http://web.archive.org/web/20140419215253/http://hindini.com/fursatiya/archives/321
इतवारी टाइटल चर्चा
By फ़ुरसतिया on August 12, 2007
आलोक पुराणिक जी बोले -आपके वन लाइनर धांसू व फांसू होते हैं, ऐसा कहना निहायत पुनरावृत्ति होगी। क्या ये नियमित नहीं ना हो सकता।
अब नियमित करने में लफ़ड़ा है। पता नहीं किसको कैसा लगे, कौन बुरा मान जाये, हत्थे से उखड़ जाये। किसके चेहरे पर कसीदाकारी हो जाये। कोई पंगेबाज कहे हमें क्यों छोड़ दिया। लेकिन अब जब आलोक जी बोले हैं तो उनकी मंशा पूरी कर ही देते हैं। कम से कम आज तो करते ही हैं। आगे के लिये देखा जायेगा। इसे चिट्ठाचर्चा कहना मेरे ख्याल से ठीक नहीं होगा। टाइटिल चर्चा ही माना जाये इसे। बाकी आप पाठक हैं। जैसा ठीक समझें। तो लीजिये देखिये कुछ टाइटिल।
१. भाग बालक, भाग बालिका : वर्ना कोई चैनल वाला आ जायेगा।
२. मण्डन मिश्र के तोते और ज्ञान का पराभव: शंकराचार्य गृहस्थ बने।
३.संगठन में शक्ति :जानवर (ही )ये कर सकते हैं।
४.मैं तो बनूगा आतंकवादी्वादी : और हमारा समय शुरू होता है अब!
५.अंकल सैम का आंगन : टेढ़ा है।
६.कृषक की कशीदाकारी और छींटाकशी :एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।
७.पेंसिल से चित्रकारी : देखकर दंग रह गये न!
८. फिर हम कैसे है आजाद?:मामला जनता की अदालत में विचाराधीन है इसलिये कोई टिप्पणी नहीं।
९.माता-पिता और मातृभूमि :शहीदों को समर्पित। शहीदों के पल्ले यही पड़ता है।
१०. सुरक्षा का आभास?:शेर के एकदम पास। बेहद आसान किस्तों में।अपनी जान हथेली पर रखकर आइये, सुरक्षा का रोमांचक आभास पाइये।
११. माया के खेल तो बनते-बिगड़ते हैं:बनते ही बिगड़ जाते हैं। फ़ैशन के दौर में कोई गारण्टी दे भी नहीं सकता।
१२. कुछ मुक्तक:दुनिया नहीं समझती।
१३. जा रहा है मेरा देश ..:ऊंचाई छूने। छू के आओ देशजी।हम यहीं बैठे हैं। सांस फ़ूलती है।यात्रा मंगलमय हो! फोन करते रहना।
१३. हे नारद! अब जाग जाओ, वरना….: हम भी नींद की गोली खा के सो जायेंगे।
१४. पार्टनर : नक़्ल के लिए भी होनी चाहिए अक़्ल: हम दुनिया में सबकी नकल करते हैं। अत: हम सबसे अक्लमंद हैं। R.H.S.=L.H.S.| इति सिद्धम। ठीक है न पार्टनर!
१५. वर्नाक्यूलर इंडैम्निटी बांड की शर्मिंदगी से गुजरें हैं कभी ?: शर्माइये नहीं। किसी नोटरी की शरण में जाइये। शपथ पत्र हिंदी में भी बनते हैं। अपनी शपथ अपनी भाषा में खाइये।
१६. विद्यार्जन की नवीनतम तकनीकें और साधन: हम तकनीक के गुलाम बनने के बजाय अनपढ़ रहना पसन्द करेंगे।
२. मण्डन मिश्र के तोते और ज्ञान का पराभव: शंकराचार्य गृहस्थ बने।
३.संगठन में शक्ति :जानवर (ही )ये कर सकते हैं।
४.मैं तो बनूगा आतंकवादी्वादी : और हमारा समय शुरू होता है अब!
५.अंकल सैम का आंगन : टेढ़ा है।
६.कृषक की कशीदाकारी और छींटाकशी :एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।
७.पेंसिल से चित्रकारी : देखकर दंग रह गये न!
८. फिर हम कैसे है आजाद?:मामला जनता की अदालत में विचाराधीन है इसलिये कोई टिप्पणी नहीं।
९.माता-पिता और मातृभूमि :शहीदों को समर्पित। शहीदों के पल्ले यही पड़ता है।
१०. सुरक्षा का आभास?:शेर के एकदम पास। बेहद आसान किस्तों में।अपनी जान हथेली पर रखकर आइये, सुरक्षा का रोमांचक आभास पाइये।
११. माया के खेल तो बनते-बिगड़ते हैं:बनते ही बिगड़ जाते हैं। फ़ैशन के दौर में कोई गारण्टी दे भी नहीं सकता।
१२. कुछ मुक्तक:दुनिया नहीं समझती।
१३. जा रहा है मेरा देश ..:ऊंचाई छूने। छू के आओ देशजी।हम यहीं बैठे हैं। सांस फ़ूलती है।यात्रा मंगलमय हो! फोन करते रहना।
१३. हे नारद! अब जाग जाओ, वरना….: हम भी नींद की गोली खा के सो जायेंगे।
१४. पार्टनर : नक़्ल के लिए भी होनी चाहिए अक़्ल: हम दुनिया में सबकी नकल करते हैं। अत: हम सबसे अक्लमंद हैं। R.H.S.=L.H.S.| इति सिद्धम। ठीक है न पार्टनर!
१५. वर्नाक्यूलर इंडैम्निटी बांड की शर्मिंदगी से गुजरें हैं कभी ?: शर्माइये नहीं। किसी नोटरी की शरण में जाइये। शपथ पत्र हिंदी में भी बनते हैं। अपनी शपथ अपनी भाषा में खाइये।
१६. विद्यार्जन की नवीनतम तकनीकें और साधन: हम तकनीक के गुलाम बनने के बजाय अनपढ़ रहना पसन्द करेंगे।
अभी आगे भी है। फिलहाल इस बाले अहसास बाले नंबर के बाद लेते हैं एक नान-कामर्शियल ब्रेक। कुछ देर में फिर चर्चा करेंगे। आप तब तक अपना काम कर जाइये। टिपियाइये।
Posted in बस यूं ही | 16 Responses
लफड़ा तो हइये है! आपने हमको तीन शब्दों में निपटाया और कई लोगों को 25 शब्द दिये हैं. शब्द भी नाप तोल कर 3% की वैरियेशन रेंज में होने चाहियें
शुक्रिया!!
चलिये कहा पहले किसी ने हो, ज्ञानदत्तजी ने या आलोक पुराणिक ने, वन लाइनगिरी जमाये रहिए।
हम भी लिस्ट में शमिल हो सकते थे
यह क्या हुआ . यह तो कभी सुना नहीं कि ‘कनपुरिया हुआ कॉन्शस’ . ‘पंच परमेश्वर’ में वे बुजुर्गवार महिला अलगू चौधरी और जुम्मन शेख की मित्रता को जानते हुए भी अलगू चौधरी से प्रश्न करती हैं कि ‘बिगाड़ के डर से क्या ईमान की बात न कहोगे’ या ऐसा ही कुछ . यह यक्षप्रश्न कभी न कभी किसी न किसी रूप में हम सब के सामने आ खड़ा होता है . तब सिर्फ़ एक ही चीज़ बचती है सहायता के लिए : ईमान की बात .
अंतर्मन की बात भी सही है, इतना सब कैसे ?