http://web.archive.org/web/20110926053641/http://hindini.com/fursatiya/archives/447
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
उल्लू का पठ्ठा शब्द का उद्भव कईसे हुआ?
हमने जब पूछिये फ़ुरसतिया से यहां शुरू किया तो देबाशीष की उलाहना भरी मेल आई जिसका लब्बो-लुआब यह है कि हम निरंतर
को निकालने के लिये कुछ नहीं कर रहे। निरंतर के कुछ अंक निकले। हम लोगों
ने बड़ी मेहनत की। लेकिन उसकी निरंतरता बरकरार न रख सके। समय का अभाव और
आर्थिक जुगाड़ की कमी के चलते निरंतर का प्रकाशन बार-बार ठप्प हो जाता है।
फिलहाल निरंतर के अगले अंक की योजना बन रही है। देखिये क्या होता है। आप अपने सुझाव और सहयोग के लिये NirantarEdit@googlegroups.com पर मेल कर सकते हैं।
पूछिये फ़ुरसतिया से की पिछली पोस्ट की टिप्पणियों में कुछ सवाल भी थे। उनके जबाब देने का प्रयास कर रहा हूं। फ़र्मायें। अरे वही मुलाहिजा जी। आपको पता ही होगा कि मुलाहिजा फ़र्माने से पहले इरशाद कहा जाता है। आप कहें या कहें लेकिन हमने सुन लिया। अब आप सवाल-जबाब पढ़िये-
सवाल: अगड़म-बगड़म शैली के विचारक आलोक पुराणिक जी पूछते हैं- उल्लू का पठ्ठा शब्द का उद्भव कईसे हुआ?
जबाब: आलोक जी, इस सवाल का जबाब यू.पी. बोर्ड की परीक्षा में एक लड़के ने अपनी
उत्तरपुस्तिका में लिखा था। अगर स्वकेंद्र परीक्षा प्रणाली खतम होने के कारण नकल में न पकड़ा तो शर्तिया टाप करता। फिर उसकी कापी आपके पास चली आती। लेकिन उड़न दस्ते का मारा बेचारा नकल में पकड़ा गया। शर्तिया पास कराने के लिये जमा कराये गये पैसे भी गये और साल भी। बहरहाल उसकी कापी से जबाब पेश है-
उल्लू के पट्ठे तब से हैं जबसे उल्लू हैं। अब चूंकि लक्ष्मी का वाहन उल्लू है तो माना जा सकता है कि उल्लू आदि-आनादि काल से हैं। अब चूंकि यह सृष्टि देवताओं ने जमाई। देवता-देवी लोग पहले से ही हैं। अपने वाहन समेत। भारत सरकार का अधिकारी भले बिना वाहन कहीं चला जाये लेकिन देवता लोग एक कदम नहीं हिलाते बिना वाहन के। इसलिये मेरा ख्याल तो ये है कि उल्लू अपनी देवी से पहले से मौजूद होगा।
पता नहीं पक्षी प्रेमी संघ की नजर इस तरफ़ क्यों नहीं । किलो दो किलो वजन का उल्लू पचास-साठ किलो (चाहे जितना स्लिम-ट्रिम हों लक्ष्मीजी इससे क्या कम होंगी) की देवी को अपने ऊपर लादे-लादे फिरता है। तमाम गंदी,मैली कुचैली , जरायम पेशा जगहों तक में लिये घूमता है। कभी-कभी गंदगी, बदबू से उल्लू का भड़कता है और जाने से इंकार कर देता है तो लक्ष्मीजी उसे अपना कमल सुंघा देती हैं। लक्ष्मीजी के हाथ में कमल धारण करने का मतलब अब समझ में आ रहा है मुझे।
लड़का पुर्जी से नकल करके उल्लू के पट्ठे के बारे में अबाध गति से लिख ही रहा था कि उसकी कापी फ़्लाइंग स्क्वाइड वाले ने छीन ली यह कहते हुये- उल्लू का पट्ठा , हमको उल्लू बनाकर नकल कर रहा है।
आजकल कोई उल्लू नहीं बनना चाहता है। सब उल्लू के पट्ठे बनकर मौज करना चाहते हैं। इसीलिये उल्लुऒं की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है। उल्लू के पट्ठे बढ़ते ही जा रहे हैं।
सवाल: बालकिशन जी पूछते हैं -ब्लाग जगत मे सफल कौन है और उस सफलता को अर्जित करने के रास्ते कौन-कौन से है?
जबाब: बालकिशन जीआपकी जिज्ञासा बालसुलभ है। जथानाम-तथागुण। अव्वल तो सफ़लता-असफ़लता मन का वहम है। सफ़ल वही है जो अपने को सफ़ल मानता है। रास्ता वही है जिस पर अपने को सफ़ल मानने वाला चलता है।
हां तो आलोकजी अपने को अगड़म-बगड़म शैली का विचारक मानते हैं। अपनी इस बात को साबित करने के लिये वे तमाम तरह की अगड़म-बगड़म बातें हर रोज करते हैं। हरकतें करने से भी बाज नहीं आते। इसके लिये हर संभव उपाय करते हैं। विपासाजी, मल्लिकाजी, राखी सावंतजी संबंध बनाते हैं। हर जगह आलू, टमाटर, धनिया,मिर्चा की दुकान खोले लेत हैं। मतलब हर वह काम करते हैं जिसे दुनिया अगड़म-बगड़म समझती है। इस लिहाज से वे सफ़ल हैं।
यही हाल ब्लागिंग का है। जो अपने को सफ़ल मानता है वह सफ़ल है। मतलब कहने का ई है बालकिशन बाबू कि सफ़ल होना उत्ता जरूरी नहीं जित्ता जरूरी है अपने आप सफ़ल मानना। ब्लागिंग में बारे में और ज्यादा जानकारी आपको के लिये आप हमारा लेख हर सफल ब्लागर एक मुग्धा नायिका होता है बांचिये। आपको एहसास होगा कि आपमें एक सफ़ल ब्लागर बनने के सारे गुण मौजूद हैं। जरूरत सिर्फ़ आपको अपने ऊपर विश्वास करने की है।
चेतावनी: जैसे ही आपको अपने सफ़ल ब्लागर होने का एहसास होने लगे आप इस लेख का नियम संख्या ४ बांच लें-
अगर आप इस भ्रम का शिकार हैं कि दुनिया का खाना आपका ब्लाग पढ़े बिना हजम नहीं होगा तो आप अगली सांस लेने के पहले ब्लाग लिखना बंद कर दें। दिमाग खराब होने से बचाने का इसके अलावा कोई उपाय नहीं है।
अनीताकुमारजी के सवालों ( लोग ब्लोगिंग में भी प्रतिस्पर्धा क्युं करते हैं किसका ब्लोग सबसे अच्छा और क्युं? क्या फ़रक पड़ जाएगा?) के जबाब भी बालकिशन जी के सवालों के जबाब में शामिल हैं।
सवाल: नितिन के सवाल फिर चिरकुटई और गदहागीरी पर केंद्रित हैं-१. आदम समाज के तथाकथित बुद्धिजन कई बार किसी भी चिरकुट की तुलना “गधे” नामक विशाल ह्रदय के सामाजिक प्राणी से क्यों कर देते है?
२. क्या गर्दभ समाज में भी “आदमी चिरकुट कहीं का” समान कोई उपाधि का प्रावधान है?
जबाब: नितिन भाई, आपके सवालों से आपकी अपने को जानने की जिज्ञासा के दर्शन होते हैं। विरले लोग इतने आत्मजिज्ञासु और ज्ञानपिपासु होते हैं।
वैसे मेरी समझ में ‘आदमी/ चिरकुट को गधा कहीं का’ और ‘गदहों को आदमी चिरकुट कहीं का’ कहना दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों का मतलब एक ही है। दोनों में भावना अपने समाज से निकाल बाहर करने की है। बहिष्कृत करने की है। किसी गदहे को उसके समाज से निकाल कर आप चिरकुट समाज में शामिल कर दें या किसी चिरकुट को गदहा कह दें दोनों का दर्द एक ही होगा। इसमें बात अच्छी जगह से बुरी जगह या इसके उलट नहीं है। बात अपने समाज से निकलने की है। गांव- समाज में लोग चाहे जित्ती बुरी स्थिति में रहते हों। चाहे जित्ते अभाव में हों वहां से बिछुड़ने का दर्द असहनीय होगा। विस्थापन का दर्द सबको एक सा होता है। विस्थापन चाहे जबरियन हो या
स्वेच्छा से चुना गया हो-कष्टकारी होता है। तभी तो प्रवासियों का दर्द बयान करते हुये किसी की मार्फ़त जीतेंन्द्र ने लिखा है-
सवाल: जी विश्वनाथजी पूछते हैं- चिरकुट शब्द की अंग्रेजी क्या होती है?
जबाब: आदरणीय विश्वनाथ जी, चिरकुट शब्द की अंग्रेजी कुच्छ नहीं होती सिवाय चिरकुट के। अंग्रेजी का कोई शब्द ऐसा नहीं है जो चिरकुट शब्द की महत्ता को अभिव्यक्त कर सके। जैसा कि मुश्ताक अहमद यूसुफी जी अपनी किताब खोया-पानी में कहते हैं-गाली,गिनती और गंदा लतीफा तो अपनी मादरीजबान में ही मजा देता है उसी तर्ज पर अर्ज करना चाहता हूं कि
लब्बो-लुआबन हम यही कहना चाहते हैं कि चिरकुट सिर्फ़ एक चिरकुट होता है। इसका कौनो अनुवाद नहीं होता है। अगर कोई कहता है कि होता है तो ‘विद ड्यू रेस्पेक्ट टु कहने वाला’- वो एक शुद्ध चिरकुट होता है।
सवाल: आभाजी पूछती हैं- स्माइली कैसे लगाते हैं?
जबाब: आभाजी जहां तक कम्प्यूटर का सवाल है तो स्माइली लगाने के लिये आप ये वाला : और ये वाला ) निशान एक साथ लगा दीजिये स्माइली लग जायेगी और इस तरह दिखने लगेगी
बाकी जैसा आपको बिटिया भानी ने बताया होगा स्माइल माने होता है मुस्कान। आजकल यह लोगों के पास कम होती जा रही है। हंसी के बहाने लिखते हुये हमने कभी मुस्कान के लिये लिखा था-
हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है,
अब यह अलग बात है
उसमें हंसी से कहीं ज्यादा जान है।
आजकल आपाधापी में हंसना-मुस्कराना कठिन होता जा रहा है। खिलखिलाना-ठहाका लगना तो विलासिता में शामिल है शायद। डा.क्षेमजी कहते भी हैं-
ताड़ होती है झाड़ होती है
पत्थरों के किवाड़ होती है
जितनी कट जाये उतनी सुन्दर है
जिन्दगी भी पहाड़ होती है।
लेकिन आप मेरी पूरी कविता और उससे जुड़े किस्से यहां पढ़िये। शायद आप मुस्कराने लगें और स्माइली लगाने का मन करे।
अपना तो इतना सामान ही रहा॥
चुभन और दंशन पैने यथार्थ के
पग पग पर घेर रहे प्रेत स्वार्थ के
भीतर ही भीतर में बहुत ही दहा।
किन्तु कभी भूले से कुछ नहीं कहा
एक चाय की चुस्की, एक कहकहा॥
एक अदद गंध, एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या बातचीत की
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा।
धूल ली है सभी , एक एक इन्तहा
अपना तो इतना सामान ही रहा।
एक कसम जीने की , ढेर उलझने
दोनों गर नहीं रहे, बात क्या बने
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा।
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा
एक चाय की चुस्की, एक कहकहा।
स्व. उमाकान्त मालवीय
फिलहाल निरंतर के अगले अंक की योजना बन रही है। देखिये क्या होता है। आप अपने सुझाव और सहयोग के लिये NirantarEdit@googlegroups.com पर मेल कर सकते हैं।
पूछिये फ़ुरसतिया से की पिछली पोस्ट की टिप्पणियों में कुछ सवाल भी थे। उनके जबाब देने का प्रयास कर रहा हूं। फ़र्मायें। अरे वही मुलाहिजा जी। आपको पता ही होगा कि मुलाहिजा फ़र्माने से पहले इरशाद कहा जाता है। आप कहें या कहें लेकिन हमने सुन लिया। अब आप सवाल-जबाब पढ़िये-
सवाल: अगड़म-बगड़म शैली के विचारक आलोक पुराणिक जी पूछते हैं- उल्लू का पठ्ठा शब्द का उद्भव कईसे हुआ?
जबाब: आलोक जी, इस सवाल का जबाब यू.पी. बोर्ड की परीक्षा में एक लड़के ने अपनी
उत्तरपुस्तिका में लिखा था। अगर स्वकेंद्र परीक्षा प्रणाली खतम होने के कारण नकल में न पकड़ा तो शर्तिया टाप करता। फिर उसकी कापी आपके पास चली आती। लेकिन उड़न दस्ते का मारा बेचारा नकल में पकड़ा गया। शर्तिया पास कराने के लिये जमा कराये गये पैसे भी गये और साल भी। बहरहाल उसकी कापी से जबाब पेश है-
उल्लू के पट्ठे तब से हैं जबसे उल्लू हैं। अब चूंकि लक्ष्मी का वाहन उल्लू है तो माना जा सकता है कि उल्लू आदि-आनादि काल से हैं। अब चूंकि यह सृष्टि देवताओं ने जमाई। देवता-देवी लोग पहले से ही हैं। अपने वाहन समेत। भारत सरकार का अधिकारी भले बिना वाहन कहीं चला जाये लेकिन देवता लोग एक कदम नहीं हिलाते बिना वाहन के। इसलिये मेरा ख्याल तो ये है कि उल्लू अपनी देवी से पहले से मौजूद होगा।
जैसे
नेता की औकात उसके चमचों की संख्या से नापी जाती है उसी तरह उल्लुओं की
ताकत उसके पट्ठों से आंकी जाती है। जिसके जितने ज्यादा पट्ठे वह उत्ता बड़ा
उल्लू।
इसलिये यह मानने में कोई डाउट नहीं है कि उल्लू लोग आदमी से पहले से ही
हैं। उल्लू का पट्ठा भी उसी समय से ही होगा। उल्लू के पट्ठा आप इस तरह से
समझ सकते हैं जैसे कि नेता का अनुयायी। अनुयायी मतलब कि नेता का चमचा। मतलब
कि नेता के लगुये-भगुये। जैसे नेता की औकात उसके चमचों की संख्या से नापी
जाती है उसी तरह उल्लुओं की ताकत उसके पट्ठों से आंकी जाती है। जिसके जितने
ज्यादा पट्ठे वह उत्ता बड़ा उल्लू। कुछ लोगों का मानना कि उल्लू के पट्ठे उल्लू
के पहले से अस्तित्व में आये। तमाम उल्लू के पट्ठों से बीच से कोई एक आगे
बढता है और उल्लू के पद को प्राप्त करता है। उल्लू के पट्ठे उल्लू से
ज्यादा शातिर होते हैं। अपने बीच के सबसे कमअक्ल पट्ठे को चुनकर उल्लू के
पद की शपथ दिला देते हैं। जैसे अमेरिका में समझदार व्यापारी लोग अपने बीच
के आदमी को राष्ट्रपति बना देते हैं। उल्लू बहुत मेहनती होता है। बेचारा
रात भर जगता है। रात-विरात लक्ष्मीजी जहां-जहां ठांव-कुठांव जाती हैं उनको
लिये-लिये घूमता है। उल्लू को अंधेरे में दिखता है। इसकी इसी विशेषता के
चलते लक्ष्मीजी
ने इसे अपना वाहन बनाया। उजाले में वे देख लेती देख लेती हैं अंधेरे में
उल्लू निपटा लेता है। इसी के चलते दुनिया भर में हर जगह लक्ष्मी जी की ही
चलती है।पता नहीं पक्षी प्रेमी संघ की नजर इस तरफ़ क्यों नहीं । किलो दो किलो वजन का उल्लू पचास-साठ किलो (चाहे जितना स्लिम-ट्रिम हों लक्ष्मीजी इससे क्या कम होंगी) की देवी को अपने ऊपर लादे-लादे फिरता है। तमाम गंदी,मैली कुचैली , जरायम पेशा जगहों तक में लिये घूमता है। कभी-कभी गंदगी, बदबू से उल्लू का भड़कता है और जाने से इंकार कर देता है तो लक्ष्मीजी उसे अपना कमल सुंघा देती हैं। लक्ष्मीजी के हाथ में कमल धारण करने का मतलब अब समझ में आ रहा है मुझे।
उल्लू
का पद तो अस्थायी टाइप का होता है लेकिन उल्लू का पट्ठा स्थायी होता है।
उल्लूऒं को अपने पट्ठे चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती। उल्लू की औकात के
हिसाब से पट्ठे उससे अपने आप जुड़ते हैं। लेकिन उल्लू के पट्ठे अपना उल्लू
खुद चुन सकते हैं।
उल्लू के पट्ठे गिनती में ज्यादा होने के कारण उल्लू से अधिक ताकतवाले
होते हैं। उल्लू का पद तो अस्थायी टाइप का होता है लेकिन उल्लू का पट्ठा
स्थायी होता है। उल्लूऒं को अपने पट्ठे चुनने की स्वतंत्रता नहीं होती।
उल्लू की औकात के हिसाब से पट्ठे उससे अपने आप जुड़ते हैं। लेकिन उल्लू के
पट्ठे अपना उल्लू खुद चुन सकते हैं। कई उल्लू के पट्ठे तो तमाम उल्लुओं को
उल्लू बनाकर उनसे जुड़े रहते हैं। हर उल्लू यही समझता है वह केवल उन्हीं का
पट्ठा है। लेकिन मौका पड़ने पर ऐसे पट्ठे अपने सारे उल्लुऒं को उल्लू बनाकर
गोली दे जाता है। उल्लूऒं के हाथ में और कुछ होता नहीं सिवाय इसके कि उस
उल्लू के पट्ठे को घसीट के अपने उल्लूदल में शामिल कर लें। फिर वह पट्ठा भी
उल्लू बनकर बेचारा बना पट्ठों की खोज में लग जाता है।लड़का पुर्जी से नकल करके उल्लू के पट्ठे के बारे में अबाध गति से लिख ही रहा था कि उसकी कापी फ़्लाइंग स्क्वाइड वाले ने छीन ली यह कहते हुये- उल्लू का पट्ठा , हमको उल्लू बनाकर नकल कर रहा है।
आजकल कोई उल्लू नहीं बनना चाहता है। सब उल्लू के पट्ठे बनकर मौज करना चाहते हैं। इसीलिये उल्लुऒं की संख्या में निरंतर गिरावट आ रही है। उल्लू के पट्ठे बढ़ते ही जा रहे हैं।
सवाल: बालकिशन जी पूछते हैं -ब्लाग जगत मे सफल कौन है और उस सफलता को अर्जित करने के रास्ते कौन-कौन से है?
जबाब: बालकिशन जीआपकी जिज्ञासा बालसुलभ है। जथानाम-तथागुण। अव्वल तो सफ़लता-असफ़लता मन का वहम है। सफ़ल वही है जो अपने को सफ़ल मानता है। रास्ता वही है जिस पर अपने को सफ़ल मानने वाला चलता है।
जैसे महान होने से ज्यादा अहम बात अपने को महान मानना है। उसी तरह सफ़ल होने ज्यादा जरूरी बात है अपने को सफ़ल मानना।
जैसे महान होने से ज्यादा अहम बात अपने को महान मानना है। उसी तरह सफ़ल होने ज्यादा जरूरी बात है अपने को सफ़ल मानना। उदाहरण के लिये आलोक पुराणिक जी
को लीजिये। ले लीजिये। फ़्री हैं। कोई पैसा नहीं पड़ता उनको लेने में।
उदाहरण ही तो ले रहे हैं। ले लिया न! गुड। वेलडन। (गूगल हिन्दी अनुवाद-
कुंआ किया) हां तो आलोकजी अपने को अगड़म-बगड़म शैली का विचारक मानते हैं। अपनी इस बात को साबित करने के लिये वे तमाम तरह की अगड़म-बगड़म बातें हर रोज करते हैं। हरकतें करने से भी बाज नहीं आते। इसके लिये हर संभव उपाय करते हैं। विपासाजी, मल्लिकाजी, राखी सावंतजी संबंध बनाते हैं। हर जगह आलू, टमाटर, धनिया,मिर्चा की दुकान खोले लेत हैं। मतलब हर वह काम करते हैं जिसे दुनिया अगड़म-बगड़म समझती है। इस लिहाज से वे सफ़ल हैं।
यही हाल ब्लागिंग का है। जो अपने को सफ़ल मानता है वह सफ़ल है। मतलब कहने का ई है बालकिशन बाबू कि सफ़ल होना उत्ता जरूरी नहीं जित्ता जरूरी है अपने आप सफ़ल मानना। ब्लागिंग में बारे में और ज्यादा जानकारी आपको के लिये आप हमारा लेख हर सफल ब्लागर एक मुग्धा नायिका होता है बांचिये। आपको एहसास होगा कि आपमें एक सफ़ल ब्लागर बनने के सारे गुण मौजूद हैं। जरूरत सिर्फ़ आपको अपने ऊपर विश्वास करने की है।
चेतावनी: जैसे ही आपको अपने सफ़ल ब्लागर होने का एहसास होने लगे आप इस लेख का नियम संख्या ४ बांच लें-
अगर आप इस भ्रम का शिकार हैं कि दुनिया का खाना आपका ब्लाग पढ़े बिना हजम नहीं होगा तो आप अगली सांस लेने के पहले ब्लाग लिखना बंद कर दें। दिमाग खराब होने से बचाने का इसके अलावा कोई उपाय नहीं है।
अनीताकुमारजी के सवालों ( लोग ब्लोगिंग में भी प्रतिस्पर्धा क्युं करते हैं किसका ब्लोग सबसे अच्छा और क्युं? क्या फ़रक पड़ जाएगा?) के जबाब भी बालकिशन जी के सवालों के जबाब में शामिल हैं।
सवाल: नितिन के सवाल फिर चिरकुटई और गदहागीरी पर केंद्रित हैं-१. आदम समाज के तथाकथित बुद्धिजन कई बार किसी भी चिरकुट की तुलना “गधे” नामक विशाल ह्रदय के सामाजिक प्राणी से क्यों कर देते है?
२. क्या गर्दभ समाज में भी “आदमी चिरकुट कहीं का” समान कोई उपाधि का प्रावधान है?
जबाब: नितिन भाई, आपके सवालों से आपकी अपने को जानने की जिज्ञासा के दर्शन होते हैं। विरले लोग इतने आत्मजिज्ञासु और ज्ञानपिपासु होते हैं।
हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है,
अब यह अलग बात है
उसमें हंसी से कहीं ज्यादा जान है।
आपका सवाल गधे और चिरकुट की आपसी तुलना से संबंधित है। इस तरह की
तुलनात्मक हरकतें लोग गुस्से में करते हैं। और जब लोग गुस्सा करते हैं तो
अकल पहले गोल हो जाती है। आप गधे को विशाल हृदय प्राणी मानते हैं यह आपके
मन में गदहों के प्रति प्यार का परिचायक है। आपकी हृदय की विशालता का सबूत
है। ऐसे ही विशाल होते रहा तो एक दिन जरूर आपका हृदय भी ‘गदहा हृदय’ हो
जायेगा। उस दिन आप ही बताने में सक्षम होंगे कि गदहा समाज में ‘आदमी चिरकुट
कहीं का ‘ कहने का चलन है कि नहीं।जिसका नाम मुस्कान है,
अब यह अलग बात है
उसमें हंसी से कहीं ज्यादा जान है।
वैसे मेरी समझ में ‘आदमी/ चिरकुट को गधा कहीं का’ और ‘गदहों को आदमी चिरकुट कहीं का’ कहना दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दोनों का मतलब एक ही है। दोनों में भावना अपने समाज से निकाल बाहर करने की है। बहिष्कृत करने की है। किसी गदहे को उसके समाज से निकाल कर आप चिरकुट समाज में शामिल कर दें या किसी चिरकुट को गदहा कह दें दोनों का दर्द एक ही होगा। इसमें बात अच्छी जगह से बुरी जगह या इसके उलट नहीं है। बात अपने समाज से निकलने की है। गांव- समाज में लोग चाहे जित्ती बुरी स्थिति में रहते हों। चाहे जित्ते अभाव में हों वहां से बिछुड़ने का दर्द असहनीय होगा। विस्थापन का दर्द सबको एक सा होता है। विस्थापन चाहे जबरियन हो या
स्वेच्छा से चुना गया हो-कष्टकारी होता है। तभी तो प्रवासियों का दर्द बयान करते हुये किसी की मार्फ़त जीतेंन्द्र ने लिखा है-
तो भईया, गदहे की चिरकुटई और चिरकुट की गदहागीरी दोनों की पीड़ा एक ही है। मजबूरी एक ही है। मजबूरी न जाने क्या-क्या कराती है। न जाने कैसे -कैसे चिरकुटों को महात्मा गांधी बना देती है।
हम उस डाल के पन्क्षी है जो चाह कर भी वापस अपने ठिकाने पर नही पहुँच सकते या दूसरी तरह से कहे तो हम पेड़ से गिरे पत्ते की तरह है जिसे हवा अपने साथ उड़ाकर दूसरे चमन मे ले गयी है,हमे भले ही अच्छे फूलो की सुगन्ध मिली हो, या नये पंक्षियो का साथ, लेकिन है तो हम पेड़ से गिरे हुए पत्ते ही, जो वापस अपने पेड़ से नही जुड़ सकता.
सवाल: जी विश्वनाथजी पूछते हैं- चिरकुट शब्द की अंग्रेजी क्या होती है?
जबाब: आदरणीय विश्वनाथ जी, चिरकुट शब्द की अंग्रेजी कुच्छ नहीं होती सिवाय चिरकुट के। अंग्रेजी का कोई शब्द ऐसा नहीं है जो चिरकुट शब्द की महत्ता को अभिव्यक्त कर सके। जैसा कि मुश्ताक अहमद यूसुफी जी अपनी किताब खोया-पानी में कहते हैं-गाली,गिनती और गंदा लतीफा तो अपनी मादरीजबान में ही मजा देता है उसी तर्ज पर अर्ज करना चाहता हूं कि
लोकभाषा
के गढ़े शब्द का कोई अनुवाद नहीं होता। हो ही नहीं सकता। लोकभाषा के अनगढ़
शब्द गूंगे के गुड होते हैं। अनुदित होने पर वे अपनी झस खो देते हैं।
लोकभाषा के गढ़े शब्द का कोई अनुवाद नहीं होता। हो ही नहीं सकता।
कनपुरिया और बनारसी शब्द ‘गुरू’ के पचासों मतलब हैं। हरेक के मतलब कहने और
सुनने वाले के आपसी संबंध , मूड, कहने के अंदाज, समझने की औकात पर निर्भर
करता है। ‘ई रजा काशी हौ’ का कौनो अंग्रेजी अनुवाद नहीं हो सकता सिवाय ‘ई रजा काशी हौ‘।
‘हे किंग दिस इस काशी’(Hey king this is Kashi) कित्ता मरगिल्ला लगता है।
प्राणहीन. सत्वहीन। लोकभाषा के अनगढ़ शब्द गूंगे के गुड होते हैं। अनुदित
होने पर वे अपनी झस खो देते हैं। जैसे बनारस के लिये कहते हैं न- जो मजा बनारस में, वो पेरिस में न फ़ारस में।लब्बो-लुआबन हम यही कहना चाहते हैं कि चिरकुट सिर्फ़ एक चिरकुट होता है। इसका कौनो अनुवाद नहीं होता है। अगर कोई कहता है कि होता है तो ‘विद ड्यू रेस्पेक्ट टु कहने वाला’- वो एक शुद्ध चिरकुट होता है।
सवाल: आभाजी पूछती हैं- स्माइली कैसे लगाते हैं?
जबाब: आभाजी जहां तक कम्प्यूटर का सवाल है तो स्माइली लगाने के लिये आप ये वाला : और ये वाला ) निशान एक साथ लगा दीजिये स्माइली लग जायेगी और इस तरह दिखने लगेगी
बाकी जैसा आपको बिटिया भानी ने बताया होगा स्माइल माने होता है मुस्कान। आजकल यह लोगों के पास कम होती जा रही है। हंसी के बहाने लिखते हुये हमने कभी मुस्कान के लिये लिखा था-
हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है,
अब यह अलग बात है
उसमें हंसी से कहीं ज्यादा जान है।
आजकल आपाधापी में हंसना-मुस्कराना कठिन होता जा रहा है। खिलखिलाना-ठहाका लगना तो विलासिता में शामिल है शायद। डा.क्षेमजी कहते भी हैं-
ताड़ होती है झाड़ होती है
पत्थरों के किवाड़ होती है
जितनी कट जाये उतनी सुन्दर है
जिन्दगी भी पहाड़ होती है।
लेकिन आप मेरी पूरी कविता और उससे जुड़े किस्से यहां पढ़िये। शायद आप मुस्कराने लगें और स्माइली लगाने का मन करे।
मेरी पसन्द
एक चाय की चुस्की, एक कहकहाअपना तो इतना सामान ही रहा॥
चुभन और दंशन पैने यथार्थ के
पग पग पर घेर रहे प्रेत स्वार्थ के
भीतर ही भीतर में बहुत ही दहा।
किन्तु कभी भूले से कुछ नहीं कहा
एक चाय की चुस्की, एक कहकहा॥
एक अदद गंध, एक टेक गीत की
बतरस भीगी संध्या बातचीत की
इन्हीं के भरोसे क्या-क्या नहीं सहा।
धूल ली है सभी , एक एक इन्तहा
अपना तो इतना सामान ही रहा।
एक कसम जीने की , ढेर उलझने
दोनों गर नहीं रहे, बात क्या बने
देखता रहा सब कुछ सामने ढहा।
मगर कभी किसी का चरण नहीं गहा
एक चाय की चुस्की, एक कहकहा।
स्व. उमाकान्त मालवीय
हंसी की एक बच्ची है
जिसका नाम मुस्कान है,
अब यह अलग बात है
उसमें हंसी से कहीं ज्यादा जान है।
बहुत ही उम्दा बाद कही आप ने हमेशा की तरह्…:)
Maine kaha,”Hame pataa hotaa to aapse kyon poochhte?”
Tippaneeke liye bohot dhanyawaad!
Kabhi “fursatme” meree kahaaniyan tathaa kavitayen padhke tippnee denge to badee khushee hogee!
kavitayen 2007,june/july ke archivesme hain…agar”Neepe Phool Phool”google searchme type karenge yaa phir blogpe to kahaaniyan mil jaayengi!
वाकई मानना पड़ेगा , आप पक्के फुरसतिया हैं
ऎ गुरुवर, कहने को तो मैं भावविभोर होकर यह कह तो गया किंतु अब आप ही इसका विश्लेषण कर दो ।
इस बालक की जिज्ञासा शांत करो , प्रभु ! कहाँ फ़ालतू फंड में पट्ठे के उल्लू से उल्लू के पट्ठे की मीमांसा में जूझे पड़े हो ?
आपका चिरपरिचित चिरचिरकुट ब्लागर ढाठ काम सेवक
डाअमर्कुंम्हार
लेकिन ?
ई बालक की जिज्ञासा शांत करो , प्रभु ! कहाँ आप भी बेफ़ालतू में… ..
आपकी मुस्कान कविता तो डायरी में नोट है और आज आपकी पसंद स्व. मालवीय जी कविता भी बहुत भाई.
बढ़िया चल रहा है, जारी रखिये.
किस्सा अकबर के मीनाबज़ार का है .एक परिंदा विक्रेता के पास बादशाह पहुंचे और एक उल्लू का दाम पूंछा ,तबतक उनकी नज़र एक नन्हे उल्लू पर पडी और उन्होंने उसका दाम भी पूछ लिया .उनको यह जान कर हैरत हुयी कि उस नन्हे उल्लू का दाम बड़े उल्लू से दुगुना है .बीरबल पास ही थे .बादशाह ने इसका कारण जानना चाहा .प्कशी विक्रेता ने कहा हुजूर बड़ा वाला तो निरा उल्लू है जबकि छोटा वाला उल्लू का पट्ठा है -इसलिए उसका दाम भी ज्यादा है -बीरबल ने हामी भरी और बादशाह को कन्विंस कर दिया .
आपको उल्लू तो एक धोंधो हज़ार मिल जायेंगे पर उल्लू का पट्ठा नहीं .