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भय बिनु होय न प्रीत
By फ़ुरसतिया on October 29, 2007
[अदालत ने इस बार बैजनाथ को डांटा। बहुत डांटा। इतना डांटा कि बैजनाथ सचमुच सहम गया। इसका चेहरा पीला पड़ गया। उधर डांटते-डांटते अदालत का चेहरा लाल हो गया। पर जब अदालत की डांट दूसरे से तीसरे मिनट में पहुंची तो बैजनाथ संभल गया। उसे अपने उस्ताद पण्डित राधेलाल की बात याद आ गयी। उन्होंने समझाया था कि बेटा, गवाही देते समय कभी-कभी वकील या हाकिमे इजलास बिगड़ जाते हैं । इससे घबराना न चाहिये। वे बेचारे दिन भर दिमागी काम करते हैं। उनका हाजमा खराब होता है। वे प्राय: अपच, मंदाग्नि और बबासीर के मरीज होते हैं। इसीलिये वे चिड़चिड़े हो जाते हैं। उनकी डांट-फ़टकार से घबराना न चाहिये। यही सोचना चाहिये कि वे तुम्हें नहीं अपने हाजमें को डांट रहे हैं। यही नहीं , यह भी याद रखना चाहिये कि ये सब बड़े आदमी होते हैं, पढ़े-लिखे लोग। ये लोग तुम्हारा मामला समझ ही नहीं सकते। इसलिये जब वे बिगड़ रहे हों तो अपना दिमाग साफ़ रखना चाहिये और यही सोचते रहना चाहिये कि अब किस तरकीब से उन्हें बुत्ता दिया जाये। राग दरबारी ]
भगवान राम समुद्र से विनय कर रहे हैं। रास्ता मांग रहे हैं। पुल बनवाने के लिये अर्जी दे रहा हैं। अगला कान में तेल डाले पड़ा हुआ है। इस पर रामजी को ताव आ गया जैसा तुलसीदास जी ने कहा-
विनय न मानत जलधि जड़, गये तीन दिन बीत।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीत।
लोग भगवान राम की विजय के तमाम कारण बताते हैं लेकिन मुझे लगता है कि उनका गुस्सा ही उनकी जीत का कारण बना। अगर वे गुस्साते नहीं तो आप निश्चित जानिये न पुल बनता न सेनाये पार जा पातीं। समुद्र हड़क गया क्योंकि वह सरकारी कर्मचारियों सा रामजी के प्रार्थनापत्र बिना कुछ कार्यवाही किये अलसाया सोता रहा। रामजी ने उसे एक अधिकारी की तरह जहां हड़काया वहां वह डर गया। और इसके बारे में तो गब्बरजी भी बोले हैं- जो डर गया सो मर गया।
काम भर की नौकरी कर चुकने क बाद मुझे लगता है कि दफ़्तरों और गुस्से में चोली दामन का साथ है। वह दफ़्तर ही नहीं जहां गुस्सा न हो। दफ़्तर के नाम पर कलंक भले न हो लेकिन अपवाद है , क्षणिक अपवाद, जिसका मिटना अटल सत्य है।
काबिल अफ़सर के तमाम गुणों में उसका गुस्सा करने का गुण सबसे महत्व रखता है। तेजतर्रार अफ़सर का मतलब ही गुस्सैल अफ़सर माना जाता है। जो कायदे से गुस्सा करना सीख गया समझ लो उसकी नौकरी निकल गयी।
अधिकारी के लिये गुस्सा उतना ही जरूरी है जितना फ़ौज के लिये हथियार। जैसे बिना हथियार लड़ाई नहीं जीती जा सकती वैसे ही बिना गुस्से के दफ़्तर नहीं चल सकते। गुस्से के बिना दफ़्तर उसी तरह सूने लगते हैं जैसे….। अब जैसे में आप अपनी मर्जी का कुछ भी लगा लो। जितना सटीक लगायेंगे आपकी गुस्से के बारे में समझ उतनी ही अच्छी मानी जायेगी।
कल फिर जारी रहेगा गुस्सा पुराण!
Posted in बस यूं ही | 9 Responses
टीवी चैनलों पर जिस डिबेट में गुस्सेबाजी हो जाये, मारामारी हो ले, वह डिबेट हिट हो लेती है।
गुस्साशास्त्र भौत विकट है, मैं भी इस पर काम कर रहा हूं।
गुस्से में अंगरेजी बोलना चिरकुटई का लक्षण हैं, हालांकि अकसर अफसर यही बोलते हैं।
ठोस धांसू गालियां अवधी, ब्रज भाषा में है, पर वहीं नहीं बोलनी चाहिए, बाद में अनुशासनात्मक कार्रवाई हो लेती है। मैं स्वाजी भाषा का इस्तेमाल करता हूं. जिसकी कतिपय महत्वपूर्ण गालियां इस प्रकार हैं-
भूकांडीजेरोबो, सौरेटौटेकेंडो, हौप्पो टोप्पो, कुरैयाटा, टाबमाटो, हौंडाबामजैका, डौकामाडा, डजाबौमा, बाडैजाडा
इनके अर्थ के लिए मेरी आगामी पुस्तक पढ़िये।गुस्साशास्त्र।
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