Monday, December 18, 2006

हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है

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हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है

पिछली पोस्ट में मैंने अपनी बहुत पहले की लिखी एक कविता कम तुकबंदी ज्यादा का जिक्र किया था। इसे हमने सालों पहले होली के मौके पर लिखा था। कुछ लोगों को यह कुछ पसंद आयी। अपने इस भ्रम की आड़ में मैं यह कविता यहां पूरी की पूरी पेश कर रहा हूं। जो लोग इसे पहले ही पढ़ चुके हैं आशा है वे इसे अन्यथा न लेंगे।
इतने दिन बाद इसे दुबारा पोस्ट करने का कारण आज का टाइम्स आफ इंडिया का संपादकीय है। इसमें हंसी की ताकत का जिक्र किया गया है। तमाम अध्ययनों से यह पता चला है कि अगर आप हंसते रहते हैं तो आपके शरीर में धनात्मक परिवर्तन होने की संभावनायें बढ़ जाती हैं।
तो पढ़िये यह कविता कम तुकबंदी ज्यादा। अगर आपको इसे पढ़ते एक क्षण के लिये भी हंसी या मुस्कान से साक्षात्कार होता है तो हमें अच्छा लगेगा! वैसे तो इसे होली के अवसर पर लिखा गया था लेकिन सच तो है कि हंसी किसी मौसम की मोहताज नहीं होती!


आज होली का त्योहार है,
हम सबकी खुशियों का विस्तार है
हर हाल में हंसने का आधार है हंसी का भी बहुत बड़ा परिवार है
कई बहने हैं जिनके नाम है-
सजीली, कंटीली, चटकीली, मटकीली
नखरीली और ये देखो आ गई टिलीलिली।
हंसी का सिर्फ एक भाई है
जिसका नाम है ठहाका,
टनाटन हेल्थ है, छोरा है बांका।
हंसी के मां-बाप ने
एक लड़के की चाह में
इतनी लड़कियां पैदा की
परिवार नियोजन कार्यक्रम की
ऐसी-तैसी कर दी।
हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है,
अब यह अलग बात कि उसमें
हंसी से कहीं ज्यादा जान है।
एक बार हमने सोचा -
देंखे दुनिया में कौन
किस तरह हंसता है
इस हसीना के चक्कर में
कौन सबसे ज्यादा फंसता है।
मैंने एक साथी कहा
यार, जरा हंसकर दिखाओ
वो बोला -पहले आप।
मैं बोला मैं तो हंस लेता,
हंसता ही रहता
पर डरता हूं लोग बेहया कहेंगे
-बीबी घर गयी है ,फिर भी हंस रहा है
लगता है फिर कोई चक्कर चल रहा है।
इस बात को सब काम छोड़कर
वे मेरी बीबी को बतायेंगे
तलाक तो खैर क्या होगा
लेकिन वो मुझे हफ्तों डंटवायेंगे।
सो दादा यह वीरता आप ही दिखाइये
ज्यादा नहीं सिर्फ दो मिनट हंसकर बताइये
इतने में दादा के ढेर सारे आंसू निकल आये
पहले वो ठिठके ,शरमाये,हकलाये फिर मिनमिनाये
-हंसूंगा तो तुम्हारी भाभी भी सुन लेगी
बिना कुछ पूंछे वह मेरा खून पी लेगी
कहेगी-मैं हूं घर में
फिर यह खुश किस बात पर है
बीबी का डर, लाजो शरम
सब रख दिया ताक पर है।
वहां से निकला पहुंचा मैं आफिस, साहब से बोला
साहब ने मुझको था आंखो-आंखो में तोला
मैंने कहा -साहब जरा हंसने का तरीका बताइये
साहब लभभग चीखकर बोले
हमको ऊ सब लफड़ा में मत फंसाइये
हंसना है तो अपने दस्तखत में
हंसने का प्रपोजल बनाइये
बड़का साहब से अप्रूव कराइये
फिर जेतना मन करे हंसिये-हंसाइये
पर हमको तो बक्स दीजिये-जाइये।
बड़का साहब से पूंछा-
साहब आप गुनी है, ज्ञानी हैं
अनुभव-विज्ञानी है
खाये हैं खेले हैं
जिंदगी के देखे बहुत मेले हैं
हमको भी कुछ अनुभव-लाभ बताइये
हंसने का सबसे मुफीद तरीका बताइये
साहब बोले, अब तुम्हीं लोग हंसो यार
हमारी तो उमर निकल गई
अब हंसना है बिल्कुल बेकार।
तुम्हारे इत्ते थे तो हम भीं बहुत हंसते थे
पूरी दुनिया को अंगूठे पे रखते थे
तुम ऐसा करो पुरानी फाइलें पलट डालो
उनमें हंसी के रिकार्ड मिल जायेंगे
नमूने तो पुराने हैं पर ट्रेंड मिल जायेंगे।
फाइलें में कुछ न मिला
सब दे गई गयीं धोका
सोचा भाभियों से पूछ लें
होली का भी है मौका।
हमने कहा, भाभी जी जरा हंस कर दिखाइये
वे बोली भाई साहब ये तो बाहर गये हैं
आप ऐसा करें कि तीन दिन बाद आइये
मैंने कहा अरे उसमें भाई साहब कि क्या जरूरत!
आप कैसे हंसती हैं जरा बेझिझक बताइये।
वे बोली, नहीं भाई साहब अब हम
हर काम प्लानिंग से करते हैं
सिर्फ संडे को हंसते हैं
आप उसी दिन आइये
इनसे बतियाइये, नास्ता कीजिये
हमारी हंसी के नमूने ले जाइये।
अगर जल्दी है तो चौपाल चले जाइये
वहां लोग हंसते हैं, खिलखिलाते हैं
बात-बेबात ठहाके लगाते हैं
आप अगर जायें तो मेरे लिये भी
चुटकुले नोट कर लाइयेगा
क्योंकि अब तो ये पिटी-पिटाई सुनाते हैं
हंसाते हैं कम ज्यादा खिझाते हैं।
इस सब से मैं काफी निराश
फिर भी आशावान था थोड़ा
सोच -समझ कर मैंने स्कूटर अस्पताल को मोड़ा
डा.झटका से मिला हेलो-हाय की ,सीधे-सीधे पूंछा
यहां अस्पाताल में लोग किस तरह हंसते है
डा. लगभग चीख कर बोले -क्या बकते हैं?
यहां अभी तक मैंने ऐसा कोई केस नहीं देखा
आपको किसी और बीमारी का हुआ होगा धोखा
क्योंकि हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है
एक से दस, दस से सौ तक फैलती इसकी क्यारी है
एक बार फैलने पर इसका कोई इलाज नहीं होता
यह हर एक को अपनी गिरफ्त में ले लेती है
सारा वातावरण गुंजायमान होता है।
मैं बोला फिर भी हंसी का कोई मरीज आया तो
आप उसका इसका कैसे करेंगे?
इस लाइलाज समस्या से कैसे निपटेंगे?
डा.बोले -रोग कोई हो
इलाज हम एक ही तरीके से करते है
शुरुआत कुनैन के तीन डोज से करते हैं
फिर हम अपने यहां हर उपलब्ध खिलाते हैं
दवायें खत्म हो जाने के बाद
हम मरीज को सिविल हास्पिटल भिजवाते हैं
कुछ दिनों में मरीज की इच्छा शक्ति लौट आती है
उसकी तबियत अपने आप ठीक हो जाती है
सो आप चिंता मत कीजिये घर जाइये
भगवान का नाम जपिये चैन की बंशी बजाइये।
इसके बाद मैंने सोचा बच्चे तो मासूम होते हैं
कम से कम वे तो अंगूठा नहीं दिखायेंगे
न हंसें पर कहने पर जरूर मुस्करायेंगे
मैंने एक बच्चे को पकड़ा, गुदगुदाया
लेकिन यह क्या-
उसकी तो आंख से आंसू निकल आया।
वो बोला-अंकल, आजकल हम छिपकर,
बहुत किफायत से हंसते हैं
क्योंकि हम अपने नंबर कटने से बहुत डरते हैं
हर हंसी पर ‘सरजी’ प्रोजेक्ट वर्क बढ़ा देते हैं
ठहाके पर तो टेस्ट के नंबर घटा देते हैं
इससे मम्मी-पापा अलग परेशान होते हैं
कुछ देर स्कूल को कोसते हैं
फिर गुस्सा हम पर उतार देते हैं
इसीलिये हम अपनी हंसी का पूरा हिसाब रखते हैं
दिन भर में दो बार मुस्कराते हैं,
केवल एक बार हंसते हैं
ठहाका तो हफ्ते में सिर्फ एक बार लगाते हैं।
इतना सब सुनकर
हंसने के लिये मैं खुद गुदगुदी करता हूं
हंसी गले तक आती है फिर लौट जाती है
हंसी का कोई प्रायोजक नहीं मिलता है
अपने आप हंसना घाटे का सौदा लगता है
ऐसे में कौन किसे हंसाये ,किसे गुदगुदाये
सब अपने में व्यस्त हैं परेशान -हड़बड़ाये,
यही सब सोचकर मैंने अपनी कलम उठायी
होली का मौका मुफीद समझा और यह कविता सुनायी।

फ़ुरसतिया

अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।

9 responses to “हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है”

  1. Laxmi N. Gupta
    सुकुल जी,
    आपका जवाब नहीं। बहुत धाकड़ कविता है। बाँटने के लिये धन्यवाद।
  2. अनुराग
    बहुत बढ़िया बीमारी के बारे में बताया. पर अनूप जी, अफसोस इस बात का है कि तरह-तरह के टीकाकरण (वैक्सिनेशन) की मदद से हमने इस बीमारी का समूल नाश (इर्राडिकेट) करने की ठान सी ली है.
    काश, इस बीमारी की महामारी फैले.
    बहुत सहज तरीके से लिखी रचना है, खास कर “टिलीलिली”.
  3. समीर लाल
    मान्यवर महाकवि महोदय,
    कृप्या अन्यथा न लें, मगर यह भी कैसी उम्र दराजी कि दराज से निकाल निकाल कर कविता पढ़वाई जा रही है. अगर सिर्फ़ लिंक भी देते तो हम जरुर जाते और गये ही थे. देखिये बुरा मत मानियेगा इसके लिये तीन स्माईली :) :) :)
    —वैसे सच तो यह है कविता इतनी बढियां है कि दो बार तो क्या, तीन चार बार भी छापेंगे तो भी लोग बार बार पढ़ेंगे, मुस्करायेंगे, ठहाके लगायेंगे-यह सब वैसे भी आजकल कहाँ नसीब है आमतौर पर.
  4. संजय बेंगाणी
    हँसना-हँसाना क्या इतना है जटील?!
    कोई बुका फाड़ हँसता,
    कोई मुस्कुराता कुटील.
    कोई खुशी में तो कोई गम से हँसता है.
    कविता खुब गुदगुदाएगी
    फुरसतिया के चंगुलमें क्यों फसता है?
    अन्यथा न ले. क्या करें कविता भी छूत की बिमारी है.
  5. प्रत्यक्षा
    हँसा तो दिया ,अब ये बताईये कि फूलों को डरा कर कहाँ भगा दिया । ठहाका ज़रा ज्यादा ज़ोर का लग गया क्या ? :-)
  6. प्रियंकर
    सुकुल जी महाराज,
    आपकी कविता तो खण्ड-काव्य को टक्कर दे रही है . लगता है बगल में रवीन्द्र सरोवर के लाफ़िंग क्लब के सदस्यों को इसकी एक कॉपी देनी पड़ेगी .
  7. ‍अभिनव
    कविता पढ़ कर आनंद आया, यायावरी का किस्सा भी बढ़िया लगा।
  8. Jagat Ram
    Bhut hi Achha, sach mai aaj hansi to gayab hi ho gaee hai

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