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मुस्कराते हुये लोग कित्ते अच्छे लगने लगते हैं
By फ़ुरसतिया on December 16, 2008
ई किस्सा-ए-नैनीताल बबाले जान बना हुआ है। रहा भी न जाये लिखा भी न
जाये। सब समय की कारस्तानी है। छुपा-छुपौवल खेलता है। पकड़ में आता ही
नहीं। जब लगता है पास है , पकड़ लेंगे तो फ़िर ढपली मारकर निकल जाता है।
पिछली पोस्ट हम ऐसे ही घसीट दिये ( जैसे कि ये कर रहे हैं)सीधे बिना कुछ सोचे। घसीट दिये बस्स। उसी में डा.अमर कुमार हमारी खुपड़िया मांग लिये।
शुऐब भी पूंछ बैठे- – ऐसे ही कई शब्द आप अपनी जेब मे रखते हैं या टाईप करते दिमाग़ मे घुस आते हैं ? उनका पूछने का मतलब था- ये सब खुराफ़ात कैसे करते हैं?
शिवबाबू भी मामू बनाने से बाज नहीं आये और आगे उछाल दिये , सवाल नहीं भाई हमको उछाला गया है-शुएब जी का सवाल मेरा भी सवाल है. ये उपमा, ये शब्द और ये सबकुछ जेब में रखा रहता है या फिर की-बोर्डवा पर धरा रहता है?
और ज्ञानजी की तो चप्पलै सरक गयी। गोया हम कोई अमेरिका के बुश हैं और ज्ञानजी चप्पल इलाहाबाद से फ़ेंकेगे त हमारे पास आकर गिरेगी और बोलेगी- ज्ञानजी भेजे हैं। बताओ कहां बिराजें?
वैसे हमारे एक दोस्त भी हैं वे हमेशा हमें अपनी राय बेबाकै देते हैं। कहे पोस्ट तो ठीक है लेकिन शीर्षक ऊट-पटांग है। तुमसे मिलता-जुलता। वैसे सच तो यह है मुझे पता नहीं। अगर आपको कुछ अच्छा लग जाता है तो उसमें मेरा कोई दोष नहीं (बोले तो आई प्लीड नाट गिल्टी) अपने आप हो जाता होगा। अनजाने में किये पाप को पाप नहीं माना जाता न!
बहरहाल हम लोग वहां सीखने-साखने में लगे थे। दो दिन बाद आन-लाइन ट्रेनिंग थी। वैश्विक व्यापार की झलक दिखाने के लिये हम लोगों को एक साफ़्टवेयर पैकेज का इस्तेमाल करते हुये निवेश-फ़िवेश करते हुये पैसा लगाना था और बिजनेस करना था।
आई.आई.एम. के प्रोफ़ेसर साहब बताये दुनिया की सारी नामी कम्पनियां अपने ब्यापारिक निर्णयों के लिये इसका इस्तेमाल करती हैं। मथुरा वासी प्रोफ़ेसर साहब से हम पूछे- ऊ कम्पनियां जो डूब गयीं वे भी यही इस्तेमाल करतीं थीं?
उनका जबाब जो था उसका मतलब था कि दुनिया में कोई साफ़्टवेयर नहीं बना है जो आदमी के लालच पर काबू रख सके। रास्ता अंधे को दिखाया जा सकता है। अगर कोई गहरे गढ्ढे को राजपथ मानते हुये उस पर गाड़ी दौड़ाना चाहता है तो कौन रोक सकता है उसे?
उन्होंने यह भी बताया कि सड़क पर जब गुंडॊ की लड़ाई होती है तो गुंडे नहीं मरते। मरने के लिये आम जनता होती है जो अपने पूर्वजन्म के कुछ पापों के कारण उसी समय गली से गुजरने का मन बनाती है जब गुंडो की आपसी लड़ाई हो रही होती है। बैंक-वैंक जो डूबे उनमें उनको कोई फ़रक नहीं पड़ा होगा जिनकी शानदार प्लानिंग (?) के चलते बाकियों के ये हाल हुये।
आन लाइन होते ही हम तो क्लास से आफ़ लाइन हो लिये। नेट मिला तो कहां का निवेश, कहां का फ़िवेश? दो दिन जिस कम्प्यूटर पर बैठे वहां बाराहा उतार दिया। जहं-जहं हाथ फ़िरे बालक के , बाराहा ने लिया फ़ौरन अवतार।
इसके बाद का होता ऊ सब भी बताना होगा क्या? दोस्तों को लगा दिये । जहां मन आये पैसा लगाओ। जो मन आये खरीदो, जो मन आये बेचो। कोई प्राब्लम नहीं। दो-दो, तीन-तीन घंटे की पांच-छह बार की करसत के दो दिन बाद प्रेजेन्टेशन हुआ। सबसे पूछा गया कि आपसे ये कैसे हुआ वो कैसे हुआ? क्या कारण रहे आपकी हार के? किस टींम से खतरा था?
दूसरे लोगों ने बड़े सधे हुये समझदारी वाले जबाब दिये। हमने कहा- हम जीतने के लिये खेल ही नहीं रहे थे। हम तो गलतियां करने के लिये खेल रहे थे। खतरा हमें किसी से था ही नहीं। गलतियां करके सीखना हमारा उद्देश्य था और हम सफ़ल हुये।
हम ई नहीं कहे कि गलतियां करके हम यही सीखे ई सब साफ़्टवेयर हमारे लिये बेकार है। इससे तो भली ब्लागिंग है अपनी।
बहरहाल दो दिन देर रात नौ-नौ बजे तक क्लास करने के बाद एक दिन बचा के नैनीताल दर्शन के लिये निकले। इस बीच पैर के पंजें से आती हवा ने सूचना दी कि बायां जूता बोल गया है। मुझे जूते पर गुस्सा आ रहा था कि पहाड़ पर आते ही मुंह बा दिये। वहां मैदान पर तो बड़ा चमकते घूमते थे। फ़िर लगा कि इस बेचारे का क्या कुसूर? मैदान पर चलने की आदत थी। ऊबड़-खाबड़ पहाड़ पर चढ़ते-उतरते सांस फ़ूल गयी।
इसी से मुझे लगा कि जब राम वनगमन किये होंगे तो इसीलिये भरत को अपनी पादुकायें दे गये होंगे। उस समय तो मंहगी भी बहुत मिलती हैं। आजकल तो लोग उपहार भी दे देते हैं। बुशजी को ही विदाई उपहार में मिले। लेकिन उस समय शायद इत्ती आसानी से न मिलते होंगे। रामजी को लगा होगा कि जंगल-जंगल घूमते-घूमते ये जूते बोल जायेंगे। इस लिये उन्हें यहीं रखवा दो। सिंहासन पर रखने की बात इसलिये सोची होगी कि सामने रहने से साफ़-सफ़ाई होती रहेगी। वर्ना तो साल भर में फ़फ़ूंदी लग लग जायेगी। किसी को जुतियाने के काबिल भी न रहेंगे।
यह भी लगा कि पुराने जमाने में देखो लोग कित्ता दूर की सोचते थे। चौदह साल आगे के लिये जूते का हिसाब रखते थे। आज की तरह नहीं कि अगले मिनट का हिसाब नहीं।
बहरहाल हम जब घूमने निकले तो सबसे पहले हिमालय दर्शन के लिये गये। सामने नंदा देवी आदि चोटियां दिख रही थीं। नैनीताल से तीन गुनी ऊंचाई पर स्थित वे चोटियां लग रहीं थीं कि नीचे हैं हमारे से। १५० किमी की दूरी से देख रहे थे। हमें फ़िर भी समझ नहीं आ रहा था और सच बतायें तो अभी भी नहीं आ रहा है कि कैसे हमसे तीन गुना ऊंचाई पर स्थित चोटियां नीचे दिख रही हैं।
हमें बाद में लगा कि दूर से देखने पर चीजें शायद ऐसे ही दिखती हैं। अपने महापुरुषों का मूल्यांकन जब हम करते हैं तो ऐसे ही उनको दूर से देखते हैं। सबके बड़े-बड़े काम बौने-बौने लगते हैं। ऐसा लगता है उन्होंने ऐसा कर दिया तो कौन बड़ा काम कर दिया। ये तो कोई भी कर सकता है।
हिमालय दर्शन से नैनीताल दर्शन के लिये जाते समय एक खूबसूरत सा लड़का मोटर साइकिल पर जाता दिखा। उसके चेहरे पर किसी गंभीर, सोद्धेश्य पुर्ण ब्लागर सी गंभीरता पसरी थी। हमारे अनुरोध पर वह मुस्कराने लगा। लगा कि उसके चेहरे पर धूप खिल गयी हो।
मुस्कराते हुये लोग कित्ते अच्छे लगने लगते हैं? है न!
आप भी मुस्कराइये न थोड़ा सा
पिछली पोस्ट हम ऐसे ही घसीट दिये ( जैसे कि ये कर रहे हैं)सीधे बिना कुछ सोचे। घसीट दिये बस्स। उसी में डा.अमर कुमार हमारी खुपड़िया मांग लिये।
शुऐब भी पूंछ बैठे- – ऐसे ही कई शब्द आप अपनी जेब मे रखते हैं या टाईप करते दिमाग़ मे घुस आते हैं ? उनका पूछने का मतलब था- ये सब खुराफ़ात कैसे करते हैं?
शिवबाबू भी मामू बनाने से बाज नहीं आये और आगे उछाल दिये , सवाल नहीं भाई हमको उछाला गया है-शुएब जी का सवाल मेरा भी सवाल है. ये उपमा, ये शब्द और ये सबकुछ जेब में रखा रहता है या फिर की-बोर्डवा पर धरा रहता है?
और ज्ञानजी की तो चप्पलै सरक गयी। गोया हम कोई अमेरिका के बुश हैं और ज्ञानजी चप्पल इलाहाबाद से फ़ेंकेगे त हमारे पास आकर गिरेगी और बोलेगी- ज्ञानजी भेजे हैं। बताओ कहां बिराजें?
वैसे हमारे एक दोस्त भी हैं वे हमेशा हमें अपनी राय बेबाकै देते हैं। कहे पोस्ट तो ठीक है लेकिन शीर्षक ऊट-पटांग है। तुमसे मिलता-जुलता। वैसे सच तो यह है मुझे पता नहीं। अगर आपको कुछ अच्छा लग जाता है तो उसमें मेरा कोई दोष नहीं (बोले तो आई प्लीड नाट गिल्टी) अपने आप हो जाता होगा। अनजाने में किये पाप को पाप नहीं माना जाता न!
बहरहाल हम लोग वहां सीखने-साखने में लगे थे। दो दिन बाद आन-लाइन ट्रेनिंग थी। वैश्विक व्यापार की झलक दिखाने के लिये हम लोगों को एक साफ़्टवेयर पैकेज का इस्तेमाल करते हुये निवेश-फ़िवेश करते हुये पैसा लगाना था और बिजनेस करना था।
आई.आई.एम. के प्रोफ़ेसर साहब बताये दुनिया की सारी नामी कम्पनियां अपने ब्यापारिक निर्णयों के लिये इसका इस्तेमाल करती हैं। मथुरा वासी प्रोफ़ेसर साहब से हम पूछे- ऊ कम्पनियां जो डूब गयीं वे भी यही इस्तेमाल करतीं थीं?
उनका जबाब जो था उसका मतलब था कि दुनिया में कोई साफ़्टवेयर नहीं बना है जो आदमी के लालच पर काबू रख सके। रास्ता अंधे को दिखाया जा सकता है। अगर कोई गहरे गढ्ढे को राजपथ मानते हुये उस पर गाड़ी दौड़ाना चाहता है तो कौन रोक सकता है उसे?
उन्होंने यह भी बताया कि सड़क पर जब गुंडॊ की लड़ाई होती है तो गुंडे नहीं मरते। मरने के लिये आम जनता होती है जो अपने पूर्वजन्म के कुछ पापों के कारण उसी समय गली से गुजरने का मन बनाती है जब गुंडो की आपसी लड़ाई हो रही होती है। बैंक-वैंक जो डूबे उनमें उनको कोई फ़रक नहीं पड़ा होगा जिनकी शानदार प्लानिंग (?) के चलते बाकियों के ये हाल हुये।
आन लाइन होते ही हम तो क्लास से आफ़ लाइन हो लिये। नेट मिला तो कहां का निवेश, कहां का फ़िवेश? दो दिन जिस कम्प्यूटर पर बैठे वहां बाराहा उतार दिया। जहं-जहं हाथ फ़िरे बालक के , बाराहा ने लिया फ़ौरन अवतार।
इसके बाद का होता ऊ सब भी बताना होगा क्या? दोस्तों को लगा दिये । जहां मन आये पैसा लगाओ। जो मन आये खरीदो, जो मन आये बेचो। कोई प्राब्लम नहीं। दो-दो, तीन-तीन घंटे की पांच-छह बार की करसत के दो दिन बाद प्रेजेन्टेशन हुआ। सबसे पूछा गया कि आपसे ये कैसे हुआ वो कैसे हुआ? क्या कारण रहे आपकी हार के? किस टींम से खतरा था?
दूसरे लोगों ने बड़े सधे हुये समझदारी वाले जबाब दिये। हमने कहा- हम जीतने के लिये खेल ही नहीं रहे थे। हम तो गलतियां करने के लिये खेल रहे थे। खतरा हमें किसी से था ही नहीं। गलतियां करके सीखना हमारा उद्देश्य था और हम सफ़ल हुये।
हम ई नहीं कहे कि गलतियां करके हम यही सीखे ई सब साफ़्टवेयर हमारे लिये बेकार है। इससे तो भली ब्लागिंग है अपनी।
बहरहाल दो दिन देर रात नौ-नौ बजे तक क्लास करने के बाद एक दिन बचा के नैनीताल दर्शन के लिये निकले। इस बीच पैर के पंजें से आती हवा ने सूचना दी कि बायां जूता बोल गया है। मुझे जूते पर गुस्सा आ रहा था कि पहाड़ पर आते ही मुंह बा दिये। वहां मैदान पर तो बड़ा चमकते घूमते थे। फ़िर लगा कि इस बेचारे का क्या कुसूर? मैदान पर चलने की आदत थी। ऊबड़-खाबड़ पहाड़ पर चढ़ते-उतरते सांस फ़ूल गयी।
इसी से मुझे लगा कि जब राम वनगमन किये होंगे तो इसीलिये भरत को अपनी पादुकायें दे गये होंगे। उस समय तो मंहगी भी बहुत मिलती हैं। आजकल तो लोग उपहार भी दे देते हैं। बुशजी को ही विदाई उपहार में मिले। लेकिन उस समय शायद इत्ती आसानी से न मिलते होंगे। रामजी को लगा होगा कि जंगल-जंगल घूमते-घूमते ये जूते बोल जायेंगे। इस लिये उन्हें यहीं रखवा दो। सिंहासन पर रखने की बात इसलिये सोची होगी कि सामने रहने से साफ़-सफ़ाई होती रहेगी। वर्ना तो साल भर में फ़फ़ूंदी लग लग जायेगी। किसी को जुतियाने के काबिल भी न रहेंगे।
यह भी लगा कि पुराने जमाने में देखो लोग कित्ता दूर की सोचते थे। चौदह साल आगे के लिये जूते का हिसाब रखते थे। आज की तरह नहीं कि अगले मिनट का हिसाब नहीं।
बहरहाल हम जब घूमने निकले तो सबसे पहले हिमालय दर्शन के लिये गये। सामने नंदा देवी आदि चोटियां दिख रही थीं। नैनीताल से तीन गुनी ऊंचाई पर स्थित वे चोटियां लग रहीं थीं कि नीचे हैं हमारे से। १५० किमी की दूरी से देख रहे थे। हमें फ़िर भी समझ नहीं आ रहा था और सच बतायें तो अभी भी नहीं आ रहा है कि कैसे हमसे तीन गुना ऊंचाई पर स्थित चोटियां नीचे दिख रही हैं।
हमें बाद में लगा कि दूर से देखने पर चीजें शायद ऐसे ही दिखती हैं। अपने महापुरुषों का मूल्यांकन जब हम करते हैं तो ऐसे ही उनको दूर से देखते हैं। सबके बड़े-बड़े काम बौने-बौने लगते हैं। ऐसा लगता है उन्होंने ऐसा कर दिया तो कौन बड़ा काम कर दिया। ये तो कोई भी कर सकता है।
हिमालय दर्शन से नैनीताल दर्शन के लिये जाते समय एक खूबसूरत सा लड़का मोटर साइकिल पर जाता दिखा। उसके चेहरे पर किसी गंभीर, सोद्धेश्य पुर्ण ब्लागर सी गंभीरता पसरी थी। हमारे अनुरोध पर वह मुस्कराने लगा। लगा कि उसके चेहरे पर धूप खिल गयी हो।
मुस्कराते हुये लोग कित्ते अच्छे लगने लगते हैं? है न!
आप भी मुस्कराइये न थोड़ा सा
आपकी बात सही है अनूप जी
और नाम बडे और दर्शन छोटेवाली बात भी एकदम सही
(अपने महापुरुषों का मूल्यांकन जब हम करते हैं तो ऐसे ही उनको दूर से देखते हैं। सबके बड़े-बड़े काम बौने-बौने लगते हैं। ऐसा लगता है उन्होंने ऐसा कर दिया तो कौन बड़ा काम कर दिया। ये तो कोई भी कर सकता है।)
- लावण्या
आप भी मुस्कराइये न थोड़ा सा
Regards
आप भी मुस्कराइये न थोड़ा सा
” अरे हम तो इ बात कब से कहे रहे , कोई सुनी ना का करें इब..”
regards
हम नैनीताल के किस्से पढने के लालच में ललचा कर आये थे और यहाँ कुछ और ही पुराण चालू था.. सोचा बिच्चे में से उठकर टिपिया देते हैं.. मगर फिर खुद को संभाला.. नहीं वत्स, थोडा और सब्र करो.. थोडा और पढो.. बच्चे थे तो पप्पा कहते थे “पढोगे लिखोगे तो होगे नवाब” सो पप्पा कि बात रख लिए और देखिये नैनीताल के किस्से भी मिले.. क्या बात है सरजी.. किसी से जूता मांगने का इरादा है या फिर किसी से जूता खाने का या फिर मंदिर से किसी का जूता उडाने का या फिर अपने फटे जूते से किसी को जूतियाने का??
मुस्कान या हँसी की भली क्या बिसात कि ओझल न लगे।
amazing!
लो जी कोल्गेटिया मुस्कान. हम तो जन्म से ही अच्छे लगते है, यह भ्रम पाले हुए है आप भी मुस्काईये..
जगह जगह बरहा अवतार करवा रहें है आप.
खरीदने और बेचने की ओन-लाइन ट्रेनिंग राजनीतिबाजों को दी जानी चाहिए. कम से कम असलियत में तो देश खरीदे और बेचे जाने से बचा रहेगा.
आगे आपने लिखा :- “जहं-जहं हाथ फ़िरे बालक के , बाराहा ने लिया फ़ौरन अवतार।”
तो ये बराह भगवान का अवतार आपने हमारे कम्प्युटरवा पर भी करवा दिया है पर ज्ञान जी का “ज्ञा” नही लिखा जा रहा है ! कूछ प्रकाश डाला जाये !
राम राम !
रही बात जूते का मुंह खुलने की, तो आप भी मजबूर थे कि उस जंगल के किसी बुश में कोई बुश दिखाई देता तो उसका सदुपयोग हो जाता। चलो, जूते बचा लाए – बधाई।
जय हो फुरसतियाजी की ।
नहीं दिखा न ! कि दिख गया.
वैसे सच तो यह है मुझे पता नहीं। अगर आपको कुछ अच्छा लग जाता है तो उसमें मेरा कोई दोष नहीं (बोले तो आई प्लीड नाट गिल्टी) अपने आप हो जाता होगा। अनजाने में किये पाप को पाप नहीं माना जाता न
शानदार!
बताईये, ऐसा-ऐसा लिखते हैं और हमारे ऊपर आरोप लगाते हैं कि हम आपको मामू बना रहे हैं?….ग़लत बात नहीं है का?
सबसे पहले तो आपको धन्यवाद कि आपने मेरी कविता “लड़्कियाँ तितली सी होती है” को अपनी पसंद की. मैं चिट्ठाचर्चा को भी धन्यवाद देता हूँ.
मुकेश कुमार तिवारी
रामायण का ऐसा भावार्थ न कभी पढ़ा न कभी सुना( वैसे तो रामायण भी नहीं सुनी सिर्फ़ रामानन्द सागर ने जितनी दिखाई, उतनी ही पता है)आप का रामायण का ये इन्टरप्रिटेशन न सिर्फ़ एक दम अनूठा है बल्कि विचारणीय है। पेटेंट निकलवा लिजिए इसके पहले की कोई मैनेजमेंट गुरु आप का आइडिया ले उड़े और भुना कर नाम और माल दोनों कमा ले।
आप की यह यात्रा कथा बहुत कुछ कहती है। आप का अँदाज और शिखरों की बेपरवाही उन्हें भा गई।
आप भी मुस्कराइये न थोड़ा सा अजी हम भी सीमा जी की बात दोहरा रहे है…:)
सो बिना कैंची ब्लेड चलाये लिख दिया.. न खुपड़िया मिली न निग़ाहें फ़ुरसत !
तुर्रा यह कि मेरी वाली पंडिताइन मुझको चिढ़ाते हुये घूमा करती हैं..
” तेरी खुपड़िया में लागा चोर रे पंडित.. खुपड़िया में लागा चोर ”
सो, घर और घाट दोनों जगह हँसाई हो रही है.. यह महिमा है फ़ुरसतिया की !
कूर्मांचल इतना और इतनी बार छाना हुआ है, कि घौत की दाल, भाँग के बीज की चटनी,
और आलू गुटके, रायता इत्यादि हमारे रसोई में अपना स्थान कब का बना चुके हैं ।
सो, उन पर टिप्पणी करने से पहले ही..
आज भी एक नया मुहावरा बनने को उछल रहा है, लेकिन इसबार मैं नहीं लिखने वाला..कि,
” जँह जँह पाँव पड़े फ़ुरसतिया के.. बरहा लई लिहिन अवतार ”
तो.. ऎसी महान आत्मा को मेरा नमस्कार !!
ham to bas muskraa hi diye ..samjho
आपकी यही अदा तो पसंद है ,जूता आपका फटा और घसीट दिए राम जी को भी साथ में ….
काम करते करते ब्रेक ले के आपको पढ़ लेते है ,मूड सही हो जाता है ….
मुस्कुरा रहे है हम भी ……
—आशीष श्रीवास्तव