http://web.archive.org/web/20140419214646/http://hindini.com/fursatiya/archives/361
फ़ुरसतियाजी आप चुगद हैं
By फ़ुरसतिया on October 31, 2007
आज सबेरे मैथिलीजी ने फोन करके आलोक की पोस्ट के बारे में बताया। मैं आफ़िस में था। वहां नेट नहीं है। सो मैंने बताया कि शाम को देखकर टिप्पणी करेंगे।
आलोक ने बड़ी सभ्य, संयत सी भाषा में ब्लॉगवाणी के चरित्र पर कुछ गंभीर बातें लिखीं हैं। जबाब में सिरिल जो कि मैथिलीजी के पुत्र हैं ने पोस्ट लिखी- चिट्ठाजगत-स्वामी आलोक जी, ब्लागवाणी और मेरी पहचानों से इतने परेशान ?
आलोक ने हालांकि बातें सिद्धांत से जुड़ी कही हैं। और चूंकि ब्लागवाणी से जुड़ी बातें लिखी हैं इसलिये व्यक्तिगत न बताकर ब्लागवाणी के संस्थागत चरित्र का खुलासा किया है।
मैं व्यक्तिगत तौर पर , ब्लागर के रूप में, दोनों ही संकलकों से जुड़ा हुआ हूं। संस्था के रूप में मेरी कोई जबाबदेही नहीं बनती।
मैंने ब्लागवाणी के मैथिलीजी से इस बारे में अनुरोध किया कि वे आलोक का ब्लाग जोड़ दें। उन्होंने मेरे कहने पर उनका ब्लाग जोड़ दिया। जगदीश भाटियाजी का ब्लाग भी जोड़ दिया। हालांकि जगदीश भाटियाजी बहुत उत्सुक न थे। इस आशय की टिप्पणी भी की थी उन्होंने मेरे ब्लाग में लेकिन (उन पर अपना आधिकार मानते हये) मैंने उसे (टिप्पणी को) शामिल नहीं किया और उनसे अनुरोध किया कि वे ब्लागवाणी को अपना ब्लाग शामिल करने की अनुमति देते हुये मेल लिख दें। मेरे अनुरोध पर उन्होंने ब्लागवाणी के संचालक को मेल भेजी और उन्होंने उनका ब्लाग जोड़ लिया।
इसके बाद आज आलोक की पोस्ट आयी।
मैं ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत दोनों के तकनीकी पहलुऒं से अनजान हूं। इसलिये इस बारे में कुछ टिप्पणी नहीं करूंगा। लेकिन आलोक की इस पोस्ट से मुझे अफसोस हुआ।
अफसोस इसलिये हुआ कि आलोक ने संस्थागत बातें लिखने में बहुत देर की।(उन बातों के समर्थन या विरोध में) इस पोस्ट में बतायी बातों में से ऐसी कोई भी बात नहीं थी जो ब्लागवाणी में आपका ब्लाग जोड़े जाने से पहले आपको पता नहीं थी।
संस्था का खुलासा करते समय यह विचार भी करना चाहिये था कि अभी एक दिन पहले किसी ने अनुरोध करके आपके (भले ही आपको उससे कोई फ़रक न पड़ता हो) चिट्ठे को उस संकलक में जुड़वाया। इसके लिये उनसे अनुरोध किया कि सबके हित में है कि आलोक और जगदीश भाटिया के चिट्ठे हटने नहीं चाहिये।
संस्थाऒं की उज्ज्वल परम्परायें कहीं न कहीं व्यक्तियों से ही बनती हैं। आलोकजी ने इस तथ्य को अनदेखा किया। ब्लागवाणी से जुड़े लोगों ने क्या किया पहले और क्या नहीं किया यह मैं तय नहीं करना चाहता। न मैं उसका समर्थन करता हूं न विरोध। न मुझमें इतनी तकनीकी काबिलियत है कि संकलकों का विश्लेषण कर सकूं। लेकिन ब्लाग जुड़ने के एक दिन बाद ही यह पोस्ट लिखना किसी भी तरह से सही नहीं है मेरी नजर में। इससे वह व्यक्ति उपहास का पात्र अपनी नजर में और दूसरों की नजर में भी बनाता है जिसने बिना किसी मतलब के सम्बन्ध सामान्य करवाने की कोशिश की। सहज भाव से।
इस बात को समझने की कोशिश की जाये कि इस तरह की पोस्टों से हमारे जैसे लोगों को सहज सीख मिलती है कि किसी पचड़े में पड़ने की बेवकूफ़ी नहीं करनी चाहिये। संस्थायें बनी रहें व्यक्तिगत संबंध गये भाड़ में। व्यक्तिगत संबंधों की गरिमा निभाने की बात बेकार है।
अरुण अरोरा की टिप्पणी बचकानी थी। लेकिन वह स्पार्क थी। अगर उससे भड़की आग तो इसका मतलब पेट्रोल आलोक के अन्दर पहले से ही था। अगर बात सैद्धान्तिक ही थी तो फिर इतने इंतजार की जरूरत नहीं थी।
एक बात और समझनी चाहिये कि इस तरह की बातें अपनी पोस्टों में लिख-लिखकर आने वाले चिट्ठाकारों को बताते हैं कि हिंदी ब्लागजगत की यही कुल जमापूंजी है। एक दूसरे पर चढाई करते रहना।
जो बातें आलोक ने अपनी पोस्ट में लिखीं वे लगभग सभी लोग जानते हैं जो ब्लाग जगत की गतिविधियों पर नजर रखते हैं। परिवार के लोग दस नाम से ब्लाग लिखते हैं तो इसमें क्या बुराई?
मेरे ब्लागस्पाट पर कई चिट्ठे हैं। इसके अलावा रागदरबारी और विधिचर्चा भी मैं मैंनेज करता हूं। अगर मैं कल को इन ब्लागों से कहीं कमेंट करता हूं तो इसमें कौन सा पाप है भाई?
ब्लागर छ्दम नाम से लिखता है या किसी और नाम से इससे कौन फ़रक पड़ता है। आपको बात पसंद आये तो पढ़ें वर्ना कट लें।
अरुण अरोरा को भी ख्याल रखना चाहिये कि जरूरी नहीं कि हर जगह खुराफ़ाती टिप्पणियां की जायें।
बेहतर होगा कि ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत अपने-अपने कलेवर, क्षमताओं और सेवाओं में बढोत्तरी करें। बेहतरी करें।
मैथिलीजी से मैं अफ़सोस जाहिर करता हूं कि मेरे अनुरोध करने के बाद आलोक ने इस तरह की पोस्ट लिखी जिससे उनको तकलीफ़ पहुंची। आपके बच्चे अगली बार आपकी बात मानने में और सवाल करेंगे।
आलोक की पोस्ट से मुझे अफ़सोस हुआ क्योंकि उन्होंने अपनी सैद्धांतिक पोस्ट और संस्थागत खुलासे की रौ में यह ख्याल नहीं रखा कि इससे किसी के व्यक्तिगत संबंध भी प्रभावित होते हैं। आगे जब कभी मैं ब्लागवाणी या और किसी संकलक के संचालक से इस तरह के अनुरोध करना चाहूंगा तो मुझे यह ख्याल आयेगा कि कहीं यह न सुनना पड़े कि पिछली बार भी आपके कहने पर हमने किया था लेकिन बाद में यह हुआ।
आलोकजी, आप महसूस कर सकें तो करें कि आपने इस खुलासे के लिये सही समय का चुनाव नहीं किया। या तो आपको तमाम लोगों को मेल करने में समय बरबाद करने की बजाय यह पोस्ट लिखनी चाहिये थी या फिर कुछ समय और इन्तजार करना चाहिये था। मौके रोज मिलते रहेंगे।
संकलक, वो चाहे नारद हो या चिट्ठाजगत या ब्लागवाणी या कोई और उसको यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि ब्लाग के लिये संकलक है न कि संकलक के लिये ब्लाग। आज हमारा चिट्ठा अगर सारे संकलकों से हट जाता है तो भी हमारे पाठक कुछ न कुछ बने ही रहेंगे। नये आने वालो लोगों के लिये संकलकों की खास उपयोगिता है।
यह पोस्ट करते समय मेरे मन में किसी के प्रति गुस्सा नहीं है। न आक्रोश। न आलोक के प्रति न किसी और के प्रति। लेकिन हम अपने आपसे से यही कह रहे हैं- फ़ुरसतियाजी आप चुगद हैं, दुनियादारी बुझते नहीं हैं।
क्यों सही कह रहे हैं न!
Posted in बस यूं ही | 17 Responses
its high time sir indepeendent bloggers should try and make a society for hindi bloggers .
फुरसतिया जी अगर आप चुगद हैं तो आप का नंबर बाद में आता है , दिल के खुश रखने को क्या ये ख्याल अच्छा नहीं?
नीरज