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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
अभी उफनती हुई नदी हो…
पिछले दिनों मातृ दिवस के अवसर पर अभिव्यक्ति के लिये ‘माँ’ शीर्षक कोई कविता भेजने के लिये पूर्णिमा वर्मन जी ने कहा था। मेरे तमाम खोजने पर भी कविता न मिल पाई। इसके बाद जब शोयेब ने अपने ब्लाग पर (६ जून,२००६)माँ के बारे में लिखा तब मैंने ‘कुँवर बेचैन’ की
बहुत पहले सुनी कविता दुबारा खोजना शुरू किया। अब यह कविता मिल गई तो सोचा
कि पोस्ट कर दूँ ताकि जरूरत पड़ने पर खोजने में आसानी रहे।
‘कुँवर बेचैन’ जी यह कविता पढ़ते समय मंच के आसपास किसी किस्म का व्यवधान नहीं पसन्द करते। पूरी तन्मयता से पढ़ते हैं जैसे पूजा कर रहे हों। उनकी माता का देहान्त तब हो गया था जब कुँवर बेचैन जी मात्र छह साल के थे। कम उम्र में माँ को खो देने का अभाव ही शायद उनके अपनी इस कविता से भावुक लगाव का कारण हो। ‘कुँवर बेचैन’ की यह कविता मैं खासतौर से ‘शोयेब के लिये पोस्ट कर रहा हूँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ,
रहो किसी भी दशा-दिशा में,
तुम अपने बच्चों का प्यार हो माँ।
नरम सी बाहों में खुद झुलाया,
सुना के लोरी हमें सुलाया ,
जो नींद भर कर कभी न सोई,
जनम-जनम की जगार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
भले ही कांटों भरी हों गलियाँ,
जो तुम मिलीं तो मिली हैं कलियाँ,
तुम्हारी ममतामयी अंगुलियाँ,
बता रहीं हैं बहार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
किसी भी मौसम ने जब सताया,
उढ़ा के आँचल हमें बचाया,
हो सख्त जाड़े में धूप तुम ही
तपन में ठँढी फुहार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
दिया जो तुमने वो तन लपेटे,
तुम्हारी बेटी, तुम्हारे बेटे,
सदा तुम्हारे ऋणी रहेंगे,
जनम-जनम का उधार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया,
खुशी तनिक दी बहुत रुलाया,
मगर हमेशा ही प्यार पाया,
कठोर को भी उदार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
बड़ों ने जो भी यहाँ कहा है,
‘कुंवर’उसे कुछ यों कह रहा है,
ये सारी दुनिया है एक कहानी,
तुम इस कहानी का सार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ,
रहो किसी भी दशा-दिशा में,
तुम अपने बच्चों का प्यार हो माँ।
‘कुँवर बेचैन’ जी यह कविता पढ़ते समय मंच के आसपास किसी किस्म का व्यवधान नहीं पसन्द करते। पूरी तन्मयता से पढ़ते हैं जैसे पूजा कर रहे हों। उनकी माता का देहान्त तब हो गया था जब कुँवर बेचैन जी मात्र छह साल के थे। कम उम्र में माँ को खो देने का अभाव ही शायद उनके अपनी इस कविता से भावुक लगाव का कारण हो। ‘कुँवर बेचैन’ की यह कविता मैं खासतौर से ‘शोयेब के लिये पोस्ट कर रहा हूँ।
माँ
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ,
रहो किसी भी दशा-दिशा में,
तुम अपने बच्चों का प्यार हो माँ।
नरम सी बाहों में खुद झुलाया,
सुना के लोरी हमें सुलाया ,
जो नींद भर कर कभी न सोई,
जनम-जनम की जगार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
भले ही कांटों भरी हों गलियाँ,
जो तुम मिलीं तो मिली हैं कलियाँ,
तुम्हारी ममतामयी अंगुलियाँ,
बता रहीं हैं बहार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
किसी भी मौसम ने जब सताया,
उढ़ा के आँचल हमें बचाया,
हो सख्त जाड़े में धूप तुम ही
तपन में ठँढी फुहार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
दिया जो तुमने वो तन लपेटे,
तुम्हारी बेटी, तुम्हारे बेटे,
सदा तुम्हारे ऋणी रहेंगे,
जनम-जनम का उधार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
तुम्हारे दिल को बहुत दुखाया,
खुशी तनिक दी बहुत रुलाया,
मगर हमेशा ही प्यार पाया,
कठोर को भी उदार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ।
बड़ों ने जो भी यहाँ कहा है,
‘कुंवर’उसे कुछ यों कह रहा है,
ये सारी दुनिया है एक कहानी,
तुम इस कहानी का सार हो माँ।
अभी उफनती हुई नदी हो,
अभी नदी का उतार हो माँ,
रहो किसी भी दशा-दिशा में,
तुम अपने बच्चों का प्यार हो माँ।
Posted in कविता, मेरी पसंद | 7 Responses
प्रेमलता
बहुत वर्षों पहले रघुपति सहाय ” फ़िराक गोरखपुरी” ( जिनकी माँ का निधन शायद उन्हें जन्म देते ही हो गया था) की कविता ” माँ” पढी़ थी कविता याद नहीं है पर उसके भाव अभी तक याद है, इतनी सुन्दर कविता कभी नहीं पढ़ी। अगर आप ने पढी़ हो तो कृपया अपने चिठ्ठे पर प्रकाशित करावें।
शब्द शायद कुछ यूँ थे
वो माँ जो मुझे अपनी गोदी में खिला ना सकी….
बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी माँ
याद आती है चौका बासन
चिमटा फुकनी जैसी माँ
बान की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोयी आधी जागी
थकी दुपहरी जैसी माँ
चिडियों की चहकार में गूँजे
राधा मोहन अली अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी माँ
बीवी बेटी बहन पडोसन
थोडी थोडी सी सब में
दिनभर एक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी माँ
बाँट के अपना चेहरा माथा
आँखें जाने कहाँ गईं
फटे पुराने इक अलबम में
चँचल लडकी जैसी माँ