सूरज बोला
झुलसेगा शरीर
चल जा भाग।
परछाइयां
दुबक गयीं सब
धंसी खुद में।
जरा सी बात
फ़ैली गर्म लू जैसी
चिलचिलाती।
कोई दिखे न
सन्नाटा पसरा है
चारो तरफ़।
अमलताश
खिलखिलाता खड़ा
बाकी उदास।
धरती तपी
बर्फ़ भी पिघलेगी
डूबेंगे सब।
अपनी गर्मी
सब बाहर करें
सनसनाते।
‘एच’ अलग
‘टू’ भी दूर भगेगा
सब अकेले।
पौशाला है ये
खुद खड़ा धूप में
पानी पिलाता।
बरसाती हायकू
को भी बुला लें
दुबक गयीं सब
धंसी खुद में।
‘एच’ अलग
‘टू’ भी दूर भगेगा
सब अकेले
-भई वाह
आलोक पुराणिक
बाकी सब हलकान!
दुबक गयीं सब
धंसी खुद में।’
चुप नहीं रहेंगे
वाह वाह जी.
गर्मी का असर
हायकू लिखे
सामयिक रहना
पल दो पल
कैसे लिख लेते हो आप??
दोपहरी की गर्मी
बने हाईकु.
हम सब पढ़ते
नित नूतन.
‘टू’ भी दूर भगेगा
सब अकेले।
सामयिक हायकु
क्या बात है !!!!!!
‘टू’ भी दूर भगेगा
सब अकेले।
एच मै एकट्ठे कर रहा हू टू भेजदो ,वरना ये पंगा करेगे,
मेरी जुम्मेदारी नही है,काहे की रुक नही रहे,जल्दी भेजो दादा
सब बाहर करें
सनसनाते….
मूल में यह हमारी प्रवृत्ति है. अभिव्यक्ति रोक दें तो विक्षिप्त होते देर न लगेगी. क्योंकि अंदर इतना भरा है कि रहा तो विस्फोट कर देगा. अंदर आग भी है, शीतलता भी है. आजकल उसका संतुलन बिगड़ गया है. आग इतनी बढ़ गयी है कि शीतलता भी एक कोने में अलग जा बैठी है.
थोड़े दिनों पहले इष्टदेव की एक कविता पढ़ी थी तो मौन हो गया था. इसे पढ़कर फिर मौन होने का मन कर रहा है, शायद कुछ उतर जाए मेरे भीतर…
ठंडक लाय
आपके हायकू
और लिखे न कायकू
लिखत जाओ
बनाय बनायकू
गर्मी पर अटके
ये हाईकू हमको
प्रेरित किया।
खिलखिलाता खड़ा
बाकी उदास।