http://web.archive.org/web/20140419215559/http://hindini.com/fursatiya/archives/378
आपत्ति फ़ूल को है माला में गुथने में
By फ़ुरसतिया on December 7, 2007
अक्सर मैं ये दो लाइनें जहां-तहां ठेलता रहता हूं-
तो अनायास स्व.रमानाथ अवस्थीजी आजादी के बाद बंटवारे की त्रासदी पर अपनी टीस व्यक्त करती हुयी कविता पंक्तियां याद आ गयीं-
भारत मां तेरा वंदन कैसे होगा?
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना,
बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा?
आया बसंत लेकिन हम पतझर के आदी,
युग बीता नहीं मिला पाये हम साज अभी,
हैं सहमी खड़ी बहारें नर्तन लुटा हुआ,
नूपुर में बंदी रुनझुन की आवाज अभी।
एकता किसे कहते हैं यह भी याद नहीं,
सागर का बंटवारा हो लहरों का मन है,
फ़ैली है एक जलन सी सागर के तल में,
ऐसा लगता है गोट-गोट में अनबन है।
कुछ बिना बात के बात हो गयी है पैदा,
कि अपने भी दीखने लगे हैं बेगाने से,
मोहन से राधा खिंची-खिंची सी रहती है,
दूरियां बढ़ गयी हैं,बस्ती बस जाने से।
कुछ लोग धार देने बैठे हैं शस्त्रों पर,
मधुॠतु के बांटे जाने की तैयारी है,
पंखुरी-पंखुरी से चाहती है अलग होना,
मासूम बहारों की पैमाइश जारी है।
हर चीज नहीं बांटी जाती है टुकड़ों में,
दौपद्री ने टुकड़े-टुकड़े बांटी जाती है,
रोटी तो बंटकर रहती है रोटी ही,
बच्चों में मां की कोख न बांटी जाती है।
क्या बंटवारा होगा सांवली घटाओं का,
इंन्द्रधनुष का, कोयल की कूं-कूं का,
चंदा की मुस्कानों का,लहरों के स्वर का,
अंबर के आंसू का, सूरज की कच्ची धूपों का?
संगीत एक ही दोनों में लहराता है,
गंगा गाये या हो कावेरी का गायन,
भारत की खुशबू दोनों में है,
पुरवैया हो या दक्षिणी पवन।
ये रंग-बिरंगी फ़ूलों जैसी भाषायें,
जिनसे शोभित होता बगिया का आंचल है,
दिल के कालेपन का इलाज करना होगा,
आदमी छली होता है ,भाषा निष्छल है।
भाषा तो है मुस्कानों का ही एक रूप,
अधरों से बहता यह आंखों का पानी है,
भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना नादानी है।
नंदलाल पाठक
भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,आज ऐसे ही कुछ कागज खोज रहा था तो मुझे अपनी एक पुरानी डायरी मिली। इसमें यह कविता पूरी लिखी है। इसे मैंने करीब बीस वर्ष पहले किसी कवि सम्मेलन मेंसुना था। फिर उसका कैसेट मेरे पास सालों रहा। तदनन्तर वह कैसेट-गति को प्राप्त हुआ। लेकिन आज यह कविता पढ़कर लगा कि आपको भी इसे पढ़वाया जाये। नंदलाल पाठक जी की इस कविता में ये पंक्तियां गौरतलब हैं-
पुल को दीवार समझ लेना नादानी है।
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना,इसी मूड की बात ये पंक्तियां भी कहती हैं-
बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा?
एकता किसे कहते हैं यह भी याद नहीं,पाठक जी कविता की जब ये पंक्तियां पढ़ीं
सागर का बंटवारा हो लहरों का मन है,
क्या बंटवारा होगा सांवली घटाओं का,
इंन्द्रधनुष का, कोयल की कूं-कूं का,
चंदा की मुस्कानों का,लहरों के स्वर का,
अंबर के आंसू का, सूरज की कच्ची धूपों का?
तो अनायास स्व.रमानाथ अवस्थीजी आजादी के बाद बंटवारे की त्रासदी पर अपनी टीस व्यक्त करती हुयी कविता पंक्तियां याद आ गयीं-
बहराहाल ज्यादा और कुछ न कहते हुये आपके लिये पेश है मेरी एक पसंदीदा कविता-
धरती तो बंट जायेगी
पर नीलगगन का क्या होगा?
हम तुम ऐसे बिछड़ेंगे
तो महामिलन का क्या होगा?
आपत्ति फ़ूल को है माला में गुथने में
आपत्ति फ़ूल को है माला में गुथने में,भारत मां तेरा वंदन कैसे होगा?
सम्मिलित स्वरों में हमें नहीं आता गाना,
बिखरे स्वर में ध्वज का वंदन कैसे होगा?
आया बसंत लेकिन हम पतझर के आदी,
युग बीता नहीं मिला पाये हम साज अभी,
हैं सहमी खड़ी बहारें नर्तन लुटा हुआ,
नूपुर में बंदी रुनझुन की आवाज अभी।
एकता किसे कहते हैं यह भी याद नहीं,
सागर का बंटवारा हो लहरों का मन है,
फ़ैली है एक जलन सी सागर के तल में,
ऐसा लगता है गोट-गोट में अनबन है।
कुछ बिना बात के बात हो गयी है पैदा,
कि अपने भी दीखने लगे हैं बेगाने से,
मोहन से राधा खिंची-खिंची सी रहती है,
दूरियां बढ़ गयी हैं,बस्ती बस जाने से।
कुछ लोग धार देने बैठे हैं शस्त्रों पर,
मधुॠतु के बांटे जाने की तैयारी है,
पंखुरी-पंखुरी से चाहती है अलग होना,
मासूम बहारों की पैमाइश जारी है।
हर चीज नहीं बांटी जाती है टुकड़ों में,
दौपद्री ने टुकड़े-टुकड़े बांटी जाती है,
रोटी तो बंटकर रहती है रोटी ही,
बच्चों में मां की कोख न बांटी जाती है।
क्या बंटवारा होगा सांवली घटाओं का,
इंन्द्रधनुष का, कोयल की कूं-कूं का,
चंदा की मुस्कानों का,लहरों के स्वर का,
अंबर के आंसू का, सूरज की कच्ची धूपों का?
संगीत एक ही दोनों में लहराता है,
गंगा गाये या हो कावेरी का गायन,
भारत की खुशबू दोनों में है,
पुरवैया हो या दक्षिणी पवन।
ये रंग-बिरंगी फ़ूलों जैसी भाषायें,
जिनसे शोभित होता बगिया का आंचल है,
दिल के कालेपन का इलाज करना होगा,
आदमी छली होता है ,भाषा निष्छल है।
भाषा तो है मुस्कानों का ही एक रूप,
अधरों से बहता यह आंखों का पानी है,
भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना नादानी है।
नंदलाल पाठक
Posted in कविता, मेरी पसंद | 13 Responses
कल आज और कल के दौर की एक सार्थक कविता । इसको पढवाने के लिये साधुवाद,
नीरज
***************************
बिल्कुल सत्य है पण्डिज्जी। सर्दी में गरीब की रजाई में बड़े से लेकर गदेला तक गुड़मुड़िया जाते हैं – रजाई चीथते-बांटते नहीं।
क्या अच्छा हो कि हम लोग इतना विस्तार पा जायें कि सभी में अपनी और अपने में सबकी अनुभूति करें।
लगता है सवेरे सवेरे कुछ ज्यादा ही बूंक दिया हमने टिप्पणी में!
अधरों से बहता यह आंखों का पानी है,
भाषा तो पुल है मन के दूरस्थ किनारों पर,
पुल को दीवार समझ लेना नादानी है।
मुझे ये लाइने सबसे ज्यादा अच्छी लगी. बहुत दिनों से चिटठा जगत पर एक विवाद जैसा चल रहा था. लंबे-लंबे लेख लिखे जाते है पर ये चार लाइना सब को पीछे छोड़ देती है.
पुल को दीवार समझ लेना नादानी है। काश कि हम समझ पाएँ !!
ajit