Thursday, May 17, 2007

मस्त रहिये, अच्छी बातों में व्यस्त रहिये- आलोक पुराणिक

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मस्त रहिये, अच्छी बातों में व्यस्त रहिये- आलोक पुराणिक

आलोक पुराणिक
jag photo
[आलोक पुराणिक हिंदी व्यंग्य के जाने माने युवा लेखक हैं। गत दस वर्षों से व्यंग्य लेखन में सक्रिय आलोक पुराणिक से जब व्यंग्य लेखन के पहले के कामकाज के बारे में पूछा गया तो जवाब मिला-'इससे पहले जो करते थे,उसे बताने में शर्म आती है, वैसे पत्रकारिता करते थे,अब भी करते हैं।'३० सितम्बर,१९६६ को आगरा में जन्मे आलोक पुराणिक एम काम,पीएच.डी पिछले दस सालों से दिल्ली विश्वविद्यालय में कामर्स के रीडर हैं।आर्थिक विषयों के लिए अमर उजाला, दैनिक हिंदुस्तान समेत देश के तमाम अखबारों में लेखन, बीबीसी लंदन रेडियो और बीबीसीहिंदी आनलाइन के लिए बतौर आर्थिक विशेषज्ञ काम किया है ।फिलहाल आजादी के बाद के हिंदी अखबारों की आर्थिक पत्रकारिता परियोजना पर काम। हिंदी के तमाम पत्र-पत्रिकाओं में व्यंग्य लेखन, जिनमें अमर उजाला, दैनिक जागरण, राष्ट्रीय सहारा, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा,जनसत्ता, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान, लोकमत,दि सेंटिनल, राज एक्सप्रेस, दैनिक भास्कर, कादिम्बिनी आदि प्रमुख हैं। करीब एक हजार व्यंग्य लेख प्रकाशित। एक व्यंग्य संग्रह नेकी कर अखबार में डाल-2004 में प्रकाशित,जिसके तीन संस्करण पेपर बैक समेत प्रकाशित हो चुके हैं। तीन व्यंग्य संग्रह शीघ्र प्रकाश्य। आज तक टीवी चैनल के चुनावी कार्यक्रम-चुनावी कव्वालियां और हैरी वोटर बना रिपोर्टर का स्क्रिप्ट लेखन। सहारा समय टीवी चैनल के कार्यक्रम चुनावी चकल्लस, स्टार न्यूज टीवी चैनल और सब टीवी में कई बार व्यंग्य पाठ कर चुके आलोक पुराणिक पुरस्कारों के बारे में बताते हैं- चूंकि अभी तक कोई पुरस्कार या सम्मान नहीं जुगाड़ पाये हैं,इसलिए अभी तक यह बयान देते हैं कि पुरस्कारों या सम्मान के प्रलोभन से मुक्त होकर लिखा है,पुरस्कार मिलने के बाद कहूंगा कि लेखन की स्तरीयता का अंदाज को पुरस्कार से ही हो सकता है ना।कुछ दिन पहले ही आलोक पुराणिक ने अपना चिट्ठा प्रपंचतंत्र भी शुरू किया था। लेकिन प्रपंच बहुत दिन तक जारी न रह सका। मजबूरन आजकल अपने नामआलोक पुराणिक से खुल कर लिखना शुरू किया और आजकल जबरदस्त हिट भी हो रहे हैं। लगभग साल भर पहले शब्दांजलि पत्रिका के लिये आलोक पुराणिक से हुआ साक्षात्कार आज भी प्रासंगिक है ऐसा मानते हुये उसे यहां पेश कर रहा हूं! ]
लिखने की शुरुआत कैसे हुई?
पहली छोटी कहानी अमर उजाला में तब छपी थी, जब मैं पंद्रह साल का था। फिर पत्रकारिता का लेखन शुरु हुआ, आर्थिक विषयों पर लेखन सोलह वर्ष की उम्र में शुरु हुआ।
शुरुआत व्यंग्य से हुयी या वाया कविता , कहानी…?
कहानी बहुत छोटी कहानी।
किसके लेखन से प्रभावित होकर व्यंग्य लिखना शुरू किया?
किसी के लेखन से प्रभावित होकर नहीं, बल्कि यह सोचकर व्यंग्य लिखना शुरु किया कि अब के दौर को सही माध्यम से पेश करने का तरीका व्यंग्य ही है। करीब दस साल पहले एक बार मैंने सुना- एक कन्या दूसरी कन्या से कह रही है-वी आर वैरी पुअर, वी हैव मारुति 800 ओनली। शुरुआती दौर का व्यंग्य था वह-800 सीसी की गरीबी रेखा। मुझे लगा कि इस दौर के हाल को सीधे-सीधे बखान करने के बजाय व्यंग्य के माध्यम से बात की जानी चाहिए।
आप काफी जाने- माने व्यंग्यकार के रूप में जाने जाने लगे हैं।फिर यह कहना कि व्यंग्यकार बनने का प्रयास कर रहा हूं क्या अतिशय विनम्रता है? या कोई और बात?
बिलकुल विनम्रता नहीं। मुझे अतिशय विनम्र व्यक्ति के रुप में नहीं जाना जाता। मुझे दिल्ली के लेखन समुदाय में एक ऐसे व्यक्ति के रुप में चिन्हित किया जाता है, जो सीनियर व्यंग्यकारों, आलोचकों को कभी फोन तक नहीं करता। कभी मिलता तक नहीं। और तो और तमाम साहित्यिक गोष्ठियों तक में नहीं जाता। मुझे ईमानदारी से लगता है कि इतना धांसू काम व्यंग्य के क्षेत्र में हुआ है कि अभी अपनी गिनती तो दूर गिनती की लाइन में भी अपन नहीं हैं। अंगरेजी में बहराम कांट्रेक्टर ने जो लिखा है, उसे देख कर अपना सारा काम बहुत चिरकुट सा लगता है। उर्दू के मुश्ताक अहमद युसूफी का काम सामने है। श्रीलाल शुक्ल जी का रागदरबारी पिछले बाईस सालों से पढ़ रहा हूं। शरद जोशीजी का काम सामने है। परसाईजी का काम सामने है। अंग्रेजी में जय लेनो, डेविड लैटरमैन का काम सामने है। व्यंग्यकार बनने की कोशिश में हूं, इस बात में बिलकुल विनम्रता नहीं है।
अगर बनने का प्रयास कर रहे हैं तो कितना प्रतिशत बन गये?
कोशिश जारी है, अभी एक प्रतिशत भी नहीं बना हूं।
विशुद्ध व्यंग्य हंसाता है, पर दिमाग पर बोझ डालकर। व्यंग्य का एक नया आयाम यह है कि उसमें हास्य की मिलावट ज्यादा हो रही है।
व्यंग्य की सार्थकता तब है जब वह तिलमिलाहट पैदा करे। आज ज्यादातर हंसने के लिये लोग व्यंग्य पढ़ते हैं। क्या यह व्यंग्यकार की असफलता है या व्यंग्य का नया आयाम है?
देखिये हर पाठक के लिए रचना अलग-अलग प्रभाव पैदा करती है। पाठकों के स्तर पर भी निर्भर है। मीडिया के बाजारगत दबाव इधर व्यंग्य को हास्य की तरफ धकेल रहे हैं। लोग हंसना चाहते हैं, ऐसी बातों से, जो दिमाग पर ज्यादा बोझ न डालें। विशुद्ध व्यंग्य हंसाता है, पर दिमाग पर बोझ डालकर। व्यंग्य का एक नया आयाम यह है कि उसमें हास्य की मिलावट ज्यादा हो रही है। यह व्यंग्यकार की विवशता है कि अगर वह बाजार के लिए लिख रहा है, तो बाजार के दबावों को भी ध्यान में रखे।
आपकी किताब नेकी कर अखबार में डाल के सारे लेख पढ़े मैंने। कुछ लेखों का खास अंदाज है–जिसे चोर समझो वो दरोगा निकलता है, जिसे दरोगा समझो वो नेता निकलता है । कुछ खास लगाव है आपको इस अंदाज से? 
नब्बे के दशक की शुरुआत से चीजों का गड्डमड्ड होना शुरु हो गया था। साठ के दशक तक चीजें बहुत साफ थीं कि कौन नायक है, कौन खलनायक। अभी ही खबर देख रहा हूं, मुंबई के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक के पास करोड़ों की संपत्ति बरामद हो रही है। अब वह नायक हैं, या खलनायक, कुछ समय पहले तक वह नायक माने जाते थे। पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय नरसिम्हाराव शायद एक दर्जन भाषाएँ जानते थे, बहुत विद्वान थे। पर जितनी वैराइटी के घपले उनके शासन काल में हुए, शायद किसी और के शासनकाल में नहीं हुए। मेरी पीढ़ी ने अपने बुजुर्गों को जिस हाल में देखा है, वह कतई विश्वास पैदा नहीं करता। वो जो कह रहे हैं, उसे करेंगे भी, ऐसा भाव पैदा नहीं होता। नेता देश बेच रहा है, क्रिकेटर क्रिकेट की आड़ में च्यवनप्राश बेच रहा है। जो ईमान ईमान की सबसे ज्यादा लफ्फाजी कर रहा है, वह सबसे बड़ा बेईमान निकलता है। हर नेता की कीमत है, ईमानदार दिखने वाले नेता की ज्यादा कीमत है। बड़ा घपला हो रहा है। कुछ फाइनल नहीं है, कौन क्या है। यह अविश्वास मुझमें बहुत गहरा है, सो मेरी रचनाओं में दिख जाता है। व्यक्तिगत जीवन में भी मैं किसी पर सहज विश्वास नहीं कर पाता, बहुत शक्की स्वभाव का हूं। यह मेरी रचनाओं में दिख जाता है शायद।
नेता देश बेच रहा है, क्रिकेटर क्रिकेट की आड़ में च्यवनप्राश बेच रहा है। जो ईमान ईमान की सबसे ज्यादा लफ्फाजी कर रहा है, वह सबसे बड़ा बेईमान निकलता है। हर नेता की कीमत है, ईमानदार दिखने वाले नेता की ज्यादा कीमत है। बड़ा घपला हो रहा है। कुछ फाइनल नहीं है, कौन क्या है।
आप अर्थशास्त्र के अध्यापक हैं। हिंदी के व्यंग्यकार। ज्यादा मजा किसमे आता है-व्यंग्य लिखने में या अर्थशास्त्र के लेख लिखने में?
दोनों काम फुल मुहब्बत से करता हूं। दरअसल जिस काम में आनंद न आये, तो मैं कर ही नहीं सकता। दोनों कामों से मुझे प्यार है। अर्थशास्त्र, वाणिज्य को आप मेरी पत्नी मान सकते हैं, और व्यंग्य को मेरी गर्लफ्रेंड मान सकते हैं।
आपकी किताब नेकी कर अखबार में डाल तो बहुत लोकप्रिय है। मेरा एक मित्र तो जबरदस्ती ले गया कि ये जन्मदिन का उपहार दे दो। कैसा लगा था आपको किताब के पहले संस्करण छपने पर?
बहुत अच्छा ,पहली बेटी को जब जन्म के बाद पहली बार देखा था, तो कुछ – कुछ वैसी ही अनुभूति हुई थी।
कितने प्रतिशत रायल्टी देते हैं आजकल प्रकाशक आपको?
दस प्रतिशत।
आप अपने पात्र विचार कैसे चुनते हैं?
दिमाग में बहुत कुछ चलता रहता है रात – दिन। फिर फिल्टर होकर कभी कुछ निकल आता है, कभी कुछ। रचनात्मक प्रक्रिया बहुत जटिल मामला है। बहुत साफ-साफ तौर पर तो मैं बयान नहीं कर सकता। पर बहुत कुछ आबजर्व करो, बहुत कुछ पढ़ो और बहुत कुछ सोचो, बहुत कुछ भोगो, तो कुछ निकल आता है, जिसे व्यंग्य कहा जा सकता है।

क्या कभी घर से कालेज जाते हुये रास्ते में विचार आने पर तुरंत नोट करते हैं?

रात में भी डायरी लेकर सोता हूं। ग्राहक, मौत और आइडियों का कोई भरोसा नहीं होता, कहां और कब आ जायें।
ग्राहक, मौत और आइडियों का कोई भरोसा नहीं होता, कहां और कब आ जायें।

लिखने के लिये क्या कुछ खास माहौल चाहिये होता है?

बिलकुल नहीं। नियमित लेखन करने वाले माहौल से नहीं चलते। माहौल को अपने हिसाब से चलाते हैं। वक्त जरुरत में मैंने स्टेशन, रेस्टोरेंट और कनाट प्लेस के पार्क में भी कालम लिखे हैं। जब आप अपने में डूबते हैं, अपने काम में डूबते हैं, तो आसपास की दुनिया आपके लिए स्थगित हो जाती है। हां चाय को एक ऐसा तत्व माना जा सकता है, जो रचनात्मक योगदान करता है। इसके अलावा कुछ खास माहौल नहीं चाहिए।

हर हफ्ते लेख लिखने के दबाब में क्या ऐसा भी होता है कि बाद मेंलगे कि इसे ऐसे लिखते
तो बढ़िया रहता?

कालम लिखने वाला लेखक दिहाड़ी का मजदूर होता है। रोज खोदो, रोज खाओ। पिछले की चिंता में टाइम मत गंवाओ। कल तो कल की सोचेंगे, आज जो गया सो गया। वैसे तो अपनी हर रचना को छपने को बाद देखने पर लगता है कि कुछ कसर रह गयी, बेहतर हो सकता है।
आपके पसंदीदा लेखक ?किताब ?
बहुत सारी-बहराम कांट्रेक्टर उर्फ बिजी बी की सारी किताबें, परसाईजी का सारा लेखन, शरद जोशीजी का सारा लेखन, श्रीलाल शुक्लजी का राग दरबारी, किट्टू का काम, मुश्ताक अहमद युसूफी का लेखन, अशोक चक्रधरजी का सारा लेखन, आगा हश्र कश्मीरी के चुनिंदा ड्रामे, विश्वास पाटिल का उपन्यास पानीपत, विकास के मामलों पर लिखने वाले अंगरेजी लेखक पी साईनाथ, मलेशिया के अर्थशास्त्री और पत्रकार मार्टिन खोर का लेखन, अमर्त्य सेन का राजनीतिक अर्थशास्त्र से जुड़ा सारा लेखन, अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक का लेखन, बहुत कुछ है। मराठी व्यंग्यकार पु.ल. देशपांडे का काम। लिस्ट लंबी हो जायेगी।
आपकी रचनाओं का प्रथम पाठक कौन होता है?
खुद।
अन्य रुचियां?
जवाब-हर तरह की किताबें पढ़ना और आवारागर्दी। आवारागर्दी बहुत करता हूं, सिनेमा हाल में आगे की क्लास में फिल्म देखना खास शौकों में शुमार है। चायवालों और रिक्शेवालों के गप मारने में बहुत मजा आता है। योजना है कि देश को पदयात्रा से नापा जाये, इस देश को स्ट्रक्चर्ड तरीके से समझना बहुत मुश्किल है।
आपको कवि सम्मेलनों में शरदजोशी वाले अंदाज में कविता वाचन के लिये बुलावे आते हैं कि
अभी नहीं?

करीब दो सालों से यह सिलसिला शुरु हो गया है। अभी तक करीब सौ कवि सम्मेलनों में व्यंग्य पाठ कर चुका हूं।
परसाईजी के व्यंग्य तथा श्रीलालशुक्लजी के व्यंग्य में आप किसे ज्यादा पसंद करते हैं? क्यों?
दोनों के अपने रंग है। व्यंग्य के बाग में दो अलग वैराइटी के आइटम हैं। दोनों ही प्रिय हैं, परसाईजी अलग कारणों से, श्रीलाल शुक्लजी अलग कारणों से। परसाईजी वन डे के प्लेयर रहे हैं, रोज लिखा। श्रीलाल शुक्लजी व्यंग्य के टेस्ट मैच के प्लेयर रहे हैं, कई सालों में कुछ उपन्यास, पर दोनों का जलवा अलग है। नो कंपेरीजन। क्रिकेट में विवियन रिचर्ड के आक्रामक खेल का अपना जलवा रहा है, और विश्वनाथ की कलात्मकता अपनी जगह है। परसाईजी विवियन रिचर्ड रहे हैं और शुक्लजी विश्वनाथ हैं।
अक्सर आप नाम लेकर लोगों पर व्यंग्य करते हैं। कोई धमकी तो नहीं देता?
धमकी-वमकी को नोटिस न करो, तो वो बंद हो जाती हैं।
कभी ऐसा भी होता होगा कि जो बात आपने अपनी समझ में बहुत ऊँची कह दी उसपर कोई तवज्जो न दे। ऐसे में कैसा लगता है?
जैसे क्रिकेट में नो बाल फेंक दी हो, एक व्यर्थता का अहसास। बात अगर सामने वाले या वाली ने समझी ही न हो, तो बेकार है, चाहे जितनी ऊंची हो।
लेखन में घर वालों का कितना सहयोग रहता है-खासकर पत्नी का?
जवाब-पूरा, चाय बनाकर वही देती है।
आप जो नया ब्लाग पोस्ट लिखते हैं वह सबको मेल से बताते हैं। क्या आप दूसरों के ब्लाग भी पढ़ते हैं?अगर हां तो आपके पसंदीदा ब्लाग कौन से हैं?
अभी ब्लागबाजी में मैं नया ही आया हूं। कुछ समय बाद बताऊंगा।
विसंगतियां हमेशा रही हैं। वे भले ही सहज लगती हैं, पर वे सहज हैं नहीं। जैसे आप लाख कहें कि सब बेईमान हैं, पर बेईमानी भी इतनी सहज सुलभ नहीं है। अभी भी लोग बेईमानी में सस्पेंड होते हैं। पकड़े जाते हैं। लोगों में हिप्पोक्रेसी बढ़ी है। यह विसंगति है।
व्यंग्य अमूमन विसंगतियों का उद्‌घाटन करता है।लेकिन अब समाज में लगता है कि विसंगतियों को सहज माना जाने लगा है। क्या इससे व्यंग्य के मिजाज में कुछ फर्क पड़ता है? या मेरे सोच से आप सहमत नहीं है?
विसंगतियां हमेशा रही हैं। वे भले ही सहज लगती हैं, पर वे सहज हैं नहीं। जैसे आप लाख कहें कि सब बेईमान हैं, पर बेईमानी भी इतनी सहज सुलभ नहीं है। अभी भी लोग बेईमानी में सस्पेंड होते हैं। पकड़े जाते हैं। लोगों में हिप्पोक्रेसी बढ़ी है। यह विसंगति है। व्यंग्य को कच्चा माल यहां से मिलता है। विसंगति बढ़ी है, तो व्यंग्य भी बढ़ा है। व्यंग्य के मिजाज के आयाम व्यापक हुए हैं। मुक्त बाजार की ओर बढ़ते हुए समाज का हिप्पोक्रेट होना स्वाभाविक है। इसलिए व्यंग्य की जमीन और पुख्ता हो रही है।
सटीक व्यंग्य की आपकी क्या पहचान है?
कम शब्दों में बड़ी बात कह पाये, वह व्यंग्य सटीक है।
आगे क्या लिखने का विचार है? कौन कौन सी किताबें आ रही हैं?
लिख रहा हूं। लगातार लिख रहा हूं। तीन किताबें जल्दी ही आयेंगी-चुने हुए उर्फ चोर, प्रेम पर कर और नव-प्रपंचतंत्र।
पढ़ाने में आपको मजा आता है या मजबूरी में किया काम लगता है?
पढ़ाने से मुझे मुहब्बत है, मजबूरी में मैं कुछ भी नहीं कर सकता। जिस काम को करने में मजा ना आये, वह कर ही नहीं सकता।
क्या पढ़ाते हैं आप?
जवाब-कंपनी ला, बिजनेस आर्गनाइजेशन, ई-कामर्स और पत्रकारिता।
सरकारें आजकल जनकल्याणकारी कामो से अपने हाथ खींचती जा रही हैं।इस भूमिका पर आपके क्या विचार हैं?
इसका व्यंग्य पर साफ असर दिख रहा है। बीस-पच्चीस साल पहले हमारे जीवन में सरकार का बहुत योगदान होता था। टेलीफोन से लेकर सड़क तक सरकार का कब्जा था। टेलीफोन की दुर्गति पर व्यंग्य पहले आते थे, अब निजी क्षेत्र की टेलीफोन कंपनियों के आने से टेलीफोन पर व्यंग्य का हिसाब-किताब बदला है। सरकार का स्पेस कम हो रहा है, बाजार का स्पेस बढ़ रहा है। इसलिए व्यंग्य में बाजार ज्यादा दिखायी देता है। सरकार जनकल्याणकारी योजनाओं से हाथ खींच रही है, पर लोकतंत्र में ऐसा लंबे समय तक नहीं चल सकता। आर्थिक उदारीकरण की प्रवक्ता पार्टी कांग्रेस ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना बिल का समर्थन करती है। यह लोकतंत्र का दबाव है।
देश का भविष्य आप कैसा देखते हैं?
मेरे जैसे आलसी लोगों के बावजूद बहुत उज्जवल। देश की नयी पीढ़ी बहुत ही चकाचक है। आज ही सुबह खबर आयी है कि कनाडा के चुनावों में तीस कैंडीडेट भारतीय मूल के हैं। इस देश का भविष्य बहुत ही चकाचक है। सौ साल बाद पुनर्जन्म लेकर हम फिर बात करेंगे।
शब्दांजलि के पाठकों के लिये आप कुछ संदेश देना चाहेंगे?
मस्त रहिये, अच्छी बातों में व्यस्त रहिये।

27 responses to “मस्त रहिये, अच्छी बातों में व्यस्त रहिये- आलोक पुराणिक”

  1. जगदीश भाटिया
    आलोक जी के बहुत से कॉलम पढ़े हैं। अब चिट्ठे पर भी उन्हें पढ़ रहे हैं। यहां उनके बारे में जान कर मुझे निजी तौर पर बहुत अच्छा लगा।
    उम्मीद है उनके लेखन को पढ़ कर मुझे भी बहुत कुछ सीखने को मिलेगा।
  2. abhay tiwari
    बढ़िया इन्टरव्यू.. आलोक जी के जानने का मौका मिला..
  3. abhay tiwari
    बढ़िया इन्टरव्यू.. आलोक जी को जानने का मौका मिला..
  4. डा प्रभात टन्डन
    आलोक पुराणिक के साथ गुफ़्तगू बढिया लगी , आपको धन्यवाद हम तक पहुंचाने तक !
  5. अरुण
    भाइ जी एक ठो हमरा भि छपवा दो ना जे इन्टरभियू
    और हम भि वादा करते है रोज आपके पुराने लेखो को पड्ग कर जल्दी ही सेंचुरी तो बना ही लेगे काहे कि बिना प्ढे रहा नही जायेगा और पढेगे तो वही मिला मिलु कर अपने नीम से टीप भि देगे
  6. pramod singh
    अच्‍छा है…
  7. Rajesh Roshan
    इस साक्षत्कार में सब कुछ है। मस्ती, हंसी, ख़ुशी, ड्रामा, ट्रेजेडी । सब कुछ । अच्छा है।
  8. संजय बेंगाणी
    आपने बहुत उत्तम कार्य किया. लेखक से परिचित हो लिये.
    सच कहूँ तो मैं नहीं जानता था की महाशय ‘बोत’ बड़े लेखक है, अपने को तो लेखन पसन्द आया और नियमित पाठक बन गए. दुसरे भी इन्हे पढ़े इसलिए चर्चा भी की.
    “कम शब्दों में बड़ी बात कह पाये, वह व्यंग्य सटीक है। ” यह तो हमारी विचारधारा के आस-पास की बात हुई :)
  9. paramjitbali
    एक मशहूर व्यंग्यकार के बारे मॆं पढकर अच्छा लगा।
  10. PRAMENDRA PRATAP SINGH
    पढ़कर अच्‍छा लगा बधाई।
  11. राजीव
    फुरसतिया – आलोक वार्ता पढ़कर अच्छा लगा। आलोक जी की बहुत सी पोस्ट पढ़ी हैं, कभी तीखी, कभी चटपटी लगभग सभी मजेदार रही। यह अभी मालूम हुआ कि वे अर्थशास्त्र के शिक्षक भी हैं और ई-व्यवसाय भी पढाते हैं।
  12. नीरज दीवान
    सालभर पुराने साक्षात्कर को पढ़कर ताज़गी का अहसास हुआ.
    चाय पर विशेष बल देना व्यंग्यकार आलोक जी की फाकामस्ती को दर्शाता है वहीं अर्थशास्त्री आलोक जी का यह कहना कि सरकार का जनकल्याणकारी योजनाओं से हाथ खींचना लोकतंत्र को लंबे समय तक नहीं टिकाए रखेगा.. यह गंभीर चिंतन की ओर इशारा कर रहा है. फुरसतिया जी, साक्षात्कार अपडेट करें. बेहतरीन प्रस्तुति का इंतज़ार करूंगा.
  13. रचना
    अच्छा लगा आलोक जी के बारे मे बाते‍ जानकर.
  14. समीर लाल
    बहुत खूब. क्या बात है!! आनन्द आ गया आलोक जी के बारे में इतनी ढ़ेर सारी बातें जानकर. हम तो उनके लेखन के मुरीद हैं ही. बस, नारद पर वो दिखे और हम पहुँचे टाइप!! :)
    बहुत बधाई इस साक्षात्कार को यहाँ पेश करने के लिये.
  15. Jamil
    Hi,
    Sorry for writing in English, but I can’t read or write Hindi. Anyway, Someone referred me to your page from orkut. He referred to you as a ‘hindi literature fanatic’ so I am hoping you would be able to answer my question.
    A few years ago, somebody read me a poem on the subject of ‘hands’ by a contemporary Indian poet. Unfortunately, I have forgotten his name but I do remember the last couplet of that poem. It said
    “Chalaaki main ustad hain yeh, aur bholay-pun main bacchey hain
    is jhoot ki gandi dunya main buss haath hamaarey sacchey hain”
    Does it sound familiar to you? Do you think you could find me the poem or at least tell me the name of the poet? I would really appreciate it if you could email me your response.
    Thanks.
  16. श्रीश शर्मा
    आलोक जी की अखबार में प्रपंचतंत्र कथाएं नियमित पढ़ा करता था, शायद जागरण के कैरियर वाले अंक में आती थीं। बाद में जब वो आनी बंद हुई तो काफी निराशा हुई। फिर जब ब्लॉगजगत में आया तो उनका “प्रपंचतंत्र” ब्लॉग देखा और उस पर कुछ कहानियाँ पढ़ीं। हाल ही में जब वे दोबारा सक्रिय हुए तो बहुत खुशी हुई कि फिर से उनका मजेदार लेखन पढ़ने को मिलेगा। कई बार उनसे अनुरोध कर चुका हूँ कि अपने प्रपंचतंत्र वाले प्रिंट मीडिया में छपे लेख अपने पुराने ब्लॉग “प्रपंचतंत्र” पर उपलब्ध करवाएं, उम्मीद है वे इस बारे कूछ कदम उठाएंगे।
  17. anitakumar
    आलोक जी के बारे में और जान कर अच्छा लगा, वैसे हम सोच रहे थे कि भगवान उन्हें दो दिन बाद पैदा करता तो एक साल और छोटे न हो जाते…:)सवाल भी अच्छे पूछे गये, धन्यवाद
  18. ब्लागिंग मस्ती की पाठशाला है -आलोक पुराणिक
    [...] साल पहले आलोक पुराणिक से हुयी बातचीत मेंतमाम बातों का खुलासा हुआ था। इसके बाद [...]
  19. NARENDAR KUMAR GAUR
    ALOK JI KO MAI DAINIK TRIBUNE ME PADATA THA TAB SE HI ACHHA LAGATA THA . UNONE DAINIK TRIBUNE KA TO KAHI JIKAR HI NAHI KIYA.. AB DAINIK TRIBUNE ME KYO NAHI CHHAPTE….?
  20. shekhar tripathi
    बढ़िया इन्टरव्यू.. आलोक जी के जानने का मौका मिला..
  21. फ़ुरसतिया-पुराने लेख
    [...] मस्त रहिये, अच्छी बातों में व्यस्त रहि… [...]
  22. : …खोये आइडिये की तलाश में मगजमारी
    [...] अपने ब्लॉग पर अवश्य करो ताकि सनद रहे। ( आलोक पुराणिक की व्यंग्य पुस्तक -किताब …) इस लिये मुझे तो नहीं लगता कि आइडिया [...]
  23. : नेकी कर अखबार में डाल- आलोक पुराणिक
    [...] [...]
  24. Gyan Pandey
    पता नहीं कॉपीराइट का क्या पेंच होगा, अन्यथा मेरे ब्लॉग पर जो टिप्पणियाँ आलोक पुराणिक की हैं, वे निहायत उच्च स्तरीय हैं। उनको कम्पाइल कर एक दमदार पुस्तक बन सकती है – “अगड़म बगड़म की टिप्पणियाँ”!
    Gyan Pandey की हालिया प्रविष्टी..नया कुकुर – री-विजिट
  25. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] मस्त रहिये, अच्छी बातों में व्यस्त रहि… [...]
  26. चंदन कुमार मिश्र
    मजेदार। कई बातें अच्छी लगीं।
    चंदन कुमार मिश्र की हालिया प्रविष्टी..जय हे गांधी ! हे करमचंद !! (कविता)

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