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मीडिया: ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही- अखिलेश मिश्र
By फ़ुरसतिया on February 26, 2007
[पिछ्ली बार जब मैं श्रीलाल शुक्लजी
मिलने उनके घर गया था तो अनायास उनकी किताबों की अलमारी में रखी किताबें
पलटने लगा। उन्हीं किताबों में एक किताब थी प्रख्यात पत्रकार स्व. अखिलेश
मिश्र का लेख संग्रह पत्रकारिता:मिशन से मीडिया तक। कुछ
दिन पहले ही मैंने एक अखबार में इसकी समीक्षा पढ़ी थी। उस समय तक मैंने
किताब तो पढ़ी नहीं थी लेकिन अखिलेश मिश्र का परिचय पढ़ चुका था। अखिलेश
मिश्र के लिये एक विशेषण बहुधा सभी इस्तेमाल करते थे चाहे वह उनके जानने
वाले हों,उनके प्रशंसक, उनके पाठक या साथी- विलक्षण व्यक्ति।
उनकी विद्वता, वक्तृता, सहजता, सरलता, सादगी के अलावा उनका एक और गुण था
जो उन्हें विशिष्ट बनाता था वह थी उनकी निर्भीकता। उनमें भीड़ के खिलाफ़,
सत्ता के खिलाफ़, धारा के खिलाफ़ अकेले खड़े होने का और मुकाबला करने का साहस
था। सरकारों, अखबार, मालिकों, राजनैतिक दलों, समाज के गुंडों, माफियाओं और
विश्वविद्यालय में पलनेवाले गुंडों के सन्दर्भ में उनका यह गुण लगातार
सामने आता रहा। वह अनेक स्वयंसेवी संस्थानों को भी सलाह-मशविरा देते रहते
थे। उनके रहते किसी को एनसाइक्लोपीडिया या डिक्शनरी देखने की जरूरत नहीं
पड़ती थी। सुबह विश्वविद्यालय में पत्रकारिता की शिक्षा देना, फिर कोई लेख
या गोष्ठी या कोई और कार्यक्रम, शाम कोई शोधार्थी। अखिलेश मिश्र की एडवांश
बुकिंग करानी पड़ती थी लेकिन विद्यार्थी किसी समय भी आये उसे अखिलेश मिश्र
सदैव उपलब्ध हैं, सो रहे हों तो स्पष्ट निर्देश कि कोई बिद्यार्थी आये तो
मुझे जगा देना।
ऐसे व्यक्ति के संबंध में जानकर उनके लेख पढ़ने का अनायास मन हो आया। श्रीलाल शुक्ल जी ने जब मुझे किताब पलटते देखा तो वह किताब मुझे अपने साथ ले जाने को दे दी। हमने कहा- हम पढ़कर वापस कर देंगे लेकिन वे बोले आप ले जाओ वापस करने की जरूरत नहीं है।
बहरहाल जब मैंने इस किताब के लेख देखे तो कुछ लेख मुझे बहुत अच्छे लगे। उन्हीं में से एक लेख जो कि मीडिया की बदलती स्थिति के बारे में है -ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही मैं यहां पोस्ट कर रहा हूं। इनमें उन कारणों की पड़ताल की गयी है जिसके चलते मीडिया की प्रभाव क्षेत्र तो व्यापक हुआ है लेकिन उसका सम्मान कम होता गया। लेख पढ़त समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह उस पीढ़ी के पत्रकार के विचार हैं जो अपना इस्तीफ़ा जेब में रखते थे, जिनका आदर्श वाक्य था- किसी की नियत पर सन्देह मत करो, और पत्रकारों की सुरक्षा के बारे में जिनका मानना था - पत्रकार की वास्त्विक सुरक्षा है उसकी तेजस्विता, ओजस्विता, उसका खरापन, दीनजन-पीड़ित-शोषित से उसकी आत्मीयता। यह सब जिन्हें रास नहीं आता है वे ही आज पत्रकार को सुरक्षा तथा सुविधा में कैद करना चाहते हैं।]
एक पुरानी घटना याद आ रही है। बुजुर्ग एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री चन्द्र अग्निहोत्री आजादी के बाद काफ़ी ऊंचे पदों पर पहुंचे। आजादी के पहले भी वह अनुभवी सम्पादकों में गिने जाते थे। अब संसार में नहीं है। उस दिन बहुत गमगीन मिले। जेब कट गई थी। एक लिफ़ाफ़ा निकल गया था। पूछने पर उन्होंने बताया कि उसमें नोट-वोट नहीं थे। लेकिन कागज थे। दो-तीन कविताएं थीं, कुछ पते और फ़ोन नम्बर थे। अंग्रेजी में बोले-”वेरी लिटिल प्राइस बट वेरीग्रेट वैल्यू फ़ार मी।” मैंने सोचा अभारी जेबकतरे ने सिर पीट लिया होगा। किस मनहूस जेब पर हाथ पड़ा। तीन दिन बाद वह बहुत खुश मिले। लिफ़ाफ़ा सही-सलामत कोई उनके घर पर डाल गया था। लिफ़ाफ़े पर पता लिखा था। गिरहकट ने सोचा होगा एक बार तो पुण्य कमा लें, ईमानदार बन लें। वह बोले कि अगर कोई
हिन्दी पत्रकार का लेबल आगे-पीछे चिपकाकर चले तो उसकी जेब न कटे। लेकिन क्या आज वैसी घटना हो सकती है? आज तो लिफ़ाफ़े की जगह पर्स होगा। उसमें
धेला न हो लेकिन पर्स ही इतना कीमती होगा कि उसे कोई लौटाने नहीं आएगा। आजादी के पहले और बाद की पत्रकारिता का फ़र्क यह एक घटना ही जता देती है।
एक और घटना याद आ रही है। एक हिन्दी अखबार के सम्पादकीय दफ़्तर में कोई सेठजी आ पहुंचे। उन दिनों ‘एसोसिएट प्रेस आफ़ इंडिया’ और ‘रायटर‘ का ही टेलीप्रिंटर अखबारों में लगा करता था। अन्य किसी संवाद समिति को टेलीप्रिंटर की सुविधा न थी। देशी भाषाओं के अखबारों को भी खबरें अंग्रेजी में ही मिलती थी। उस टेलीप्रिंटर पर रात एक बजे के बाद कोई विदेशी बाजार भाव आता था। मिलता सबको था पर उसे छापते सिर्फ़ अंग्रेजी अखबार थे। हिन्दी पाठकों की उसमें रूचि न थी। अंग्रेजी अखबार वह जानकारी लेकर अपने पाठकों के हाथ में सबेरे पांच बजे से पहले नही पहुंचते थे।
सेठजी चाहते थे कि वह जानकारी उन्हें टेलीप्रिंटर पर आते ही मिल जाए। उनकी तरफ़ से फ़ोन आएगा, इधर से कोई बता दे। इसके लिए सेठजी २० हजार रूपया
माहवार देने को तैयार थे। आपस में लोग जैसे चाहें, बांट लें। यह रकम सेठजी ने खुद ही बताई थी। मोल-भाव होता तो शायद ज्यादा पर भी राजी हो जाते। लेकिन इतना सुनते ही सब पत्रकार आगबबूला हो गए। कैसे यहां आकर यह कहने की हिम्मत की? सेठजी बेआबरू होकर वहां से निकले। अन्य अखबारों को भी
सावधान कर दिया गया। बाद में सेठजी की मंश किसी अखबार से नहीं किसी सरकारी दफ़्तर से पूरी हुई जहां टेलीप्रिंटर लगा था। जानने लायक बात यह है कि उस हिन्दी अखबार के सब कर्मचारियों के कुल वेतन का टोटल इस रकम के आधे से कम था। टेलीप्रिंटर सम्बन्धी नियम वही आज भी हैं। यों भी अखबार में
आनेवाली कोई भी जानकारी केवल प्रकाशनार्थ होती है। प्रकाशन से पहली उसका उपयोग अन्य किसी रूप में नहीं होना चाहिए। लेकिन आज इन नियम को कितना
माना जाता है? वैसी परिस्थिति में आज क्या किया जाएगा, बातानी की जरूरत नहीं है। वैसा करनेवाला आज दकियानूस और उल्लू समझा जाएगा। अब तो हाथ पसार कर रकमें ली जा रही है। मेज की दराज और जेब में लिफ़ाफ़े पहुंच रहे हैं। अब उन सेठजी की इज्जत होगी।
मीडिया शब्द तब भी था लेकिन तब अखबारों से नत्थी पत्रकारों को इस शब्द की परिधि में नहीं लिया जाता था। इस शब्द से विज्ञापन, प्रसार आदि विभागों
का बोध होता था। तब कुछ एजेंसियां समाचार, विचार सेवा के अलावा विज्ञापन सेवा भी चलाती थीं। वे अक्सर सम्पादक को पत्र लिखती थी, “आपसे हमारे मधुर मीडिया सम्बन्ध स्थापित हो चुके है। हम चाहते हैं कि आप हमारी समाचार-विचार सेवा का भी उपयोग करें।” इस भाषा से यह स्पष्ट है कि मीडिया
के अन्तर्गत पत्रकार नहीं आते थे। बाद में ‘इलेक्ट्रोनिक मीडिया’ प्रयोग चला। पहले उसका अर्थ था रेडियो प्रसारण तन्त्र। बाद में मीडिया में
सरकारी प्रचार तन्त्र के सूचना अधिकारी गिने जाने लगे। बहुत पुरानी बात नहीं है। सन १९८७ में मैं लखनऊ से बाहर एक पत्र का सम्पादक था। लखनऊ से
इंस्टीट्यूट आज मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट ने जवाबी तार भेजकर पूछा था। कि उनके यहां चल रहे जिला सूचना अधिकारी प्रशिक्षण शिविर में मीडिया विषयक
लेक्चर देने के लिए क्या मैं तीन-चार दिन समय निकाल पाऊंगा। अखबार के विज्ञापन व्यवस्थापक ही तार लेकर मेरे पास आए और बोले ” मीडिया विषय पर
आपको क्यों? मुझे बुलाना चाहिए था।” उस दिन लगा कि मीडिया शब्द पत्रकारों पर ठोंका जा रहा है। शास्त्री भवन से सेवानिव्रत्त एक उच्च अधिकारी भी बताते है कि मीडिया शब्द का इंजेक्शन पत्रकारों को लगाने की योजना यही कोई दस वर्ष से चल रही है। उस युग के पत्रकार अपने लिए मीडिया शब्द सुनकर बिगड़ उठेंगे। आज के पत्रकार बड़े फ़ख्र से अपने को मीडिया में शामिल मानते है।
बात केवल शब्द की नहीं है। मीडिया शब्द से व्यावसायिक बिचौलिया या दलाल जैसी गन्ध आती है। दलाल ने शताब्दियों तक बहुमूल्य सेवा की। उसकी एक साख
है, उसकी बात कभी खाली नहीं जाती। वह दोनों पक्षों का हित साधता है। करोड़ो का सौदा बिना लिखे-पढ़े उसकी जबान पर होता है। आज का पत्रकार शायद
उस इज्जत के लायक नहीं है। उसकी दलाली का लेन-देन बहुत कुछ ठगी के अन्तर्गत आता है। लेकिन उस युग का पत्रकार मिडिल मैन बनना ही पसन्द नही
करता था। वैस्टमिन्स्टर ने जिस लोकतन्त्र का झंडा उठाया उसमें पत्रकार को कैमरे की-सी भूमिका दी गई। किसी ने बहुत दिया तो पत्रकार को गूंगी प्रजा
के वकील की हैसियत दे दी। लेकिन आजादी से पहले वाले हिन्दी पत्रकार को यह सब लेबल बुरे लगते थे। बिचौलिया, दलाल, कैमरा, वकील, या घटनाक्रम का
सिर्फ़ तमाशबीन या किस्सागो वह नही था।
वह जनता मे से एक था, जनता के दु:ख-दर्द का दर्शक नहीं, भोक्ता था। जनता पर होनेवाले प्रहार पहले अपने ऊपर लेता था। वह खोपड़ी फ़ुड़वाकर, हाथ तुड़वाकर जनसंघर्षो का समाचार लाता था। वह दंगे रोकने के लिए दंगो में घुसकर गणेशशंकर विद्यार्थी की तरह जान देता था। उत्सर्ग न करते बन पाए तो सिर्फ़ कलम घिसाई किसी इज्जत के लायक नही थी। आर्थिक द्रष्टि से हिन्दी पत्रकार की कोई हैसियत नहीं थी। वह पीर, बावर्ची, भिश्ती सब था। एक अखबार में सम्पादक, कमपोजिटर, प्रूफ़रीडर, चपरासी व हांकर-ये सब ड्यूटियां मैं भी दे चुका हूं। कुछ पहले श्री चन्द्र अग्निहोत्री का जिक्र आया। उनकी रची एक लम्बी कविता का एक पद याद रखने लायक है:
तब लोग पत्रकार की कलम की शक्ति से वाकिफ़ थे, उसकी शक्ल नहीं पहचानते थे। एक बड़े पत्रकार के बारे में बता दूं। वह रोज जिस दुकान पर एक बार नही, कई
बार पान खाते थे. उस पर वही अखबार आता था। जिसके वह स्वयं सम्पादक थे। दुकान पर उस अखबर में छपी खबरों, लेखो, तस्वीरों आदि की चर्चा भी ग्राहकों के बीच होती थी। वह सुनते थे, मजा लेते थे. नसीहत लेते थे, लौटकर दफ़्तर में बताते भी थे कि बाजार में यह कहा जा रहा है। लेकिन वहां चर्चा करनेवाला कोई न जानता था कि अखबर का सम्पादक उनके बीच खड़ा है। सम्पादक जी जब मरे तो हर अखबार में फ़ोटो छपी. मोटी हैडिंग लगी। पानवाला उस दिन माथा ठोंककर सबसे कह रहा था-”हाय राम, ये तो वही हैं जो रोज हमारी दुकान पर पान खाते थे। पता ही नही चला, नहीं तो एक बार उनके पांव की धूल माथे पर लगाता ही।” उस पीढ़ी के सैकड़ो पत्रकार ऎसे हैं जिनका नाम लोग जानते है पर उन्हें पहचानते नहीं। मन्त्री, दारोगा या अफ़सर आदि से उनकी पूरे जीवन में पांच-छ: बार भी भेंट हुई हो तो बहुत है। गए भी तो सिर्फ़ जानकारी पाने के लिए। तब कोई पत्रकार किसी से कोई काम करा सके, इस लायक नहीं माना जाता था। किसी से कुछ कराने के लिए, उसके लिए कलम से कुछ करना पड़ता। इसके लिए पत्रकार राजी नहीं था।
एक सम्पादक के घर पर बदमाशों ने कब्जा करके उनका सामान फ़ेंक दिया। वह मन मारकर चले गए। कई महीनों मय परिवार एक परिचित के बरामदे मे सोए। तब कुछ इन्तजाम हुआ। अपना घर कभी वापस न पा सके। क्या करते, किसी को जानते न थे। साइकिल पर च्लाते थे। अक्सर बीमार कम्पोजीटर को अपने कैरियर पर बैठा लेते थे। उनके पैर जमीन पर थे। आज का पत्रकार देवताओं की तरह आकाश मार्ग पर चलता है। देवता कौन है? तुलसी बता गए है: ऊंच निवास नीच करतूती, देखि न सकहिं परारि विभूती।’ पत्रकार अगर देवता है तो सम्पादक हुए सुरपति यानी इन्द्र। तुलसी के शब्दों में ‘ सूख हाड़ लै भाग सठ तिमि सुरपतिहि न लाज।’ कूकुर तो पत्रकार को कहा ही जाता था लेकिन इतना बेहया कूकुर? पत्रकार और सम्पादक इस आईने में जरा अपना चेहरा देख लें। उस युग के पत्रकारों से कोई गरीब किसी मेंड़ या फ़ुटपाथ पर आमने-सामने उकड़ूं बैठकर बात कर सकता था। टुटही साइकिल पर फ़टा पजामा, बिना बटन कमीज पहने वह राजभवन और सचिवालय जाकर किसी से मिल लेता था। सम्पादकीय विभाग में फ़रार, हिस्ट्रीशीटर भी
वेवक्त, बेरोकटोक पहुंकर अपनी बात बता आते थे। न गेट पर जिरह होती थी, न मुखबिरी का डर था। अखबार में जो छपता था उसकी जिम्मेदारी सम्पादक पर थी।
वह स्त्रोत नहीं बताता था, चाहे प्राण चले जाएं। एक सम्पादक ने सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी से कहा था कि ‘अखबार में जो कुछ गलती है, मेरी है। गलती सिर्फ़ मैं कर सकता हूं और किसी की गलती मेरे रहते छपेगी कैसे?”
तब सरकार किसी पत्रकार को मान्यता नहीं देती थी। सरकार से मान्यता पाना कोई पत्रकार पसन्द नहीं करता था। सम्पादक से मान्यता मिले इतना ही काफ़ी
था। सरकार को अपना प्रचार कराना हो तो उसे माने। तब डेस्क और फ़ील्ड के बीच कोई दीवार नहीं थी। सम्पादक भी खबरें लाते थे। उनकी खबर पर भी ‘विशेष
संवाददाता’ ही छपता था।
नटवर लाल की पहली गिरफ़्तारी की खबर के मामले में लखनऊ के एक हिन्दी अखबार ने सब अखबारों को पछाड़ दिया था। वह खबर कैसे आई थी। सम्पादकीय विभाग के लोग घर जा चुके थे। अखबार के पेज मशीन पर पहुंच चुके थे। कैसरबाग कोतवाली पर चहल-पहल देखी। तुरन्त घुसे। अपने को सम्पादक बताया। खबर ली, तेज चाल से लौटे। मशीन रूकवाई। खुद खबर लिखी, हेडिंग लगाई, टेलीफ़ोन पर सम्पादक से इजाजत ली और पहले पेज पर ठोंक दी।
एक बार बाढ़ से उफ़नती गोमती नदी के उस पार की खबर लाने के लिए यही शर्माजी तैरकर गए और लौटे। उनके रह्ते उनके अखबार में खबर कैसे न जाती! जान की जोखिम उठाई। सबने बुरा-भला कहा। लेकिन उन्हें परवाह नहीं थी। कहीं कोई उन्हें मालिकों का चमचा न कह दे। वह मजदूर नेता थे। कई बार इंकलाब
जिन्दाबाद और मजदूर हड़ताल करा चुके थे। वह कहा करते थे कि छात्र नेता वह बने जो पढ़ाई में आगे हो, मजदूर नेता वही हो सकता है जो ज्यादा कर्मठ हो।
उनकी वफ़ादारी अपनी आत्मा के प्रति थी। आज शर्माजी भी इस दुनिया में नही हैं। उनकी वाणी कानों मे गूंज रही है।
इन इन सब बातो का असर था या और कोई कारण थे। एक फ़र्क तो साफ़ दिखाई पड़ रहा है। हिन्दी के चौपतिया अखबार मे उन दिनों चार लाइनें प्रशासन शिकायत में छप जाती थें तो प्रशासन में तहलका मच जाता था। सचिवालय में मातम होता था। अब पहले पेज पर चार कालमो हेडिंग देकर रंगीन फ़ोटो देकर छापिए, कोई परवाह नहीं करता।
तब अखबार समाचार-पत्र थे, बंगाल में खबर-कागज। अधिकतम सम्भव घटनाओं की जानकारी देनेवाला अखबार बढ़िया। एक रात्रि सम्पादक ने एक दिन अखबार में फ़ी पेज औसतन पचास खबरें दी थीं। दूर-दूर तक उनकी तारीफ़ होती थी। सिंगल और डबल खबरों को लेकर सुन्दर पेज बना देना भी एक हुनर था। उन दिनों भारत के प्रमुख राष्ट्रवादी अंग्रेजी दैनिक, मद्रास के ‘हिन्दू’ में सब खबरें सिंगल कालम ही छपती थी और हर पेज बढ़िया सजा हुआ होता था। एक दिन लखनऊ के
‘नेशनल हेराल्ड’ ने यही प्रयोग कर दिखाया था। तब होड़ अधिक से अधिक खबरें देने की होती थी। आज अखबार का पूरा पेज बस पांच-छ: मोटी भड़कीली हेडिंग के
नीचे छापी सामग्री से भर जाता है। उसमें घट्ना नहें होती, खबर नहीं होती। रिपोर्टर के नाम के नीचे निजी या प्रेरित विचार या प्रभावहीन प्रचार ही छपते हैं। समाचार है घटना, वही नदारद होती है। स्टाक मार्केट और शेयर तो खैर देश की नई धारा है। जुआ, सट्टा, लाटरी आदि की जनरूचि आजादी के बाद पैदा हुई।
अब सम्पादक एवं प्रत्रकार ठेके पर नियुक्त किए जाते है। ठेका अधिकतम तीन साल का, वैसे आमतौर पर छ: माह का होता है। अब तो सम्पादक और पत्रकार के
मन में कभी जीविका सम्बन्धी निश्चिन्तता आती ही नहीं। स्वभावत: ध्यान कम से कम समय में भले-बुरे किसी ढंग से अधिक से अधिक धन बटोरने की तरफ़ होगा। अब अखबार के साथ कोई अपनी आत्मा को जोड़ना पसन्द ही नहीं करेगा। तब अखबार सम्पादक या पत्रकार के नाम से जाने जाते थे। पराड़कर वा ला ‘आज’, तुषार बाबू वाला ‘पत्रिका’, डेसमेंड यंग वाला ‘पायनियर’, बालमुकुन्द गुप्त का ‘भारत मित्र’, रामाराव या एम.सी. का ‘हेराल्ड’। अब शायद हयातुल्ला अंसारी
वाला ‘कौमी आवाज’ ही इस किस्म के प्रयोग की अन्तिम कड़ी है। अक्सर किपलिंग, चर्चिल का ‘पायनियर’ भी कह दिया जाता है।
‘पायनियर’ के शताब्दी अंक में चर्चिल का एक लेख छपा था। उसमें एक जगह ‘माइ पायनियर’ लिखा है। किपलिंग और चर्चिल सम्पादक नहीं थे, केवल पत्रकार
थे। ठेकेवाले पत्रकार या सम्पादक में यह आत्मीयता कैसे आएगी? हजार बार नाम छपने से मन नहीं मिलता। कुरपरिणाम पत्र और पत्रकार भुगतते है। उन दिनों एक बार मन मुताबिक सम्पादक मिल गया तो मालिक पूरी जिन्दगी के लिए निश्चिन्त हो गया। अखबार में कब, क्या, कैसे जाएगा, नहीं जाएगा तो क्यों नहीं जाएगा, इन सवालों से मालिक का कोई वास्ता नहीं था। कभी कोई मित्र चिरौरी या शिकायत लेकर आए भी तो वह सीधे सम्पादक के पास भेज दिया जाता था। अन्य पत्रकारों की नियुक्ति, सेवा-शर्ते, छुट्टी, तरक्की, तैनाती पूरी तरह सम्पादक की मर्जी पर।
सम्पादकीय विभाग के लिए सम्पादक का मिजाज ही कानून था। पूरे सम्पादकीय विभाग में सब लोग एक शरीर के अंग थे। उस शरीर में मस्तिष्क था सम्पादक।
सम्पादकीय विभाग के लिए ‘अखबार का परिवार’ कहा जाता था। वह स्थित न अब है, न हो सकती है। परिवार कहीं ठेके पर बनता है। तब ठेके पर कुछ कम्पोजीटर ही होते थे लेकिन ये भी यथाशीघ्र बनाकर परिवार स्थायी कर लिए जाते थे। अब अधिकतर स्टाफ़ ठेके पर ही रखने का रिवाज है।
एक बुनियादी फ़र्क कभी न भूलने लायक है। तब कोई विशुद्ध पत्रकार नहीं होता था। मूलत: राजनीतिज्ञ, समाजसेवी, सुधारक, धर्मनिष्ठ, क्रान्तिकारी,साहित्यकार, मजदूर नेता, छात्र नेता आदि कोई होता था। जिस उद्देश्य के लिए जीता था, जीवन खपाता था उसी के लिए अथवा उस उद्देश्य की स्वतन्त्रता पाने के लिए वह अखबारी कालमों में कलम घिसना भी शुरू कर देता था। पत्रकारिता कोई उद्योग नहीं था जिसके लिए, कोई इस धन्धे में आए। यह धन्धा ऎसा मोहक भी नहीं था कि किसी का मन इधर आने को ललचाता। इस धन्धे में आने के लिए किसी डिग्री-डिप्लोमा की दरकार नहीं थी। तब प्रशिक्षण देता कौन? इस निगोड़े धन्धे का प्रशिक्षण पाने के लिए कौन एक छदाम भी देना पसन्द करता! मेहनत, योग्यता, अध्ययन और मुस्तैदी देखते हुए पगार बहुत कम थी।
आम जनता में तो लोग जानते ही न थे कि पत्रकारिता में काम क्या होता है या कैसे काम होता है। प्रूफ़रीडर, कम्पोजीटर, हाकर से लोग वाकिफ़ थे, बाकी अखबार में कोई क्या काम करता होगा! अच्छा चलो एक मशीनमैन भी सही लेकिन ये सम्पादक और पत्रकार किस खाज के मलहम है? मुझसे एक बार सड़क पर झाड़ू
लगानेवाली ने पूछा था,”भइया, तुम कहां काम करते हो? क्या काम करते हो?” कहां का जवाब तो आसान था लेकिन क्या करता हूं यह बताना जरा मुश्किल था।
यही बताना पड़ा-”इधर-उधर घूमता हूं, देखता हूं, पढ़ता-लिखता हूं।” उसने कहा,”वह सब तो करते हो, देख रही हूं। लेकिन काम क्या करते हो, रोटी कैसे चलती है?” मैं उसे समझा न पाया। एक बार मेरी ससुराल के कुछ लोग मेरा घर नहीं जानते थे तो दफ़्तर पहुंच गए। वहां किसी से पूछा मेरे बारे में। पता लगा कि वह मेकअप करा रहे हैं। उधर शोर मच गया कि फ़लां का दामाद नौटंकी में नाचता है। बड़ी बदनामी हुई। कुछ लोग तो आज तक वही मानते हैं। शादी-ब्याह या रामलीला में अच्छी और सस्ती नौटंकी तय कराने मेरे पास आते हैं। ‘स्वतन्त्र भारत’ के सम्पादक अशोक जी के बारे में तो कई लोगों ने मुझसे पूछा था,”अच्छा प्रूफ़ पढ़ते होगे, पुराने आदमी हैं।” यों उस युग में कुछ प्रूफ़रीडर थे भी बहुत मशहूर। चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, काशी प्रसाद, पुत्तुलाल शर्मा ‘उद्दंड’ अच्छे वैयाकरण,
साहित्यकार, लेखक और कवि माने जाते थे। उस युग में विभागीय घेराबन्दी नहीं होती थी। कई चपरासी, कम्पोजीटर और प्रूफ़रीडर बाद में प्रतिष्ठित सम्पादक होकर निकले।
एक आपबीती सुना दूं। ऎसी घटना अक्सर हो जाती थी। रात को दो बजे ड्यूटी करके लौट रहा था। गश्ती पुलिस से मुठभेड़ हो गई। उनकी समझ में इतनी रात को
सड़क पर चोर, उचक्का या बदमाश ही हो सकता था। सूरत से मैं यो भी भला आदमी नहीं लगता। सो मुठभेड़ का वार्ताक्रम ऎसा चला।
“क्यों बे, कहां जा रहा है? कहां गया था? जेब दिखा?”
“ड्यूटी पर गया था, घर लौट रहा हू।”
“इस वक्त कौन-सा काम होता है, कौन-सी ड्यूटी होती है?”
“बहुतरी होती हैं, आपकी ही है।”
“मजाक करता है (डंडा तानकर) अभी बताता हूं। दो डंडे लगाऊंगा, उसके बाद अन्दर कर दूंगा।”
“अन्दर-बाहर दोनो जगह मेरा काम चलता है। आप अपनी सोच लीजिए।”
इतना कहने पर डंडा पड़ ही गया होता। अन्दर भी हो जाता। वह तो खैर हुई कि उसी समय प्रेस के कुछ वर्कर्स भी उधर से आ निकले। तकदीर अच्छी थी उन्होंने पहचानकर पुकार लिया। हवलदार साहब का हाथ ऊपर का ऊपर रूक गया। उनकी समझ में सिर्फ़ इतना आया था कि आज छापाखाना रात में भी खुला था।
अब ऎसी घटना नहीं हो सकती। अब तो हर पत्रकार की जेब में मय फ़ोटो शिनाख्ती कार्ड होता है। तब शिनाख्ती कार्ड को पत्रकार बेइज्जती मानता था। अखबार में काम करनेवाले को कोई न पहचाने तभी अखबारनवीस बढ़िया खबर लाएगा और अखबार बढ़िया निकलेगा। ‘पायनियर’ शताब्दी में राष्ट्रपति राधाक्रष्णन और
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री दोनो आए थे। जाहिर है तगड़ा सुरक्षा प्रबन्ध था। लेकिन अखबार तो निकलना था। सिर्फ़ चार दिन के लिए सब कर्मचारीयों को फ़ोटो सहित शिनाख्ती कार्ड देने की योजना बनी। उस समय मुख्य उपसम्पादक बोस ने इतना तगड़ा विरोध किया, योजना को इतना अपमानजनक माना कि योजना जमींदोज हो गई। ऎन समारोह के बीच, फ़ाटक पर पुलिस से और किसी की नहीं उसी संस्था में काम कर रहे पत्रकारों की ठायं-ठायं हो गई थी। डंडे उठ गए थे। गनीमत हुई जो घूमे नहीं चले नहीं। सत्य नारायण जायसवाल वहीं काम करते थे। उन्होंने पुलिस के दुर्व्यवहार पर खबर बनाई। पहले पेज पर रखने के लिए बाक्स कम्पोज करा लिया। बड़ी मुश्किल से चिरौरी करके राजी किया गया कि वह खबर न दें, समारोह अपना है, समारोह की बेइज्जती होगी। वह मान गए। न मानते तो वह खबर जाती ही। मालिक में या किसी सरकारी अफ़सर में यह कहने कि हिम्मत नहीं थी कि शिफ़्ट प्रभारी की दी हुई यह खबर पहली पेज पर नहीं जाएंगी। यह घटना आजादी के बाद की है लेकिन ये पत्रकार आजादी के पहले के थे। इसलिए पुरानी हनक बाकी थी। अब ठसक बढ़ गई है, अखबार का रंग, रूप, आकार, सजावट भी बहुत बढ़ गई है। लेकिन हनक न अखबारनवीस की है न अखबार की बची है।
ठसक और हनक में क्या फ़र्क है? यह इस देश का देहाती खूब समझता है। हिन्दी अखबारों के ग्राहक जितने होते हैं, उसके दस गुने पाठक होते हैं। पाठकों की संख्या से दस गुनी संख्या होती है सुन्कर चर्चा करनेवालों की और बतकहीं मे तो उससे कहीं ज्यादा होते हैं। वे सब हनक के मुरीद है। ठसक को अंगूठा दिखा देते है।
अखबार सरकारी आदेश से बन्द होते थे तो पत्रकार जुटकर गैरकानूनी अखबार निकाल देते थे। पिछली इमरजेन्सी मे भी ऎसा हुआ है। ऎसे अखबारों की मुश्किल से सौ, सवा सौ कापी छपती, बंटती रही होंगी। लागत बिक्री से नहीं, अन्य तरीकों से आती थी। सौ परचे बंटकर हजारों जनता के मन में आग लगाते थे। उनकी जर्जर प्रतियां आज भी लोगों के पास सुरक्षित हैं। वे एक सम्पदा की भांति जोगाये जाते हैं। उन्होंने इतिहास बनाया। आज के अखबार जुगराफ़िया पर लड़ते हैं। वे जिले बनवाते हैं, राज्य बंटवाते हैं, भूमि और मकानों पर कब्जा दिलवाते हैं, प्रोमोशन, तबादले और तैनाती कराते हैं। उन्हें आग में जलाया जाता है, कूड़ा फ़ेंकने के काम आता है। तब फ़टे पायजामे, टूटी साइकिल, बटन टूटी कमीजवाले सम्पादक की इज्जत थी, उसमें अपनौनि थी, परतीत थी। अब कार, सफ़ारी, पांचसितारा जिन्दगी का रूआब है, खौफ़ है। जनता की उससे दूरी है, चिढ़ है। नफ़रत भी कम नही। वे दिन देखे हैं ये भी देखने ही हैं। तब अखबारनवीसी थी, अब मीडिया है। जैसा पहले कहा जा चुका है बात केवल शब्द की नही हैं। लाख प्रचार किया जाए लेकिन पुलिस और जनसेवक में फ़र्क है। लाख प्रचार किया जाए, मीडिया और अखबारनवीसी में फ़र्क है। आमदनी ऊपर-नीचे की बढ़ी है। बाजार बढ़ा है। लेकिन जिसे साख कहा जाता है वह घटी है। यह भी हो सकता है कि यह सब इस नजर का दोष हो।
याद आ रहा है नाम-जगदम्बाप्रसाद मिश्र ‘हितैषी’। चोटी के कवि, सवइया छन्द के अधिकारी, गद्य में साफ़-सुथरी शैली के लेखक, क्रान्तिद्रष्टा, स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानी गणेशशंकर विद्यर्थी के साथी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी के मर्मज्ञ विद्वान और पत्रकार। उनकी कुछ वाणी तो मुहावरों में पहुंच चुकी है। यों तो उमर खैय्याम का हिन्दी अनुवाद बहुतों ने किया है लेकिन फ़ारसी न समझने के कारण अधिकतर लोगों ने फ़िटजरल्ड के अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी में उल्था किया है। फ़िटजरल्ड का अनुवाद बहुत अच्छा है। लेकिन सूफ़ी दर्शन और गणितशास्त्र की जो गहराई उमर खैय्याम में है उसे फ़िटजरल्ड पकड़ नही पाए। हितैषी ने मूल फ़ारसी से अनुवाद किया। उन्होंने भाव पकड़ा है। खैय्याम के दर्शन और विज्ञान के प्रति उनकी आस्था है। उनका एक छन्द यहां दोहरा देने को जी चाहता है। हितैषी का अभीष्ट तो र्शनिक रहा होगा लेकिन आज के हिन्दी पत्रकारिता के लिए यह छन्द भविष्यद्रष्टा जान पड़ता है।
उत्तर प्रदेश में एक मुख्यमन्त्री ऎसे भी हो चुके हैं जो बहुत बदजबान थे। एक बार उन्होंने अध्यापक बिरादरी के विरूद्ध बेहद अपमानजनक बातें कहीं। पत्रकारों ने यह बात शिक्षकों की सभा में पहुंचाई। सभा में यहां तक कहा गया कि राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान किया तो एक शिष्य अर्जुन ने द्रुपद को नतीजा दिखा दिया। अब वैसा क्यों नही होता। शिक्षकों ने आजिजी से कहा,”हमने एक भी अर्जुन पैदा नही किया।” बाद में वही मुख्यमन्त्री करीब दो दर्जन पत्रकारों के बीच पत्रकारों को मां-बहन की गाली दे बैठे। खबर केवल इतनी छपी। खबर में यह नही छपा था कि किसी अखबारनवीस ने उसी समय गाली का जवाब जूते से दिया है। इसी से साबित हुआ कि जो अपमान हुआ, कम था। पत्रकार अधिक अपमान के लायक हैं। और अब वह मुख्यमन्त्री स्वर्ग में हैं। परमात्मा उनकी आत्मा को शान्ति दे और मीडिया को अधिक अपमान सहते रहने की शक्ति प्रदान करे ताकि वह दलाली कार सकें, छोटो लोगों पर रूआब गालिब कर सके और शक्तिशाली के आगे दुम हिलाने के लायक बनी रह सके।
लेखक: स्व. अखिलेश मिश्र
पुस्तक पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तक
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ- २८७, मूल्य-१२५ रुपये
पहला संस्करण: २००४
ऐसे व्यक्ति के संबंध में जानकर उनके लेख पढ़ने का अनायास मन हो आया। श्रीलाल शुक्ल जी ने जब मुझे किताब पलटते देखा तो वह किताब मुझे अपने साथ ले जाने को दे दी। हमने कहा- हम पढ़कर वापस कर देंगे लेकिन वे बोले आप ले जाओ वापस करने की जरूरत नहीं है।
बहरहाल जब मैंने इस किताब के लेख देखे तो कुछ लेख मुझे बहुत अच्छे लगे। उन्हीं में से एक लेख जो कि मीडिया की बदलती स्थिति के बारे में है -ठसक बढ़ गई, हनक जाती रही मैं यहां पोस्ट कर रहा हूं। इनमें उन कारणों की पड़ताल की गयी है जिसके चलते मीडिया की प्रभाव क्षेत्र तो व्यापक हुआ है लेकिन उसका सम्मान कम होता गया। लेख पढ़त समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि यह उस पीढ़ी के पत्रकार के विचार हैं जो अपना इस्तीफ़ा जेब में रखते थे, जिनका आदर्श वाक्य था- किसी की नियत पर सन्देह मत करो, और पत्रकारों की सुरक्षा के बारे में जिनका मानना था - पत्रकार की वास्त्विक सुरक्षा है उसकी तेजस्विता, ओजस्विता, उसका खरापन, दीनजन-पीड़ित-शोषित से उसकी आत्मीयता। यह सब जिन्हें रास नहीं आता है वे ही आज पत्रकार को सुरक्षा तथा सुविधा में कैद करना चाहते हैं।]
एक पुरानी घटना याद आ रही है। बुजुर्ग एवं वरिष्ठ पत्रकार श्री चन्द्र अग्निहोत्री आजादी के बाद काफ़ी ऊंचे पदों पर पहुंचे। आजादी के पहले भी वह अनुभवी सम्पादकों में गिने जाते थे। अब संसार में नहीं है। उस दिन बहुत गमगीन मिले। जेब कट गई थी। एक लिफ़ाफ़ा निकल गया था। पूछने पर उन्होंने बताया कि उसमें नोट-वोट नहीं थे। लेकिन कागज थे। दो-तीन कविताएं थीं, कुछ पते और फ़ोन नम्बर थे। अंग्रेजी में बोले-”वेरी लिटिल प्राइस बट वेरीग्रेट वैल्यू फ़ार मी।” मैंने सोचा अभारी जेबकतरे ने सिर पीट लिया होगा। किस मनहूस जेब पर हाथ पड़ा। तीन दिन बाद वह बहुत खुश मिले। लिफ़ाफ़ा सही-सलामत कोई उनके घर पर डाल गया था। लिफ़ाफ़े पर पता लिखा था। गिरहकट ने सोचा होगा एक बार तो पुण्य कमा लें, ईमानदार बन लें। वह बोले कि अगर कोई
हिन्दी पत्रकार का लेबल आगे-पीछे चिपकाकर चले तो उसकी जेब न कटे। लेकिन क्या आज वैसी घटना हो सकती है? आज तो लिफ़ाफ़े की जगह पर्स होगा। उसमें
धेला न हो लेकिन पर्स ही इतना कीमती होगा कि उसे कोई लौटाने नहीं आएगा। आजादी के पहले और बाद की पत्रकारिता का फ़र्क यह एक घटना ही जता देती है।
एक और घटना याद आ रही है। एक हिन्दी अखबार के सम्पादकीय दफ़्तर में कोई सेठजी आ पहुंचे। उन दिनों ‘एसोसिएट प्रेस आफ़ इंडिया’ और ‘रायटर‘ का ही टेलीप्रिंटर अखबारों में लगा करता था। अन्य किसी संवाद समिति को टेलीप्रिंटर की सुविधा न थी। देशी भाषाओं के अखबारों को भी खबरें अंग्रेजी में ही मिलती थी। उस टेलीप्रिंटर पर रात एक बजे के बाद कोई विदेशी बाजार भाव आता था। मिलता सबको था पर उसे छापते सिर्फ़ अंग्रेजी अखबार थे। हिन्दी पाठकों की उसमें रूचि न थी। अंग्रेजी अखबार वह जानकारी लेकर अपने पाठकों के हाथ में सबेरे पांच बजे से पहले नही पहुंचते थे।
सेठजी चाहते थे कि वह जानकारी उन्हें टेलीप्रिंटर पर आते ही मिल जाए। उनकी तरफ़ से फ़ोन आएगा, इधर से कोई बता दे। इसके लिए सेठजी २० हजार रूपया
माहवार देने को तैयार थे। आपस में लोग जैसे चाहें, बांट लें। यह रकम सेठजी ने खुद ही बताई थी। मोल-भाव होता तो शायद ज्यादा पर भी राजी हो जाते। लेकिन इतना सुनते ही सब पत्रकार आगबबूला हो गए। कैसे यहां आकर यह कहने की हिम्मत की? सेठजी बेआबरू होकर वहां से निकले। अन्य अखबारों को भी
सावधान कर दिया गया। बाद में सेठजी की मंश किसी अखबार से नहीं किसी सरकारी दफ़्तर से पूरी हुई जहां टेलीप्रिंटर लगा था। जानने लायक बात यह है कि उस हिन्दी अखबार के सब कर्मचारियों के कुल वेतन का टोटल इस रकम के आधे से कम था। टेलीप्रिंटर सम्बन्धी नियम वही आज भी हैं। यों भी अखबार में
आनेवाली कोई भी जानकारी केवल प्रकाशनार्थ होती है। प्रकाशन से पहली उसका उपयोग अन्य किसी रूप में नहीं होना चाहिए। लेकिन आज इन नियम को कितना
माना जाता है? वैसी परिस्थिति में आज क्या किया जाएगा, बातानी की जरूरत नहीं है। वैसा करनेवाला आज दकियानूस और उल्लू समझा जाएगा। अब तो हाथ पसार कर रकमें ली जा रही है। मेज की दराज और जेब में लिफ़ाफ़े पहुंच रहे हैं। अब उन सेठजी की इज्जत होगी।
मीडिया शब्द तब भी था लेकिन तब अखबारों से नत्थी पत्रकारों को इस शब्द की परिधि में नहीं लिया जाता था। इस शब्द से विज्ञापन, प्रसार आदि विभागों
का बोध होता था। तब कुछ एजेंसियां समाचार, विचार सेवा के अलावा विज्ञापन सेवा भी चलाती थीं। वे अक्सर सम्पादक को पत्र लिखती थी, “आपसे हमारे मधुर मीडिया सम्बन्ध स्थापित हो चुके है। हम चाहते हैं कि आप हमारी समाचार-विचार सेवा का भी उपयोग करें।” इस भाषा से यह स्पष्ट है कि मीडिया
के अन्तर्गत पत्रकार नहीं आते थे। बाद में ‘इलेक्ट्रोनिक मीडिया’ प्रयोग चला। पहले उसका अर्थ था रेडियो प्रसारण तन्त्र। बाद में मीडिया में
सरकारी प्रचार तन्त्र के सूचना अधिकारी गिने जाने लगे। बहुत पुरानी बात नहीं है। सन १९८७ में मैं लखनऊ से बाहर एक पत्र का सम्पादक था। लखनऊ से
इंस्टीट्यूट आज मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट ने जवाबी तार भेजकर पूछा था। कि उनके यहां चल रहे जिला सूचना अधिकारी प्रशिक्षण शिविर में मीडिया विषयक
लेक्चर देने के लिए क्या मैं तीन-चार दिन समय निकाल पाऊंगा। अखबार के विज्ञापन व्यवस्थापक ही तार लेकर मेरे पास आए और बोले ” मीडिया विषय पर
आपको क्यों? मुझे बुलाना चाहिए था।” उस दिन लगा कि मीडिया शब्द पत्रकारों पर ठोंका जा रहा है। शास्त्री भवन से सेवानिव्रत्त एक उच्च अधिकारी भी बताते है कि मीडिया शब्द का इंजेक्शन पत्रकारों को लगाने की योजना यही कोई दस वर्ष से चल रही है। उस युग के पत्रकार अपने लिए मीडिया शब्द सुनकर बिगड़ उठेंगे। आज के पत्रकार बड़े फ़ख्र से अपने को मीडिया में शामिल मानते है।
बात केवल शब्द की नहीं है। मीडिया शब्द से व्यावसायिक बिचौलिया या दलाल जैसी गन्ध आती है। दलाल ने शताब्दियों तक बहुमूल्य सेवा की। उसकी एक साख
है, उसकी बात कभी खाली नहीं जाती। वह दोनों पक्षों का हित साधता है। करोड़ो का सौदा बिना लिखे-पढ़े उसकी जबान पर होता है। आज का पत्रकार शायद
उस इज्जत के लायक नहीं है। उसकी दलाली का लेन-देन बहुत कुछ ठगी के अन्तर्गत आता है। लेकिन उस युग का पत्रकार मिडिल मैन बनना ही पसन्द नही
करता था। वैस्टमिन्स्टर ने जिस लोकतन्त्र का झंडा उठाया उसमें पत्रकार को कैमरे की-सी भूमिका दी गई। किसी ने बहुत दिया तो पत्रकार को गूंगी प्रजा
के वकील की हैसियत दे दी। लेकिन आजादी से पहले वाले हिन्दी पत्रकार को यह सब लेबल बुरे लगते थे। बिचौलिया, दलाल, कैमरा, वकील, या घटनाक्रम का
सिर्फ़ तमाशबीन या किस्सागो वह नही था।
वह जनता मे से एक था, जनता के दु:ख-दर्द का दर्शक नहीं, भोक्ता था। जनता पर होनेवाले प्रहार पहले अपने ऊपर लेता था। वह खोपड़ी फ़ुड़वाकर, हाथ तुड़वाकर जनसंघर्षो का समाचार लाता था। वह दंगे रोकने के लिए दंगो में घुसकर गणेशशंकर विद्यार्थी की तरह जान देता था। उत्सर्ग न करते बन पाए तो सिर्फ़ कलम घिसाई किसी इज्जत के लायक नही थी। आर्थिक द्रष्टि से हिन्दी पत्रकार की कोई हैसियत नहीं थी। वह पीर, बावर्ची, भिश्ती सब था। एक अखबार में सम्पादक, कमपोजिटर, प्रूफ़रीडर, चपरासी व हांकर-ये सब ड्यूटियां मैं भी दे चुका हूं। कुछ पहले श्री चन्द्र अग्निहोत्री का जिक्र आया। उनकी रची एक लम्बी कविता का एक पद याद रखने लायक है:
दौड़ो इधर-उधर और सारी न्यूज आप लो,उन दिनों किसी भी पत्रकार प्रशिक्षण में पत्रकारिता पढ़ाई नहीं जाती थी बल्कि अखबार के दफ़्तरों में सिखाई जाती थी। अब अखबार में संवाददाता का नाम देने की परम्परा थी तब सम्पादक समाचार लानेवाले का नाम किसी को बता देता तो पत्रकार उसके नीचे काम करने से इनकार कर देता। हर पत्रकार अपने सम्पादक की इज्जत का रखवाला था। सम्पादक का विश्वासपात्र बनना ही उसका धर्म था। बाजार मे. सत्ता के गलियारों में या अपने ही संस्था के प्रबन्धतन्त्र में सम्पादक की हीनता दिखाई दे तो पत्रकार नौकरी को लात मार देता था।
कम्पोज भी करो, पढ़ो, ट्रेडिल पर छाप लो।
दाबों बगल में कापियां दर-दर आलाप लो।
पेपर छपा पड़ा है कोई माई-बाप लो।
निकले सुबह से शाम तक, दो एक जो बीसी,
झक मारकर करते रहो अखबारनवीसी।
तब लोग पत्रकार की कलम की शक्ति से वाकिफ़ थे, उसकी शक्ल नहीं पहचानते थे। एक बड़े पत्रकार के बारे में बता दूं। वह रोज जिस दुकान पर एक बार नही, कई
बार पान खाते थे. उस पर वही अखबार आता था। जिसके वह स्वयं सम्पादक थे। दुकान पर उस अखबर में छपी खबरों, लेखो, तस्वीरों आदि की चर्चा भी ग्राहकों के बीच होती थी। वह सुनते थे, मजा लेते थे. नसीहत लेते थे, लौटकर दफ़्तर में बताते भी थे कि बाजार में यह कहा जा रहा है। लेकिन वहां चर्चा करनेवाला कोई न जानता था कि अखबर का सम्पादक उनके बीच खड़ा है। सम्पादक जी जब मरे तो हर अखबार में फ़ोटो छपी. मोटी हैडिंग लगी। पानवाला उस दिन माथा ठोंककर सबसे कह रहा था-”हाय राम, ये तो वही हैं जो रोज हमारी दुकान पर पान खाते थे। पता ही नही चला, नहीं तो एक बार उनके पांव की धूल माथे पर लगाता ही।” उस पीढ़ी के सैकड़ो पत्रकार ऎसे हैं जिनका नाम लोग जानते है पर उन्हें पहचानते नहीं। मन्त्री, दारोगा या अफ़सर आदि से उनकी पूरे जीवन में पांच-छ: बार भी भेंट हुई हो तो बहुत है। गए भी तो सिर्फ़ जानकारी पाने के लिए। तब कोई पत्रकार किसी से कोई काम करा सके, इस लायक नहीं माना जाता था। किसी से कुछ कराने के लिए, उसके लिए कलम से कुछ करना पड़ता। इसके लिए पत्रकार राजी नहीं था।
एक सम्पादक के घर पर बदमाशों ने कब्जा करके उनका सामान फ़ेंक दिया। वह मन मारकर चले गए। कई महीनों मय परिवार एक परिचित के बरामदे मे सोए। तब कुछ इन्तजाम हुआ। अपना घर कभी वापस न पा सके। क्या करते, किसी को जानते न थे। साइकिल पर च्लाते थे। अक्सर बीमार कम्पोजीटर को अपने कैरियर पर बैठा लेते थे। उनके पैर जमीन पर थे। आज का पत्रकार देवताओं की तरह आकाश मार्ग पर चलता है। देवता कौन है? तुलसी बता गए है: ऊंच निवास नीच करतूती, देखि न सकहिं परारि विभूती।’ पत्रकार अगर देवता है तो सम्पादक हुए सुरपति यानी इन्द्र। तुलसी के शब्दों में ‘ सूख हाड़ लै भाग सठ तिमि सुरपतिहि न लाज।’ कूकुर तो पत्रकार को कहा ही जाता था लेकिन इतना बेहया कूकुर? पत्रकार और सम्पादक इस आईने में जरा अपना चेहरा देख लें। उस युग के पत्रकारों से कोई गरीब किसी मेंड़ या फ़ुटपाथ पर आमने-सामने उकड़ूं बैठकर बात कर सकता था। टुटही साइकिल पर फ़टा पजामा, बिना बटन कमीज पहने वह राजभवन और सचिवालय जाकर किसी से मिल लेता था। सम्पादकीय विभाग में फ़रार, हिस्ट्रीशीटर भी
वेवक्त, बेरोकटोक पहुंकर अपनी बात बता आते थे। न गेट पर जिरह होती थी, न मुखबिरी का डर था। अखबार में जो छपता था उसकी जिम्मेदारी सम्पादक पर थी।
वह स्त्रोत नहीं बताता था, चाहे प्राण चले जाएं। एक सम्पादक ने सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी से कहा था कि ‘अखबार में जो कुछ गलती है, मेरी है। गलती सिर्फ़ मैं कर सकता हूं और किसी की गलती मेरे रहते छपेगी कैसे?”
तब सरकार किसी पत्रकार को मान्यता नहीं देती थी। सरकार से मान्यता पाना कोई पत्रकार पसन्द नहीं करता था। सम्पादक से मान्यता मिले इतना ही काफ़ी
था। सरकार को अपना प्रचार कराना हो तो उसे माने। तब डेस्क और फ़ील्ड के बीच कोई दीवार नहीं थी। सम्पादक भी खबरें लाते थे। उनकी खबर पर भी ‘विशेष
संवाददाता’ ही छपता था।
नटवर लाल की पहली गिरफ़्तारी की खबर के मामले में लखनऊ के एक हिन्दी अखबार ने सब अखबारों को पछाड़ दिया था। वह खबर कैसे आई थी। सम्पादकीय विभाग के लोग घर जा चुके थे। अखबार के पेज मशीन पर पहुंच चुके थे। कैसरबाग कोतवाली पर चहल-पहल देखी। तुरन्त घुसे। अपने को सम्पादक बताया। खबर ली, तेज चाल से लौटे। मशीन रूकवाई। खुद खबर लिखी, हेडिंग लगाई, टेलीफ़ोन पर सम्पादक से इजाजत ली और पहले पेज पर ठोंक दी।
एक बार बाढ़ से उफ़नती गोमती नदी के उस पार की खबर लाने के लिए यही शर्माजी तैरकर गए और लौटे। उनके रह्ते उनके अखबार में खबर कैसे न जाती! जान की जोखिम उठाई। सबने बुरा-भला कहा। लेकिन उन्हें परवाह नहीं थी। कहीं कोई उन्हें मालिकों का चमचा न कह दे। वह मजदूर नेता थे। कई बार इंकलाब
जिन्दाबाद और मजदूर हड़ताल करा चुके थे। वह कहा करते थे कि छात्र नेता वह बने जो पढ़ाई में आगे हो, मजदूर नेता वही हो सकता है जो ज्यादा कर्मठ हो।
उनकी वफ़ादारी अपनी आत्मा के प्रति थी। आज शर्माजी भी इस दुनिया में नही हैं। उनकी वाणी कानों मे गूंज रही है।
इन इन सब बातो का असर था या और कोई कारण थे। एक फ़र्क तो साफ़ दिखाई पड़ रहा है। हिन्दी के चौपतिया अखबार मे उन दिनों चार लाइनें प्रशासन शिकायत में छप जाती थें तो प्रशासन में तहलका मच जाता था। सचिवालय में मातम होता था। अब पहले पेज पर चार कालमो हेडिंग देकर रंगीन फ़ोटो देकर छापिए, कोई परवाह नहीं करता।
तब अखबार समाचार-पत्र थे, बंगाल में खबर-कागज। अधिकतम सम्भव घटनाओं की जानकारी देनेवाला अखबार बढ़िया। एक रात्रि सम्पादक ने एक दिन अखबार में फ़ी पेज औसतन पचास खबरें दी थीं। दूर-दूर तक उनकी तारीफ़ होती थी। सिंगल और डबल खबरों को लेकर सुन्दर पेज बना देना भी एक हुनर था। उन दिनों भारत के प्रमुख राष्ट्रवादी अंग्रेजी दैनिक, मद्रास के ‘हिन्दू’ में सब खबरें सिंगल कालम ही छपती थी और हर पेज बढ़िया सजा हुआ होता था। एक दिन लखनऊ के
‘नेशनल हेराल्ड’ ने यही प्रयोग कर दिखाया था। तब होड़ अधिक से अधिक खबरें देने की होती थी। आज अखबार का पूरा पेज बस पांच-छ: मोटी भड़कीली हेडिंग के
नीचे छापी सामग्री से भर जाता है। उसमें घट्ना नहें होती, खबर नहीं होती। रिपोर्टर के नाम के नीचे निजी या प्रेरित विचार या प्रभावहीन प्रचार ही छपते हैं। समाचार है घटना, वही नदारद होती है। स्टाक मार्केट और शेयर तो खैर देश की नई धारा है। जुआ, सट्टा, लाटरी आदि की जनरूचि आजादी के बाद पैदा हुई।
अब सम्पादक एवं प्रत्रकार ठेके पर नियुक्त किए जाते है। ठेका अधिकतम तीन साल का, वैसे आमतौर पर छ: माह का होता है। अब तो सम्पादक और पत्रकार के
मन में कभी जीविका सम्बन्धी निश्चिन्तता आती ही नहीं। स्वभावत: ध्यान कम से कम समय में भले-बुरे किसी ढंग से अधिक से अधिक धन बटोरने की तरफ़ होगा। अब अखबार के साथ कोई अपनी आत्मा को जोड़ना पसन्द ही नहीं करेगा। तब अखबार सम्पादक या पत्रकार के नाम से जाने जाते थे। पराड़कर वा ला ‘आज’, तुषार बाबू वाला ‘पत्रिका’, डेसमेंड यंग वाला ‘पायनियर’, बालमुकुन्द गुप्त का ‘भारत मित्र’, रामाराव या एम.सी. का ‘हेराल्ड’। अब शायद हयातुल्ला अंसारी
वाला ‘कौमी आवाज’ ही इस किस्म के प्रयोग की अन्तिम कड़ी है। अक्सर किपलिंग, चर्चिल का ‘पायनियर’ भी कह दिया जाता है।
‘पायनियर’ के शताब्दी अंक में चर्चिल का एक लेख छपा था। उसमें एक जगह ‘माइ पायनियर’ लिखा है। किपलिंग और चर्चिल सम्पादक नहीं थे, केवल पत्रकार
थे। ठेकेवाले पत्रकार या सम्पादक में यह आत्मीयता कैसे आएगी? हजार बार नाम छपने से मन नहीं मिलता। कुरपरिणाम पत्र और पत्रकार भुगतते है। उन दिनों एक बार मन मुताबिक सम्पादक मिल गया तो मालिक पूरी जिन्दगी के लिए निश्चिन्त हो गया। अखबार में कब, क्या, कैसे जाएगा, नहीं जाएगा तो क्यों नहीं जाएगा, इन सवालों से मालिक का कोई वास्ता नहीं था। कभी कोई मित्र चिरौरी या शिकायत लेकर आए भी तो वह सीधे सम्पादक के पास भेज दिया जाता था। अन्य पत्रकारों की नियुक्ति, सेवा-शर्ते, छुट्टी, तरक्की, तैनाती पूरी तरह सम्पादक की मर्जी पर।
सम्पादकीय विभाग के लिए सम्पादक का मिजाज ही कानून था। पूरे सम्पादकीय विभाग में सब लोग एक शरीर के अंग थे। उस शरीर में मस्तिष्क था सम्पादक।
सम्पादकीय विभाग के लिए ‘अखबार का परिवार’ कहा जाता था। वह स्थित न अब है, न हो सकती है। परिवार कहीं ठेके पर बनता है। तब ठेके पर कुछ कम्पोजीटर ही होते थे लेकिन ये भी यथाशीघ्र बनाकर परिवार स्थायी कर लिए जाते थे। अब अधिकतर स्टाफ़ ठेके पर ही रखने का रिवाज है।
एक बुनियादी फ़र्क कभी न भूलने लायक है। तब कोई विशुद्ध पत्रकार नहीं होता था। मूलत: राजनीतिज्ञ, समाजसेवी, सुधारक, धर्मनिष्ठ, क्रान्तिकारी,साहित्यकार, मजदूर नेता, छात्र नेता आदि कोई होता था। जिस उद्देश्य के लिए जीता था, जीवन खपाता था उसी के लिए अथवा उस उद्देश्य की स्वतन्त्रता पाने के लिए वह अखबारी कालमों में कलम घिसना भी शुरू कर देता था। पत्रकारिता कोई उद्योग नहीं था जिसके लिए, कोई इस धन्धे में आए। यह धन्धा ऎसा मोहक भी नहीं था कि किसी का मन इधर आने को ललचाता। इस धन्धे में आने के लिए किसी डिग्री-डिप्लोमा की दरकार नहीं थी। तब प्रशिक्षण देता कौन? इस निगोड़े धन्धे का प्रशिक्षण पाने के लिए कौन एक छदाम भी देना पसन्द करता! मेहनत, योग्यता, अध्ययन और मुस्तैदी देखते हुए पगार बहुत कम थी।
आम जनता में तो लोग जानते ही न थे कि पत्रकारिता में काम क्या होता है या कैसे काम होता है। प्रूफ़रीडर, कम्पोजीटर, हाकर से लोग वाकिफ़ थे, बाकी अखबार में कोई क्या काम करता होगा! अच्छा चलो एक मशीनमैन भी सही लेकिन ये सम्पादक और पत्रकार किस खाज के मलहम है? मुझसे एक बार सड़क पर झाड़ू
लगानेवाली ने पूछा था,”भइया, तुम कहां काम करते हो? क्या काम करते हो?” कहां का जवाब तो आसान था लेकिन क्या करता हूं यह बताना जरा मुश्किल था।
यही बताना पड़ा-”इधर-उधर घूमता हूं, देखता हूं, पढ़ता-लिखता हूं।” उसने कहा,”वह सब तो करते हो, देख रही हूं। लेकिन काम क्या करते हो, रोटी कैसे चलती है?” मैं उसे समझा न पाया। एक बार मेरी ससुराल के कुछ लोग मेरा घर नहीं जानते थे तो दफ़्तर पहुंच गए। वहां किसी से पूछा मेरे बारे में। पता लगा कि वह मेकअप करा रहे हैं। उधर शोर मच गया कि फ़लां का दामाद नौटंकी में नाचता है। बड़ी बदनामी हुई। कुछ लोग तो आज तक वही मानते हैं। शादी-ब्याह या रामलीला में अच्छी और सस्ती नौटंकी तय कराने मेरे पास आते हैं। ‘स्वतन्त्र भारत’ के सम्पादक अशोक जी के बारे में तो कई लोगों ने मुझसे पूछा था,”अच्छा प्रूफ़ पढ़ते होगे, पुराने आदमी हैं।” यों उस युग में कुछ प्रूफ़रीडर थे भी बहुत मशहूर। चन्द्रिका प्रसाद ‘जिज्ञासु’, काशी प्रसाद, पुत्तुलाल शर्मा ‘उद्दंड’ अच्छे वैयाकरण,
साहित्यकार, लेखक और कवि माने जाते थे। उस युग में विभागीय घेराबन्दी नहीं होती थी। कई चपरासी, कम्पोजीटर और प्रूफ़रीडर बाद में प्रतिष्ठित सम्पादक होकर निकले।
एक आपबीती सुना दूं। ऎसी घटना अक्सर हो जाती थी। रात को दो बजे ड्यूटी करके लौट रहा था। गश्ती पुलिस से मुठभेड़ हो गई। उनकी समझ में इतनी रात को
सड़क पर चोर, उचक्का या बदमाश ही हो सकता था। सूरत से मैं यो भी भला आदमी नहीं लगता। सो मुठभेड़ का वार्ताक्रम ऎसा चला।
“क्यों बे, कहां जा रहा है? कहां गया था? जेब दिखा?”
“ड्यूटी पर गया था, घर लौट रहा हू।”
“इस वक्त कौन-सा काम होता है, कौन-सी ड्यूटी होती है?”
“बहुतरी होती हैं, आपकी ही है।”
“मजाक करता है (डंडा तानकर) अभी बताता हूं। दो डंडे लगाऊंगा, उसके बाद अन्दर कर दूंगा।”
“अन्दर-बाहर दोनो जगह मेरा काम चलता है। आप अपनी सोच लीजिए।”
इतना कहने पर डंडा पड़ ही गया होता। अन्दर भी हो जाता। वह तो खैर हुई कि उसी समय प्रेस के कुछ वर्कर्स भी उधर से आ निकले। तकदीर अच्छी थी उन्होंने पहचानकर पुकार लिया। हवलदार साहब का हाथ ऊपर का ऊपर रूक गया। उनकी समझ में सिर्फ़ इतना आया था कि आज छापाखाना रात में भी खुला था।
अब ऎसी घटना नहीं हो सकती। अब तो हर पत्रकार की जेब में मय फ़ोटो शिनाख्ती कार्ड होता है। तब शिनाख्ती कार्ड को पत्रकार बेइज्जती मानता था। अखबार में काम करनेवाले को कोई न पहचाने तभी अखबारनवीस बढ़िया खबर लाएगा और अखबार बढ़िया निकलेगा। ‘पायनियर’ शताब्दी में राष्ट्रपति राधाक्रष्णन और
प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री दोनो आए थे। जाहिर है तगड़ा सुरक्षा प्रबन्ध था। लेकिन अखबार तो निकलना था। सिर्फ़ चार दिन के लिए सब कर्मचारीयों को फ़ोटो सहित शिनाख्ती कार्ड देने की योजना बनी। उस समय मुख्य उपसम्पादक बोस ने इतना तगड़ा विरोध किया, योजना को इतना अपमानजनक माना कि योजना जमींदोज हो गई। ऎन समारोह के बीच, फ़ाटक पर पुलिस से और किसी की नहीं उसी संस्था में काम कर रहे पत्रकारों की ठायं-ठायं हो गई थी। डंडे उठ गए थे। गनीमत हुई जो घूमे नहीं चले नहीं। सत्य नारायण जायसवाल वहीं काम करते थे। उन्होंने पुलिस के दुर्व्यवहार पर खबर बनाई। पहले पेज पर रखने के लिए बाक्स कम्पोज करा लिया। बड़ी मुश्किल से चिरौरी करके राजी किया गया कि वह खबर न दें, समारोह अपना है, समारोह की बेइज्जती होगी। वह मान गए। न मानते तो वह खबर जाती ही। मालिक में या किसी सरकारी अफ़सर में यह कहने कि हिम्मत नहीं थी कि शिफ़्ट प्रभारी की दी हुई यह खबर पहली पेज पर नहीं जाएंगी। यह घटना आजादी के बाद की है लेकिन ये पत्रकार आजादी के पहले के थे। इसलिए पुरानी हनक बाकी थी। अब ठसक बढ़ गई है, अखबार का रंग, रूप, आकार, सजावट भी बहुत बढ़ गई है। लेकिन हनक न अखबारनवीस की है न अखबार की बची है।
ठसक और हनक में क्या फ़र्क है? यह इस देश का देहाती खूब समझता है। हिन्दी अखबारों के ग्राहक जितने होते हैं, उसके दस गुने पाठक होते हैं। पाठकों की संख्या से दस गुनी संख्या होती है सुन्कर चर्चा करनेवालों की और बतकहीं मे तो उससे कहीं ज्यादा होते हैं। वे सब हनक के मुरीद है। ठसक को अंगूठा दिखा देते है।
अखबार सरकारी आदेश से बन्द होते थे तो पत्रकार जुटकर गैरकानूनी अखबार निकाल देते थे। पिछली इमरजेन्सी मे भी ऎसा हुआ है। ऎसे अखबारों की मुश्किल से सौ, सवा सौ कापी छपती, बंटती रही होंगी। लागत बिक्री से नहीं, अन्य तरीकों से आती थी। सौ परचे बंटकर हजारों जनता के मन में आग लगाते थे। उनकी जर्जर प्रतियां आज भी लोगों के पास सुरक्षित हैं। वे एक सम्पदा की भांति जोगाये जाते हैं। उन्होंने इतिहास बनाया। आज के अखबार जुगराफ़िया पर लड़ते हैं। वे जिले बनवाते हैं, राज्य बंटवाते हैं, भूमि और मकानों पर कब्जा दिलवाते हैं, प्रोमोशन, तबादले और तैनाती कराते हैं। उन्हें आग में जलाया जाता है, कूड़ा फ़ेंकने के काम आता है। तब फ़टे पायजामे, टूटी साइकिल, बटन टूटी कमीजवाले सम्पादक की इज्जत थी, उसमें अपनौनि थी, परतीत थी। अब कार, सफ़ारी, पांचसितारा जिन्दगी का रूआब है, खौफ़ है। जनता की उससे दूरी है, चिढ़ है। नफ़रत भी कम नही। वे दिन देखे हैं ये भी देखने ही हैं। तब अखबारनवीसी थी, अब मीडिया है। जैसा पहले कहा जा चुका है बात केवल शब्द की नही हैं। लाख प्रचार किया जाए लेकिन पुलिस और जनसेवक में फ़र्क है। लाख प्रचार किया जाए, मीडिया और अखबारनवीसी में फ़र्क है। आमदनी ऊपर-नीचे की बढ़ी है। बाजार बढ़ा है। लेकिन जिसे साख कहा जाता है वह घटी है। यह भी हो सकता है कि यह सब इस नजर का दोष हो।
याद आ रहा है नाम-जगदम्बाप्रसाद मिश्र ‘हितैषी’। चोटी के कवि, सवइया छन्द के अधिकारी, गद्य में साफ़-सुथरी शैली के लेखक, क्रान्तिद्रष्टा, स्वतन्त्रता-संग्राम सेनानी गणेशशंकर विद्यर्थी के साथी, उर्दू, अरबी, फ़ारसी के मर्मज्ञ विद्वान और पत्रकार। उनकी कुछ वाणी तो मुहावरों में पहुंच चुकी है। यों तो उमर खैय्याम का हिन्दी अनुवाद बहुतों ने किया है लेकिन फ़ारसी न समझने के कारण अधिकतर लोगों ने फ़िटजरल्ड के अंग्रेजी अनुवाद का हिन्दी में उल्था किया है। फ़िटजरल्ड का अनुवाद बहुत अच्छा है। लेकिन सूफ़ी दर्शन और गणितशास्त्र की जो गहराई उमर खैय्याम में है उसे फ़िटजरल्ड पकड़ नही पाए। हितैषी ने मूल फ़ारसी से अनुवाद किया। उन्होंने भाव पकड़ा है। खैय्याम के दर्शन और विज्ञान के प्रति उनकी आस्था है। उनका एक छन्द यहां दोहरा देने को जी चाहता है। हितैषी का अभीष्ट तो र्शनिक रहा होगा लेकिन आज के हिन्दी पत्रकारिता के लिए यह छन्द भविष्यद्रष्टा जान पड़ता है।
“मम अंश में स्रष्टि के आदि से एक अज्ञान मही दुखदाई पड़ा।तब भी अखबार अलग-अलग विचारों के तो थे ही। कांग्रेसी, मुस्लिमलीगी, हिन्दू-महासभाई। विचारों का संघर्ष कितना तीव्र रहा होगा, यह कल्पना की जा सकती है। लेकिन पत्रकारों के बीच भाईचारा था। अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू, पत्रकारो के बीच कोई खाई नही थी। सरस्वती शरण ‘कैफ़’, एस.एन. मुंशी जैसे लोग तीनों में जिन्दगी के अंश गुजार चुके थे। किसी पत्रकार का अपमान कोई नेता, अफ़सर, या धन्ना सेठ कर दे तो पूरी बिरादरी एक होकर मुंहतोड़ जवाब देती थी। दो बार गवर्नर को एक बार वाइसराय को नतीजा चखा दिया गया था। तब प्रेस क्लब नहीं था, पत्रकार संगठन नहीं थे. मीडिया नाम के फ़ोरम भी नहीं थे। ड्यूटी पर जाते-लौटते रास्ते की चलन्तु गोष्ठियां भर थी। लेकिन एकता गजब की थी। तब खुफ़िया पुलिस से हाथमिलौवल नहीं होती थी। उस युग की आपसी एकता रक्षा-कवच का काम करती थी। पत्रकार तब जनता को रोकने के लिए सुरक्षा दल नहीं लगाता था। जनता पत्रकारिता की सुरक्षा करती थी।
नव विज्ञान का भाग तो भाग में मेरे नहीं एक पाए पड़ा।
जिसको जगती ने विकास कहा इस द्रष्टि को ह्रास दिखाई पड़ा।
मुझको महानाश का श्वास-प्रश्वास में भी पदचाप सुनाई पड़ा।”
यों विकास और ह्रास को कुछ विचारक एक ही सिक्के के
दो पहलू भी कह देंगे।
उत्तर प्रदेश में एक मुख्यमन्त्री ऎसे भी हो चुके हैं जो बहुत बदजबान थे। एक बार उन्होंने अध्यापक बिरादरी के विरूद्ध बेहद अपमानजनक बातें कहीं। पत्रकारों ने यह बात शिक्षकों की सभा में पहुंचाई। सभा में यहां तक कहा गया कि राजा द्रुपद ने द्रोणाचार्य का अपमान किया तो एक शिष्य अर्जुन ने द्रुपद को नतीजा दिखा दिया। अब वैसा क्यों नही होता। शिक्षकों ने आजिजी से कहा,”हमने एक भी अर्जुन पैदा नही किया।” बाद में वही मुख्यमन्त्री करीब दो दर्जन पत्रकारों के बीच पत्रकारों को मां-बहन की गाली दे बैठे। खबर केवल इतनी छपी। खबर में यह नही छपा था कि किसी अखबारनवीस ने उसी समय गाली का जवाब जूते से दिया है। इसी से साबित हुआ कि जो अपमान हुआ, कम था। पत्रकार अधिक अपमान के लायक हैं। और अब वह मुख्यमन्त्री स्वर्ग में हैं। परमात्मा उनकी आत्मा को शान्ति दे और मीडिया को अधिक अपमान सहते रहने की शक्ति प्रदान करे ताकि वह दलाली कार सकें, छोटो लोगों पर रूआब गालिब कर सके और शक्तिशाली के आगे दुम हिलाने के लायक बनी रह सके।
लेखक: स्व. अखिलेश मिश्र
पुस्तक पत्रकारिता: मिशन से मीडिया तक
प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
पृष्ठ- २८७, मूल्य-१२५ रुपये
पहला संस्करण: २००४
Posted in सूचना | 12 Responses
बहुत बहुत खूब.
पिछ्ले कई दिनों से आपके चिट्ठे पर नये लेख का इन्तजार हो रहा था ।
इस विचारोत्तेजक लेख ने वर्तमान पत्रकारिता एवं मीडिया की भूमिका पर एक सजग और तुलनात्मक पक्ष प्रस्तुत किया है ।
काफ़ी दिन हुये राग दरबारी के नये अध्याय को पढने की हनक हो रही है ।
साभार,
बिकती नहीं लेखनी कोई कितना भी दे मोल
और मान अपमान कहाँ पर किस किस का होता है
कोई सह लेता चुप होकर कोई बजाता ढोल
कारण जो भी गिनाए जाएँ, पत्रकारिता अब मिशन नहीं रही है. अख़बार अब उत्पाद हैं. मीडिया संस्थान अब ख़बरों का व्यापार करते हैं. लेकिन, पत्रकारिता का चरित्र बाक़ी पेशों जैसा हो जाने का बावजूद पत्रकारों का ये आग्रह बना हुआ है कि उन्हें लोकतंत्र के चौथे खम्भे के रूप में देखा जाए, उनके काम को लेकर ज़्यादा सवाल नहीं उठाए जाएँ, उन्हें बाक़ियों से ज़्यादा इज़्ज़त दी जाए.
@मैथिली भैया, ये किताब राजकमल प्रकाशन में उपलब्ध है!
@नीरज, जल्दी ही लेख भी लिखे जायेंगे। रागदरबारी का अगला भाग जल्द ही आयेगा।
@राकेशजी, आपकी काव्यपंक्तियों के लिये आभार!
@समीरलालजी, शुक्रिया!
@अफलातूनजी, हमें व्याख्यानमाला के बारे में जानकारी नहीं थी लेकिन अब पता चल गया। धन्यवाद!
@हिंदीब्लागर, यह सही है कि पत्रकारिता अब मिशन नहीं व्यवसाय है!पत्रकारों का इज्जत आग्रह की बात भी सही कही आपने!
बाद में वही मुख्यमन्त्री करीब दो दर्जन पत्रकारों के बीच पत्रकारों को मां-बहन की गाली दे बैठे। खबर केवल इतनी छपी। खबर में यह नही छपा था कि किसी अखबारनवीस ने उसी समय गाली का जवाब जूते से दिया है।
Aaj joote maarna to door ki baat hai, log netaaon ke joote apni jeebh se chaat ke chamkaane ko taiyaar baithe hain..