http://web.archive.org/web/20140419212723/http://hindini.com/fursatiya/archives/352
जून में जब मैं कोलकता गया था तो प्रियंकरजी से मिलना एक उपलब्धि रही। चलते समय उन्होंने हमें ‘समकालीन सृजन‘ पत्रिका के दो अंक भेंट किये थे। मैंने उनके बारे में लिखने का तुरन्ता वायदा किया था। लेकिन जितनी जल्दी किया गया वो वायदा उतनी ही फ़ुर्ती से किनारे हो गया।आज फ़िर किताबें सामने दिखीं तो गया सवाल कर रही हैं- क्या हुआ तेरा वादा!
इस कविता पर मेरे कुछ अकवि एतराज थे लेकिन कविता के धुरंधरों ने उनको ‘पोयटिक जस्टिस’ के हथियार से तहस-नहस कर दिया।
किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकालीन सृजन
By फ़ुरसतिया on October 20, 2007
जून में जब मैं कोलकता गया था तो प्रियंकरजी से मिलना एक उपलब्धि रही। चलते समय उन्होंने हमें ‘समकालीन सृजन‘ पत्रिका के दो अंक भेंट किये थे। मैंने उनके बारे में लिखने का तुरन्ता वायदा किया था। लेकिन जितनी जल्दी किया गया वो वायदा उतनी ही फ़ुर्ती से किनारे हो गया।आज फ़िर किताबें सामने दिखीं तो गया सवाल कर रही हैं- क्या हुआ तेरा वादा!
अपने ब्लाग अनहदनाद के द्वारा वे हिंदी जगत की शानदार कविताओं से परिचय कराते रहने वाले प्रियंकरजी अपनी भी कवितायें पेश करते रहते हैं। उनमें से कुछेक धांसू भी होती हैं। उनकी सबसे अच्छी कविता जो मुझे लगती है वह हैसबसे बुरा दिन! -
सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगापृथ्वी मांग लेगी
अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी
किसी भी गलती को सुधारने का
क्रोध में कांपती हुई कह देगी
जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई
यह भारत के भुज बनने का समय होगा!
इस कविता पर मेरे कुछ अकवि एतराज थे लेकिन कविता के धुरंधरों ने उनको ‘पोयटिक जस्टिस’ के हथियार से तहस-नहस कर दिया।
प्रियंकरजी कविताओं से ज्यादा मुझे उनका गद्य मजेदार लगता है। शायद इसलिये कि उसमें कि कविताकी शानदार पैकिंग रहती है। ज्ञानजी तो उनकी भाषा के इतने मुरीद हैं कि उनसेकहते हैं-आपकी कलम बड़ी प्यारी लगती है – क्या मुझे देंगे – चाहे कुछ समय को उधार ही सही|
अब हमें इस बात का कुछ पता नहीं कि ज्ञानजी को उधारी मिली कि नहीं लेकिन जो हम और आप भी देख रहे हैं वे ,बकौल आलोक पुराणिक, भौत बढ़िया, धांसू च फ़ांसू और बिन्दास लिख रहे हैं। उधर प्रियंकरजी चुप हैं। अब इसका क्या अर्थ निकाला जाये?
प्रियंकरजी के आत्म-परिचय पर एक बार फ़िर गौर किया जाये जरा-
नाम प्रियंकर। गंगा-यमुना के दोआबे में जन्म और बचपन बीता। अर्ध-शुष्क मरुस्थलीय इलाके में आगे की पढाई-लिखाई। राजस्थान विश्वविद्यालय से अँग्रेजी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि। पीएचडी और एमबीए अधबीच में छोडा। बेहद आलसी किन्तु यारबाश बतोकड़ । मूलतः छापे की दुनिया का आदमी।परिचय में लोग-बाग जब कवि,सम्पादक,लेखक आदि-आदि कहते हैं तब ऊपर से गुरु-गम्भीर दिखाई देने का पूरा प्रयास करते हुए भी मन किलक-किलक उठता है।
तो कवि-सम्पादक और लेखक आदि-आदि सुनकर किलक-किलक उठने वाले प्रियंकर ने हमें अपने जो पत्रिकायें दी थीं उनमें उनके इन तीनों रूपों के किलकते हुये प्रमाण मौजूद थे। ‘समकालीन सृजन’ साहित्य और सामाजिक आलोचना की पत्रिका है। प्रियंकरजी इसके संपादक मंडल में शामिल हैं। अन्य संपादकों में अवधेश प्रसाद सिंह, मृत्यंजय,लक्ष्मण केडिया, शिवनाथ पांडेय शामिल हैं।
मूलत: साहित्यप्रेमियों के सहयोग से निकलने वाली इस पत्रिका का एक साल में अमूमन एक अंक निकलता है। अभी तक कुल २३ अंक निकले हैं। इसके संपादक शंभुनाथजी और प्रबंध संपादक मानिक बच्छावतजी हैं।
इसका हर अंक एक खास विषय पर केंद्रित होता है। पिछला अंक समकालीन कविता पर केंद्रित था। इस वर्ष का अंक पर्यटन पर केंद्रित है। हमारी यायावरी के किस्सों से प्रभावित (हम तो यही कहेंगे भाई! होकर प्रियंकरजी ने हमसे इस अंक के लिये लेख मांगा था। हमने हां भी कहा था लेकिन फ़िर हमारे और प्रियंकरजी के आलस्य में भिडंत हो गयी। हमने उनके आलस से बाजी मार ली और लेख अभी तक नहीं भेजा। अब प्रियंकरजी का पराजित आलस बेचारा प्रूफ़ रीडिंग में सर खपा रहा है।
शायद पर्यटन पर केंद्रित यह अंक दिसम्बर तक छपकर आ जाये। हम इसका बेसबी से इंतजार कर रहे हैं।
धर्म आतंकवाद और आजादी पर केंद्रित बाइसवें अंक का संपादन प्रियंकरजी ने किया था। अपने संपादकीय में आतंकवाद के बारे में विचार करते हुये लिखा था-
*आतंकवाद घृणा की संस्कृति का चरम बिन्दु है। आतंकवादी समूहों की कार्रवाइयां वस्तुनिष्ठ वास्तविकता के बजाए आत्मगत व्याख्या पर आधारित होती हैं।
*आतंकवाद का एक प्रकार राज्य-प्रायोजित आतंकवाद भी है, जहां राज्य की निरंकुश और दमनकारी भूमिका का नृशंस रूप हमारे सामने आता है।
*आतंकवाद का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि आतंकवादी गतिविधियों से निपटने और राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के नाम पर राज्य नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता को सीमित अथवा स्थगित कर देता है।
*आतंकवाद का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि आतंकवादी गतिविधियों से निपटने और राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के नाम पर राज्य नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता को सीमित अथवा स्थगित कर देता है।
*लोकतंत्र का भविष्य जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा पर ही निर्भर है। किंतु हमें यह भी याद रखना चाहिये कि लोकतंत्र मुक्ति का पर्याय नहीं, मुक्ति की ओर प्रस्थान बिन्दु है।
एडवर्ड सईद को समर्पित ‘समकालीन सृजन‘ के इस अंक में आतंकवाद, साम्राज्यवाद,फ़ासीवाद, धार्मिक कट्टरता पर केंद्रित कई अच्छे लेख हैं। आतंक के असली अर्थ में क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह ने आतंक शब्द की व्याख्या करते हुये लिखा है-
*आतंक का अर्थ जुल्म और जब्ररदस्ती करना है। ऐसा बुरा काम न करने की कसम खाने में किसी को क्या उज्र हो सकता है। लेकिन असली बात यह है कि जुल्म को नहीं, बल्कि ताकत के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम देकर लोगों में गलतफ़हमी फ़ैला दी गयी है।
* वीरता, हिम्मत, शहादत, बलिदान, सैनिक कर्तव्य, शस्त्र चलाने की योग्यता, दिलेरी और अत्याचारियों का सर कुचलने वाली बहादुरी आदि गुण बल-प्रयोग पर निर्भर थे।
अब ये गुण अयोग्यता और नीचता समझे जाने लगे। आतंक शब्द के इन भामक अर्थों ने कौम् की समझ पर पानी फ़ेर दिया है। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि
हथौड़े से पत्थर का बुत तोड़ना भी आतंक के दायरे में मान लिया गया और लाठी तक पकड़ने को आतंक माना गया। तो क्या बुत को हाथों से तोड़ा जाए?
हथौड़े से पत्थर का बुत तोड़ना भी आतंक के दायरे में मान लिया गया और लाठी तक पकड़ने को आतंक माना गया। तो क्या बुत को हाथों से तोड़ा जाए?
प्रियंकरजी के सम्पादन में निकले इस अंक के बाद ‘समकालीन सृजन’ अगला अंक कविता पर केंदित था। इसका सम्पादन ‘मानिक बच्छावत’ जी ने किया। अपने संपादकीय में कविता के प्रति अपने सरोकार व्यक्त करते हुये उन्होंने लिखा-
*आज देश में हिंसा और लूट-खसोट का बोलबाला है। शहरी मध्यवर्ग भौतिक सुखों के पीछे दौड़ रहा है तो यह स्वाभाविक है कि समाज में कविता की कविता की जगह सिकुड़ती जाये। कविता न सुनने की चीज रह गयी है न पढ़ने की। कवि होना कभी-कभी अनुपयोगी सा दिखता है।
*आज देश में हिंसा और लूट-खसोट का बोलबाला है। शहरी मध्यवर्ग भौतिक सुखों के पीछे दौड़ रहा है तो यह स्वाभाविक है कि समाज में कविता की कविता की जगह सिकुड़ती जाये। कविता न सुनने की चीज रह गयी है न पढ़ने की। कवि होना कभी-कभी अनुपयोगी सा दिखता है।
*कविता लिखी जा रही है और लिखी जाती रहेगी। वह जिंदगी की हिम्मत है, ताकत है। जिंदगी की यह ताकत उठ खड़ी हुयी है उनके खिलाफ़ जो जिंदगी के विरोध में हैं। दरअसल जिंदगी के विरोध में जो हैं वे बहुत जल्दी में हैं। बहुत फ़ास्ट हैं। कविता एक ऐसा ‘स्पेस’ रचती है जहां हम थोड़ी देर ठहरकर सोच सकते हैं।
वह बाजार से बाहर की एक जगह है। अब बहुत कम है ऐसा कुछ, जो बाजार के बाहर हो।
वह बाजार से बाहर की एक जगह है। अब बहुत कम है ऐसा कुछ, जो बाजार के बाहर हो।
पत्रिका में कुछ कवियों से पूछे गये सवाल भी शामिल हैं जो कविता और समाज पर केंद्रित हैं। एक सवाल के जबाब में सुरेश चंद्र ठाकुर ने कहा-
आज हमें आइंस्टीन जैसा वैज्ञानिक नहीं मिलता, सैम पित्रोदा जैसा सेलीब्रिटी मिलता है। गांधी जैसा नेता नहीं मिलता, बुश और ब्लेयर मिलते हैं। जन आंदोलनों से कभी के बिछुड़ चुके हमें आज बाजार के महासागर में गोते लगाती नौजवानों की ‘एक्जीक्यूटिव क्लास’ मिलती है जो सेक्स को ब्रेड-आमलेट से ज्यादा कुछ नहीं समझती। एक दशक से चली आ रही सूचना क्रांति के बावजूद हम दूसरे मुल्कों के महान साहित्यकारों को नहीं जानते, उनके प्रधानमंत्रियों और राष्ट्राध्यक्षों को मगर जरूर पहचानते हैं। आज मीडिया पहले से कहीं अधिक तरक्की कर चुका है, पर अपनी इस तरक्की में वह साहित्य और साहित्यकारों को छोड़ता आया है। वह रातोरात मल्लिका सहरावत की इरोटिक तस्वीरें छापकर उसे विश्व-प्रसिद्ध बना देता है, पर साहित्य अकादमी अवार्ड पाने वाले पर एक कालम की खबर तक नहीं छापता। सच यही है कि हर तरफ़ औसत का राजपाट चल रहा है। यह पराभव विश्वस्तरीय है।
आज हमें आइंस्टीन जैसा वैज्ञानिक नहीं मिलता, सैम पित्रोदा जैसा सेलीब्रिटी मिलता है। गांधी जैसा नेता नहीं मिलता, बुश और ब्लेयर मिलते हैं। जन आंदोलनों से कभी के बिछुड़ चुके हमें आज बाजार के महासागर में गोते लगाती नौजवानों की ‘एक्जीक्यूटिव क्लास’ मिलती है जो सेक्स को ब्रेड-आमलेट से ज्यादा कुछ नहीं समझती। एक दशक से चली आ रही सूचना क्रांति के बावजूद हम दूसरे मुल्कों के महान साहित्यकारों को नहीं जानते, उनके प्रधानमंत्रियों और राष्ट्राध्यक्षों को मगर जरूर पहचानते हैं। आज मीडिया पहले से कहीं अधिक तरक्की कर चुका है, पर अपनी इस तरक्की में वह साहित्य और साहित्यकारों को छोड़ता आया है। वह रातोरात मल्लिका सहरावत की इरोटिक तस्वीरें छापकर उसे विश्व-प्रसिद्ध बना देता है, पर साहित्य अकादमी अवार्ड पाने वाले पर एक कालम की खबर तक नहीं छापता। सच यही है कि हर तरफ़ औसत का राजपाट चल रहा है। यह पराभव विश्वस्तरीय है।
ये तो अच्छा है कि सुरेशजी ब्लाग नहीं लिखते वर्ना उनको जानकर दुख होता कि यहां सबसे महान लेखक भी मल्लिका सहरावत के धुर प्रशंसक हैं और दूसरे साथियों को भी बहाने से सहरावत प्रशंसक समुदाय में शामिल करने में जुटे हुये हैं।
परे अंक में कविताये हैं। उनमें से कुछ आपके लिये पेश हैं-
१.अटकाव
चौराहे पर उन्होंने मेरी साइकिल में
पीछे से टक्कर मारी
क्योंकि मैं हरी बत्ती के इंतजार में रुका था
जबकि उन्हें जाने की जल्दी थी।
चौराहे पर उन्होंने मेरी साइकिल में
पीछे से टक्कर मारी
क्योंकि मैं हरी बत्ती के इंतजार में रुका था
जबकि उन्हें जाने की जल्दी थी।
यों भी वे मोटर में थे
साइकिल की क्या मजाल कि वह
उन्हें अट्काये रखती!
-अजित कुमार
साइकिल की क्या मजाल कि वह
उन्हें अट्काये रखती!
-अजित कुमार
२.वह दिन जल्दी ही आयेगा
ऐसे ही चलता रहा सब कुछ ठीक-ठाक तो
हमारे लोकतंत्र में वह दिन जल्दी ही आयेगा
जब आसमान छता सेंसेक्स ही
हमारे देश की धड़कनों का
एकमात्र संवेदी सूचकांक रह जायेगा।
हमारे लोकतंत्र में वह दिन जल्दी ही आयेगा
जब आसमान छता सेंसेक्स ही
हमारे देश की धड़कनों का
एकमात्र संवेदी सूचकांक रह जायेगा।
वह दिन जल्दी ही आयेगा
जब न्याय के सर्वोच्च दरबार में भी
सिर्फ़ आंकड़ों की भाषा बोली और समझी जायेगी
सिर्फ़ आंकड़ों को ही जीवित साक्ष्य मानकर
दूध का पानी
और पानी का दूध किया जायेगा।
भगवत रावत
जब न्याय के सर्वोच्च दरबार में भी
सिर्फ़ आंकड़ों की भाषा बोली और समझी जायेगी
सिर्फ़ आंकड़ों को ही जीवित साक्ष्य मानकर
दूध का पानी
और पानी का दूध किया जायेगा।
भगवत रावत
३.लुटेरे
लूट का धंधा इतना संस्थागत हो चुका है
कि लूटनेवाले को शिकायत तभी होती है
जब लुटेरा चाकू तानकर सुनसान रास्ते में खड़ा हो जाये
वरना तो वह लुटकर चला आता है
और एक कप चाय लेकर टी.वी. देखते हुये
अपनी थकान उतारता है।
-विष्णु नागर
कि लूटनेवाले को शिकायत तभी होती है
जब लुटेरा चाकू तानकर सुनसान रास्ते में खड़ा हो जाये
वरना तो वह लुटकर चला आता है
और एक कप चाय लेकर टी.वी. देखते हुये
अपनी थकान उतारता है।
-विष्णु नागर
इस बेहतरीन पत्रिका का पर्यटन विशेषांक जैसा कि मैंने बताया जल्द ही आने वाला है। यायावरी मनोवृत्ति के बहादुर किताब पढ़ना चाहेंगे शायद।
संदर्भ:
समकालीन सृजन,
२०,बाल मुकुन्द मक्कर रोड,
कोलकता-७००००७
ई-मेल:samakaaleensrijan@rediffmail.com
मूल्य:३० रुपये मात्र
पृष्ठ लगभग ३००
समकालीन सृजन,
२०,बाल मुकुन्द मक्कर रोड,
कोलकता-७००००७
ई-मेल:samakaaleensrijan@rediffmail.com
मूल्य:३० रुपये मात्र
पृष्ठ लगभग ३००
Posted in इनसे मिलिये | 16 Responses
अनूपजी आपकी कलम की रवानी और इत्ता सारा लिखने के हम कायल हैं। हम तो भैया हाँफने लग जाएं :)शुक्रिया…. प्रियंकर जी की कविताओं के हम प्रशंसक हैं और अपनों को भी गाहे-बगाहे पढवाते रहते हैं। अब उनकी पत्रिका नियमित मंगवाने का जतन करते हैं।
प्रियंकर वह नायाब चरित्र हैं; जिनसे परिचय ही न होता अगर मैं ब्लॉगरी के अखाड़े में न आया होता। वैसे यह कमेण्ट आधा दर्जन से ज्यादा लोगों के बारे में दे सकता हूं। उसमें आप भी प्रमुख होंगे।
आपके बारे में आज कल शिकायत है कि आपकी फुरसत में कमी दीख रही है। टिप्पणियों की लम्बाई तो बिल्कुल फुरसतिया ब्राण्ड नहीं है। टुन्नी-टुन्नी सी टिप्पणियां आती हैं।
जरा देखें – ब्लॉगों की संख्या बढ़ने पर भी समीर लाल जी चकाचक टिप्पणियां ठेलते हैं – कनाडे की चक्की शायद बहुत ऊर्जावान आटा पीसती है!
बाकी यह पोस्ट बहुत अच्छी और प्यारी है।
(जरा आलोक पुराणिक/काकेश/संजीत को आप वरिष्ठतम ब्लॉगर होने के नाते समझा दें कि मुझे मीका के चक्करमें छीलना बन्द कर दें )
शब्द और भाषा का जो बहाव वो बनाते चलते है बहुत कम देखने को मिलता है॥
आप लगता है कि फुरसत में कम हैं। वो वनलाइनर की परियोजना भी ठप सी हो गयी है। किसी लंबे गुंताड़ें में हैं क्या।
और ज्ञानजी की शिकायत भी सुन लीजिये, सबको धमका वमका दीजिये।
मुझे अभी भी आप का ई-मेल पता नही मिल पाया है इस लिए इस बार भी यहीं आप का धन्यवाद कर रही हूँ। अपना ई-मेल पता देंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।