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झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद
By फ़ुरसतिया on July 20, 2007
ऐसा माना जाता है कि कनपुरिया बाई डिफ़ाल्ट मस्त होता, खुराफ़ाती है, हाजिर जवाब होता है।(जिन कनपुरियों को इससे एतराज है वे इसका खंडन कर दें , हम उनको अपवाद मान लेंगे।) मस्ती वाले नये-नये उछालने में इस् शहर् का कोई जोड़ नहीं है। गुरू, चिकाई, लौझड़पन और न जाने कितने सहज अनौपचारिक शब्द यहां के माने जाते हैं। मुन्नू गुरू तो नये शब्द गढ़ने के उस्ताद थे। लटरपाल, रेजरहरामी, गौतम बुद्धि जैसे अनगिनत शब्द् उनके नाम से चलते हैं। पिछले दिनों होली पर हुयी एक गोष्ठी में उनको याद करते हुये गीतकार अंसार कम्बरी ने एक गजल ही सुना दी-समुन्दर में सुनामी आ न जाये/ कोई रेजर हरामी आ न जाये।
जैसे पेरिस में फ़ैशन बदलता है, उसके साथ वैसे ही कानपुर में हर साल कोई न कोई मौसम उछलता है वैसे ही कानपुर् में कोई न् कोई जुमला या शब्द् हर साल् उछलता है और कुछ दिन जोर दिखा के अगले को सत्ता सौंप देता है। कुछ साल पहले नवा है का बे का इत्ता जोर रहा कि कहीं-कहीं मारपीट और स्थिति तनावपूर्ण किंतु नियंत्रण में है तक पहुंच गयी।
कानपुर् के ठग्गू के लडडू की दुकानदारी उनके लड्डुऒं और् कुल्फ़ी के कारण् जितनी चलती है उससे ज्यादा उनके डायलागों के कारण चलती है-
1.ऐसा कोई सगा नहीं
जिसको हमने ठगा नहीं2.दुकान बेटे की गारंटी बाप की3.मेहमान को मत खिलाना
वर्ना टिक जायेगा.4.बदनाम कुल्फी —
जिसे खाते ही
जुबां और जेब की गर्मी गायब5.विदेसी पीते बरसों बीते
आज देसी पी लो–
शराब नहीं ,जलजीरा.
दो दिन पहले अगड़म-बगड़म शैली के लेखक आलोक पुराणिक अपने कानपुर् के अनुभव सुना रहे थे। बोले -कनपुरिये किसी को भी काम् से लगा देते हैं। मुझे लगता है कि अगर वे रोज-रोज नयी-नयी चिकाई कर् लेते हैं तो इसका कारण उनका कानपुर में रहना रहा है। राजू श्रीवास्तव के गजोधर भैया कनपुरिया हैं इसीलिये इतने बिंदास अंदाज में हर चैनेल पर छाये रहते हैं।
कानपुर में मौज-मजे की परम्परा के ही चलते भडौआ साहित्य का चलन हुआ जिसमें नये-नये अंदा़ज में पैरोडियों के माध्यम से स्थापित लोगों की खिंचाई का पुण्य काम शुरू हुआ। आज किसी एक् शहर के सर्वाधिक सक्रिय ब्लागर की गिनती की जाये तो वे कानपुर के ही निकलेंगे। यह भी कि इनमें से ज्यादातर मौज-मजे वाले मूड में ही रहते हैं(अभय तिवारीजी संगति दोष के चलते कभी-कभी भावुक हो जाते हैं) ।दिल्ली वाले इसका बुरा न मानें क्योंकि किसी शहर में जीने-खाने के लिये बस जाने से उसका मायका नहीं बदल जाता।
तमाम जुमलों और शब्द-समूहों के बीच एक जुमले की बादशाहत कानपुर में लगातार सालों से बनी हुयी है। किसी ठेठ् कानपुरिया का यह मिजाज होता है। इसके लिये कहा जाता है- झाड़े रहो कलट्टर गंज। यह अधूरा जुमला है। लोग आलस वश आधा ही कहते हैं। पूरा है- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।
आलोक जी ने इस झन्नाटेदार डायलाग का मलतब पूछा था कि इसके पीछे की कहानी क्या है!
दो साल पहले जब मैं अतुल अरोरा के पिताजी ,श्रीनाथ अरोरा जी, से मिला था तब उन्होंने इसके पीछे का किस्सा सुनाया था जिसे उनको कानपुर् के सांसद-साहित्यकार स्व.नरेश चंद्र चतुर्वेदीजी ने बताया था। श्रीनाथजी कानपुर के जाने-माने जनवादी साहित्यकार हैं। इसकी कहानी सिलबिल्लो मेरी पसंदीदा कहानियों में से एक है। कनपुरिया जुमले का किस्सा यहां पेश है।
कानपुर में गल्ले की बहुत बड़ी मण्डी है। जिसका नाम कलट्टरगंज है। यहां आसपास के गांवों से अनाज बिकने के लिये आता है। ढेर सारे गेहूं के बोरों को उतरवाने के लिये तमाम मजूर लगे रहते हैं। इन लोगों को पल्लेदार कहते हैं।
पल्लेदार शायद् इसलिये कहा जाता हो कि जो बोरे उतरवाने-चढ़वाने का काम ये करते थे उसके टुकड़ों को पल्ली कहते हैं। शायद उसी से पल्लेदार बना हो या फिर शायद पालियों में काम करने के कारण उनको पल्लेदार कहा जाता हो।
उन दिनों पल्लेदारों को उनकी मजूरी के अलावा जो अनाज बोरों से गिर जाता था उसे भी दे दिया जाता था। दिन भर जो अनाज गिरता था उसे शाम को झाड़ के पल्लेदार ले जाते थे।
ऐसे ही एक पल्लेदार था। उसकी एक आंख खराब थी। वह् पल्लेदारी जरूर करता था लेकिन शौकीन मिजाज भी था। हफ़्ते भर पल्लेदारी करने के बाद जो गेहूं झाड़ के लाता उसको बेंचकर पैसा बनाता और इसके अलावा मिली मजूरी भी रहती थी उसके उसके पास।
शौकीन मिजाज होने के चलते वह अक्सर कानपुर में मूलगंज ,जहां तवायफ़ों का अड्डा था, गाना सुनने जाता था। वहां उसे कोई पल्लेदार न समझ ले इसलिये वह बनठन के जाता था। अपनी रईसी दिखाने के मौके भी खोजता रहता ताकि लोग उसे शौकीन मिजाज पैसे वाला ही समझें।
ऐसे ही एक दिन किसी अड्डे पर जब वह पल्लेदार गया तो उसने अड्डे के बाहर पान वाले से ठसक के साथ पान लगाने के लिये कहा। ऐसे इलाकों में दाम अपने आप बढ़ जाते हैं लेकिन उसने मंहगा वाला पान लगाने को कहा।
पान वाला उसकी असलियत् जानता था कि यह् पल्लेदार है और इसकी एक आंख खराब है। उसने मौज लेते हुये जुमला कसा- झाड़े रहो कलट्टगंज, मंडी खुली बजाजा बंद।
झाड़े रहो से उसका मतलब- पल्लेदार के पेशे से था कि हमें पता है तुम पल्लेदारी करते हो और् अनाज झाड़ के बेंचते हो। मंडी खुली बजाजा बंद मतलब एक आंख (मंडी -कलट्टरगंज) खुली है, ठीक है। दूसरी बजाजा (जहां महिलाओं के साज-श्रंगार का सामान मिलता है) बंद है, खराब है।
इस तरह् यह एक व्यंग्य था पल्लेदार पर जो पानवाले ने उस पर किया कि हमसे न ऐंठों हमें तुम्हारी असलियत औकात पता है। पल्लेदारी करते हो, एक आंख खराब है और यहां नबाबी दिखा रहे हो।
यह् एक तरह् से उस समय् के मिजाज को बताता है। अपनी औकात से ज्यादा ऐश करने की प्रवृत्ति पर व्यंग्य है-घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने। एक आंख से हीन पर दो आंखों वाले का कटाक्ष है। एक दुकानदार का अपने ग्राहक से मौज लेने का भाव है। यह अनौपचारिकता अब दुर्लभ है। अब तो हर व्यक्ति येन-केन-प्रकारेण बिकने-बेचने पर तुला है।
बहरहाल, आप इस सब पचड़े में न पडें। हम तो आपसे यही कहेंगे- झाड़े रहो कलट्टरगंज, मण्डी खुली बजाजा बंद।
Posted in कानपुर | 34 Responses
प्यारी पोस्ट..
आलोक जी का आभार कि उनके बहाने ही सही कम से कम इसका अर्थ तो मालूम चला!
अनूपजी सच्ची हमें आप में ही मुन्नू गुरु के दर्शन हो रहे हैं।
धांसू पोस्ट है।
झाड़े रहो……का बेहतरीन विवरण।
अपनी परंपरा, इतिहास को चीन्ह कर रखना और उसे आगे वालों तक पहुंचाना बहुत जरुरी काम है, पर बहुत कम लोग इतनी मुहब्बत से इस काम को कर रहे हैं जी। सारे शहर एक से हो रहे हैं अब मैकडोनाल्ड, कोक, शापिंग माल, मल्टीप्लेक्स। काश हर शहर को एक अनूप शुक्लजी जैसा कोई मिले, जो अतीत और भविष्य के बीच एक स्नेहिल कड़ी हो। कितना तो कुछ है, जो बताया जाना है नये बच्चों को, नये लोगों को, जिन्हे स्पाइडरमैन, टर्मिनेटर तो मालूम है, पर लोकल नहीं मालूम नहीं है। मुन्नू गुरु जैसे लोग किसी भी शहर की संस्कृति की नींव के पत्थर होते हैं, जो जड़ों से ही कितनी प्रतिभाओं को सींचते हैं। अब गुरु लोग कहां हैं, गुटु लोग बचे हैं।
चलिये कानपुर के मामले में तो आश्वस्ति है कि कुछ भी नहीं छूटेगा।
विरासत को बचाना तो बहुत बड़ा काम है, शायद सिर्फ लेखक के बूते का नहीं है। पर लेखक उस विरासत को कहीं सहेज कर पेश कर दे, तो वह भी कम बड़ा काम नहीं है।
ब्लागरी में साधुवाद का युग चला गया, ऐसा कहा जा रहा है, पर इस काम के लिए आप सच में साधुवाद के पात्र हैं।
वैसे ठग्गू चिट्ठाकार कौन है?
दिल खुश हुआ
kaluctor ganj. main bhi kanpur ka hon lekin 2 saal se delhi me rah raha hon
kanpur ke bare padkar bahut khushi hui,
>पल्लेदार शायद इस लिए भी कहते थे क्योंकि उस समय एक बोरे में एक पल्ला अनाज होता था और ये लोग उस थैले को अकेले ढो कर ले जाते थे। अब तो २५ या ५० किलो के थेले उठाने पर ही नानी याद आ जाती है:)
यहाँ मैं यह लिखना भूल गया कि जब रात को लोग उसे गेंहूं के लिए सड़क झाड़ते हुए देखते थे तो उससे कहने लगे थे ” झाड़े रहो कलक्टरगंज” बस मुहावरा चल निकला .
kanpuriyon ki baat hi nirali hai…..
.by Sushil Kumar on Wednesday, March 23, 2011 at 7:06pm.Indigenously-developed cure for old age knees problems
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