Wednesday, August 01, 2007

अधकटी पेंसिल का मीत

http://web.archive.org/web/20140419215837/http://hindini.com/fursatiya/archives/312

अधकटी पेंसिल का मीत

हिंदी चिट्ठाजगत के शुरुआती दौर में देबाशीष ने कई शुरुआतें की ताकि लोगों में लिखने की ललक बनी रहे। उनमें सेअनुगूंज सबसे प्रमुख है। मेरी समझ में नये साथियों को हिंदी ब्लागजगत के शुरुआती दौर के सबसे बेहतरीन लेख अगर देखने हों तो उनको अनुगूंज के पुराने अंक देखने चाहिये। अनुगूंज में कोई एक आयोजक चिट्ठाकार विषय देता था। लोग उस विषय पर लिखते थे। फिर आयोजक चिट्ठाकार उन लेखों की समीक्षानुमा प्रस्तुति (अवलोकनी चिट्ठा)अक्षरग्राम पर करता था। सबसे पहली अनुगूंज का विषय था- क्या देह ही है सब कुछ। इसी आयोजन के बहाने हमें देबाशीष ने‘हुकअप’ संबंधों के बारे बताया। अनुगूंज के बहाने ही तमाम लोगों ने झिझकते, शरमाते, मुस्काते, खिलखिलाते हुये अपनेपहले प्यार के किस्से सुनाये।
अनुगूंज की नवीं कड़ी का आयोजन इंद्र अवस्थी को करना था। उन्होंने विषय दिया। मेरे बचपन के मीत। मुझे लगता है कि लल्ला पर संस्मरण लिखने के लिये उन्होंने ये विषय चुना। बहरहाल आयोजन के बहाने तमाम लोगों ने अपने-अपने बचपन के मित्रों को याद किया। इसी अनुगूंज में हमें प्रेमपीयूष का अविस्मरणीय संस्मरण पढ़ने को मिला।बचपन का मेरा सीकिंया मीत शीर्षक देखकर लगा कि शायद किसी दुबले-पतले मित्र की कथा होगी। लेकिन लेख कुछ और ही कह रहा था-
शीर्षक तो ऐसा दे रखा है कि कलम ( की-बोर्ड – मुहावरे में बदलाव की आवश्यकता है) तोङकर लिखने को मन करता है । कलम की बात से याद आया, अभी जिस तरह से गोली-लेखनी ( बाल-पेन ) का चलन है , वैसा आपके या मेरे बचपन में नहीं हुआ करता था । अभी तो लिखो-फेको का जमाना है , या फिर जेल-पेन नहीं मिला तो छोटकु नाराज । भविष्य के बच्चे शाय़द इस तरह जिद्दी नहीं होंगे , सीधे की-बोर्ड पर हाथ साफ करेगें । सैकङों फोंट की सहायता से उसका सुलेख देखने लायक होगा । चाहे कुछ भी हो , आज बचपन का मेरा बेजान सीकिंया मीत पेंसिल के बारे में कहना चाहूँगा । बीती बिसारना नहीं चाहता हूँ, जिसके कारण मैं आज यहाँ हूँ ।
ऐसा अद्भुत जुड़ाव अपनी अधकटी पेंसिल से। अद्भुत। ऐसे बेहतरीन संस्मरात्मक लेख मैंने बहुत कम पढ़े। प्रेम अपनी पेंसिलें खो देते थे जिसका उपाय मां ने खोजा 
नियमतः एक दिन आधा कटा हुआ पेंसिल भी गायब हो गया । माँ के धैर्य का बाँध टुट गया । माँ थोङा गुस्साकर एक अनोखा उपाय ढुँढ निकाली । मुझे काला धागे का बङा रील लाने को कही । कई धागे को मिलाकर पतला डोरा बनायी। मैं आज्ञाकारी बालक की तरह सामने खङा था । माँ मुझे कमीज उपर करने को कही और उसी धागे से कमर का नाप ली । आधा कटा हुआ पेंसिल लाकर पेंसिल के दूसरे छोर पर खाँच बनायी । अब धागे को कमर में बाँध दी । बाँधने के बाद लंबा सा धागा झुल रहा था । माँ धागे को पेंसिल के खाचें में बाँध दी और पेंसिल डाल दी पाकेट में । जा बेटा , तेरा पेंसिल अब नहीं खोएगा । स्कुल जाने लगा वैसे ही । क्लास में लिखते समय पेंसिल को बाहर कर लिखता उसी तरह से धागा से बँधा हुआ ।
अपने लगभग एक वर्ष के ब्लागिंग सफ़र के दौरान प्रेम ने कई लेख, कवितायें लिखीं। लेख ज्यदातर संस्मरणात्मक थे। लेखों में अपने परिवेश की चिंतायें थीं। उनमें होली की मौज भी थी-
बलागर दारु नही पीते, कभी नहीं पीते। आस्तिक – नास्तिक हम सब बस भर्चुअल भंगेरिये हैं,बस वही हमलोग आज पिये हैं। दारु का दो बोतल तो डांडी के समुन्दर किनारे मिला है, कुछ नमकहरामों ने जो पी छोङा था । खद्दरधारी मालिक तो फोटो खिंचवाकर निकल गये । बुरा मत मानों होली है । रतिजी बताइये तो जरा, ये भले घर के नेता पतंगे क्यों उङाते हैं ।
प्रेमपीयूष ने अपने परिचय में लिख रखा था-
माँ स्कुल में बताती थी, हमारा जिला, किशनगंज, बिहार का सबसे अशिक्षित जिला है… । हाँ, तो दुनियावालों, मै अब पढ़-लिख सकता हूँ । हिप-हिप हुर्रे… ।
बिहार के सबसे अशिक्षित जिले का यह बच्चा नवोदय स्कूल
में पढ़कर अब भारत के सबसे पढ़े-लिखे शहरों में से एक, बंगलौर, में है। अपने ब्लाग के माथे पर लिखा नारा -

चिट्ठी की हुई विदाई,
चिट्ठा से हुई सगाई,
भावों के ससुराल चली,
ले भानुमती की पिटारी,
एक ब्लाग या पाती ।
लगता है बिसरा दिया है। चिट्ठा से सगाई लगता है तोड़ दी है। शायद और बेहतर रिश्ते मिल गये हैं। लेकिन हमें प्रेम पीयूष याद आते हैं उनके बचपन के मीत-अधकटी पेंसिल की तरह।

16 responses to “अधकटी पेंसिल का मीत”

  1. आलोक पुराणिक
    ये आप संस्मरणात्मक मोड में इत्ता क्यों चले गये हैं।
  2. ज्ञान दत्त पाण्डेय
    बढ़िया है यह अतीतकालीन चिठ्ठा चर्चा! वर्तमानकालीन चिठ्ठाचर्चा से सहस्त्रगुणा बेहतर! :)
  3. Tarun
    वैसे हमने २ बार इसे पुनर्जिवित करने की कोशिश की थी लेकिन बात बनी नही तो हम भी अपने हिस्से के फूल चढ़ा आये :( लेकिन हाँ प्रेम पीयूष तो गायब ही हो गये।
  4. प्रेम पीयूष
    अनुप भैया,
    ब्लाग जगत से आपका असीम प्यार और उसमें कुछ ऐसा स्नेह मेरे लिए भी !
    शायद आज मुझे इसकी जरुरत थी । क्या कहूँ, शब्द नहीं मिल रहे है ।
    पर चार शब्द हैं मेरे पास अभी – वैसा ही वापस आऊँगा ।
  5. अनुप जी के लिए « प्रेमपीयूष
    [...] आज जब मैं ये पंक्तियाँ टाईप कर रहा था तो जीमेल पर जीतू जी का चाट मैसेज कुछ यूँ टपक पड़ा । जीतू:http://hindini.com/fursatiya/?p=312 tumko yaad kiya ja raha hai [...]
  6. अनुप जी के लिए « प्रेमपीयूष
    [...] आपका लेख पढ़ा । ऐसे वहाँ टिप्पणी तो डाल दी है मैनें पर कुछ और लिखना चाहता हूँ । [...]
  7. अनुप जी के लिए « प्रेमपीयूष
    [...] अनुप जी के लिए Posted August 1, 2007 प्रिय अनुप जी, आपका लेख पढ़ा । ऐसे वहाँ टिप्पणी तो डाल दी है मैनें पर कुछ और लिखना चाहता हूँ । [...]
  8. रवि
    “…हिंदी चिट्ठाजगत के शुरुआती दौर में देबाशीष ने कई शुरुआतें की ताकि लोगों में लिखने की ललक बनी रहे।…
    देबाशीष तो कई और शुरुआतें कर रहे हैं और कई और शुरुआतें करने के लिए सोचने में लगे हुए हैं – उन्होंने कहा भी था – ख्वाहिशें ऐसीं…
    अनूगूंज को फिर से चालू किया जाना चाहिए. अब तो लेखक और लिख्खाड़ दोनों की भरमार है चिट्ठाजगत् में!
  9. अनुप जी के लिए « प्रेमपीयूष
    [...] अनुप जी के लिए Posted August 1, 2007 प्रिय अनुप जी, आपका लेख पढ़ा । ऐसे मैनें वहाँ टिप्पणी तो डाल दी है पर कुछ और लिखना चाहता हूँ । [...]
  10. जीतू
    अभी प्रेम पीयुष के कान खींचे है, और ये लो, लड़का तेज है पोस्ट भी लेकर आ गया|
  11. प्रियंकर
    प्रेम पीयूष को अरसे पहले पढा था . उनके लेखन में एक खास किस्म की तरलता हमेशा लक्षित की जा सकती है जो उनके भावुक मन का ही प्रतिबिम्ब है . उन्हें लेखन की ओर लौटना चाहिए और पूरी दमदारी से लौटना चाहिए .
  12. समीर लाल
    सही हैं. आवाज दिये जायें-सब जाग जायेंगे. :)
  13. श्रीश शर्मा
    पीयूष जी के बारे में पहली बार स‌ुना, खैर अब शायद उनके बारे में और जानने को मिले।
  14. neelima
    ओफ !! हम तो समझे यहां मसिजीवी जी की खिंचाई मिलने वाली है ! उनके ब्लॉग के सबसे उपर एक अधकटी पेंसिल लटक रेहली है न !!
    बहुत बढिया संस्मरण लिखा है !
  15. अनूप जी के लिए « प्रेमपीयूष
    [...] अनूप जी के लिए Posted August 1, 2007 प्रिय अनूप जी, आपका लेख पढ़ा । ऐसे मैनें वहाँ टिप्पणी तो डाल दी है पर कुछ और लिखना चाहता हूँ । [...]
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] अधकटी पेंसिल का मीत [...]

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