैं क्योंकि हमने बिना सोचे वरदान दे दिये। भस्मासुर का किस्सा तो पता है ही आपको!
हां,उस किस्से को कौन नहीं जानता ! विष्णुजी पहलू बदलते हुये बोले।
हां तो ऐसा हुआ कि हमारे नंदीजी को भी चेला बनाने को शौक है। बनाये होंगे तमाम चेला । कुछ ज्यादा मुंह लगे हैं। इनका मोबाइल खराब था तो उनको ये हमारा मोबाइल नम्बर दे दिये हैं। एक दिन हमारे मोबाइल की घंटी बजी तो हमने ही उठाया।
उधर से आवाज आई- हू इज देयर आन द लाइन?
उस समय हम अंग्रेजी तो जानते नहीं थे। लेकिन आवाज मरी-मरी सी थी।हम समझे कि कोई साधारण सा वरदान मांग रहा है। हम उस दिनों बहुत उदार थे। चिंता नहीं करते थे कि कोई क्या मांग रहा है? सो हम बोले -तथास्तु।
फिर आवाज ने पूछा- इज ‘मि.नंडी’ देयर? कैन आई टाक टु हिम?
हमें लगा कि शायद ये नंदी से जानपहचान का सहारा लेकर और कुछ वरदान मांग रहा है-हम फिर बोल दिये- तथास्तु।
इस तरह विष्णुजी आपको बतायें कि करीब आधे घंटे हमसे वह आवाज अंगेजी में बतियाती रही और हर बार यह सोचकर कि वह आवाज कुछ वरदान मांग रही है- हम हर बार तथास्तु कहते रहे।
इस तरह आधे घंटे के बाद जब पता नहीं कैसे फोन कटा तो हमें लगा कि पता नहीं कितने वरदान मांग किये गये नंदी का नाम लेकर। हमें उस दिन की किसी बात का कोई मतलब याद नहीं इसीलिये यह भी डर लगता रहा कि कहीं कुछ आत्मघाती वरदान न दे दिया हो हमने अनजाने में।
उसी दिन हमने तय किया कि अब तो अंग्रेजी सीखनी ‘मस्ट ‘है।बिना इसके काम नहीं चलने वाला। इसीलिये हम आजकल रोज एक घंटा एक अमेरिकन एजेंसी से आनलाइन अंग्रेजी सीखते हैं। इसी कारण बातचीत में अंग्रेजी शब्द आ जाते हैं-’अननोइंगली।’
विष्णु ने पूछा – अंग्रेजी तो ठीक लेकिन अमेरिकन अंग्रेजी ही किसलिये?
शंकरजी ने बताया -कुछ खास बात नहीं लेकिन हमारे नंदी का एक भक्त है वो बताता रहता है कि अंग्रेजी सीखो तो अमेरिकन वर्ना न सीखो। उसने यह भी बताया कि अगर सही तरीके से बोली जाये तो जो आत्मविश्वास अमेरिकन अंगरेजी के बोलने में आता है वह और किसी अंग्रेजी में नहीं आता। उसने बहुत मेहनत करके बताया कि अगर अमेरिकन अंदाज अपनाया जाय तो उजड्डता भी आत्मविश्वास की तरह लगती है। इसीलिये हमने पुरानी सारी अंगरेजी भूल कर अब अमेरिकन अंगरेजी सीखना शुरू कर दिया।
अब तो धीरे-धीरे अंग्रेजी भाषा पर पकड़ भी बढ़ रही है। बोलने में भले कुछ अटकन होती है लेकिन समझने में कतई भटकन नहीं होती।
देर बहुत हो गयी थी। विष्णुजी को नारदजी आते दिखाई दिये। वे शंकरजी से बोले-अच्छा शंकरजी,बहुत अच्छा लगा बहुत दिन बाद बात करके आपसे।
शंकरजी बोले- हां,हमें भी बहुत अच्छा लगा। ऐसे ही कभी-कभी बात करते रहा करिये।
विष्णुजी विदा लेते-लेते शंकरजी के अंग्रेजी ज्ञान की बात का ध्यान करते हुये अंग्रेजी मोड में आ गये। बोले-ओके देन सी यू,टाक टु यू लेटर,टेक केयर,बाय-बाय।
शंकरजी तुरंत बोले- तथास्तु।
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Posted in सूचना | 19 Responses
हा हा. हँसी से भरे इस लेख के बीच मुझे एक गंभीर मुद्दा झाँकता दिखाई दिया.
अंग्रेज़ी में पढ़े-लिखे भारतीय वर्ग के एक बड़े हिस्से की स्थिति “आपके” शंकर जी से बहुत मिलती है. जहाँ उन्हें अपनी आम बातचीत में हर दूसरे शब्द को अंग्रेज़ी में बोलने में अभिमान का अनुभव होता है, वहीँ अगर कोई गंभीर चर्चा अंग्रेज़ी में करनी हो तो उनके पास ‘तथास्तु’ से ज़्यादा कहने को कुछ नहीं होता. आपके शंकर जी कम से कम एक भाषा तो ठीक बोल सकते हैं. पर अब जो वे अमेरिकन अंग्रेज़ी के चक्कर में पड़े हैं तो राम जाने..
जॉर्ज बुश ओलंपिक पर भाषण देने खड़े हुए और बोलना शुरू किया ‘ओ…ओ…ओ…’ तो सचिव ने बताया महोदय ये तो ओलंपिक का निशान है आपका भाषण इसके नीचे से शुरू होता है।
दरअसल, आपकी साइकिल का पंक्चर कहीं हो गया है और उसे ठीक कराकर सड़क पर लाना जरूरी है – पुराण तो और भी कई हैं, लिख लेंगे – यायावरी वृत्तांत तो आप का देखा सुना भोगा है वो तो आपको ही लिखना होगा.
यात्रा वृत्तांत में बाधा पड़ गई है, उसे दूर कर जरा नियमितता लाएँ, यही निवेदन है
अब पुस्तक भी प्रकाशित करा ही लीजिए। प्रिंट आउट ले लेकर थक गए हैं, आपका लेख हमारे पास टिकता ही नहीं है जो देखता है ले के चल देता है, चाहे हिंदी जानता हो या नहीं। यदि पुरानी पुस्तकें पहले से हैं तो कृपया प्रकाशक का पता दीजिए।
itna badhiiya vyangya padh kar parsai ji ki yaad aa gayi ,dhanyavad aap ka bhi aur vandana ka bhi .