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ऐसा अक्सर होता है….
By फ़ुरसतिया on May 21, 2008
ऐसा आजकल रोज होता है।
रात देर आफ़िस से आते हैं। चाय-चुस्की के बीच घर वालों से बतियाते हैं। बतियाते क्या, अपने बारे में ही शिकायतें सुनते हैं। ये कहा था वो कहा था। ये नहीं किया वो नहीं हुआ।
सोचते हैं कुछ लिखा जाये ब्लाग पर। फ़िर पढ़ने में इतना मशगूल हो जाते हैं कि लिखना बिसरा जाता है। और फिर खाना खाकर लेटे-लेटे किताब/किताबें पढ़ते -पढ़ते सो जाते हैं।
सोते समय पढ़ने की आदत न जाने कब से है। चाहे जितना थके हों, चाहे जितना परेशान हों, चाहे जहां हों -कुछ न कुछ पढ़ने का मन हमेशा रहता है। चाहे आधा पन्ना पढ़ें। पढ़ लेते हैं तो सुकून मिलता है।
ऐसा नहीं है कि रोज कुछ नया पढ़ते हों या ऐसा कुछ दुर्लभ पढ़ते हों जो आपने या किसी और न पढ़ाअ हो। जो पसंदीदा है वही बारबार लौट-लौट के पढ़ते हैं। तमाम अनपढ़ी किताबें पढ़ने के इंतजार में अपनी बाट जोह रही हैं।
यह बेवकूफ़ी की बात भले लगे, लगेगी ही(मुझे खुद लगती है) लेकिन मैं अक्सर ऐसा सोचता हूं कि मेरे घर में घर के सदस्यों के अलावा सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण चीज अगर कुछ है तो वो हैं मेरी किताबें। और सब कुछ चला जाये और किताबें बचीं रहे तो लगेगा कि कुछ खास नहीं गया।
इसके बावजूद मैं किताबें ठीक से नहीं रखता। सजा के , करीने से रखने की आदत नहीं। इधर-उधर न जाने किधर-किधर पड़ी रहती हैं। जहां पढ़ते हैं वहीं छोड़ देते हैं। लेकिन कहीं जाती नहीं। तुरन्त मिल जाती हैं। कभी-कभी पत्नी किताबें करीने से आलमारी में लगा देती हैं। तब अगर मुझे नहीं मिलती तो थोड़ा , औकात भर, झल्लाता हूं- तुम्हारा तो बस चले तो हमें भी अलमारी में सजा दो।
किताबों बेतरतीब रहती हैं तो मिल जाती हैं। कायदे से रखने में बिला जाती हैं। कायदे से रखने में खोजना पड़ता है। यह अजीब विरोधाभास है न! शायद अपने अस्त-व्यस्त , लस्टम-पस्टम व्यक्तित्व को सही साबित करने का लचर बहाना।
तमाम चीजे खोयीं हैं। एक पासबुक, कुछ सर्टिफ़िकेट, जरूरी कागज और न जाने क्या अगड़म-बगड़म। लेकिन लगता है सब मिल जायेंगे। कहीं नहीं गये हैं। घर में ही हैं। कई को इसीलिये खोजने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि डर है कि यह ‘लगना’ कहीं छलावा न साबित हो।
अरे, ई क्या हुआ। हम रात की कथा बताते ही रह गये और इधर सुबह हो गयी। जो कहना चाहते थे वो कह ही न पाये।
हां, तो होता यह है कि सबेरे आजकल जल्दी उठ जाते हैं तो सोचते हैं कि अपनी आज की पोस्ट लिखें। फिर सोचते हैं कि देखें और लोगों ने क्या लिखा? ज्ञानजी और आलोक पुराणिक ने क्या कहा-सुना? उनके ब्लाग पर और लोगों ने क्या टिपियाया है। इसी में आठ बज जाते हैं और आफ़िस जाने का समय हो जाता है। तब मन में लगता है एक पोस्ट घसीट दी जाये। अक्सर नहीं कर पाते।
फिर शाम से वही कहानी दोहराई जाती है।
ऐसा रोज भले न हो लेकिन अक्सर होता है।
आपके साथ भी क्या ऐसैइच होता है?
रात देर आफ़िस से आते हैं। चाय-चुस्की के बीच घर वालों से बतियाते हैं। बतियाते क्या, अपने बारे में ही शिकायतें सुनते हैं। ये कहा था वो कहा था। ये नहीं किया वो नहीं हुआ।
सोचते हैं कुछ लिखा जाये ब्लाग पर। फ़िर पढ़ने में इतना मशगूल हो जाते हैं कि लिखना बिसरा जाता है। और फिर खाना खाकर लेटे-लेटे किताब/किताबें पढ़ते -पढ़ते सो जाते हैं।
सोते समय पढ़ने की आदत न जाने कब से है। चाहे जितना थके हों, चाहे जितना परेशान हों, चाहे जहां हों -कुछ न कुछ पढ़ने का मन हमेशा रहता है। चाहे आधा पन्ना पढ़ें। पढ़ लेते हैं तो सुकून मिलता है।
ऐसा नहीं है कि रोज कुछ नया पढ़ते हों या ऐसा कुछ दुर्लभ पढ़ते हों जो आपने या किसी और न पढ़ाअ हो। जो पसंदीदा है वही बारबार लौट-लौट के पढ़ते हैं। तमाम अनपढ़ी किताबें पढ़ने के इंतजार में अपनी बाट जोह रही हैं।
यह बेवकूफ़ी की बात भले लगे, लगेगी ही(मुझे खुद लगती है) लेकिन मैं अक्सर ऐसा सोचता हूं कि मेरे घर में घर के सदस्यों के अलावा सबसे जरूरी और महत्वपूर्ण चीज अगर कुछ है तो वो हैं मेरी किताबें। और सब कुछ चला जाये और किताबें बचीं रहे तो लगेगा कि कुछ खास नहीं गया।
इसके बावजूद मैं किताबें ठीक से नहीं रखता। सजा के , करीने से रखने की आदत नहीं। इधर-उधर न जाने किधर-किधर पड़ी रहती हैं। जहां पढ़ते हैं वहीं छोड़ देते हैं। लेकिन कहीं जाती नहीं। तुरन्त मिल जाती हैं। कभी-कभी पत्नी किताबें करीने से आलमारी में लगा देती हैं। तब अगर मुझे नहीं मिलती तो थोड़ा , औकात भर, झल्लाता हूं- तुम्हारा तो बस चले तो हमें भी अलमारी में सजा दो।
किताबों बेतरतीब रहती हैं तो मिल जाती हैं। कायदे से रखने में बिला जाती हैं। कायदे से रखने में खोजना पड़ता है। यह अजीब विरोधाभास है न! शायद अपने अस्त-व्यस्त , लस्टम-पस्टम व्यक्तित्व को सही साबित करने का लचर बहाना।
तमाम चीजे खोयीं हैं। एक पासबुक, कुछ सर्टिफ़िकेट, जरूरी कागज और न जाने क्या अगड़म-बगड़म। लेकिन लगता है सब मिल जायेंगे। कहीं नहीं गये हैं। घर में ही हैं। कई को इसीलिये खोजने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि डर है कि यह ‘लगना’ कहीं छलावा न साबित हो।
अरे, ई क्या हुआ। हम रात की कथा बताते ही रह गये और इधर सुबह हो गयी। जो कहना चाहते थे वो कह ही न पाये।
हां, तो होता यह है कि सबेरे आजकल जल्दी उठ जाते हैं तो सोचते हैं कि अपनी आज की पोस्ट लिखें। फिर सोचते हैं कि देखें और लोगों ने क्या लिखा? ज्ञानजी और आलोक पुराणिक ने क्या कहा-सुना? उनके ब्लाग पर और लोगों ने क्या टिपियाया है। इसी में आठ बज जाते हैं और आफ़िस जाने का समय हो जाता है। तब मन में लगता है एक पोस्ट घसीट दी जाये। अक्सर नहीं कर पाते।
फिर शाम से वही कहानी दोहराई जाती है।
ऐसा रोज भले न हो लेकिन अक्सर होता है।
आपके साथ भी क्या ऐसैइच होता है?
Posted in बस यूं ही | 22 Responses
बहुत व्यवस्थित लोग बहुत महान क्रियेटिव लोग नहीं होते। अव्यवस्था क्रियेटिविटी की पहली शर्त है।
पत्नी को समझाइये कि वह आपको महानता और क्रियेटिवटी के रास्ते पर देखना चाहती हैं या सिर्फ साफ आलमारीयुक्त पति।
जमाये रहिये।
इस चक्कर में सिर्फ पाठक बनकर ही संतोष करना पड़ रहा है.
और आपने हमारे स्टाइल की मुन्नी पोस्ट लिखना क्यों शुरू कर दिया जी? इनमें वो मजा नहीं आता।
हमारी आपबीती अपने नाम से छापकर आपने ठीक नहीं किया ।
जे बहुत बेईमानी है ।
आपसे किसने कहा कि ये आपकी आपबीती है ।
हंय जी ।
पढ़िये पढ़िये, खूब मन लगाकर पढ़िये.
lage raho fursathiya bhai…..
मेरी लगभग 300 किताबें एक ज़गह पर सजा कर रखने की वज़ह
से दीमकें चट कर गयीं ।शायद किसी शोध में उनको मेरा संग्रह
खंगालना पड़ा होगा । किंतु दुःख बहुत हुआ जब रामप्रसाद बिस्मिल
की ज़ेल में आत्मकथा भी साफ़ कर गयीं । सोचा होगा क्रांतिकारियों
की जीवनी का तुम क्या करोगे ?
लेकिन मैं अब ज़्यादा सजा कर किताबों की कँटिया लगा कर बैठा हूँ ।
कभी तो घूमफिर कर टोह लेने तो आयेंगी, बेचारी विद्वान दीमकें !