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अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
चिट्ठाचर्चा,नारद और ब्लाग समीक्षा
दो दिन पहले रविरतलामीजी ने मेरी पोस्ट पर वाह-वाही टिप्पणी करते हुये आह्वान किया:-
तारीफ़ का एक अन्दाज मानकर हम इसे हाजमोला खाकर पचा गये। वैसे भी जिनका आप किसी न किसी कारणवश सम्मान करते हैं, चाहे वह उम्र के कारण हो या सीनियरिटी के कारण या उनके ज्ञान या व्यवहार के कारण, जब वे करबद्द कुछ भी करते हैं (चाहे प्रार्थना ही करें) तो ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने हाथ तो बांध लिये हैं लेकिन इसके पहले अगले की गरदन भी दबा ली है। दबी है गरदन बंधे हुये हाथों के बीच। गरदन पर दबाब हाथ के बंधाव के समानुपाती होता है।
चिट्ठाचर्चा के बारे में मैंने बताया कि और साथी आ जायेंगे कुछ दिन में तब मेरा काम कम हो जायेगा। हमें लगा रवि रतलामी जी और हमारा दोनों का काम हो गया है। उन्होंने तारीफ कर दी हम विनम्रता से सकुचा गये। लेकिन बाद में रत्नाजी ने भी दबाव बढ़ाया कि नारदजी आ ही गये हैं तो अब काहे उधम मचा रहे हो! हम इस बाउंसर को भी गर्दन झुकाकर ‘डक’ कर गये यह सोचकर कि शायद रत्नाजी ने इसलिये भी ऐसा लिखा कि कहीं रविरतलामी जी अकेलापन न महसूस करनें लगें हमारी- तारीफ और नारदजी के बारे में अपने विचार के संबंध में।
अल्ला-अल्ला,खैर सल्ला मनाते हुये हम चुप हो गये कि तब तक रवि रतलामी ने अपना दूसरा मार दिया:-
अभी हम जवाब देने के लिये ‘डू आर नाट टु डू’ के अर्दभ में फंसे ही थे कि उधर से सृजन शिल्पी जी ने अपना ह्र्दय मुक्त कर दिया और तारीफ करके हमें फुला दिया। चूंकि वे हमारे शुभचिंतक भी हैं इसलिये उन्होंने हमें फूलकर गुब्बारा होकर फूटने से बचाने के लिये हमें बहुत काबिल मानते हुये अपेक्षाऒं का जुआं हमारे ऊपर धर दिया:-
यह चुनौती ऐसी थी कि हमारे रवि भाई भी ‘बूहूहू’ करने लगे।
हालांकि सृजनशिल्पी जी कुछ भी गलत नहीं लिखा था। कुछ तथ्यात्मक चूक के अलावा उनकी सारी बातें काबिले गौर और उत्साह बढा़ने वाली थीं लेकिन हमारे भैये पंकज( कहीं फिर नाम न गड़बड़ा गया हो) को कुछ ऐसा लगा कि सृजनशिल्पी के यह कहने का मतलब यह है कि चिट्ठाचर्चा के स्तर में कुछ लोचा है और इसके लिये वे भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। कुछ खिन्न से भी थे वे यह सोचकर। पंकज की खिन्नता देखकर हमें तत्काल कन्हैयालाल नंदन की कविता याद आई। इस कविता में अर्जुन भगवान कृष्ण से (जब वे अर्जुन से यह कहकर कि तुम्हारे योग और क्षेम का वहन मैं करूंगा कहते हुये युद्ध् करने के लिये उपदेश देते हैं) कहते हैं :-
शाम होते-होते हमारे कुंडलियाकिंग समीरलालजी की भगवान से मुलाकात पढ़ी। यहां भी नारद जी वीणा बजा रहे थे और चिट्ठाचर्चा के साथ एकता के गीत गा रहे थे। जब सब तरफ से हम एक हैं, हममें कोई झगड़ा नहीं है, की चहल-पहल होती है तो स्वाभाविकत: लोग सूंघते हैं माज़रा क्या है! हमने भी सोचा बात क्या है भाई!
आज राकेश खंडेलवाल जी के द्वारा कविता में चिट्ठाचर्चा देखकर मन बहुत खुश हुआ और मन किया कि एक पोस्ट इसी खुशी में काहे न लिखी जाये!
पहले कुछ तथ्यात्मक बातें बता क्या, दोहरा दें, तो बेहतर रहेगा।
चिट्ठाचर्चा की शुरुआत गतवर्ष जनवरी में हुयी थी। इसकी शुरुआत के कारण और परिस्थितियां इसकी पहली पोस्ट में बताये गये हैं। उस समय न नारद शुरू हुआ था न देसीपंडित। शुरू में यह मासिक सा था और काफ़ी दिन हम अकेले इसे लिखते रहे। जीतू, अतुल, देबू, रमणकौल समय-समय पर इसमें कुछ न कुछ योगदान देते रहे। पहले हम यह करते थे कि बारी-बारी से अपने-अपने हिस्से का लिखकर एक ही पोस्ट में प्रकाशित कर देते थे। धीरे-धीरे साथियों का उत्साह कम होता गया और यह अनियमित होता गया।
फिर देबाशीष ने इसे चिट्ठाविश्वमें लगाया और वह कुछ दिन वहां दिखता रहा और लोगों को कुछ रुचि हुयी। उस समय भी मुख्य रूप से मैं और देबाशीष ही इसे लिखते रहे।
बाद में नारद के आने पर मुझे यह अप्रासंगिक लगने लगा (जैसे अभी आपको लग रहा है रवि भाई)। इसका कारण मेरा अकेले लिखना और लोगों की कोई प्रतिक्रिया न होना था। मैंने सोचा कि क्या बेकार लोगों को परेशान करूं! और मैंने इसे लिखना बंद कर दिया।
कुछ दिन बाद मुझे फिर से लगा कि मेरा सोचना शायद सही नहीं था और यह चलना चाहिये। उस समय मेरा विचार विस्तार से कुछ पोस्टों की चर्चा/समीक्षा करने का था( जैसी शायद आपकी सोच/सुझाव है सृजनशिल्पीजी)। हम अपना शिल्प/अंदाज़ तय कर सकें तब तक नारदजी बैठ गये और समय की मांग के अनुसार हमारी प्राथमिकतायें बदलीं तथा हम लोगों के लिये नये प्रकाशित होने चिट्ठों की जानकारी देने का जरिया बन गये। और यही कारण शायद रहा कि कुछ साथी चिट्ठाचर्चा को नारद की अनुपस्थिति में हुई अस्थायी व्यवस्था मात्र मानते हैं।
उस दौरान हम लोग लगभग तीन सौ ब्लाग रोज देखते रहे और नयी पोस्टों की चर्चा का प्रयास करते रहे। यह वाकई मेहनत का काम था और हम लोग यह करते रहे तो सिर्फ इसलिये कि लोगों तक नये लिखे चिट्ठों की जानकारी पहुंचाने का काम कर सकें। इस काम से मिला सुकून ही हमारे लिये बहुत था। फिर जीतू की नारद की टेस्ट साइट से हमारा काम और भी आसान हो गया। लेकिन अभी भी एक पोस्ट लिखने में दो-तीन घंटे लग ही जाते हैं।
अतुल तो हमारे साथ पहले से ही थे फिर समीरलाल, रविरतलामी, पंकज बेंगाणी के जुड़ने से इसमें विविधता आयी। सच तो यह है कि इनके और अब आज राकेश
खंडेलवाल जी के जुड़ने से मुझे इसके महत्व का अंदाजा लगा। यह भी अहसास हुआ, फिर से, कि साथ में- मिलजुलकर काम करने का मजा ही कुछ और है। अकेले में आप कितने ही बड़े तीसमार खां क्यों न हों आप रहते अकेले ही हैं। न कोई आपकी खुशी में शरीक होता है और न ही कोई आपके दुख बांटता है।
प्रसंगवश बता दूं कि राकेशजी को लिंक लगाने की जानकारी अभी नहीं थी। इसकी कमी पूरी की समीरलाल जी ने और फोन से या न जाने कैसे-कैसे उनको बताया कि ऐसे लिंक लगायें और ऐसे फोटो तब उन्होंने आज यह किया।
हमारे नयन दुलारे बोले तो ‘ब्लू आइड व्बाय’, पंकज बेंगाणी के माध्यम से हमें पता चला कि गुजराती में भी गजलें लिखीं जाती हैं और उनकी पोस्ट पर तमाम नये गुजराती चिट्ठाकार आभार प्रकट कर रहे हैं तथा यह पूछ रहे हैं कि उर्दू से गुजराती शब्दकोष कैसे बनायें। नारद या अन्य किसी आटोमैटिक व्यवस्था में इस तरह की गुफ्तगू शायद न हो पाये या कम हो।
देबाशीष हमारे छटपटा रहे हैं कि उनके घर में अभी नेट नहीं उपलब्ध है और इसीलिये न वे बावजूद तमाम तैयारियों के निरंतर निकाल पा रहे हैं और न ही चिट्ठाचर्चा में योगदान दे पा रहे हैं। कुछ दिन मे हर शनिवार वे चिट्ठाचर्चा में योगदान देंगे। आजकल देबू आफिस में कुछ ज्यादा ही व्यस्त हैं और एकाध दिन तो रात के तीन बजे घर पहुंचे। इसके बावजूद उन्होंने चिट्ठाचर्चा के टेम्पलेट में आकर्षक बदलाव किया।
अभी तक नारद के पुनर्जन्म में लगे रहे हमारे जीतेंद्र चौधरी इसी इतवार से चिट्ठाचर्चा में अपनी पारी की दुबारा शुरुआत करने वाले हैं। पहले भी वे हिंदी में लिखने के अलावा सिंधी ब्लाग और फोटो ब्लाग के बारे में लिखते थे।
इस तरह हमारे सामान्य हालत मे मेरे जिम्में हफ्ते में केवल एक ही दिन बचा है-गुरुवार। वह मैं आराम से कर सकता हूं।
साथी लोगों की इतनी जुड़ाव की भावना के बाद हमें कहां से यह हक है कि हम चिट्ठाचर्चा बंद कर दें? हम कैसे कह दें कि अब हम केवल धांसू पोस्ट लिखेंगे-
चिट्ठाचर्चा नहीं। हमारा ऐसा कोई अधिकार नहीं बनता। सच तो यह है कि हमारे सभी साथी दिग्गज हैं और उनका अपना पाठक वर्ग है। चाहे वे कुंडलिया किंग, समीरलाल हों या व्यंजल नरेश रविरतलामी, पंकज के ताऊ जीतेंन्द्र चौधरी हों या इंडीब्लागर विजेता अतुल, गीत सम्राट राकेश खंडेलवाल हों या फिर हिंदी ब्लागजगत के पितामह की नाम-उपाधि से विभूषित देबाशीष चक्रवर्ती, हमारे मास्टर साहब पंकज बेंगाणी या फिर हम बोले तो फुरसतिया ही काहे न हों सबका अपना-अपना पाठक वर्ग है और यह हो ही नहीं सकता कि ऐसे लोग मन से किसी सामूहिक काम में जुटे और वह काम न हो या स्तरहीन हो।
पता नहीं कैसे लोगों को यह लगा कि नारद के आने से चिट्ठाचर्चा बंद हो जाना चाहिये। नारद का मह्त्व अलग है, चिट्ठाचर्चा के उद्देश्य अलग हैं। दोनों बराबरी और तुलना की बात करना मेरे ख्याल में दोनों के साथ अन्याय करना होगा। अगर समानता की बात ही करें तो शायद यह कहना ठीक होगा कि अगर नारद एक लोकप्रिय और जरूरी समाचार पत्र है तो चिट्ठाचर्चा उसका तीसरा पन्ना मतलब सम्पादकीय पेज। दोनॊं का अपना महत्व है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं न कि एक दूसरे के स्थानापन्न।
नारद में अन्य तमाम सूचनाऒं के साथ-साथ नयी पोस्टों का विवरण रहता है। यह आटोमैटिक और यांत्रिक है जबकि चिट्ठाचर्चा व्यक्तिपरक है। हर एक को उत्सुकता रहती है कि चिट्ठाचर्चा में मेरी पोस्ट के बारे में क्या लिखा चर्चा करने वाले ने? आदि चिट्ठाकार आलोक को उत्सुकता रहती है कि आज की टिप्पणी में क्या आया और आज का फोटो में किसकी फोटो है? अगर चिट्ठाचर्चा में हम केवल हिंदी चिट्ठोंकी बात करें तो नारद से तुलना ठीक भी है लेकिन उसमें तो हम अंग्रेजी चिट्ठे की भी चर्चा करते हैं और पोस्टसीक्रेट जैसे ब्लाग के बारे में भी जानकारी देते हैं।
पहले हमें लगता था कि इसे हिंदी तक ही रख पायेंगे लेकिन अब पंकज के गुजराती ब्लाग की चर्चा से लगा कि हम सारी भारतीय भाषाऒं के ब्लाग की चर्चा हिंदी में कर सकते हैं और मेरे ख्याल से करना भी चाहिये। अफलातूनजी शायद किसी उड़िया ब्लागर को पटा भी रहे हैं।
तो मुझे तो नहीं लगता कि ऐसे में जबकि हमारे सबसे बेहतरीन चिट्ठाकार चिट्ठाचर्चा से जुड़े़ हों और सक्रिय हों तो इसे बंद करने की बात सोची जानी चाहिये।
अब बात समीक्षा की। जैसे शिल्पी जी कीचिंताथी। मेरा मानना है कि समीक्षा हमेशा व्यक्ति सापेक्ष होती है।
यह सही है कि ब्लाग के संदर्भ में अभी इसका मानकीकरण नहीं हुआ है लेकिन अगर ध्यान से चर्चायें देखें तो चर्चा करने वाले के रुझान और बेहतर पोस्ट और आम पोस्ट का अंतर साफ दिखता है चर्चा में। मेरी एक पोस्ट में जब मैं विस्तार से प्रत्यक्षाजी और फिर मनीष की पुस्तक चर्चा वाली पोस्ट की चर्चा करता हूं तो अनजाने में ही मैं एक रेखांकित करने वाली पोस्ट का जिक्र करके उसको उल्लेखनीय बता रहा हूं। अनुदित और दूसरे लेखकों की रचनाऒं पर मौलिक पोस्ट की तुलना में कम चर्चा होती है मेरे ख्याल में। तो ये समीक्षा के सिद्धांत अनजाने में पालन किये जा रहे हैं।
समीक्षा के विचार व्यक्ति परक होते हैं इसका उदाहरण अभी पिछले दिनों दिखा। वागर्थ के नवलेखन विशेषांक में चर्चित युवा लेखक कुणाल सिंह की एक कहानी छपी थी- साइकिल। इस कहानी में नायक युवा है और वह अपनी प्रौढ़ा, विधवा चाची की तुलना साइकिल से करता है और यौन संबंध भी (जहां तक मुझे याद है)बनाता है। इस कहानी के शिल्प, कथा शैली और बोल्डनेस पर प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह मुरीद से हो गये और कहानी तथा लेखक की बहुत तारीफ की।
कुछ अंक बाद ही एक युवा आलोचक ने कहानी की सोच, काशीनाथ सिंह की समझ की आलोचना की तथा यह बताया कि कहानी पतनशील मूल्यों की स्थापना करती है और जाने-अनजाने एक महिला को साइकिल के बराबर खड़ा कर देती है। यह् अंदाज़ सब कुछ बिकाऊ है की बाजारू सोच की स्थापना करता है और भारतीय समाज में, जहां चाची का दर्जा मां के बराबर है, गलत संस्कारों को बढ़ावा देने का कारण बनता है। इसी तरह की और तमाम बातें बताकर एक युवा आलोचक ने तमाम बुढ़ऊ कथाकारों, आलोचकों के, मेरी समझ में, धुर्रे उड़ा दिये और अभी तक उस समीक्षा के जवाब में कुछ नहीं छपा है।
तो मेरा तो यही मानना है कि समय सारी दिशा तय करेगा। जो ब्लाग बंद किये जाने की घोषणा करने के बाद नियमित हो जाये और जिस ब्लाग से हिंदी ब्लाग जगत के वो धुरंधर जुड़े हों जिनका लेखन, योगदान अपने आप में मिसाल हो, उसके बारे में और तमाम अटकलें लगाई जा सकती हों लेकिन बंद करने की बात करना किसी एक के लिये मुमकिन नहीं है।
यह पोस्ट बावजूद तमाम सावधानियों के कुछ गरिष्ठ हो गयी है। लेकिन अब हो गयी तो हो गयी -क्या करें?
हमारे नियमित लेखक साथी हैं:-
यह पोस्ट खत्म करने के पहले एक बात अतुल की तरफ़ से। अतुल का सोचना है कि प्रतिदिन अच्छी पोस्ट का चुनाव होना चाहिये और फिर उनमें से माह/ साल की सबसे अच्छी पोस्ट का चुनाव किया जाये और उस चिट्ठाकार को सम्मानित किया जाये, इनाम दिये जायें।
आपकी क्या राय है इस मुद्दे पर? किया जाय यह सब? अगर हां तो कैसे? अगर नहीं तो क्यों?
इसके अलावा और किसी मुद्दे पर आपकी कोई राय/सुझाव है क्या चिट्ठाचर्चा को और उपयोगी,बेहतर बनाने के लिये?
मेरी पसंद
फुरसतिया से एक करबद्ध प्रार्थना है. काहे को वे अपनी ऊर्जा चिट्ठा चर्चा में वेस्ट करते हैं. उसके बदले वे नित्य इसी तरह की धुँआधार पोस्ट लिखा करें.
तारीफ़ का एक अन्दाज मानकर हम इसे हाजमोला खाकर पचा गये। वैसे भी जिनका आप किसी न किसी कारणवश सम्मान करते हैं, चाहे वह उम्र के कारण हो या सीनियरिटी के कारण या उनके ज्ञान या व्यवहार के कारण, जब वे करबद्द कुछ भी करते हैं (चाहे प्रार्थना ही करें) तो ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने हाथ तो बांध लिये हैं लेकिन इसके पहले अगले की गरदन भी दबा ली है। दबी है गरदन बंधे हुये हाथों के बीच। गरदन पर दबाब हाथ के बंधाव के समानुपाती होता है।
चिट्ठाचर्चा के बारे में मैंने बताया कि और साथी आ जायेंगे कुछ दिन में तब मेरा काम कम हो जायेगा। हमें लगा रवि रतलामी जी और हमारा दोनों का काम हो गया है। उन्होंने तारीफ कर दी हम विनम्रता से सकुचा गये। लेकिन बाद में रत्नाजी ने भी दबाव बढ़ाया कि नारदजी आ ही गये हैं तो अब काहे उधम मचा रहे हो! हम इस बाउंसर को भी गर्दन झुकाकर ‘डक’ कर गये यह सोचकर कि शायद रत्नाजी ने इसलिये भी ऐसा लिखा कि कहीं रविरतलामी जी अकेलापन न महसूस करनें लगें हमारी- तारीफ और नारदजी के बारे में अपने विचार के संबंध में।
अल्ला-अल्ला,खैर सल्ला मनाते हुये हम चुप हो गये कि तब तक रवि रतलामी ने अपना दूसरा मार दिया:-
…नारद फिर से बढ़िया काम करने लगा है,बेहतर है चिट्ठा चर्चा सप्ताह में एक बार पठनीय पोस्टों का विवरण दें, नाकि नारद पर आने वाली पोस्टों की “रनिंग कमैन्टरी”…अब तारीफ़ की बात खत्म और मुद्दे की बात शुरू हो गयी थी कि नारद के आने पर चिट्ठाचर्चा की क्या जरूरत! गोया नारद और चिट्ठाचर्चा एक म्यान में दो तलवारे हों। हमें अगर आश्चर्य भी हुआ हो तो किंआश्चर्यम्।
मेरा यही कहना था. जिन्हें जो चिट्ठा पढ़ना है, वे तो ढूंढ कर पढ़ेंगे, फरमाइशी लिखवाएँगे. जिन्हें नहीं पढ़ना है, कितनी ही चर्चा कर लें, नहीं ही पढ़ेंगे.
पुनर्विचार हेतु आवेदन प्रस्तुत
अभी हम जवाब देने के लिये ‘डू आर नाट टु डू’ के अर्दभ में फंसे ही थे कि उधर से सृजन शिल्पी जी ने अपना ह्र्दय मुक्त कर दिया और तारीफ करके हमें फुला दिया। चूंकि वे हमारे शुभचिंतक भी हैं इसलिये उन्होंने हमें फूलकर गुब्बारा होकर फूटने से बचाने के लिये हमें बहुत काबिल मानते हुये अपेक्षाऒं का जुआं हमारे ऊपर धर दिया:-
चिट्ठों की गुणवत्तापरक ‘रेटिंग’ तय करने का दायित्व ‘चिट्ठाचर्चा’ के लेखकों का है। ‘चिट्ठाचर्चा’ पर ऐसी समीक्षा किस काम की, जब उसको पढ़ने के बाद पाठक मूल चिट्ठे पर जाकर किसी पठनीय प्रविष्टि को पढ़ने के लिए प्रेरित न हो सकें!
यह चुनौती ऐसी थी कि हमारे रवि भाई भी ‘बूहूहू’ करने लगे।
हालांकि सृजनशिल्पी जी कुछ भी गलत नहीं लिखा था। कुछ तथ्यात्मक चूक के अलावा उनकी सारी बातें काबिले गौर और उत्साह बढा़ने वाली थीं लेकिन हमारे भैये पंकज( कहीं फिर नाम न गड़बड़ा गया हो) को कुछ ऐसा लगा कि सृजनशिल्पी के यह कहने का मतलब यह है कि चिट्ठाचर्चा के स्तर में कुछ लोचा है और इसके लिये वे भी कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। कुछ खिन्न से भी थे वे यह सोचकर। पंकज की खिन्नता देखकर हमें तत्काल कन्हैयालाल नंदन की कविता याद आई। इस कविता में अर्जुन भगवान कृष्ण से (जब वे अर्जुन से यह कहकर कि तुम्हारे योग और क्षेम का वहन मैं करूंगा कहते हुये युद्ध् करने के लिये उपदेश देते हैं) कहते हैं :-
योग और क्षेम केमतलब कि हम सृजनशिल्पी जी से कहें कि भैये, आप हमें रास्ता बताये हो तो आगे भी चलो और बताओ कि कैसे लिखा जाये चिट्ठाचर्चा (और हमने अनुरोध भी किया) लेकिन उनकी पोस्ट की भावना को उचित समझकर हमने ऐसा करना उचित नहीं समझा। इस बारे में अपना लिखने का विचार मटिया दिया।
ये पारलौकिक कवच मुझे मत पहनाऒ
अगर हिम्मत है तो
खुलकर सामने आऒ
और जैसे मेरी जिंदगी दांव पर लगी है
वैसे ही तुम भी लगाओ।
शाम होते-होते हमारे कुंडलियाकिंग समीरलालजी की भगवान से मुलाकात पढ़ी। यहां भी नारद जी वीणा बजा रहे थे और चिट्ठाचर्चा के साथ एकता के गीत गा रहे थे। जब सब तरफ से हम एक हैं, हममें कोई झगड़ा नहीं है, की चहल-पहल होती है तो स्वाभाविकत: लोग सूंघते हैं माज़रा क्या है! हमने भी सोचा बात क्या है भाई!
आज राकेश खंडेलवाल जी के द्वारा कविता में चिट्ठाचर्चा देखकर मन बहुत खुश हुआ और मन किया कि एक पोस्ट इसी खुशी में काहे न लिखी जाये!
पहले कुछ तथ्यात्मक बातें बता क्या, दोहरा दें, तो बेहतर रहेगा।
चिट्ठाचर्चा की शुरुआत गतवर्ष जनवरी में हुयी थी। इसकी शुरुआत के कारण और परिस्थितियां इसकी पहली पोस्ट में बताये गये हैं। उस समय न नारद शुरू हुआ था न देसीपंडित। शुरू में यह मासिक सा था और काफ़ी दिन हम अकेले इसे लिखते रहे। जीतू, अतुल, देबू, रमणकौल समय-समय पर इसमें कुछ न कुछ योगदान देते रहे। पहले हम यह करते थे कि बारी-बारी से अपने-अपने हिस्से का लिखकर एक ही पोस्ट में प्रकाशित कर देते थे। धीरे-धीरे साथियों का उत्साह कम होता गया और यह अनियमित होता गया।
फिर देबाशीष ने इसे चिट्ठाविश्वमें लगाया और वह कुछ दिन वहां दिखता रहा और लोगों को कुछ रुचि हुयी। उस समय भी मुख्य रूप से मैं और देबाशीष ही इसे लिखते रहे।
बाद में नारद के आने पर मुझे यह अप्रासंगिक लगने लगा (जैसे अभी आपको लग रहा है रवि भाई)। इसका कारण मेरा अकेले लिखना और लोगों की कोई प्रतिक्रिया न होना था। मैंने सोचा कि क्या बेकार लोगों को परेशान करूं! और मैंने इसे लिखना बंद कर दिया।
कुछ दिन बाद मुझे फिर से लगा कि मेरा सोचना शायद सही नहीं था और यह चलना चाहिये। उस समय मेरा विचार विस्तार से कुछ पोस्टों की चर्चा/समीक्षा करने का था( जैसी शायद आपकी सोच/सुझाव है सृजनशिल्पीजी)। हम अपना शिल्प/अंदाज़ तय कर सकें तब तक नारदजी बैठ गये और समय की मांग के अनुसार हमारी प्राथमिकतायें बदलीं तथा हम लोगों के लिये नये प्रकाशित होने चिट्ठों की जानकारी देने का जरिया बन गये। और यही कारण शायद रहा कि कुछ साथी चिट्ठाचर्चा को नारद की अनुपस्थिति में हुई अस्थायी व्यवस्था मात्र मानते हैं।
उस दौरान हम लोग लगभग तीन सौ ब्लाग रोज देखते रहे और नयी पोस्टों की चर्चा का प्रयास करते रहे। यह वाकई मेहनत का काम था और हम लोग यह करते रहे तो सिर्फ इसलिये कि लोगों तक नये लिखे चिट्ठों की जानकारी पहुंचाने का काम कर सकें। इस काम से मिला सुकून ही हमारे लिये बहुत था। फिर जीतू की नारद की टेस्ट साइट से हमारा काम और भी आसान हो गया। लेकिन अभी भी एक पोस्ट लिखने में दो-तीन घंटे लग ही जाते हैं।
अतुल तो हमारे साथ पहले से ही थे फिर समीरलाल, रविरतलामी, पंकज बेंगाणी के जुड़ने से इसमें विविधता आयी। सच तो यह है कि इनके और अब आज राकेश
खंडेलवाल जी के जुड़ने से मुझे इसके महत्व का अंदाजा लगा। यह भी अहसास हुआ, फिर से, कि साथ में- मिलजुलकर काम करने का मजा ही कुछ और है। अकेले में आप कितने ही बड़े तीसमार खां क्यों न हों आप रहते अकेले ही हैं। न कोई आपकी खुशी में शरीक होता है और न ही कोई आपके दुख बांटता है।
प्रसंगवश बता दूं कि राकेशजी को लिंक लगाने की जानकारी अभी नहीं थी। इसकी कमी पूरी की समीरलाल जी ने और फोन से या न जाने कैसे-कैसे उनको बताया कि ऐसे लिंक लगायें और ऐसे फोटो तब उन्होंने आज यह किया।
हमारे नयन दुलारे बोले तो ‘ब्लू आइड व्बाय’, पंकज बेंगाणी के माध्यम से हमें पता चला कि गुजराती में भी गजलें लिखीं जाती हैं और उनकी पोस्ट पर तमाम नये गुजराती चिट्ठाकार आभार प्रकट कर रहे हैं तथा यह पूछ रहे हैं कि उर्दू से गुजराती शब्दकोष कैसे बनायें। नारद या अन्य किसी आटोमैटिक व्यवस्था में इस तरह की गुफ्तगू शायद न हो पाये या कम हो।
देबाशीष हमारे छटपटा रहे हैं कि उनके घर में अभी नेट नहीं उपलब्ध है और इसीलिये न वे बावजूद तमाम तैयारियों के निरंतर निकाल पा रहे हैं और न ही चिट्ठाचर्चा में योगदान दे पा रहे हैं। कुछ दिन मे हर शनिवार वे चिट्ठाचर्चा में योगदान देंगे। आजकल देबू आफिस में कुछ ज्यादा ही व्यस्त हैं और एकाध दिन तो रात के तीन बजे घर पहुंचे। इसके बावजूद उन्होंने चिट्ठाचर्चा के टेम्पलेट में आकर्षक बदलाव किया।
अभी तक नारद के पुनर्जन्म में लगे रहे हमारे जीतेंद्र चौधरी इसी इतवार से चिट्ठाचर्चा में अपनी पारी की दुबारा शुरुआत करने वाले हैं। पहले भी वे हिंदी में लिखने के अलावा सिंधी ब्लाग और फोटो ब्लाग के बारे में लिखते थे।
इस तरह हमारे सामान्य हालत मे मेरे जिम्में हफ्ते में केवल एक ही दिन बचा है-गुरुवार। वह मैं आराम से कर सकता हूं।
साथी लोगों की इतनी जुड़ाव की भावना के बाद हमें कहां से यह हक है कि हम चिट्ठाचर्चा बंद कर दें? हम कैसे कह दें कि अब हम केवल धांसू पोस्ट लिखेंगे-
चिट्ठाचर्चा नहीं। हमारा ऐसा कोई अधिकार नहीं बनता। सच तो यह है कि हमारे सभी साथी दिग्गज हैं और उनका अपना पाठक वर्ग है। चाहे वे कुंडलिया किंग, समीरलाल हों या व्यंजल नरेश रविरतलामी, पंकज के ताऊ जीतेंन्द्र चौधरी हों या इंडीब्लागर विजेता अतुल, गीत सम्राट राकेश खंडेलवाल हों या फिर हिंदी ब्लागजगत के पितामह की नाम-उपाधि से विभूषित देबाशीष चक्रवर्ती, हमारे मास्टर साहब पंकज बेंगाणी या फिर हम बोले तो फुरसतिया ही काहे न हों सबका अपना-अपना पाठक वर्ग है और यह हो ही नहीं सकता कि ऐसे लोग मन से किसी सामूहिक काम में जुटे और वह काम न हो या स्तरहीन हो।
पता नहीं कैसे लोगों को यह लगा कि नारद के आने से चिट्ठाचर्चा बंद हो जाना चाहिये। नारद का मह्त्व अलग है, चिट्ठाचर्चा के उद्देश्य अलग हैं। दोनों बराबरी और तुलना की बात करना मेरे ख्याल में दोनों के साथ अन्याय करना होगा। अगर समानता की बात ही करें तो शायद यह कहना ठीक होगा कि अगर नारद एक लोकप्रिय और जरूरी समाचार पत्र है तो चिट्ठाचर्चा उसका तीसरा पन्ना मतलब सम्पादकीय पेज। दोनॊं का अपना महत्व है। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं न कि एक दूसरे के स्थानापन्न।
नारद में अन्य तमाम सूचनाऒं के साथ-साथ नयी पोस्टों का विवरण रहता है। यह आटोमैटिक और यांत्रिक है जबकि चिट्ठाचर्चा व्यक्तिपरक है। हर एक को उत्सुकता रहती है कि चिट्ठाचर्चा में मेरी पोस्ट के बारे में क्या लिखा चर्चा करने वाले ने? आदि चिट्ठाकार आलोक को उत्सुकता रहती है कि आज की टिप्पणी में क्या आया और आज का फोटो में किसकी फोटो है? अगर चिट्ठाचर्चा में हम केवल हिंदी चिट्ठोंकी बात करें तो नारद से तुलना ठीक भी है लेकिन उसमें तो हम अंग्रेजी चिट्ठे की भी चर्चा करते हैं और पोस्टसीक्रेट जैसे ब्लाग के बारे में भी जानकारी देते हैं।
पहले हमें लगता था कि इसे हिंदी तक ही रख पायेंगे लेकिन अब पंकज के गुजराती ब्लाग की चर्चा से लगा कि हम सारी भारतीय भाषाऒं के ब्लाग की चर्चा हिंदी में कर सकते हैं और मेरे ख्याल से करना भी चाहिये। अफलातूनजी शायद किसी उड़िया ब्लागर को पटा भी रहे हैं।
तो मुझे तो नहीं लगता कि ऐसे में जबकि हमारे सबसे बेहतरीन चिट्ठाकार चिट्ठाचर्चा से जुड़े़ हों और सक्रिय हों तो इसे बंद करने की बात सोची जानी चाहिये।
अब बात समीक्षा की। जैसे शिल्पी जी कीचिंताथी। मेरा मानना है कि समीक्षा हमेशा व्यक्ति सापेक्ष होती है।
यह सही है कि ब्लाग के संदर्भ में अभी इसका मानकीकरण नहीं हुआ है लेकिन अगर ध्यान से चर्चायें देखें तो चर्चा करने वाले के रुझान और बेहतर पोस्ट और आम पोस्ट का अंतर साफ दिखता है चर्चा में। मेरी एक पोस्ट में जब मैं विस्तार से प्रत्यक्षाजी और फिर मनीष की पुस्तक चर्चा वाली पोस्ट की चर्चा करता हूं तो अनजाने में ही मैं एक रेखांकित करने वाली पोस्ट का जिक्र करके उसको उल्लेखनीय बता रहा हूं। अनुदित और दूसरे लेखकों की रचनाऒं पर मौलिक पोस्ट की तुलना में कम चर्चा होती है मेरे ख्याल में। तो ये समीक्षा के सिद्धांत अनजाने में पालन किये जा रहे हैं।
समीक्षा के विचार व्यक्ति परक होते हैं इसका उदाहरण अभी पिछले दिनों दिखा। वागर्थ के नवलेखन विशेषांक में चर्चित युवा लेखक कुणाल सिंह की एक कहानी छपी थी- साइकिल। इस कहानी में नायक युवा है और वह अपनी प्रौढ़ा, विधवा चाची की तुलना साइकिल से करता है और यौन संबंध भी (जहां तक मुझे याद है)बनाता है। इस कहानी के शिल्प, कथा शैली और बोल्डनेस पर प्रख्यात कथाकार काशीनाथ सिंह मुरीद से हो गये और कहानी तथा लेखक की बहुत तारीफ की।
कुछ अंक बाद ही एक युवा आलोचक ने कहानी की सोच, काशीनाथ सिंह की समझ की आलोचना की तथा यह बताया कि कहानी पतनशील मूल्यों की स्थापना करती है और जाने-अनजाने एक महिला को साइकिल के बराबर खड़ा कर देती है। यह् अंदाज़ सब कुछ बिकाऊ है की बाजारू सोच की स्थापना करता है और भारतीय समाज में, जहां चाची का दर्जा मां के बराबर है, गलत संस्कारों को बढ़ावा देने का कारण बनता है। इसी तरह की और तमाम बातें बताकर एक युवा आलोचक ने तमाम बुढ़ऊ कथाकारों, आलोचकों के, मेरी समझ में, धुर्रे उड़ा दिये और अभी तक उस समीक्षा के जवाब में कुछ नहीं छपा है।
तो मेरा तो यही मानना है कि समय सारी दिशा तय करेगा। जो ब्लाग बंद किये जाने की घोषणा करने के बाद नियमित हो जाये और जिस ब्लाग से हिंदी ब्लाग जगत के वो धुरंधर जुड़े हों जिनका लेखन, योगदान अपने आप में मिसाल हो, उसके बारे में और तमाम अटकलें लगाई जा सकती हों लेकिन बंद करने की बात करना किसी एक के लिये मुमकिन नहीं है।
यह पोस्ट बावजूद तमाम सावधानियों के कुछ गरिष्ठ हो गयी है। लेकिन अब हो गयी तो हो गयी -क्या करें?
हमारे नियमित लेखक साथी हैं:-
रवि रतलामी- सोमवारयह सामान्य दिन हैं। इसके अलावा भी किसी के भी लिखने पर न कोई दिन का बंधन है न पोस्ट की संख्या पर। कभी भी लिखें,कितना भी लिखें।
राकेश खण्डेलवाल-मंगलवार
समीरलाल- वुधवार
अनूपशुक्ला- गुरुवार
अतुल अरोरा- शुक्रवार
देबाशीष चक्रबर्ती-शनिवार
जीतेंन्द्र चौधरी-रविवार
पंकज बेंगाणी- हरवार, जब मन करे तब जिसमें मन करे(हिंदी/गुजराती) उसमें
यह पोस्ट खत्म करने के पहले एक बात अतुल की तरफ़ से। अतुल का सोचना है कि प्रतिदिन अच्छी पोस्ट का चुनाव होना चाहिये और फिर उनमें से माह/ साल की सबसे अच्छी पोस्ट का चुनाव किया जाये और उस चिट्ठाकार को सम्मानित किया जाये, इनाम दिये जायें।
आपकी क्या राय है इस मुद्दे पर? किया जाय यह सब? अगर हां तो कैसे? अगर नहीं तो क्यों?
इसके अलावा और किसी मुद्दे पर आपकी कोई राय/सुझाव है क्या चिट्ठाचर्चा को और उपयोगी,बेहतर बनाने के लिये?
मेरी पसंद
गीत !-विनोद श्रीवास्तव
हम गाते नहीं तो
कौन गाता?
ये पटरियां
ये धुआं
उस पर अंधेरे रास्ते
तुम चले आओ
यहां
हम हैं तुम्हारे वास्ते।
गीत !
हम आते नहीं तो
कौन आता ?
छीनकर सब ले चले
हमको
हमारे शहर से
पर कहां सम्भव
कि बह ले
नीर
बचकर लहर से।
गीत !
हम लाते नहीं तो
कौन लाता?
प्यार ही छूटा नहीं
घर-बार भी
त्योहार भी
और शायद छूट जाये
प्राण का आधार भी।
गीत
हम पाते नहीं
तो कौन पाता?
Posted in बस यूं ही | 17 Responses
चिट्ठा चर्चा पढ़ना बहुत मनोरंजक लगता है, और शायद इसीलिये मैने आपकी ये पोस्ट पूरी पढी!
सबसे अच्छी पोस्ट के चुनाव का विचार अच्छा है साथ ही लेखन की विविधता के लिहाज से कम से कम तीन श्रेणियोँ से चुनाव हो, हर श्रेणी के लिये अलग समय-क्षेत्र(साप्ताहिक-त्रैमासिक)निर्धारित किया जा सकता है।
सब कुछ आम सहमती और सर्व सम्मती पर आधारित होना चाहिये, ऐसी मेरी मान्यता है.
1. जो लोग चिठ्ठा चर्चा को बन्द करने या मासिक करने विचार कर रहे है उनसे एक प्रश्न है, क्या घर मे द्वितीय पुत्र के आगमन के बाद प्रथम पुत्र की उपयोगिता समाप्त हो जाती है? चाहे नारद हो या नारायण चिठ्ठा चर्चा का अपना महत्व है।
2. नारद एक स्वाचलित प्रणाली पर आधारित है वह कभी भी तौबा बोल सकता है। किन्तु चिठ्ठा चर्चा एक व्यक्ति परक है, यह तब तक चलता रहेगा जब तक लिखने वाला व्यक्ति तौबा न बोले। यह परिस्थितियां नारद के साथ कभी भी आ सकती है। मुझे नही लगता है कि नारद के आने से चिचा की लोकप्रियता मे कोई कमी हुई है। औसत 4-6 टिप्पणी रोजना होती है।
3. कुछ चिठ्ठे एसे है जो किसी कारण से नारद पर स्थान नही पा सके है। ऐसे मे चिठ्ठा चर्चा श्रेष्ठ माध्यम है अपनी अभिव्यक्ति कोे सबके सम्मुख रखने के लिये। अत: जो नारद पर ही निर्भर है, उनके लिये चिठ्ठा चर्चा की उपयोगिता न होगी पर जो निर्भर नही है। उनके लिये तो यही माध्यम है।
4 चिठ्ठा चर्चा एक संगम है जहां भिन्न भिन्न लोग मिल कर लिखते है। कोई कितना बडा तरण-ताल आपने घर मे लगा ले किन्तु मैली गंगा के संगम मे स्नान का महत्व कभी भी कम नही होता है। उसी प्रकार चिठ्ठा चर्चा भी भिन्न-2 चिठ्ठो की मैल(पाठ्य सामग्री तथा चित्रो) हमारे समने लाता है और हम इसमे स्नान करके ज्ञान मोक्ष प्राइज़ करते है।
5. जिसे चिठ्ठा चर्चा पढना होगा वह पढेगा, जिसे नही पडना होगा नही पढेगा यही बात लिखने वालो पर भी लागू होती है, मुझे नही लगता है कि इस विशय पर इतना लम्बा लेख लिखने की अवश्यक्ता थी। चिठ्ठा चर्चा के अपना अधार और अपने पाठक है। मै नही मानता हू कि नारद के आने से इसका महत्व समाप्त होगया है।
लग गई मेरी तो
आपके ब्लु आई बोय की आई बनी! सब डिक्लेर कर दिया
“मत चुको चौहान” से अब तो “लो भुगतो चौहान” हो गए.. लागे है।
शिल्पी महोदय चिट्ठाचर्चा को तराश कर सँवारने का अति महत्वपूर्ण एवं स्वागत योग्य कार्य कर रहे थे। वे योग्य भी हैं। वो मुझे पकडें उससे पहले मैं चला हिमालय!!
क्या इसे प्रतिदिन दो बार नहीं लिख सकते?
चिट्ठा चर्चा अपनी जगह है, नारद अपनी जगह। जहाँ नारद एक ट्रेलर(प्रिव्यू) यानि पूर्वावलोकन है, चिट्ठा चर्चा रिव्यू, भले ही संक्षेप मे हो। चिट्ठा चर्चा जारी रहना चाहिए, मै तो कहता हूँ इसमे सभी भाषा के चिट्ठों का समावेश वो। लेकिन इसके लिए टैगिंग जरुर करो, ताकि जिसको जिस भाषा के पढने हो, उस भाषा का चिट्ठा चर्चा तुरन्त दिखे उसे। इस रविवार से हम भी जुटेंगे, उसके पहले थोड़ी नैट प्रैक्टिस करने के वास्ते शायद किसी और दिन के भी लिख डालें। फुरसतिया जी इस नैट प्रैक्टिस को कहाँ डालें, अपने ब्लॉग पर या चिट्ठा चर्चा पर।
मासिक या वार्षिक बेहतरीन चिठ्ठे को इनाम देने का विचार अच्छा है।
मेरे जैसे नये लोगों के लिये ये बडी उपयोगी है.सच कहूँ तो इसके माध्यम से ही मै कई अच्छे हिन्दी चिट्ठों तक पहुँची हूँ,जिन्हे अन्यथा मै शायद नही पढती..धन्यवाद..
अकसर हम कहना कुछ चाहते हैं, कह कुछ देते हैं और उम्मीद करते हैं कि सामने वाला हमारे हिसाब से समझ ही नहीं रहा है!
मैंने चिट्ठा चर्चा बन्द करने के लिए कभी नहीं कहा.
मैंने तो कहा था कि सप्ताह में चार-चार चिट्ठा चर्चा लिखकर अपनी ऊर्जा गंवाने के बजाए फुरसतिया धमाकेदार चिट्ठा लिखने में लगाएँ तो ज्यादा उत्तम होगा. मैंने मार्क किया है कि जब चिट्ठा चर्चा लिखा जाता है, तो पोस्ट लिखने के लिए समय का टोटा पड़ता ही है. फिर या तो आप चिट्ठा लिखें या चिट्ठा चर्चा. भई, मैं तो सप्ताह में चार दिन फुरसतिया का चिट्ठा चर्चा पढ़ने के बजाए चार दिन उनका लिखा पोस्ट पढ़ना चाहूँगा. और अगर साथ में मुफ़्त चर्चा भी पढ़ने मिले तो बात ही क्या!
शायद बात कुछ स्पष्ट हुई होगी.
चिट्ठा चर्चा में जितने लेखक हैं उन्हें उनकी रुचि के हिसाब से एक एक, दो क्षेत्र दे दिया जाएँ जैसे कविता, साहित्य, करेंट अफेयर, व्यंग्य, विज्ञान , यात्रा , फिल्म आदि आदि । हफ्ते में जब भी उनकी बारी आए वो अपने क्षेत्र के विषयों के हिसाब से पिछले हफ्ते के चिट्ठों की समीक्षा करें ।
एक बार की कविता से ही, चर्चा बंद नहीं है होगी
हर मंगल अब झेलें कविता, चारा कोई शेष नहीम है
नाम हुआ जो शामिल मेरा, सूची मेम बन कर सहयोगी