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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
ग़ज़ल क्या है…
[कानपुर में जब समीरलाल जी से मुलाकात हुई तो वे ग़जल के बारे में
जानकारी के लिये कोई सामग्री खोज रहे थे। हमारे पास उस समय तो कुछ नहीं
मिला लेकिन खोजने पर बाद में हमारे पास 'आइना-ए-ग़ज़ल'
किताब मिली। इस किताब को हमने नेट पर देबाशीष के ब्लाग 'नुक्ताचीनी' में
भी देखा था तथा अपने ब्लाग पर भी लगाया था। इसमें रोज शेर अपने आप बदल जाता
था। इसी से हमने ग़ज़ल के बारे में यह लेख लिखा। वैसे पहले भी हमारे रमण कौल ग़ज़ल के बारे में लिख
चुके हैं। इस लेख में भी कुछ नया नहीं है लेकिन फिर से इसे टाइप किया
क्योंकि इस लेख में कुछ विस्तार से जानकारी दी गयी है। जानकारी के लिये बता
दें कि यह लेख डा.अर्शद जमाल ने 'आइना-ए-ग़ज़ल' के लिये लिखा था।
आईना-ए-ग़ज़ल में उर्दू के करीब साढ़े चार हजार शब्दों के हिन्दी-मराठी -अंग्रेजी अर्थ तथा समुचित शेर के माध्यम से हर शब्द का भाव समझाया गया है। 'आईना-ए-ग़ज़ल' डा.ज़रीना सानी तथा डा.विनय वाईकर की साझा मेहनत का नतीजा है।
डा. ज़रीना सानी विदर्भ की एक निहायत ज़हीन और पारखी महिला थीं। बेहद रुचि के साथ उन्होंने नागपुर के ग़ज़लप्रेमी डा.विनय वाईकर के साथ मिलकर इस ऊर्दू-हिंदी-मराठी-अंग्रेजी शब्दकोष का काम शुरू किया। दो साल के बाद उनका आकस्मिक निधन हो गया।
उर्दू और इस शब्दकोष से उनकी लगन का यह आलम था कि मरने से पहले उन्होंने डा. वाईकर से कहा ,'डाक्टर साहब,ग़ज़ल डिक्शनरी पूरी कर लीजियेगा।' यह उनके मुंह से निकला अंतिम वाक्य था। बाद में उनके शौहर जनाब अब्दुल हलीम सानी की कोशिशों तथा डा.विनय वाईकर के सक्रिय सहयोग से उर्दू डिक्शनरी का काम पूरा हुआ जिसे 'आईना-ए-ग़ज़ल' नाम दिया गया।
डा.विनय वाईकर ने 'आईना-ए-ग़ज़ल' के अलावा 'ग़ज़ल दर्पण' का भी प्रकाशन किया है। ग़ज़ल दर्पण में चुनिंदा ग़ज़लें तथा उनके मराठी में अर्थ दिये गये हैं। इसके अलावा उसमें तमाम सर्वकालीन शेर शामिल हैं।]
समालोचन
जब कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि ग़ज़ल क्या है तो सवाल सुन कर मन कुछ उलझन में पड़ जाता है। क्या यह कहना ठीक होगा कि ग़ज़ल जज़्बात और अलफ़ाज़ का एक बेहतरीन गंचा या मज्मुआ है? या यह कहें कि ग़ज़ल उर्दू शायरी की इज़्ज़त है,आबरू है? लेकिन यह सब कहते वक़्त मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या यह सच है! माना कि ग़ज़ल उर्दू काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय ,मधुर, दिलकश और रसीला अंदाज़ है मगर यह भी उतना ही सच है कि उर्दू साहित्य में ग़ज़ल हमेशा चर्चा का विषय भी रही है। एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर है कि लोगों के दिलों के नाजु़क तारों को छेड़ देती है और दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में ऐसी भावनाएं पैदा करती है कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इस ‘नंगे शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं। जनाब शमीम अहमद इसे मनहूस शैली की शायरी कहते हैं, और जनाब अज़्मतुल्लाखान साहब तो यह कहने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि ,’ग़ज़ल क़ाबिले गर्दन ज़दनी है’,यानी इसे जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिये। वैसे तो ‘ग़ालिब’
भी यह कहते हैं -
मेरे मन की उत्कट भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने के लिये ग़ज़ल का पटल बड़ा ही संकीर्ण है। मुझे साफ़ -साफ़ कहने के लिये किसी और विस्तृत माध्यम की आवश्यकता है।’
उर्दू के सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं आलोचक रशीद अहमद सिद्धीकी़ साहब ग़ज़ल को ‘आबरू-ए-शायरी’ बड़े फ़क्र के साथ कहते हैं। शायद यही सब बातें हैं कि ग़ज़ल आज तक क़ायम है और सामान्यत: सभी वर्गों में काफ़ी हद तक पसंद की जाती है।
ग़ज़ल पर्शियन और अरबी भाषाओं से उर्दू में आयी। ग़ज़ल का मतलब है औरतों से बातचीत अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता है कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण मतलब है माशूक़ से बातचीत का माध्यम। उर्दू के प्रख्यात साहित्यिक स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल की बड़ी ही भावपूर्ण परिभाषा लिखी है। आप कहते
हैं कि,’ जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता है और हिरन भागते समय किसी झाड़ी में फंस जाता है जहां से वह निकल नहीं पाता ,उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती है। उसी करुण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं। इसीलिये विवसता का दिव्यतम रूप प्रकट होना ,स्वर का करुणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श है।’
शुरुआत की ग़ज़लें कुछ इसी अंदाज़ की थीं। लगता था मानो वे स्त्रियों के बारे में ही लिखी गई हों। जैसे-
ग़ज़ल शेरों से बनती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की खा़स बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि
उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे शेर को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं।
मत्ला
ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’ कहते हैं। इसके दोनो मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘काफिया’ होता है। अगर ग़ज़ल के दूसरे
शेर की दोनों पंक्तियों में का़फ़िया तो उसे ‘हुस्ने मत्ला’ या ‘मत्ला-ए-सानी’ कहा जाता है।
क़ाफिया
वह शब्द जो मत्ले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ़ के पहले आये उसे ‘क़ाफ़िया’ कहते हैं। क़ाफ़िया बदले हुये रूप में आ सकता है। लेकिन यह ज़रूरी है कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर, तर, मर, डर, अथवा मकाँ,जहाँ,समाँ इत्यादि।
रदीफ़
प्रत्येक शेर में ‘का़फ़िये’ के बाद जो शब्द आता है उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ एक होती है। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’ कहा जाता है।
मक़्ता
ग़ज़ल के आख़री शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक़्ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आखरी शेर’ ही कहा जाता है। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं। निम्नलिखित ग़ज़ल के माध्यम से अभी तक ग़ज़ल के बारे में लिखी गयी बातें आसान हो जायेंगी।
इस ग़ज़ल का ‘क़ाफ़िया’ बर,नज़र,भर,ख़बर,मगर है। इस ग़ज़ल की ‘रदीफ़”नहीं आती’ है। यह हर शेर की दूसरी पंक्ति के आख़िर में आयी है। ग़ज़ल के लिये यह अनिवार्य है। इस ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मत्ला’ कहेंगे क्योंकि इसकी दोनों पंक्तियों में ‘रदीफ़’ और ‘क़ाफ़िया’ है। सब से आख़री शेर ग़ज़ल का ‘मक़्ता’ कहलायेगा क्योंकि इसमें ‘तख़ल्लुस’ है।
बह्र,वज़्न या मीटर(meter)
शेर की पंक्तियों की लंबाई के अनुसार ग़ज़ल की बह्र नापी जाती है। इसे वज़्न या मीटर भी कहते हैं। हर ग़ज़ल उन्नीस प्रचलित प्रचलित बहरों में से किसी एक पर आधारित होती है। बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण ग़ज़ल तीन बह्रों में से किसी एक में होती है-
(१)छोटी बह्र-
(३) लंबी बह्र-
हासिले-मुशायरा ग़जल-मुशायरे में जो सब से अच्छी ग़जल हो उसे ‘हासिले-मुशायरा ग़जल’ कहते हैं।
मेरी पसन्द
अगली पोस्ट में पढ़िये -ग़ज़ल का इतिहास
आईना-ए-ग़ज़ल में उर्दू के करीब साढ़े चार हजार शब्दों के हिन्दी-मराठी -अंग्रेजी अर्थ तथा समुचित शेर के माध्यम से हर शब्द का भाव समझाया गया है। 'आईना-ए-ग़ज़ल' डा.ज़रीना सानी तथा डा.विनय वाईकर की साझा मेहनत का नतीजा है।
डा. ज़रीना सानी विदर्भ की एक निहायत ज़हीन और पारखी महिला थीं। बेहद रुचि के साथ उन्होंने नागपुर के ग़ज़लप्रेमी डा.विनय वाईकर के साथ मिलकर इस ऊर्दू-हिंदी-मराठी-अंग्रेजी शब्दकोष का काम शुरू किया। दो साल के बाद उनका आकस्मिक निधन हो गया।
उर्दू और इस शब्दकोष से उनकी लगन का यह आलम था कि मरने से पहले उन्होंने डा. वाईकर से कहा ,'डाक्टर साहब,ग़ज़ल डिक्शनरी पूरी कर लीजियेगा।' यह उनके मुंह से निकला अंतिम वाक्य था। बाद में उनके शौहर जनाब अब्दुल हलीम सानी की कोशिशों तथा डा.विनय वाईकर के सक्रिय सहयोग से उर्दू डिक्शनरी का काम पूरा हुआ जिसे 'आईना-ए-ग़ज़ल' नाम दिया गया।
डा.विनय वाईकर ने 'आईना-ए-ग़ज़ल' के अलावा 'ग़ज़ल दर्पण' का भी प्रकाशन किया है। ग़ज़ल दर्पण में चुनिंदा ग़ज़लें तथा उनके मराठी में अर्थ दिये गये हैं। इसके अलावा उसमें तमाम सर्वकालीन शेर शामिल हैं।]
समालोचन
जब कभी यह प्रश्न पूछा जाता है कि ग़ज़ल क्या है तो सवाल सुन कर मन कुछ उलझन में पड़ जाता है। क्या यह कहना ठीक होगा कि ग़ज़ल जज़्बात और अलफ़ाज़ का एक बेहतरीन गंचा या मज्मुआ है? या यह कहें कि ग़ज़ल उर्दू शायरी की इज़्ज़त है,आबरू है? लेकिन यह सब कहते वक़्त मेरे मन में एक प्रश्न उठता है कि क्या यह सच है! माना कि ग़ज़ल उर्दू काव्य का एक अत्यंत लोकप्रिय ,मधुर, दिलकश और रसीला अंदाज़ है मगर यह भी उतना ही सच है कि उर्दू साहित्य में ग़ज़ल हमेशा चर्चा का विषय भी रही है। एक तरफ तो ग़ज़ल इतनी मधुर है कि लोगों के दिलों के नाजु़क तारों को छेड़ देती है और दूसरी ओर वही ग़ज़ल कुछ लोगों में ऐसी भावनाएं पैदा करती है कि जनाब कलीमुद्दीन अहमद साहब इस ‘नंगे शायरी’ यानी बेहूदी शायरी कहते हैं। जनाब शमीम अहमद इसे मनहूस शैली की शायरी कहते हैं, और जनाब अज़्मतुल्लाखान साहब तो यह कहने में ज़रा भी नहीं हिचकिचाते कि ,’ग़ज़ल क़ाबिले गर्दन ज़दनी है’,यानी इसे जड़ से उखाड़ फेंकना चाहिये। वैसे तो ‘ग़ालिब’
भी यह कहते हैं -
बक़द्रे शौक़ नहीं ज़र्फे़ तंगना-ए-ग़ज़ल,‘
कुछ और चाहिये वुसअत मेरे बयाँ के लिये।
मेरे मन की उत्कट भावनाओं को खुलकर व्यक्त करने के लिये ग़ज़ल का पटल बड़ा ही संकीर्ण है। मुझे साफ़ -साफ़ कहने के लिये किसी और विस्तृत माध्यम की आवश्यकता है।’
उर्दू के सुप्रसिद्ध साहित्यिक एवं आलोचक रशीद अहमद सिद्धीकी़ साहब ग़ज़ल को ‘आबरू-ए-शायरी’ बड़े फ़क्र के साथ कहते हैं। शायद यही सब बातें हैं कि ग़ज़ल आज तक क़ायम है और सामान्यत: सभी वर्गों में काफ़ी हद तक पसंद की जाती है।
ग़ज़ल पर्शियन और अरबी भाषाओं से उर्दू में आयी। ग़ज़ल का मतलब है औरतों से बातचीत अथवा औरतों के बारे में बातचीत करना। यह भी कहा जा सकता है कि ग़ज़ल का सर्वसाधारण मतलब है माशूक़ से बातचीत का माध्यम। उर्दू के प्रख्यात साहित्यिक स्वर्गीय रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ गोरखपुरी साहब ने ग़ज़ल की बड़ी ही भावपूर्ण परिभाषा लिखी है। आप कहते
हैं कि,’ जब कोई शिकारी जंगल में कुत्तों के साथ हिरन का पीछा करता है और हिरन भागते समय किसी झाड़ी में फंस जाता है जहां से वह निकल नहीं पाता ,उस समय उसके कंठ से एक दर्द भरी आवाज़ निकलती है। उसी करुण स्वर को ग़ज़ल कहते हैं। इसीलिये विवसता का दिव्यतम रूप प्रकट होना ,स्वर का करुणतम हो जाना ही ग़ज़ल का आदर्श है।’
शुरुआत की ग़ज़लें कुछ इसी अंदाज़ की थीं। लगता था मानो वे स्त्रियों के बारे में ही लिखी गई हों। जैसे-
ख़बरू ख़ूब काम करते हैं,या
इक निगाह सू ग़ुलाम करते हैं। -वली दकनी
नाज़ुकी उसके लब की क्या कहियेलेकिन जैसे जैसे समय बीता ग़ज़ल का लेखन पटल बदला,विस्तृत हुआ और अब तो ज़िन्दगी का कोई पहलू ऐसा नहीं है जिस पर ग़ज़ल न लिखी गई हो।
पंखुड़ी एक गुलाब की सी है।- मीर
सिगरेट जला के मैं जो ज़रा मुत्मइन हुआ,या
चारों तरफ से उसको बुझाने चली हवा।- मिद्हतुल अख़्तर
सिगरेट ,गिलास,चाय का कप और नन्हा लैंपग़ज़ल का विष्लेषण
सामाने -शौक़ है ये बहम मेरी मेज पर।- ज़हीर ग़ाजीपुरी
ग़ज़ल शेरों से बनती है। हर शेर में दो पंक्तियाँ होती हैं। शेर की हर पंक्ति को मिसरा कहते हैं। ग़ज़ल की खा़स बात यह है कि उसका प्रत्येक शेर अपने आप में एक सम्पूर्ण कविता होता है और उसका संबंध ग़ज़ल में आने वाले अगले,पिछले अथवा अन्य शेरों से हो ,यह ज़रुरी नहीं। इसका अर्थ यह हुआ कि किसी ग़ज़ल में अगर २५ शेर हों तो यह कहना गलत न होगा कि
उसमें २५ स्वतंत्र कवितायें हैं। शेर के पहले मिसरे को ‘मिसर-ए-ऊला’ और दूसरे शेर को ‘मिसर-ए-सानी’ कहते हैं।
मत्ला
ग़ज़ल के पहले शेर को ‘मत्ला’ कहते हैं। इसके दोनो मिसरों में यानि पंक्तियों में ‘काफिया’ होता है। अगर ग़ज़ल के दूसरे
शेर की दोनों पंक्तियों में का़फ़िया तो उसे ‘हुस्ने मत्ला’ या ‘मत्ला-ए-सानी’ कहा जाता है।
क़ाफिया
वह शब्द जो मत्ले की दोनों पंक्तियों में और हर शेर की दूसरी पंक्ति में रदीफ़ के पहले आये उसे ‘क़ाफ़िया’ कहते हैं। क़ाफ़िया बदले हुये रूप में आ सकता है। लेकिन यह ज़रूरी है कि उसका उच्चारण समान हो, जैसे बर, गर, तर, मर, डर, अथवा मकाँ,जहाँ,समाँ इत्यादि।
रदीफ़
प्रत्येक शेर में ‘का़फ़िये’ के बाद जो शब्द आता है उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ एक होती है। ऐसी ग़ज़लों को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’ कहा जाता है।
मक़्ता
ग़ज़ल के आख़री शेर को जिसमें शायर का नाम अथवा उपनाम हो उसे ‘मक़्ता’ कहते हैं। अगर नाम न हो तो उसे केवल ग़ज़ल का ‘आखरी शेर’ ही कहा जाता है। शायर के उपनाम को ‘तख़ल्लुस’ कहते हैं। निम्नलिखित ग़ज़ल के माध्यम से अभी तक ग़ज़ल के बारे में लिखी गयी बातें आसान हो जायेंगी।
कोई उम्मीद बर नहीं आती।
कोई सूरत नज़र नहीं आती।।१
मौत का एक दिन मुअय्यन है।
नींद क्यों रात भर नहीं आती।।२
आगे आती थी हाले दिल पे हंसी।
अब किसी बात पर नहीं आती।।३
हम वहां हैं जहां से हमको भी।
कुछ हमारी खबर नहीं आती।।४
काबा किस मुंह से जाओगे ‘गा़लिब’।
शर्म तुमको मगर नहीं आती।।५
इस ग़ज़ल का ‘क़ाफ़िया’ बर,नज़र,भर,ख़बर,मगर है। इस ग़ज़ल की ‘रदीफ़”नहीं आती’ है। यह हर शेर की दूसरी पंक्ति के आख़िर में आयी है। ग़ज़ल के लिये यह अनिवार्य है। इस ग़ज़ल के प्रथम शेर को ‘मत्ला’ कहेंगे क्योंकि इसकी दोनों पंक्तियों में ‘रदीफ़’ और ‘क़ाफ़िया’ है। सब से आख़री शेर ग़ज़ल का ‘मक़्ता’ कहलायेगा क्योंकि इसमें ‘तख़ल्लुस’ है।
बह्र,वज़्न या मीटर(meter)
शेर की पंक्तियों की लंबाई के अनुसार ग़ज़ल की बह्र नापी जाती है। इसे वज़्न या मीटर भी कहते हैं। हर ग़ज़ल उन्नीस प्रचलित प्रचलित बहरों में से किसी एक पर आधारित होती है। बोलचाल की भाषा में सर्वसाधारण ग़ज़ल तीन बह्रों में से किसी एक में होती है-
(१)छोटी बह्र-
अहले दैरो-हरम रह गये।(२) मध्यम बह्र-
तेरे दीवाने कम रह गये।
उम्र जल्वों में बसर हो ये ज़रूरी तो नहीं।
हर शबे-ग़म की सहर हो ज़रूरी तो नहीं।।
(३) लंबी बह्र-
ऐ मेरे हमनशीं चल कहीं और चल इस चमन में अब अपना गुज़ारा नहीं।हासिले-ग़ज़ल शेर-ग़ज़ल का सबसे अच्छा शेर ‘हासिले-ग़ज़ल-शेर’ कहलाता है।
बात होती गुलों की तो सह लेते हम अब तो कांटों पे भी हक़ हमारा नहीं।।
हासिले-मुशायरा ग़जल-मुशायरे में जो सब से अच्छी ग़जल हो उसे ‘हासिले-मुशायरा ग़जल’ कहते हैं।
मेरी पसन्द
सब रिश्ते नाते छूट गये, जब यार ने मुझसे रुख्सत ली।-विनय वाईकर
अल्फ़ाज़ मेरे खा़मोश रहे,अश्कों ने बगावत कर डाली।।१ सोचा कि रिहा हो गुलशन की हर शाख नुकीले काँटों से।
पत्तों ने मुझसे नफ़रत की,कलियों ने बगावत कर डाली।।२
तपते हुये दिल के ज़ख़्मों ने जब चांद से कुछ राहत मांगी।
इक चांद अकेला क्या करता,किरणों ने बगावत कर डाली।।३
दुख दर्द भरी इस दुनिया को सोचा कि जलाकर ख़ाक करूं।
ये बात भला मैं कैसे कहूं,शोलों ने बगावत कर डाली ।।४
जब कश्ती साबितो-सालिम थी और मंज़िल चार कदम पर थी।
मल्लाह बेचारे क्या करते, मौजों ने बगावत कर डाली ।।५
जब अम्नो-अमाँ का आलम था और आहो-फ़ग़ाँ का नाम न था।
तब ऐसे सुकूँ से उकताकर, लोगों ने बगावत कर डाली।।६
अगली पोस्ट में पढ़िये -ग़ज़ल का इतिहास
Posted in बस यूं ही | 9 Responses
(roman mein likhne ke liye kshmaa yachna)
–Manoshi
स्थानीय अखबारों में छपने वाले, भारतीय सेना में गुज़ारे दिनों के, उनके संस्मरण बडे रोचक हुआ करते थे.
यार आइना ए गज़ल तो हम भी ढूंढ रहे है, ये हमारी विश लिस्ट में है और हमारा जन्मदिन सितम्बर मे आता है।(यदि किसी की इच्छा है तो इसी महीने भी मना लेंगे)
शुक्रिया। हमने ऐसी ही कुछ पोस्ट पहले भी यहीं कहीं पढ़ी थी…शायद आपके ही चिट्ठे पर काफ़ी पहले..पर याद ताज़ा करने के लिये शुक्रिया
aaine ke samne pichke galo per karim lagai
sunte sunte khi aesa na ho jaye
balo ka rang sfed se kala na ho jaye