Saturday, October 20, 2007

किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकालीन सृजन

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किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकालीन सृजन


चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

जून में जब मैं कोलकता गया था तो प्रियंकरजी से मिलना एक उपलब्धि रही। चलते समय उन्होंने हमें ‘समकालीन सृजन‘ पत्रिका के दो अंक भेंट किये थे। मैंने उनके बारे में लिखने का तुरन्ता वायदा किया था। लेकिन जितनी जल्दी किया गया वो वायदा उतनी ही फ़ुर्ती से किनारे हो गया।आज फ़िर किताबें सामने दिखीं तो गया सवाल कर रही हैं- क्या हुआ तेरा वादा!
अपने ब्लाग अनहदनाद के द्वारा वे हिंदी जगत की शानदार कविताओं से परिचय कराते रहने वाले प्रियंकरजी अपनी भी कवितायें पेश करते रहते हैं। उनमें से कुछेक धांसू भी होती हैं। उनकी सबसे अच्छी कविता जो मुझे लगती है वह हैसबसे बुरा दिन! -

प्रियंकर

सबसे बुरा दिन वह होगा
जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा
‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
पृथ्वी मांग लेगी
अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी
किसी भी गलती को सुधारने का
क्रोध में कांपती हुई कह देगी
जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई
यह भारत के भुज बनने का समय होगा!

इस कविता पर मेरे कुछ अकवि एतराज थे लेकिन कविता के धुरंधरों ने उनको ‘पोयटिक जस्टिस’ के हथियार से तहस-नहस कर दिया।
प्रियंकरजी कविताओं से ज्यादा मुझे उनका गद्य मजेदार लगता है। शायद इसलिये कि उसमें कि कविताकी शानदार पैकिंग रहती है। ज्ञानजी तो उनकी भाषा के इतने मुरीद हैं कि उनसेकहते हैं-आपकी कलम बड़ी प्यारी लगती है – क्या मुझे देंगे – चाहे कुछ समय को उधार ही सही|
अब हमें इस बात का कुछ पता नहीं कि ज्ञानजी को उधारी मिली कि नहीं लेकिन जो हम और आप भी देख रहे हैं वे ,बकौल आलोक पुराणिक, भौत बढ़िया, धांसू च फ़ांसू और बिन्दास लिख रहे हैं। उधर प्रियंकरजी चुप हैं। अब इसका क्या अर्थ निकाला जाये?
प्रियंकरजी के आत्म-परिचय पर एक बार फ़िर गौर किया जाये जरा-

नाम प्रियंकर। गंगा-यमुना के दोआबे में जन्म और बचपन बीता। अर्ध-शुष्क मरुस्थलीय इलाके में आगे की पढाई-लिखाई। राजस्थान विश्वविद्यालय से अँग्रेजी और हिन्दी में स्नातकोत्तर उपाधि। पीएचडी और एमबीए अधबीच में छोडा। बेहद आलसी किन्तु यारबाश बतोकड़ । मूलतः छापे की दुनिया का आदमी।परिचय में लोग-बाग जब कवि,सम्पादक,लेखक आदि-आदि कहते हैं तब ऊपर से गुरु-गम्भीर दिखाई देने का पूरा प्रयास करते हुए भी मन किलक-किलक उठता है।
तो कवि-सम्पादक और लेखक आदि-आदि सुनकर किलक-किलक उठने वाले प्रियंकर ने हमें अपने जो पत्रिकायें दी थीं उनमें उनके इन तीनों रूपों के किलकते हुये प्रमाण मौजूद थे। ‘समकालीन सृजन’ साहित्य और सामाजिक आलोचना की पत्रिका है। प्रियंकरजी इसके संपादक मंडल में शामिल हैं। अन्य संपादकों में अवधेश प्रसाद सिंह, मृत्यंजय,लक्ष्मण केडिया, शिवनाथ पांडेय शामिल हैं।
मूलत: साहित्यप्रेमियों के सहयोग से निकलने वाली इस पत्रिका का एक साल में अमूमन एक अंक निकलता है। अभी तक कुल २३ अंक निकले हैं। इसके संपादक शंभुनाथजी और प्रबंध संपादक मानिक बच्छावतजी हैं।

समकालीन सृजन
इसका हर अंक एक खास विषय पर केंद्रित होता है। पिछला अंक समकालीन कविता पर केंद्रित था। इस वर्ष का अंक पर्यटन पर केंद्रित है। हमारी यायावरी के किस्सों से प्रभावित (हम तो यही कहेंगे भाई! :) होकर प्रियंकरजी ने हमसे इस अंक के लिये लेख मांगा था। हमने हां भी कहा था लेकिन फ़िर हमारे और प्रियंकरजी के आलस्य में भिडंत हो गयी। हमने उनके आलस से बाजी मार ली और लेख अभी तक नहीं भेजा। अब प्रियंकरजी का पराजित आलस बेचारा प्रूफ़ रीडिंग में सर खपा रहा है। :)
शायद पर्यटन पर केंद्रित यह अंक दिसम्बर तक छपकर आ जाये। हम इसका बेसबी से इंतजार कर रहे हैं।
धर्म आतंकवाद और आजादी पर केंद्रित बाइसवें अंक का संपादन प्रियंकरजी ने किया था। अपने संपादकीय में आतंकवाद के बारे में विचार करते हुये लिखा था-
*आतंकवाद घृणा की संस्कृति का चरम बिन्दु है। आतंकवादी समूहों की कार्रवाइयां वस्तुनिष्ठ वास्तविकता के बजाए आत्मगत व्याख्या पर आधारित होती हैं।
*आतंकवाद का एक प्रकार राज्य-प्रायोजित आतंकवाद भी है, जहां राज्य की निरंकुश और दमनकारी भूमिका का नृशंस रूप हमारे सामने आता है।
*आतंकवाद का सबसे बड़ा दुष्परिणाम यह होता है कि आतंकवादी गतिविधियों से निपटने और राष्ट्रीय सुरक्षा को मजबूत करने के नाम पर राज्य नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता और निजता को सीमित अथवा स्थगित कर देता है।
*लोकतंत्र का भविष्य जनतांत्रिक अधिकारों की रक्षा पर ही निर्भर है। किंतु हमें यह भी याद रखना चाहिये कि लोकतंत्र मुक्ति का पर्याय नहीं, मुक्ति की ओर प्रस्थान बिन्दु है।
एडवर्ड सईद को समर्पित ‘समकालीन सृजन‘ के इस अंक में आतंकवाद, साम्राज्यवाद,फ़ासीवाद, धार्मिक कट्टरता पर केंद्रित कई अच्छे लेख हैं। आतंक के असली अर्थ में क्रांतिकारी सरदार भगत सिंह ने आतंक शब्द की व्याख्या करते हुये लिखा है-
*आतंक का अर्थ जुल्म और जब्ररदस्ती करना है। ऐसा बुरा काम न करने की कसम खाने में किसी को क्या उज्र हो सकता है। लेकिन असली बात यह है कि जुल्म को नहीं, बल्कि ताकत के इस्तेमाल को ही आतंक का नाम देकर लोगों में गलतफ़हमी फ़ैला दी गयी है।
* वीरता, हिम्मत, शहादत, बलिदान, सैनिक कर्तव्य, शस्त्र चलाने की योग्यता, दिलेरी और अत्याचारियों का सर कुचलने वाली बहादुरी आदि गुण बल-प्रयोग पर निर्भर थे।
अब ये गुण अयोग्यता और नीचता समझे जाने लगे। आतंक शब्द के इन भामक अर्थों ने कौम् की समझ पर पानी फ़ेर दिया है। नौबत यहां तक आ पहुंची है कि
हथौड़े से पत्थर का बुत तोड़ना भी आतंक के दायरे में मान लिया गया और लाठी तक पकड़ने को आतंक माना गया। तो क्या बुत को हाथों से तोड़ा जाए?
प्रियंकरजी के सम्पादन में निकले इस अंक के बाद ‘समकालीन सृजन’ अगला अंक कविता पर केंदित था। इसका सम्पादन ‘मानिक बच्छावत’ जी ने किया। अपने संपादकीय में कविता के प्रति अपने सरोकार व्यक्त करते हुये उन्होंने लिखा- 
*आज देश में हिंसा और लूट-खसोट का बोलबाला है। शहरी मध्यवर्ग भौतिक सुखों के पीछे दौड़ रहा है तो यह स्वाभाविक है कि समाज में कविता की कविता की जगह सिकुड़ती जाये। कविता न सुनने की चीज रह गयी है न पढ़ने की। कवि होना कभी-कभी अनुपयोगी सा दिखता है।
*कविता लिखी जा रही है और लिखी जाती रहेगी। वह जिंदगी की हिम्मत है, ताकत है। जिंदगी की यह ताकत उठ खड़ी हुयी है उनके खिलाफ़ जो जिंदगी के विरोध में हैं। दरअसल जिंदगी के विरोध में जो हैं वे बहुत जल्दी में हैं। बहुत फ़ास्ट हैं। कविता एक ऐसा ‘स्पेस’ रचती है जहां हम थोड़ी देर ठहरकर सोच सकते हैं।
वह बाजार से बाहर की एक जगह है। अब बहुत कम है ऐसा कुछ, जो बाजार के बाहर हो।
पत्रिका में कुछ कवियों से पूछे गये सवाल भी शामिल हैं जो कविता और समाज पर केंद्रित हैं। एक सवाल के जबाब में सुरेश चंद्र ठाकुर ने कहा-
आज हमें आइंस्टीन जैसा वैज्ञानिक नहीं मिलता, सैम पित्रोदा जैसा सेलीब्रिटी मिलता है। गांधी जैसा नेता नहीं मिलता, बुश और ब्लेयर मिलते हैं। जन आंदोलनों से कभी के बिछुड़ चुके हमें आज बाजार के महासागर में गोते लगाती नौजवानों की ‘एक्जीक्यूटिव क्लास’ मिलती है जो सेक्स को ब्रेड-आमलेट से ज्यादा कुछ नहीं समझती। एक दशक से चली आ रही सूचना क्रांति के बावजूद हम दूसरे मुल्कों के महान साहित्यकारों को नहीं जानते, उनके प्रधानमंत्रियों और राष्ट्राध्यक्षों को मगर जरूर पहचानते हैं। आज मीडिया पहले से कहीं अधिक तरक्की कर चुका है, पर अपनी इस तरक्की में वह साहित्य और साहित्यकारों को छोड़ता आया है। वह रातोरात मल्लिका सहरावत की इरोटिक तस्वीरें छापकर उसे विश्व-प्रसिद्ध बना देता है, पर साहित्य अकादमी अवार्ड पाने वाले पर एक कालम की खबर तक नहीं छापता। सच यही है कि हर तरफ़ औसत का राजपाट चल रहा है। यह पराभव विश्वस्तरीय है।
ये तो अच्छा है कि सुरेशजी ब्लाग नहीं लिखते वर्ना उनको जानकर दुख होता कि यहां सबसे महान लेखक भी मल्लिका सहरावत के धुर प्रशंसक हैं और दूसरे साथियों को भी बहाने से सहरावत प्रशंसक समुदाय में शामिल करने में जुटे हुये हैं। :)
परे अंक में कविताये हैं। उनमें से कुछ आपके लिये पेश हैं-
१.अटकाव
चौराहे पर उन्होंने मेरी साइकिल में
पीछे से टक्कर मारी
क्योंकि मैं हरी बत्ती के इंतजार में रुका था
जबकि उन्हें जाने की जल्दी थी।
यों भी वे मोटर में थे
साइकिल की क्या मजाल कि वह
उन्हें अट्काये रखती!
-अजित कुमार
२.वह दिन जल्दी ही आयेगा
ऐसे ही चलता रहा सब कुछ ठीक-ठाक तो
हमारे लोकतंत्र में वह दिन जल्दी ही आयेगा
जब आसमान छता सेंसेक्स ही
हमारे देश की धड़कनों का
एकमात्र संवेदी सूचकांक रह जायेगा।
वह दिन जल्दी ही आयेगा
जब न्याय के सर्वोच्च दरबार में भी
सिर्फ़ आंकड़ों की भाषा बोली और समझी जायेगी
सिर्फ़ आंकड़ों को ही जीवित साक्ष्य मानकर
दूध का पानी
और पानी का दूध किया जायेगा।
भगवत रावत
३.लुटेरे
लूट का धंधा इतना संस्थागत हो चुका है
कि लूटनेवाले को शिकायत तभी होती है
जब लुटेरा चाकू तानकर सुनसान रास्ते में खड़ा हो जाये
वरना तो वह लुटकर चला आता है
और एक कप चाय लेकर टी.वी. देखते हुये
अपनी थकान उतारता है।
-विष्णु नागर
इस बेहतरीन पत्रिका का पर्यटन विशेषांक जैसा कि मैंने बताया जल्द ही आने वाला है। यायावरी मनोवृत्ति के बहादुर किताब पढ़ना चाहेंगे शायद।
संदर्भ:
समकालीन सृजन,
२०,बाल मुकुन्द मक्कर रोड,
कोलकता-७००००७
ई-मेल:samakaaleensrijan@rediffmail.com
मूल्य:३० रुपये मात्र
पृष्ठ लगभग ३००

16 responses to “किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकालीन सृजन”

  1. अजित वडनेरकर
    बहुत बढ़िया। आपको अपना वादा याद आया तो हमें प्रियंकर भाई के बारे में कुछ जानने को मिला। प्रियंकर जी कब थे जयपुर में ? हम तो १९८५ से २००३ तक वहां रहे।
    अनूपजी आपकी कलम की रवानी और इत्ता सारा लिखने के हम कायल हैं। हम तो भैया हाँफने लग जाएं :)शुक्रिया…. प्रियंकर जी की कविताओं के हम प्रशंसक हैं और अपनों को भी गाहे-बगाहे पढवाते रहते हैं। अब उनकी पत्रिका नियमित मंगवाने का जतन करते हैं।
  2. समीर लाल
    बहुत आभार प्रियंकर जी और समकालीन सृजन‘ पत्रिका के बारे में विस्तार से जानकारी देने के लिये. अच्छा लगा पढ़कर. आजकल दिख नहीं रहे प्रियंकर भाई?
    कवितायें बहुत पसंद आई.
  3. Gyan Dutt Pandey
    आभी मुझे आज दौरे पर निकलना है – इसलिये दन्न से टिप्पणी कर निकल रहा हूं।
    प्रियंकर वह नायाब चरित्र हैं; जिनसे परिचय ही न होता अगर मैं ब्लॉगरी के अखाड़े में न आया होता। वैसे यह कमेण्ट आधा दर्जन से ज्यादा लोगों के बारे में दे सकता हूं। उसमें आप भी प्रमुख होंगे।
    आपके बारे में आज कल शिकायत है कि आपकी फुरसत में कमी दीख रही है। टिप्पणियों की लम्बाई तो बिल्कुल फुरसतिया ब्राण्ड नहीं है। टुन्नी-टुन्नी सी टिप्पणियां आती हैं।
    जरा देखें – ब्लॉगों की संख्या बढ़ने पर भी समीर लाल जी चकाचक टिप्पणियां ठेलते हैं – कनाडे की चक्की शायद बहुत ऊर्जावान आटा पीसती है! :-)
    बाकी यह पोस्ट बहुत अच्छी और प्यारी है।
    (जरा आलोक पुराणिक/काकेश/संजीत को आप वरिष्ठतम ब्लॉगर होने के नाते समझा दें कि मुझे मीका के चक्करमें छीलना बन्द कर दें :-) )
  4. kakesh
    यह हुई ना फुरसतिया पोस्ट. यह पत्रिका पढ़ी है एक आध बार कलकत्ता में. अब नियमित मंगाने की व्यवस्था भी करते हैं.
    (जरा ज्ञान जी को आप वरिष्ठतम ब्लॉगर होने के नाते समझा दें कि अब वह मीका पर शोध करना बंद कर राखी और मल्लिका तक पहुंचें.हमारी तो सुनते ही नहीं आजकल :-) )
  5. अनुनाद सिंह
    समकालीन सृजन का यह अतिलघु रूप भी बहुत अच्छा लगा। इसके लिये पत्रिका के साथ-साथ आपकी पसन्द भी प्रशंशा की अधिकारिणी है।
  6. संजय बेंगाणी
    अक्छी जानकारी मिली. कुछ कविताएं भी पढ़ने को मिली. साधूवाद.
    “महासागर में गोते लगाती नौजवानों की ‘एक्जीक्यूटिव क्लास’ मिलती है जो सेक्स को ब्रेड-आमलेट से ज्यादा कुछ नहीं समझती।”
    देश की आबादी को 30 से 100 करोड़ तक पहूँचाने में नौजवानों की इस ‘एक्जीक्यूटिव क्लास’ का क्या योगदान है बताया जाय :)
  7. Sanjeet Tripathi
    बहुत ही बढ़िया!!!
    आप ऐसे वादे न भूला करें तो ही बेहतर ताकि हमे ऐसा पढ़ने को मिलता रहे!!
    दर-असल आपकी खालिस फ़ुरसतिया स्टाइल की पोस्ट हमें बहुत सी और भी बातों, जानकारियों से परिचित करा जाती है
    प्रियंकर जी के पद्य से ज्यादा उनके गद्य का कायल हूं मै,
    शब्द और भाषा का जो बहाव वो बनाते चलते है बहुत कम देखने को मिलता है॥
    वैसे ज्ञान दद्दा ने अपने कमेंट के आखिरी लाईन मे ब्रैकेट एक अंदर जो लिखा है मुझे आशा है कि आप को वो नही दिखाई देगा!!
  8. आलोक पुराणिक
    बेहतरीन,
    आप लगता है कि फुरसत में कम हैं। वो वनलाइनर की परियोजना भी ठप सी हो गयी है। किसी लंबे गुंताड़ें में हैं क्या।
    और ज्ञानजी की शिकायत भी सुन लीजिये, सबको धमका वमका दीजिये।
  9. anita kumar
    हम तो अनूप जी ब्लोगरी की दुनिया में बस आखें खोल रहे है, इस लिए हम तो आप जैसे सब वरिष्तम ब्लोगरो को मिल नही जी देख कर अपने सितारों को सराह रहे हैं। इस पत्रिका के बारे में बम्बई में भी पता करेंगे और जरुर पढ़ेगे। वैसे सच है आप की लेखन शैली बहुत मोहक है।
    मुझे अभी भी आप का ई-मेल पता नही मिल पाया है इस लिए इस बार भी यहीं आप का धन्यवाद कर रही हूँ। अपना ई-मेल पता देंगे तो मुझे अच्छा लगेगा।
    अनीताजी, मेरा ईमेल पता है anupkidak@gmail.com अफ़सोस कि पहले भेजना याद न रहा। आपकी टिप्पणियों और तारीफ़ का शुक्रिया। :)
  10. जीतू
    हमारे प्रियंकरभाई भी विलुप्त प्रजाति के अनमोल और नायाब प्राणी है। प्रियंकरजी से हमारा वास्ता एक टिप्पणी युद्द पर पड़ा था, जिसमे हम लोग किसी विषय विशेष पर भिड़े थे। इतिहास गवाह है जिस बन्दे से हम कभी भिड़े तो, वो हमारा जिगरी ही हुआ। ऐसा ही प्रियंकरभाई के साथ भी हुआ। आज प्रियंकर हमारे बड़े भाई की तरह है। आत्मविश्वास से लबालब भरे, प्रियंकर बहुत ही आत्मीय चिट्ठाकार है। जब कभी भी हमारे पास आत्मविश्वास की कमी होती है, हम प्रियंकर भाई से उधार ले लेते है, सचमुच इस चिट्ठाकारी संसार मे प्रियंकर भाई जैसे बहुत कम लोग है।
    पहले पहले ये जनाब कविता लिखते थे, जिसमे हमारा हाथ थोड़ा तंग है, हमे भी कभी कभी (जबरन) पढाते थे, लेकिन ये जानते थे कि हम इसमे इंटरेस्ट कम लेते है तो जनाब ने गद्य लेखन मे हाथ चलाए, चलाए क्या जी, दौड़ाए, जितनी अच्छी ये कविता लिखते है, उससे भी अच्छा ये गद्य लिखते है। प्रियंकर के रुप मे हिन्दी चिट्ठा संसार को एक जबरदस्त लेखक मिला है। मां सरस्वती इन पर कृपा बनाए रखे।
    इन्ही शुभकामनाओं के साथ…..
  11. सृजन शिल्पी
    प्रियंकर जी को कुछ और जानने को मिला। पत्रिका के अंकों की इतनी बेहतरीन समीक्षा के बाद निश्चय ही उसके नियमित ग्राहक बढ़ेंगे। टिप्पणियों में ही पाठकों ने बुकिंग शुरु कर दी है।
    सत्य के भीतरी तहों तक झाँकने वाला सटीक विचारशील लेखन प्रियंकर जी की खासियत है, जो उन्हें दूसरों से अलग करता है। अपने मंतव्य को बेलाग व्यक्त करने की कशिश उनकी भाषा में एक विशेष प्रकार का कसाव लाती है, जिनके सहारे पूरी बात तक पहुँचने के लिए पाठक को आखिर तक सावधानी से आगे बढ़ना होता है। उनके लेखन को सरसरी निगाह से पढ़कर कहीं किनारे सरकाया नहीं जा सकता।
  12. प्रियंकर
    आभार व्यक्त करने के अलावा और क्या कर सकता हूं!
    जिन चिट्ठाकारों को आप मुग्ध होकर पढते हों, वे आपको अच्छा बताएं तो आत्मविश्वास वैसे ही आसमान छूने लगता है (ध्यानाकर्षण जीतू). ज्ञान जी धीर-गंभीर व्यक्ति हैं पर उनकी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा (जिसका आपने जिक्र किया है)को ज्यादा गंभीरता से न लेने का स्थाई अनुरोध है .
    ब्लॉग जगत में आने पर इतने कम समय में इतने अधिक और इतने अच्छे मित्र मिले कि अपने सौभाग्य पर इठलाने का मन होता है .लिख-बोल तो और माध्यमों पर भी रहा हूं पर इस माध्यम का जवाब नहीं है .
    पिछले पखवाड़े कुछ दिन बाहर था . उसके बाद एक पारिवारिक उत्सव की व्यस्तता थी . पत्रिका के नए अंक का काम भी अन्तिम चरण में है . अब पुनः कमर कस कर लगूंगा .
    एक बार पुनः आप सभी के प्रति आभार,विशेषकर अनूप भाई के प्रति . इतना सदय होने के लिए,अपना वादा याद रखने के लिए और अन्ततः उसे निभाने के लिए .
  13. फुरसतिया » आतंक के असली अर्थ- भगतसिंह
    [...] [आज महेंद्र मिश्र का लिखा लेख ,क्या सरदार भगतसिह आतंकवादी थे ? पढ़कर मुझे भगतसिंह लिखा लेख आतंक के असली अर्थ याद आया। यह लेख मैंने समकालीन जनमत के प्रियंकरजी द्वारा सम्पादित धर्म, आतंकवाद और आजादी पर केंद्रित अंक में पढ़ा था। इसे पोस्ट करने का पहली बार विचार तब आया था जब संजय बेंगाणी ने शहीदे आजम भगतसिंह को याद करते हुये चिट्ठाचर्चा की थी। [...]
  14. Devi Nangrani
    Waah Bahut hi acha laga aapke blog par aakar jahaan is silsile ko padne aur jaankari hasil paane ka saubhagya raha
    Devi
  15. उन दुआओं का मुझपे असर चाहिए
    [...] संबंधित कड़ियां: १. प्रियंकर- एक प्रीतिकर मुलाकात २. किलक-किलक उठने वाला सम्पादक और समकाली… [...]
  16. : फ़ुरसतिया-पुराने लेखhttp//hindini.com/fursatiya/archives/176
    [...] [...]

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