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डा. टंडन के दौलतखाने में फुर्सत के साथ पानी के बताशे
By फ़ुरसतिया on July 1, 2007
पिछले हफ़्ते की बात। फोन बजा।
मैं कौन बनेगा करोड़पति से अमिताभ बच्चन बोल रहा हूं। उधर से आवाज आयी।
मैं कौन बनेगा करोड़पति से अमिताभ बच्चन बोल रहा हूं। उधर से आवाज आयी।
हमने कुछ बोलने के पहले तमाम बातें सोच डालीं। सोचा- अमिताभ की आवाज इतनी बढ़िया कैसे हो गयी! हमसे उनको क्या काम? अभिषेक की शादी में न बुला पाने के लिये अफसोस प्रकट करने के लिये तो नहीं फुनियाये। लेकिन हमने भी तो उनको अपनी भतीजी की शादी में नहीं बुलाया। बहरहाल, हमने इससे ज्यादा सोचना बेकार समझ कहा- हां, बोलिये अमिताभजी क्या हाल हैं? कैसे याद किया?
पता चला उधर से अनुराग श्रीवास्तव बोल रहे थे। पानी के बतासे वाले। पता चला कि भारत आये हैं। दो दिन बाद लखनऊ पहुंचने वाले हैं। कानपुर में कब मिलना होगा! अफलातूनजी से कुछ बात हुयी थी। जीतेंन्द्र कब आयेंगे आदि-इत्यादि, वगैरह-वगैरह।
बहरहाल यह तय हुआ कि वे जब लखनऊ पहुंच जायेंगे तब विस्तार से गपियायेंगे। अभी बेफालतू में रोमिंग पर काहे पैसा फूंका जाये। अनुराग मुंबई से फुनिया रहे थे।
हमें सोमवार को अपने एक दफ़्तरी काम से कोलकता जाना था। हम एक दिन पहले कानपुर छोड़ने को देशहित में समझ-बताकर इतवार को ही लखनऊ पहुंच गये सुबह-सबेरे।
दोपहर को हमने संपर्क किया तो तय हुआ कि हम तीनों डाक्टर प्रभात टंडन के यहां शाम को चार बजे मिलेंगे।
मैं डा. टंडन के घर पहुंचा। बड़े से घर के फ़ाटक में कोई घंटी नहीं दिखी तो मैं अंदर घुस गया। वहां सब दरवाजों पर और टंडन दिखे लेकिन डा.प्रभात टंडन की नेमप्लेट न दिखी। फिर बाहर आकर मैंने डा. साहब को मोबाइलिया। वे तुरन्त नीचे आये और नमूदार हुये और हमें बाइज्जत ऊपर पहली मंजिल पर स्थित अपने घर ले गये।
हम उनके घर में ठीक से बैठ भी न पाये थे कि डा.टंडन ने सवाल दागा- आप इतना लिखने की फ़ुर्सत कैसे निकाल लेते हैं?
हमारे पास कोई जवाब न था। हमने मुस्करा के बात टालने की कोशिश की लेकिन उसी घराने के सवाल वे बराबर उछालते गये। फिर हमने अकबकाकर कह दिया कि फुर्सत होती कहां है- निकालनी पड़ती है। इसी तरह के कुछ और लचर संवाद संप्रेषित करके हम आगे के खुशनुमा पहलू की तरफ़ मुखातिब हुये।
ये खुशनुमा पहलू भाभीजी थीं जो पानी और मिठाई लेकर उपस्थित हो गयीं। एक मामले में वे और खुशनुमा लगीं कि वे चिट्ठाजगत के चिट्ठों से ज्यादा जुड़ी नहीं हैं इसलिये हमसे वे उतनी आतंकित नहीं दिखीं जितने टंडनजी।
कुछ दिन में हमारा और उनका मायका, गली, मोहल्ला सब एक एक हो गया। हम डा. टंडन को किनारे करके अपने बचपन की गलियों और मकानों की शिनाख्त करने में जुट गये। वे आनंद बाग में उस जगह रहती रहीं जहां के प्राइमरी स्कूल में हम पांचवीं तक पढ़े। भाभीजी के पिताजी डा.कपूर कानपुर के जाने-माने भौतिकी के प्राध्यापक रहे हैं। उनके पढ़ाये सैकड़ों बच्चे दुनिया भर में अपनी सफ़लता का डंका पीट रहे हैं।
डा. टंडन घर में घरेलू पति की तरह दिखे। बाअदब, बामुलाहिजा। आवाज धीमी-धीमी जिसे हम संयत कह रहे हैं। शांति का प्रतीक कुर्ता-पायजामा धारण किये।
हम आगे कुछ बतियायें तब तक अनुराग श्रीवास्तव अपनी सुदर्शन काया समेटे एक हाथ में मिठाई का डिब्बा उठाये घटना स्थल पर उपस्थित हुये। हमारा खाली हाथ आने का अपराध बोध कुछ कम हो गया। भाभीजी ने कहा भी – इसकी क्या जरूरत थी? इस पर अनुराग बोले- अरे हम आपके लिये ही थोडी लाये हैं। हम भी खायेंगे।
अनुराग चप्पल नीचे उतारकर दीवान पर आल्थी-पाल्थी मारकर प्रवचनी मुद्रा में बैठा गये और अपने किस्से सुनाने शुरु किये। हम भी शुरु हुये लेकिन अनुराग की गति देखते हुये शीघ्र ही आदर्श श्रोता की हैसियत से डा. टंडन की पार्टी ज्वाइन कर ली।
लगभग दो घंटे हम लोग न जाने किन-किन मसलों पर बतियाते रहे। भाभीजी, श्रीमती कनक टंडन जो स्वयं भी होम्योपैथिक डाक्टर हैं ( डा. टंडन ने आज तक नहीं बताया न) ब्लाग जगत में जीतेंन्द्र और समीरलाल के नाम से परिचित दिखीं। डा. टंडन श्रीश शर्मा के पक्के मुरीद दिखे। हम किसी की बुराई क्या करते? हमने हां में हां मिलाते हुये दो-चार और मनगढंत अच्छाईयां गिना दीं।
अनुराग ने अपने सिंगापुर प्रवास के तमाम किस्से सुनाये। इसके अलावा अपनी तमाम पोस्टों के बारे में भी कि वे घटनायें कैसे-कैसे घटित हुयीं। ला-मार्ट स्कूल में भर्ती का किस्सा भी तफ़सील से बताया।
इस बीच हमने पाया कि डा. टंडन और भाभीजी दनादन अपने कैमरों से हम लोगों की फोटो खैंचे जा रहे थे। हम ज्यादा उत्साहित नहीं थे क्योंकि कैमरा चाहे सस्ता हो या मंहगा, डिजिटल हो या आम हमारे साथ उसका व्यवहार हमेशा पक्षपाती रहा। सत्यवादी हरिशचंद्र टाइप। खैर हमने जब पता किया कि ये डिजिटल कैमरे और दूसरे कैमरे की जुगलबंदी क्यों चल रही है तो पता चला कि भाभी के कैमरे की रील में कुछ फोटो बचीं थीं। उसे वे जल्द से जल्द खींचकर रील धुलने के लिये देना चाहती थीं ताकि पिछले दिनो हुये अपने एक घरेलू कार्यक्रम की फोटुयें देख सकें। हम उनकी इस इच्छा को पूरा करने के माध्यम बने।
बातचीत के दौरान नाश्ते-पानी का दौर भी चलता रहा। ब्लागजगत की लगभग हर सामयिक घट्ना पर मौज-मजे में टिप्पणियां होती रहीं। अनुराग ने लखनऊ से संबंधित तमाम किस्से सुनाये। अवध मे नबाब के समय के लखनऊ के किस्से। जब लखनऊ पर अंग्रेजों ने कब्जा किया उस समय के तबाही के मंजर की जानकारी भी दी।
हम लोग बतरस में इतना लीन रहे कि दो घंटे कब बीत गये पता ही न चला। हम दो घंटे से भी ऊपर वहां बिताकर डा.टंडन को क्लिनिक जाने के लिये मुक्त करके भरे पेट विदा हुये। डा. टंडन को क्लिनिक जाना था इसलिये मैं अनुराग के साथ इंदिरा नगर अपने बड़े साढू़ के यहां आया जहां मैं रुका था। एक बार फिर बतियाने का दौर शुरू हुआ।
चाय-पानी नाश्ते के दौर के बीच अनुराग ने तमाम किस्से अपनी घुमक्क्ड़ी के सुनाये। पुराने जमाने में एशियायों के प्रभुत्व के भी तमाम किस्से सुनाये। कुछ किस्सों के अनुसार तो कई खोजें जो यूरोप के नाविकों के नाम दर्ज हैं वे उनके पहले एशियायिओं ने की थीं।
हमने भी मौका देखकर अपने किस्से सुनाने में कंजूसी नहीं की। आखिर में रात करीब नौ बजे अनुराग इंदिरा नंगर से विदा हुये।
इसे ब्लागर मीट कह कर बिदकने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस मुलाकात में ब्लाग तो एक बहाना था और उस पर चर्चा सबसे कम हुयी।
यह उन दोस्तों से मुलाकात थी जिनको हम जानते थे लेकिन मिले नहीं थे। अब उनसे मिल भी लिये और आगे भी मिलने का मन बना हुआ है।
हमें फिर इंतजार रहेगा डां टंडन के सवाल का – आप इतना फ़ुर्सत कैसे निकाल लेते हैं। हमें अनुराग की आवाज की भी प्रतीक्षा रहेगी- मैं अमिताभ बच्चन बोल रहा हूं।
नोट: बाकी की सत्यकथा और शानदार फोटो डा. टंडन के यहां देखें। उसमें मिठाई भी दिखेगी।
नोट: बाकी की सत्यकथा और शानदार फोटो डा. टंडन के यहां देखें। उसमें मिठाई भी दिखेगी।
Posted in बस यूं ही, संस्मरण | 21 Responses
इंक ब्लागिंग वाले अखबार क्या हुए जी।
जोरदारी से वेट कर रहे हैं हम तो।
आलोक पुराणिक
इसे हिन्दी चिठ्ठा जगत के अच्छे माहौल का ही असर माना जाना चाहिये कि ब्लॉगर मीट अब मित्रों की मुलाकात का रूप लेती जा रही है, पिछले दिनों मेरी पाँच छ: चिठ्ठाकारों से मुलाकात हुई पर एक भी बार ऐसा नहीं लगा कि मैं किसी ऐसे व्यक्ति से मिल रहा हूँ जिसे आज तक कभी देखा भी नहीं है। बातें यों होती रही मानो बहुत पुराना याराना रहा हो।
@हिंदीब्लागर, धन्यवाद। आपके बारे में भी चर्चा हुयी थी कोलकता में प्रेमप्रकाश के साथ।:)
@अरुन अरोरा, आपको जितनी जानकारी मिली अभी उतने से ही काम चलाइये भाई! बाकी आगे कभी दी जायेगी।
@आलोक पुराणिक, इंकब्लागिंग भी होगी। अभी तो आपके पोस्ट पढ़ने में ही टाइम की खर्चदारी हो रही है।:)
@प्रेमेंन्द्र, कभी लांग ड्राइव भी करेंगे।
@संजीत, ब्योरा कम शब्दों में इसलिये दिया कि कुछ तो शिकायत रहे हमारे विवरण में।:)
@मनीष, धन्यवाद।
@नीलिमाजी,शुक्रिया! अब नजर क्या उतरवायें! और किससे डर के उतरवायें। हमारे सारे ब्लागर साथी बड़ी भली नजरों से हमारे और दूसरे ब्लाग देखते हैं।
@सागर, धन्यवाद। वस्तुत: मुझे कहीं कटुता मिली ही नहीं।:) सब जगह अच्छा माहौल मिला। खाने-पीने का जुगाड़ अलग से। जो लफ़ड़ा होता है वह संवाद दूरी (कम्युनिकेशन गैप) के कारण ज्यादा होता है।