Wednesday, June 14, 2006

गुलजा़र की कविता,त्रिवेणी

http://web.archive.org/web/20111108131252/http://hindini.com/fursatiya/archives/143

गुलजा़र की कविता,त्रिवेणी

फिराक़ गोरखपुरी पर लेख के बाद सागर चन्द नाहर जी की फिर फरमाइश है गुलजार की नज्‍़म की। हमें लगता है कि हमें अपने चिट्ठे का नाम ‘फ़ुरसतिया’ से बदलकर ‘फरमाइशी‘ करना पड़ेगा। बहरहाल ग्राहक भगवान का रूप होता है की तर्ज पर पाठक को सर्वेसर्वा मानते हुये सागर चन्द नाहर जी की मांग के अनुसार गुलजार की नज्‍़म बोस्की पेश की जा रही है।
हिंदी-उर्दू के कवि-शायर तथा गीतकार,फिल्म निर्माता- निर्देशक गुलजार का जन्म १८ अगस्त,१९३६ को दीना नामक कस्बे में हुआ था ,जो कि अब पाकिस्तान में है।उनका बचपन का नाम सम्पूरन सिंह था।
गुलजार ने हिंदी फिल्मों के लिये तमाम गीत लिखे हैं जिनमें से कुछ तो बहुत लोकप्रिय हैं।
भारतीय सिनेमा में उल्लेखनीय योगदान के लिये गुलजार को वर्ष २००४ में भारत सरकार द्वारा पद्मभूषन सम्मान से सम्मानित किया गया।इसके अतिरिक्त गुलजार को तमाम बार हिंदी सिनेमा में उनके गीतों तथा निर्देशन के लिये के लिये सम्मानित किया गया तथा कई पुरस्कार मिले।
गुलजार का विवाह प्रसिद्ध सिनेतारिका राखी से हुआ।
राखी-गुलजार की पुत्री मेघना गुलजार ,जिनका घरेलू नाम बोस्की है ,भी फिल्म निर्देशक हैं।
गुलजार ने बोस्की के विवाह के अवसर पर दो नज्‍़में लिखीं थीं जिनके लिये फरमाइश की गई थी।
वे दोनों नज्‍़में यहाँ पेश की जा रही हैं:-
बोस्की-१
बोस्की ब्याहने का अब वक्‍़त क़रीब आने लगा है
जिस्म से छूट रहा है कुछ कुछ
रूह में डूब रहा है कुछ कुछ
कुछ उदासी है,सुकूँ भी
सुबह का वक्‍़त है पौ फटने का
या झुटपुटा शाम का है मालूम नहीं
यूं भी लगता है कि जो मोड़ भी अब आयेगा
वो किसी और तरफ़ मुड़ के चली जायेगी
उगते हुए सूरज की तरफ़
और मैं सीधा ही कुछ दूर अकेला जा कर
शाम के दूसरे सूरज में समा जाऊंगा!
बोस्की-२

नाराज़ है मुझ से बोस्की शायद
जिस्म का इक अंग चुप चुप सा है
सूजे से लगते हैं पांव
सोच में एक भंवर की आंख है
घूम घूम कर देख रही है बोस्की, सूरज का टुकड़ा है
मेरे खू़न में रात और दिन घुलता रहता है
वह क्या जाने,जब वो रूठे
मेरी रगों में खू़न की गर्दिश मद्‌धम पड़ने लगती है
रजनी भार्गव,गुलजार,अनूप भार्गव
रजनी भार्गव,गुलजार,अनूप भार्गव
हमारे नामाराशि अनूप भार्गव गुलजार के बडे़ प्रशंसक हैं। जब हम लेख टाइप कर रहे थे तो आनलाइन मिल गये। बताया कि गुलजार के बारे में याहू पर एक साइट है। फिलहाल यह साइट डाउन चल रही है।
जिनको गुलजार के बारे में और जानकारी चाहिये वे साथी लोग इस साइट के सदस्य बन सकते हैं।
पिछले दिनों न्यूयार्क में हुये कवि सम्मेलन में गुलजार ने भी शिरकत की थी। हमारे अनूप भार्गव ने भी वहाँ कविता पाठ किया था।
कवि सम्मेलन की यादें बांटते हुये अनूप भार्गव जी ने बताया कि मेघना गुलजार भी न्यूयार्क गयीं थीं। उनके पति आउटसोर्सिंग का व्यापार करते हैं। मेघना ने वहां गुलजार पर केंद्रित १८ मिनट की फिल्म भी दिखाई थी जिसपर गुलजार की टिप्पणी थी-ये बहुत नाइन्साफी है कि हमारे पूरे जीवन को १८ में समेट दिया जाय।
गुलजार के फोटो खोजते-खोजते हम परेशान हो गये लेकिन नहीं मिला। फिर हमें कवि सम्मेलन के बाद अनूप भार्गव के द्वारा भेजा गया फोटो मिला। फोटो जैसा कि दिख रहा है बहुत खूबसूरत है। गुलजार को बीच में घेरे हुये भार्गव दम्पति हैं। श्रीमती रजनी भार्गव भी कवितायें लिखती हैं।अब यह पता नहीं कौन सी साजिश है अनूप भाई की कि उनकी कवितायें सामने नहीं आने देते। मैंने एक बार भाभीजी का भी ब्लाग बनाने को कहा तो बताया कि समय मिलने पर बनाऊँगा। पांच मिनट में ब्लाग बनता है,आज हमसे पूरा एक घंटा बतियाये लेकिन पाँच मिनट नहीं निकाल पाये ।
बहरहाल हमें लगा कि अमेरिका के कैमरे इतने अच्छे होते होंगे तभी फोटो इतना अच्छा आया।
लेकिन हमें अनूप भार्गव ने बताया -फोटो तो अच्छा आना ही था। दो लोग मिलकर कितना खराब कर पाते। लेकिन उन्होंने यह फिर भी नहीं बताया कि वे दो लोग कौन हैं जिनके ऊपर फोटो खराब करने के प्रयास का आरोप है।
बहरहाल ,इस मामले को यहीं अटकलें लगाने के लिये छोड़ते हुये गुलजार की त्रिवेणी में डुबकी लगवाता हूँ।
त्रिवेणी क्या है यह गुलजार जी के माध्यम से समझा जाय तो बेहतर होगा।त्रिवेणी के बारे में गुलजार लिखते हैं:-


त्रिवेणी न तो मसल्लस है,ना हाइकू,ना तीन मिसरों में कही एक नज्‍़म। इन तीनों ‘फ़ार्म्ज़’में एक ख्‍़याल और एक इमेज का तसलसुल मिलता है। लेकिन त्रिवेणी का फ़र्क़ इसके मिज़ाज का फर्क है। तीसरा मिसरा पहले दो मिसरों के मफ़हूम को कभी निखार देता है,कभी इजा़फा करता है या उन पर ‘कमेंट’ करता है। त्रिवेणी नाम इस लिये दिया गया था कि संगम पर तीन नदियां मिलती हैं। गंगा ,जमना और सरस्वती। गंगा और जमना के धारे सतह पर नज़र आते हैं लेकिन सरस्वती जो तक्षिला(तक्षशिला) के रास्ते बह कर आती थी,वह ज़मीन दोज़ हो चुकी है। त्रिवेणी के तीसरे मिसरे का काम सरस्वती दिखाना है जो पहले दो मिसरों में छुपी हुई है।

यहाँ कुछ त्रिवेणियाँ दी जा रहीं हैं। आप इनमें गोते लगायें। मुझे लगता है कि समीरलाल कुंडलिया उस्ताद हो ही गये हैं अब त्रिवेणी पर भी हाथ साफ करें। लेकिन त्रिवेणी के सबसे नजदीक प्रत्यक्षाजी की कवितायें हो सकती हैं। दो चाय के बीच वे चार त्रिवेणी बहा सकती हैं। उनकी शुरुआत के दौर में लिखी कविता :-
रात भर ये मोगरे की
खुशबू कैसी थी
अच्छा ! तो तुम आये थे
नींदों में मेरे ?

मुझे याद आ रही है।
यहाँ पेश हैं गुलजार लिखित कुछ त्रिवेणियाँ:-
१.मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने

रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे
२.सारा दिन बैठा,मैं हाथ में लेकर खा़ली कासा(भिक्षापात्र)
रात जो गुज़री,चांद की कौड़ी डाल गई उसमें
सूदखो़र सूरज कल मुझसे ये भी ले जायेगा।
३.सामने आये मेरे,देखा मुझे,बात भी की
मुस्कराए भी,पुरानी किसी पहचान की ख़ातिर
कल का अख़बार था,बस देख लिया,रख भी दिया।
४.शोला सा गुज़रता है मेरे जिस्म से होकर
किस लौ से उतारा है खुदावंद ने तुम को
तिनकों का मेरा घर है,कभी आओ तो क्या हो?
५.ज़मीं भी उसकी,ज़मी की नेमतें उसकी
ये सब उसी का है,घर भी,ये घर के बंदे भी
खुदा से कहिये,कभी वो भी अपने घर आयें!
६.लोग मेलों में भी गुम हो कर मिले हैं बारहा
दास्तानों के किसी दिलचस्प से इक मोड़ पर
यूँ हमेशा के लिये भी क्या बिछड़ता है कोई?
७.आप की खा़तिर अगर हम लूट भी लें आसमाँ
क्या मिलेगा चंद चमकीले से शीशे तोड़ के!
चाँद चुभ जायेगा उंगली में तो खू़न आ जायेगा
८.पौ फूटी है और किरणों से काँच बजे हैं
घर जाने का वक्‍़त हुआ है,पाँच बजे हैं
सारी शब घड़ियाल ने चौकीदारी की है!
९.बे लगाम उड़ती हैं कुछ ख्‍़वाहिशें ऐसे दिल में
‘मेक्सीकन’ फ़िल्मों में कुछ दौड़ते घोड़े जैसे।
थान पर बाँधी नहीं जातीं सभी ख्‍़वाहिशें मुझ से।
१०.तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में!
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो!!
११.कभी कभी बाजा़र में यूँ भी हो जाता है
क़ीमत ठीक थी,जेब में इतने दाम नहीं थे
ऐसे ही इक बार मैं तुम को हार आया था।
१२. वह मेरे साथ ही था दूर तक मगर इक दिन
जो मुड़ के देखा तो वह दोस्त मेरे साथ न था
फटी हो जेब तो कुछ सिक्के खो भी जाते हैं।
१३.वह जिस साँस का रिश्ता बंधा हुआ था मेरा
दबा के दाँत तले साँस काट दी उसने
कटी पतंग का मांझा मुहल्ले भर में लुटा!
१४. कुछ मेरे यार थे रहते थे मेरे साथ हमेशा
कोई साथ आया था,उन्हें ले गया,फिर नहीं लौटे
शेल्फ़ से निकली किताबों की जगह ख़ाली पड़ी है!
१५.इतनी लम्बी अंगड़ाई ली लड़की ने
शोले जैसे सूरज पर जा हाथ लगा
छाले जैसा चांद पडा़ है उंगली पर!
१६. बुड़ बुड़ करते लफ्‍़ज़ों को चिमटी से पकड़ो
फेंको और मसल दो पैर की ऐड़ी से ।
अफ़वाहों को खूँ पीने की आदत है।
१७.चूड़ी के टुकड़े थे,पैर में चुभते ही खूँ बह निकला
नंगे पाँव खेल रहा था,लड़का अपने आँगन में
बाप ने कल दारू पी के माँ की बाँह मरोड़ी थी!
१८.चाँद के माथे पर बचपन की चोट के दाग़ नज़र आते हैं
रोड़े, पत्थर और गु़ल्लों से दिन भर खेला करता था
बहुत कहा आवारा उल्काओं की संगत ठीक नहीं!
१९.कोई सूरत भी मुझे पूरी नज़र आती नहीं
आँख के शीशे मेरे चुटख़े हुये हैं कब से
टुकड़ों टुकड़ों में सभी लोग मिले हैं मुझ को!
२०.कोने वाली सीट पे अब दो और ही कोई बैठते हैं
पिछले चन्द महीनों से अब वो भी लड़ते रहते हैं
क्लर्क हैं दोनों,लगता है अब शादी करने वाले हैं
२१. कुछ इस तरह ख्‍़याल तेरा जल उठा कि बस
जैसे दीया-सलाई जली हो अँधेरे में
अब फूंक भी दो,वरना ये उंगली जलाएगा!
२२.कांटे वाली तार पे किसने गीले कपड़े टांगे हैं
ख़ून टपकता रहता है और नाली में बह जाता है
क्यों इस फौ़जी की बेवा हर रोज़ ये वर्दी धोती है।
२३. आओ ज़बानें बाँट लें अब अपनी अपनी हम
न तुम सुनोगे बात, ना हमको समझना है।
दो अनपढ़ों कि कितनी मोहब्बत है अदब से
२४.नाप के वक्‍़त भरा जाता है ,रेत घड़ी में-
इक तरफ़ खा़ली हो जबफिर से उलट देते हैं उसको
उम्र जब ख़त्म हो ,क्या मुझ को वो उल्टा नहीं सकता?
२५. तुम्हारे होंठ बहुत खु़श्क खु़श्क रहते हैं
इन्हीं लबों पे कभी ताज़ा शे’र मिलते थे
ये तुमने होंठों पे अफसाने रख लिये कब से?
गुलजार की ये कवितायें (बोस्की तथा त्रिवेणियां) मैंने उनकी पुस्तक रात पश्मीने की से ली हैं। इस किताब की भूमिका लिखते हुये गुलजार लिखते हैं:-


उम्मीद भी है घबराहट भी कि अब लोग क्या कहेंगे,और इससे बड़ा डर यह है कि कहीं ऐसा न हो कि लोग कुछ भी न कहें।

मुझे लगा कि गुलजार हमारा डर बयान कर रहे हैं।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

23 responses to “गुलजा़र की कविता,त्रिवेणी”

  1. Jagdish
    मेरे खास रहे हैं गुलजार। बुकमार्क कर लिया साहब यह पन्ना।
  2. रवि
    गुलजार के बारे में एक प्रसिद्ध भारतीय फ़िल्म निर्माता कहते हैं – तुम्हारे लिखे गीत मुझे बिलकुल समझ नहीं आते. मगर दर्शक उन्हें बेहद पसंद करते हैं.
    लकड़ी की काठी, चड्डी पहन के फूल खिला और चप्पा चप्पा चरखा चले ये चंद उदाहरण हैं.
  3. आशीष
    गुलजार के एक पंखे हम भी है !
  4. अनूप भार्गव
    अब इस लेख पर तो पहली टिप्पणी लिखनी ही पडेगी । सब से पहले तो एक अच्छे लेख (और उस से भी अच्छी तस्वीर)के लिये धन्यवाद :-) तस्वीर किस एक के कारण और किन दो के बावजूद अच्छी बन पड़ी है , इसे राज ही रहने दें …..
    गुलज़ार साहब वास्तव में एक ‘युगपुरुष’ हैं , इतनी बहुमुखी प्रतिभा (गीतकार, कथाकार, पटकथा लेखक, निर्माता, निर्देशक ) शायद ही किसी में देखनें को मिले । लेकिन इन सब से बड़ी बात जो मुझे लगी वह है उन की विनम्रता और सरलता । एक छॊटी सी घटना सुनाता हूँ । मैं , गुलज़ार साहब , नन्दन जी और गोपीचन्द नारंग जी ‘होटल’ की ‘लौबी’ में बैठे बात कर रहे थे, तभी रजनी बाहर से आई । वह वहीं खडे हो कर चर्चा में शामिल हो गई । गुलज़ार साहब नें एक बार रजनी से बैठनें के लिये कहा । रजनी कुछ ज़ल्दी में थी , उस नें कहा ‘नहीं ऐसे ही ठीक है’ । गुलज़ार साहब नें बड़े सहज तरीके से कहा ” अगर आप नहीं बैठेंगी तो हम सब को खड़ा होना पड़ेगा” । बात बहुत छॊटी सी थी लेकिन जिस सहज़ता से उन्होंनें यह कहा, स्पष्ट था कि उस में बिल्कुल भी कृत्रिमता नहीं थी और उन का ‘नारी’ के प्रति ‘सहज सम्मान’ का प्रतीक थी ।
    बात रजनी की आई तो अनूप भाई ! आप की शिकायत बिल्कुल ‘वाज़िब’ है , बस ‘ब्लौग’ ज़ल्दी ही आनें वाला है । तब तक इन से काम चला लें :
    http://manaskriti.com/kaavyaalaya/kuchh_naheen_chaahaa.stm
    http://manaskriti.com/kaavyaalaya/abhivyaktiyaan.stm
    http://manaskriti.com/kaavyaalaya/seepee_mein_motee.stm
    http://manaskriti.com/kaavyaalaya/samay_ki_lipi.stm
    अब कुछ सूचनाएं , गुलज़ार साहब पर एक बहुत खूबसूरत ‘याहू ग्रुप’ है जिस का मैं सदस्य हूँ । http://groups.yahoo.com/group/gulzarfans/ , बहुत अच्छी सामग्री पढनें को मिलती है ।
    गुलज़ार साहब अपनी उम्र के अनुसार काफ़ी ‘फ़िट’ लगते हैं । इस का राज है ‘हर रोज़ सुबह १ १/२ घंटे ‘टैनिस’ और ‘योग’ ।
    गुलज़ार साहब की ‘त्रिवेणी’ अर्थपूर्ण तो लगती हैं लेकिन उन्हे किसी गज़ल गायक द्वारा गाये जाननें की कल्पना मुश्किल लगती है । न्यूयौर्क में हुए ‘जगजीत सिह’ के कार्यक्रम (जिस मे उन का परिचय गुलज़ार साह्ब नें करवाया था) में जगजीत जी नें चुनी हुई ‘त्रिवेणी’ को गानें का प्रयास किया जो मुझे तो बहुत अच्छा और साहसपूर्ण कदम लगा।
    अब आपके समान ‘टाइप’ करनें की क्षमता तो नहीं है , इसलिये अभी इतना ही।
  5. Hindi Blogger
    बहुत-बहुत धन्यवाद! क्या शानदार लेख और क्या ज़ोरदार टिप्पणी!
  6. सागर चन्द नाहर
    भाई साह्ब,
    गुलज़ार साहब के बारे में लेख और कविताओं के लिये धन्यवाद, परन्तु यह वे कविता नहीं है यह तो बोस्की के विवाह के समय लिखी गई है,मैने जिस कविता संग्रह का जिक्र किया था उस का नाम था ” हमाली बोछकी” (Hamali Bochhaki)जब बोस्की तुतलाया करती थी, उन दिनो गुलज़ार साहब ने यह कविता बच्चों की तुतलायी भाषा में लिखी थी में उस संग्रह को ढूंढ रहा हुँ अगर मिल गया तो जरूर अपने चिठ्ठे पर सभी के लिये प्रकाशित करुंगा।
  7. राकेश खंडेलवाल
    अब असमंजस हो गया है कि किसकी तारीफ़ की जाये. कॄतिकार गुलज़ार की या फिर
    अनूप ? जी की इतनीबातें बतलाने के लिये.
  8. भारत भूषण तिवारी
    वैसे न्यूयॉर्क वाले कार्यक्रम में मैं भी था (सौजन्य: अनूप भार्गव). वहाँ ग़ुलज़ार साहब की पुस्तक ‘चाँद पुखराज का’खरीदी और पहले पृष्ट पर उनका ऑटोग्राफ़ भी लिया.चूँकि पुस्तक उर्दू में है, ग़ुलज़ार साहब ने दस्तखत उर्दू में किए. उसी पुस्तक से कुछ त्रिवेणियाँ, जो उन्होनें कार्यक्रम में भी पढीं थीं.
    सब पे आती है अपनी बारी से
    मौत इन्साफ़ की अलामत है
    ज़िन्दगी सब पे क्यूँ नहीं आती
    भीगा भीगा सा क्यूँ है ये अखबार
    अपने हॉकर को कल से चेंज करो
    पाँच सौ गाँव बह गए इस साल
    शाम गुज़री है बहुत पास से होकर लेकिन
    सिर पे मंडलाती हुई रात से जी डरता है
    सिरचढे दिन की इसी बात से जी डरता है
    रात के पेड पे कल ही तो उसे देखा था
    चाँद बस गिरने ही वाला था पके फल की तरह
    सूरज आया है, ज़रा उसकी तलाशी लेना
  9. प्रत्यक्षा
    आहा ! मज़ा आ गया गुलज़ार की त्रिवेणियाँ पढ कर. अब चूँकि “फुरसतिया” से “फरमाइशी” चिट्ठा हो ही गया है तो कुछ और त्रिवेणियाँ पोस्ट की जाय.
    और अनूप भार्गव जी से भी गुजारिश है..आपने ई-कविता पर एक बार गुलज़ार जी की कुछ बडी सुन्दर त्रिवेणियाँ पोस्ट की थीं . उन्हे दोबारा फिर चिट्ठे पर पोस्ट करें.
    अनूप जी ने मेरी एक कविता इस लेख में डाली, शुक्रिया शुक्रिया. :-) )
    गुलज़ार साहब की त्रिवेणी मेरे लिये ऐसी जैसे ज़मीन पर से चाँद देखूँ
  10. अनूप भार्गव
    अब यह फ़रमाइशी चिट्ठा हो ही गया है तो प्रत्यक्षा की यह फ़रमाइश भी पूरी की जाये । शायद इन ‘त्रिवेणियों: का ज़िक्र हो रहा है । ये मेरी पसन्द की हैं जो मैनें उन की पुस्तक ‘त्रिवेणी’ में से ली हैं :

    इतनें लोगों में , कह दो आँखों को
    इतना ऊँचा न ऐसे बोला करें
    लोग मेरा नाम जान जाते हैं ।

    शाम से शमा जली , देख रही है रास्ता
    कोइ परवाना इधर आया नहीं देर हुई
    सौत होगी जो मेरे पास में जलती होगी

    रात के पेड पे कल ही देखा था
    चाँद बस पक के गिरने वाला था
    सूरज आया था , ज़रा उस की तलाशी लेना

    सामनें आये मेरे, देखा मुझे, बात भी की
    मुस्कुराये भी पुरानी किसी पहचान की खातिर
    कल का अखबार था, बस देख लिया, रख भी दिया

  11. Apoorv Bhumesh
    Its really a nice effort. The work is informative and throws light on the relevant aspects of the poet’s personality and his notable works.
    The poet definitely has a valuable contribution in writing meaningful poetry.
  12. निधि
    अनूप जी, मेरे चिट्ठे पे की गयी आपकी टिप्पणियों के ज़रिये आपके चिट्ठे तक पहुँची । वैसे फुरसतिया नाम से परिचित हूँ, नारद जी की मेहरबानी से । पर यहाँ पहली बार आयी हूँ । और आयी तो ऐसी आयी हूँ कि सुबह से आपके पुराने सभी लेख पढ़ने मे लगी हुई हूँ । ज्ञान का भन्डार है यहाँ तो । आपकी लेखन शैली भी बड़ी रोचक लगी । हमारी महतारी भी कानपुर-बनारस की हैं । ननिहाल वहीं है हमारा । इसलिये वहाँ की भाषा बड़ी अपनी सी लगती है । अब तो हम आपके चिट्ठे पे आत रही । आप न लिखबे करी तो हम जबरिया लिखाय लिहिन आपसे ।
  13. मनीष
    गुलजार मेरे प्रिय कवियों में से एक हैं । उनकी त्रिवेणियाँ पहले भी पढ़ीं थीं पर आपने जिस अंदाज में यहाँ पढ़वाया उसका लुत्फ ही अलग था ।
    हाँ गुलजार प्रेमियों से मेरा अनुरोध है कि पवन झा की web site http://www.gulzaronline.com पर जरूर जायें। गुलजार के गीतों और कविताओं का पवन जैसा अच्छा विश्लेषक मैंने नहीं देखा।
  14. फ़ुरसतिया » सितारों के आगे जहाँ और भी हैं…
    [...] और अचानक हमें ख्याल आ गया सो हमने सच बयान कर ही दिया- अनूप भार्गव को जो प्रचार-प्रसार के लिये सम्मान मिला है वो हमारे लेख के चलते मिला। इसके कारण लोगों को अनूप भार्गव के बारे में पता चला । सम्मानित करने वाले भी हमारे ब्लाग पर इनका फोटो देखकर प्रभावित हुये बिना न रह सके। [...]
  15. manju mahima bhatnagar
    अनूपजी,
    गुलज़ार सा. और नंदन जी की गज़ले पढ़्कर आन्नद आगया। मान गए सा. यह वाकई फ़ुरसत का काम है जो शायद सबके बस का नहीं। आपको साधुवाद। अभी इसमें काफ़ी कुछ पढ़ना है,जो फ़ुरसत निकालकर ही पढ़ना होगा।
    शुभमस्तु
    मंजु महिमा
  16. લયસ્તરો » ત્રિપદી - મુકેશ જોષી
    [...] આવો જ પ્રયોગ ગુલઝારે હિન્દીમાં કર્યો છે – એને એ ત્રિવેણી કહે છે. એમણે તો ત્રિવેણીઓનો આખો સંગ્રહ પ્રગટ કર્યો છે. જોકે ગુલઝારની ત્રિવેણી આ ત્રિપદીથી થોડી અલગ પડે છે. ગુલઝારની ત્રિવેણી શું છે જાણવા અને થોડી ત્રિવેણીઓ માંણવા માટે હિન્દી બ્લોગર ફરસતિયાસાહેબનો આ પોસ્ટ જોશો. [...]
  17. कुछ निन्दनीय पंक्तियाँ माँ के लिए « ॥दस्तक॥
    [...] कुछ निन्दनीय पंक्तियाँ माँ के लिए June 14, 2006 at 6:19 pm | In सामान्य | माँ की शान में हजारों शब्द लिखे जा चुके हैं, हिन्दी चिठ्ठा जगत में भी अक्सर माँ पर कुछ ना कुछ लिखा जाता रहा है, अब कल ही अपने श्री अनूप शुक्ला जी ने अपने चिठ्ठे “फ़ुरसतिया” पर स्व. फ़िराक गोरखपुरी जी की कविता माँ प्रकाशित की, परन्तु क्या माँ की निन्दा की जा सकती है? खासी भाषा के कवि किन फाम सिं नौगकिनरिह की एक कविता कुछ निन्दनीय पंक्तियाँ माँ के लिए की कड़ी यहाँ दे रहा हुँ मर्यादा की दृष्टि से कविता यहाँ प्रकाशित नही कर पा रहा हुँ और उसका लिंक दे रहा हुँ कविता के कुछ शब्द आघात जनक है, परन्तु कवि बहुत सहजता से अपने शब्दों को कह जाते हैं [...]
  18. manoj manu
    hum to samajhte ki ek hami hai gulzar ke kayal,
    dekha to laga puri kaynat hi ‘gulzar’ hai gulzar se.
  19. ब्लाग लिखता हूं तसल्ली नहीं मिलती
    [...] त्रिवेणी: एक विधा 2. गुलजार की कविता,त्रिवेणी 3.बारिश में भीगते हायकू का [...]
  20. ब्लाग लिखता हूं तसल्ली नहीं मिलती
    [...] त्रिवेणी: एक विधा 2. गुलजार की कविता,त्रिवेणी 3.बारिश में भीगते हायकू का [...]
  21. anupam agrawal
    इतना अच्छा और ढेर सब लिख दिया है आपने डरते डरते .
    और अब आप ये चाह रहें हैं कि लोग कुछ भी ना कहें .डर का तो बहाना है .
    अरे अब लोग कहेंगे और आपको सुनना पडेगा .
    और फ़िर इसी तरह और अच्छी चीज़ें लिखनी पड़ेंगी .
  22. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] हो… 6.रघुपति सहाय फ़िराक़’ गोरखपुरी 7.गुलजा़र की कविता,त्रिवेणी 8.गुलमोहर गर तुम्हारा नाम होता… 9.मौसम [...]
  23. sharad pawar
    गुलजार की त्रिवेणी वैसी है जैसी ……….गंगाजल की एक पवित्र बूंद

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