http://web.archive.org/web/20110926074657/http://hindini.com/fursatiya/archives/201
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
जेहि पर जाकर सत्य सनेहू
हां तो हम लखनऊ यात्रा की
बात कर रहे थे। श्रीलाल शुक्ल जी से जब मुलाकात नहीं हुयी तो हम पास के घर
के पास के साइबर कैफ़े चले गये। पूछा किसी में विंडो एक्सपी है? जवाब मिला-
सबमें है। और हम बैठ गये बिना आगे कुछ सोचे एक कुर्सी पर। कैफे के
सेवा-दाम हम पढ़ ही चुके थे -दस रुपया प्रति घंटा।
जब तक मेल देखने के लिये खुटुर-पुटुर करें तब तक यह भी सोच डाला कि सागर के तट पर होते तो अब तक चाय के लिये आर्डर हो गया होता। बहरहाल,हमने अपने जीमेल अकाउंट का दरवाजा खोला तो समीरलाल जी की मेल चमक रही थी कि चर्चा कर दी है और अगली बात यह कि टिप्पणी प्रकाशित नहीं हो रही हैं। यह भी बता दें क्या कि हम जाते-जाते अपना शनिवार का चिट्ठाचर्चा का काम समीरजी को टिकाकर चले गये थे जिसे उन्होंने खुशी-खुशी (हम तो यही न कहेंगे) स्वीकार किया और किया भी।
असल में देबाशीष ने अभी तक चिट्ठाचर्चा में यह व्यवस्था की थी कि टिप्पणी तभी प्रकाशित हों जब वे अनुमोदित बोले तो अप्रूव हो जायें। इससे कमेंट करने वाले को जब अपना कमेंट काफ़ी देर तक दिखता नहीं तो वह सोचता है- गई भैंस पानी में। अब हमने देबाशीष से कहा है कि भैये, ये बैरियर हटा दो। जो भी टिप्पणी करे तुरंत उसे देख भी सके। शायद अब तक हो गया होगा ऐसा नहीं होगा तो आज हो जायेगा।
हमने जैसे ही अपना मेल बाक्स खोला वैसे ही उधर से कविराज जोशी जी अपनी एफ.आई.आर. लिये खड़े थे। बोले हमारी टिप्पणी अभी तक नहीं दिखी। हमने उनको ठाड़े रहियो मेरे कवि यार कहकर स्टेचू बोला और उनकी टिप्पणी तलाशने लगा। टिप्पणी मुई ओसामा बिन लादेन हो गयी-दिखी ही नहीं। कविराज का धैर्य जवाब दे गया। वैसे भी कवि होने के लिये जरूरी है कि धैर्य को तलाक देकर तब बिस्मिल्ला किया जाये वर्ना आप मुंह सिये बैठे रहेंगे और कविता आपके मन में घुटकर मर जायेगी। कहा भी गया है एक कविता को अपने मन में मारने से अच्छा है कि पचास लोगों को उसके वार से मारा जाये।
नारा प्रधान देश में अगर इस बात को सजा संवारकर नारे के कपड़े पहनायें जायें तो कह सकते हैं- एक कविता की भ्रूणहत्या पचास जीव हत्याऒं के बराबर हैं। इसीलिये जैसे ही हमारे कोई भी कवि मित्र कहते हैं कविता लिखी है सुनायें तो हम हां सुनाइये के साथ-साथ बहुत अच्छी लिखी है इसे पोस्ट कर दो भाई तुरंत लिखकर पसीना पोछने लगते हैं। कभी-कभी हड़बड़ी में हम बहुत अच्छी है, पोस्ट कर दीजिये पहले टाइप कर देते हैं और कविता बाद में आती है लेकिन कवि कविता की तारीफ से मेरी इस चूक को क्षमा करके अपने पोस्ट अभियान पर निकल लेता है और हमारे लिये मौसम आशिकाना, सुहाना हो जाता है।
तो कविराज बोले दुबारा करूं टिप्पणी? हम जब तक हां बोलें तब तक वे टिपिया चुके थे और बोले- कर दी। जब तक हम बोले- अच्छा, तब तक चैट बाक्स में भी उनकी टिप्पणी आ गयी। हम हैरान कि टिप्पणी अगम, अगोचर कैसे हो गयी। बहरहाल, बात समझ में आ गयी। हम अपना मेल बाक्स टटोल रहे थे और टिप्पणी थी चिट्ठाचर्चा के खाते में।
खैर, हमने चिट्ठाचर्चा का मेल बाक्स खोलने का प्रयास किया। माउस किसी पियक्कड़ की तरह लहरा के चल रहा था। हर दो मिनट में लहरा के रुक जा रहा था।
मुझे अनायास शोले सिनेमा का आखिरी सीन याद आ रहा था जिसमें अभिताभ बच्चन पूरे पुल में लहराने के बाद एक बम पर निशाना लगा पाता है। ऐसे ही हमारे कैफ़े का माउस भी बहुत देर इधर-उधर टहलने के बाद काम की जगह पर क्लिक कर पा रहा था।
अपने देश में हर जगह सार्वजनिक उपयोग के लिये उपलब्ध चीज के साथ अइसाइच होता है। वह चाहे सरकारी सम्पत्ति हो, अभिव्यक्ति का अधिकार हो, सार्वजनिक शौचालय हो, रेलवे प्लेटफार्म या फिर किसी साइबर कैफे का माउस।
बावजूद तमाम अड़चनों के हमने सफलता हासिल कर ही ली और सारी टिप्पणियॊं को प्रकाशित कर दिया। इससे हमें यह भी लगा कि जो काम आप मनसे करना चाहते हैं वह होकर ही रहता है- जेहि पर जाकर सत्य सनेहू, मिलहि सो तेहि नहिं कछु संदेहू।
जब तक मेल देखने के लिये खुटुर-पुटुर करें तब तक यह भी सोच डाला कि सागर के तट पर होते तो अब तक चाय के लिये आर्डर हो गया होता। बहरहाल,हमने अपने जीमेल अकाउंट का दरवाजा खोला तो समीरलाल जी की मेल चमक रही थी कि चर्चा कर दी है और अगली बात यह कि टिप्पणी प्रकाशित नहीं हो रही हैं। यह भी बता दें क्या कि हम जाते-जाते अपना शनिवार का चिट्ठाचर्चा का काम समीरजी को टिकाकर चले गये थे जिसे उन्होंने खुशी-खुशी (हम तो यही न कहेंगे) स्वीकार किया और किया भी।
असल में देबाशीष ने अभी तक चिट्ठाचर्चा में यह व्यवस्था की थी कि टिप्पणी तभी प्रकाशित हों जब वे अनुमोदित बोले तो अप्रूव हो जायें। इससे कमेंट करने वाले को जब अपना कमेंट काफ़ी देर तक दिखता नहीं तो वह सोचता है- गई भैंस पानी में। अब हमने देबाशीष से कहा है कि भैये, ये बैरियर हटा दो। जो भी टिप्पणी करे तुरंत उसे देख भी सके। शायद अब तक हो गया होगा ऐसा नहीं होगा तो आज हो जायेगा।
हमने जैसे ही अपना मेल बाक्स खोला वैसे ही उधर से कविराज जोशी जी अपनी एफ.आई.आर. लिये खड़े थे। बोले हमारी टिप्पणी अभी तक नहीं दिखी। हमने उनको ठाड़े रहियो मेरे कवि यार कहकर स्टेचू बोला और उनकी टिप्पणी तलाशने लगा। टिप्पणी मुई ओसामा बिन लादेन हो गयी-दिखी ही नहीं। कविराज का धैर्य जवाब दे गया। वैसे भी कवि होने के लिये जरूरी है कि धैर्य को तलाक देकर तब बिस्मिल्ला किया जाये वर्ना आप मुंह सिये बैठे रहेंगे और कविता आपके मन में घुटकर मर जायेगी। कहा भी गया है एक कविता को अपने मन में मारने से अच्छा है कि पचास लोगों को उसके वार से मारा जाये।
नारा प्रधान देश में अगर इस बात को सजा संवारकर नारे के कपड़े पहनायें जायें तो कह सकते हैं- एक कविता की भ्रूणहत्या पचास जीव हत्याऒं के बराबर हैं। इसीलिये जैसे ही हमारे कोई भी कवि मित्र कहते हैं कविता लिखी है सुनायें तो हम हां सुनाइये के साथ-साथ बहुत अच्छी लिखी है इसे पोस्ट कर दो भाई तुरंत लिखकर पसीना पोछने लगते हैं। कभी-कभी हड़बड़ी में हम बहुत अच्छी है, पोस्ट कर दीजिये पहले टाइप कर देते हैं और कविता बाद में आती है लेकिन कवि कविता की तारीफ से मेरी इस चूक को क्षमा करके अपने पोस्ट अभियान पर निकल लेता है और हमारे लिये मौसम आशिकाना, सुहाना हो जाता है।
तो कविराज बोले दुबारा करूं टिप्पणी? हम जब तक हां बोलें तब तक वे टिपिया चुके थे और बोले- कर दी। जब तक हम बोले- अच्छा, तब तक चैट बाक्स में भी उनकी टिप्पणी आ गयी। हम हैरान कि टिप्पणी अगम, अगोचर कैसे हो गयी। बहरहाल, बात समझ में आ गयी। हम अपना मेल बाक्स टटोल रहे थे और टिप्पणी थी चिट्ठाचर्चा के खाते में।
खैर, हमने चिट्ठाचर्चा का मेल बाक्स खोलने का प्रयास किया। माउस किसी पियक्कड़ की तरह लहरा के चल रहा था। हर दो मिनट में लहरा के रुक जा रहा था।
मुझे अनायास शोले सिनेमा का आखिरी सीन याद आ रहा था जिसमें अभिताभ बच्चन पूरे पुल में लहराने के बाद एक बम पर निशाना लगा पाता है। ऐसे ही हमारे कैफ़े का माउस भी बहुत देर इधर-उधर टहलने के बाद काम की जगह पर क्लिक कर पा रहा था।
अपने देश में हर जगह सार्वजनिक उपयोग के लिये उपलब्ध चीज के साथ अइसाइच होता है। वह चाहे सरकारी सम्पत्ति हो, अभिव्यक्ति का अधिकार हो, सार्वजनिक शौचालय हो, रेलवे प्लेटफार्म या फिर किसी साइबर कैफे का माउस।
बावजूद तमाम अड़चनों के हमने सफलता हासिल कर ही ली और सारी टिप्पणियॊं को प्रकाशित कर दिया। इससे हमें यह भी लगा कि जो काम आप मनसे करना चाहते हैं वह होकर ही रहता है- जेहि पर जाकर सत्य सनेहू, मिलहि सो तेहि नहिं कछु संदेहू।
Posted in बस यूं ही | 9 Responses
यही तो हम कर रहे हैं
एक कविता की भ्रूणहत्या पचास जीव हत्याऒं के बराबर हैं।
इतना बड़ा पाप तो हम अपने सिर नहीं ले सकते, हम तो सुनाते चलेंगे.
हमसे, और कहां हैं ? जो बस कविता में ही बातें करते
यह जो बात लिखी है, निश्चित हम ही उसके एक लक्ष्य हैं
कब तक झेलें कविता आखिर, जो मरते वो क्या न करते