http://web.archive.org/web/20110905200601/http://hindini.com/fursatiya/archives/1257
अनूप शुक्ला: पैदाइश तथा शुरुआती पढ़ाई-लिखाई, कभी भारत का मैनचेस्टर कहलाने वाले शहर कानपुर में। यह ताज्जुब की बात लगती है कि मैनचेस्टर कुली, कबाड़ियों,धूल-धक्कड़ के शहर में कैसे बदल गया। अभियांत्रिकी(मेकेनिकल) इलाहाबाद से करने के बाद उच्च शिक्षा बनारस से। इलाहाबाद में पढ़ते हुये सन १९८३में ‘जिज्ञासु यायावर ‘ के रूप में साइकिल से भारत भ्रमण। संप्रति भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय के अंतर्गत लघु शस्त्र निर्माणी ,कानपुर में अधिकारी। लिखने का कारण यह भ्रम कि लोगों के पास हमारा लिखा पढ़ने की फुरसत है। जिंदगी में ‘झाड़े रहो कलट्टरगंज’ का कनपुरिया मोटो लेखन में ‘हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै‘ कैसे धंस गया, हर पोस्ट में इसकी जांच चल रही है।
मेरे पंख कट गये हैं वरना मैं गगन को गाता
स्व.रमानाथ अवस्थीजी मेरे
प्रिय गीतकार हैं। मेरे पास उनके बीस-पचीस गीतों के आडियो टेप हैं। मैं
जब-तब उनको सुनता रहता हूं। सरल-सहज भाषा में उनके गीत अद्भुत लगते हैं।
दो दिन पहले चिट्ठाचर्चा में जब मैं उनकी ये पंक्तियां किसी संदर्भ में लिखीं:
श्रोत स्रोत तलाशे और इन पंक्तियों को उनकी कविता पुस्तक आखिर यह मौसम भी आया की भूमिका में पाया कि इसे उन्होंने नयी दिल्ली में हुये एक कवि सम्मेलन में पढ़ा था। संभव है कि शायद नीरज जी ने भी इसी भाव-भूमि पर कोई गीत लिखा हो!
बहरहाल इसी खोज-खबर के बहाने मैंने अपने पास उपलब्ध रमानाथ अवस्थीजी से संबंधित सब सामग्री एक बार फ़िर टटोल ली। इसी में एक दुर्लभ कैसेट भी मिला मुझे जिसमें स्व.रमानाथजी के कई गीत हैं। कानपुर में एक एकल काव्य संध्या में इसकी रिकार्डिंग हुई थी। इनमें उनके अभिन्न मित्र कवि/सांसद नरेश चंद्र चतुर्वेदी, गीतकार उपेन्द्र्जी और अन्य मित्र मौजूद थे।
इस गीत संध्या में गीत पढ़ते हुये रमानाथजी ने अपने मित्रों को बड़ी संजीदगी से याद किया और यह कहा कि यदि उनको मित्र न मिले होते तो वे वैसे कभी न हो पाते जैसे वे बन पाये। और भी कई संवेदनशील बातें हैं जिनको एक सहज-सरल जीवन जीने वाला संवेदनशील मन वाला व्यक्ति ही कह सकता है।
स्व.रमानाथजी का बचपन भावनात्मक रूप से बड़े कष्ट में बीता। उनके पिता का व्यवहार उनकी मां के प्रति और उनके भी प्रति बड़ा खराब रहा।इलाहाबाद में रहते अपने पिता से एक दिन मार खाकर , उनकी अमानुषिकता से हमेशा के लिये पिंड छुड़ाने के संकल्प के साथ , वे एक दिन रात को घर छोड़कर अपने मित्र जगदीश के पास कानपुर आ गये।
रमानाथ जी ने बताया है-जगदीश की मां ने उन्हें जगदीश से ज्यादा प्यार किया क्योंकि वे जानती थीं कि जगदीश उन्हें कितना प्यार करते थे। जगदीश की मां अवस्थी शब्द का सही उच्चारण नहीं कर पाती ,अवर्थी कहतीं थीं। लेकिन वात्सल्य को रमानाथ जी पर उड़ेलने में उन महिला ने कभी कोई गलती नहीं की।
बिना टिकट ट्रेन में बैठ जाने वाले रमानाथजी उनकी वाणी की निष्कपटता और सच्चाई ने ट्रेन निरीक्षक की कृपा की वह कोर पायी जिसने उन्हें कानपुर स्टेशन पहुंचा दिया और वे वहां से पैदल चलते हुये बीएनएसडी इंटर कालेज के अपने मित्र जगदीश के पास पहुंचे! उनके मित्र जगदीश ने उन्हें संभाला और सहेजकर उन्हें एक बार फ़िर पढ़ाई पूरी करने के लिये इलाहाबाद वापस भेजा। वे वापस इलाहाबाद गये लेकिन अपनी व्यवस्थाओं के साथ। अपने पिता के साथ वे फ़िर नहीं रहे।
रमानाथ जी के पिताजी ने दूसरी शादी करके उनकी माताजी का जो अपमान और तिरस्कार किया ,उसकी फ़ांस रमानाथ जी के मन से कभी नहीं गयी। वे अपने प्रति की गयी क्रूरताओं को तो विरोहित कर गये लेकिन अपनी मां के प्रति किये गये तिरस्कार भाव को कभी नहीं भूल पाये।
उनकी मां को अपने बेटे पर अगाध विश्वास था और वे कहती थीं–हमार बाबू कबहूं गलत काम न करिहैं, करबै न करिहैं।
रमानाथजी की कविता -मेरे पंख कट गये हैं/वर्ना मैं गगन को गाता मैं घर में इतनी बार गाता था कभी कि मेरे बच्चों को भी इसकी पंक्तियां याद हो गयीं। रमानाथजी एक बार हमारे घर रहे दो दिन तो उन्होंने बताया कि इस कविता की पंक्तियां:
बहरहाल आप सुनिये इस गीत को! बताइये कैसा लगा? रिकार्डिंग करते समय शायद ट्यूबलाइट की चोक जैसी आवाज कहीं रिकार्ड हुई है लेकिन मेरे यहां गीत साफ़ सुनाई दे रहा है। आप देखिये आपको सुनाई देता है क्या!:)
वरना मैं गगन को गाता।
कोई मुझे सुनावो
फिर से वही कहानी,
कैसे हुई थी मीरा
घनश्याम की दीवानी।
मीरा के गीत को भी
कोई विष रहा सताता!
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
कभी दुनिया के दिखावे
कभी खुद में डूबता हूं,
थोड़ी देर खुश हुआ तो
बड़ी देर ऊबता हूं।
मेरा दिल ही मेरा दुश्मन
कैसे दोस्ती निभाता!
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
मेरे पास वह नहीं है
जो होना चाहिये था,
मैं मुस्कराया तब भी
जब रोना चाहिये था।
मुझे सबने शक से देखा
मैं किसको क्या बताता?
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
वह जो नाव डूबनी है
मैं उसी को खे रहा हूं,
तुम्हें डूबने से पहले
एक भेद दे रहा हूं।
मेरे पास कुछ नहीं है
जो तुमसे मैं छिपाता।
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
रमानाथ अवस्थी
दो दिन पहले चिट्ठाचर्चा में जब मैं उनकी ये पंक्तियां किसी संदर्भ में लिखीं:
धरती तो बंट जायेगीतो साथी हरि शर्मा ने कहा कि ये पंक्तियां गीतकार गोपाल दास नीरज जी की है!हमने अपने पास उपलब्ध
पर नीलगगन का क्या होगा?
हम तुम ऐसे बिछड़ेंगे
तो महामिलन का क्या होगा?
बहरहाल इसी खोज-खबर के बहाने मैंने अपने पास उपलब्ध रमानाथ अवस्थीजी से संबंधित सब सामग्री एक बार फ़िर टटोल ली। इसी में एक दुर्लभ कैसेट भी मिला मुझे जिसमें स्व.रमानाथजी के कई गीत हैं। कानपुर में एक एकल काव्य संध्या में इसकी रिकार्डिंग हुई थी। इनमें उनके अभिन्न मित्र कवि/सांसद नरेश चंद्र चतुर्वेदी, गीतकार उपेन्द्र्जी और अन्य मित्र मौजूद थे।
इस गीत संध्या में गीत पढ़ते हुये रमानाथजी ने अपने मित्रों को बड़ी संजीदगी से याद किया और यह कहा कि यदि उनको मित्र न मिले होते तो वे वैसे कभी न हो पाते जैसे वे बन पाये। और भी कई संवेदनशील बातें हैं जिनको एक सहज-सरल जीवन जीने वाला संवेदनशील मन वाला व्यक्ति ही कह सकता है।
स्व.रमानाथजी का बचपन भावनात्मक रूप से बड़े कष्ट में बीता। उनके पिता का व्यवहार उनकी मां के प्रति और उनके भी प्रति बड़ा खराब रहा।इलाहाबाद में रहते अपने पिता से एक दिन मार खाकर , उनकी अमानुषिकता से हमेशा के लिये पिंड छुड़ाने के संकल्प के साथ , वे एक दिन रात को घर छोड़कर अपने मित्र जगदीश के पास कानपुर आ गये।
रमानाथ जी ने बताया है-जगदीश की मां ने उन्हें जगदीश से ज्यादा प्यार किया क्योंकि वे जानती थीं कि जगदीश उन्हें कितना प्यार करते थे। जगदीश की मां अवस्थी शब्द का सही उच्चारण नहीं कर पाती ,अवर्थी कहतीं थीं। लेकिन वात्सल्य को रमानाथ जी पर उड़ेलने में उन महिला ने कभी कोई गलती नहीं की।
बिना टिकट ट्रेन में बैठ जाने वाले रमानाथजी उनकी वाणी की निष्कपटता और सच्चाई ने ट्रेन निरीक्षक की कृपा की वह कोर पायी जिसने उन्हें कानपुर स्टेशन पहुंचा दिया और वे वहां से पैदल चलते हुये बीएनएसडी इंटर कालेज के अपने मित्र जगदीश के पास पहुंचे! उनके मित्र जगदीश ने उन्हें संभाला और सहेजकर उन्हें एक बार फ़िर पढ़ाई पूरी करने के लिये इलाहाबाद वापस भेजा। वे वापस इलाहाबाद गये लेकिन अपनी व्यवस्थाओं के साथ। अपने पिता के साथ वे फ़िर नहीं रहे।
रमानाथ जी के पिताजी ने दूसरी शादी करके उनकी माताजी का जो अपमान और तिरस्कार किया ,उसकी फ़ांस रमानाथ जी के मन से कभी नहीं गयी। वे अपने प्रति की गयी क्रूरताओं को तो विरोहित कर गये लेकिन अपनी मां के प्रति किये गये तिरस्कार भाव को कभी नहीं भूल पाये।
उनकी मां को अपने बेटे पर अगाध विश्वास था और वे कहती थीं–हमार बाबू कबहूं गलत काम न करिहैं, करबै न करिहैं।
रमानाथजी की कविता -मेरे पंख कट गये हैं/वर्ना मैं गगन को गाता मैं घर में इतनी बार गाता था कभी कि मेरे बच्चों को भी इसकी पंक्तियां याद हो गयीं। रमानाथजी एक बार हमारे घर रहे दो दिन तो उन्होंने बताया कि इस कविता की पंक्तियां:
वह जो नाव डूबनी हैसुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखरजी ने उनसे पूछा भी पूछा भी क्या ये पंक्तियां खासतौर से उनके लिये लिखीं गई हैं। बाद में उनकी सरकार गिर गई थी।
मैं उसी को खे रहा हूं,
तुम्हें डूबने से पहले
एक भेद दे रहा हूं।
मेरे पास कुछ नहीं है
जो तुमसे मैं छिपाता।
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
बहरहाल आप सुनिये इस गीत को! बताइये कैसा लगा? रिकार्डिंग करते समय शायद ट्यूबलाइट की चोक जैसी आवाज कहीं रिकार्ड हुई है लेकिन मेरे यहां गीत साफ़ सुनाई दे रहा है। आप देखिये आपको सुनाई देता है क्या!:)
मेरे पंख कट गये हैं
मेरे पंख कट गये हैंवरना मैं गगन को गाता।
कोई मुझे सुनावो
फिर से वही कहानी,
कैसे हुई थी मीरा
घनश्याम की दीवानी।
मीरा के गीत को भी
कोई विष रहा सताता!
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
कभी दुनिया के दिखावे
कभी खुद में डूबता हूं,
थोड़ी देर खुश हुआ तो
बड़ी देर ऊबता हूं।
मेरा दिल ही मेरा दुश्मन
कैसे दोस्ती निभाता!
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
मेरे पास वह नहीं है
जो होना चाहिये था,
मैं मुस्कराया तब भी
जब रोना चाहिये था।
मुझे सबने शक से देखा
मैं किसको क्या बताता?
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
वह जो नाव डूबनी है
मैं उसी को खे रहा हूं,
तुम्हें डूबने से पहले
एक भेद दे रहा हूं।
मेरे पास कुछ नहीं है
जो तुमसे मैं छिपाता।
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता।
रमानाथ अवस्थी
कवि शिरोमणि रमानाथ अवस्थी जी के तो कहने ही क्या
संस्मरण भाव भीना है
इस पोस्ट के लिए आभार। ऑडियो नहीं सुन पा रहा – धीमा कनेक्सन है लेकिन पंक्तियों को उनके स्वर से जोड़ गुनगुना सकता हूँ।
आज तो नहीं पर जल्दी ही आपके ब्लॉग पर इनके गीतों को सर्च करते हुए खोजूंगा यह तय है।
मेरी आज की शाम तो मुंबई के रीगल थियेटर में आराधना के नाम है। 1969 की आराधना फिल्म को थियेटर में 2010 में देखने जा रहा हूँ देखता हूं कैसा फील होता है
कविता हो तो उनके जैसी हो! तरल। वर्ना ब्लॉगजगत में जो पढ़ने में आता है, उसमें कई कई गांठें होती हैं।
यह ऑडियो पूरा न सुन पाये। नेट कनेक्शन और न्वायज के चलते।
गीत सुना नहीं पढ़ लिया है.
आज सुबह से हम बिल्कुल फुरसतियामय हो रखे हैं कि ये चौथी पोस्ट पढ़ रहे हैं लगातार और एकदम तन्मयता से।
regards
आपका कोटिशः आभार इस सुन्दर मुग्धकारी प्रविष्टि के लिए….
इंडिअन ओयल द्वारा आयोजित एक कवि सम्मेलन में उन्हें सुना था. शायद वह आखिरी बार का अनुभव था. उस कवि सम्मेलन में उन्होने विशेष फरमाइश पर यह गीत सुनाया था. साथ ही ‘ भीड़ में भी रहता हूं वीरान के सहारे …” ( ऊपर अपनी टिप्पणी में ज्ञानदत्त जी ने शायद भूलवश इसे -झील में भी रहता हूं…लिख दिया है).
यह गीत कानपुर के एक कवि सम्मेलन में ( जब में कुल 12-13 वर्ष का था) सुना था. अब तक कानों में आवाज़ गूंजती है.
पंडितजी का पढने का पना अन्दाज़ था.
मेरे पंख …सुनकर भरपूर आनन्द आया. धन्यवाद.
मेरे पास वह नहीं है
जो होना चाहिये था,
मैं मुस्कराया तब भी
जब रोना चाहिये था।
पूरा पाठ सुन पाया. अच्छी तरह से सुन पाया. अद्भुत पॉडकास्ट है.
स्वयमेव काव्य है ! बाकी सब बहुत सुन्दर है !
आप इसलिये ही प्रिय हैं कि आपके पास इस सम्पदा का मूल्य संरक्षित है ! अवस्थी जी के स्वर में इस गीत को सुनना अत्यन्त प्रीतिकर है ! प्रारम्भ की ये पंक्तियाँ टंकित होने से छूट गयी हैं शायद -
“मेरा वश कहीं जो चलता
तेरे सामने मैं आता ।”
आशा करूँ, आपके गीतागार में रामावतार त्यागी जी का स्वर भी होगा ! अभिप्सा मुखर है ।
बहरहाल, मैंने बहुत सुना था अवस्थी जी के बारे में आज थोड़ा विस्तार से जाना. धन्यवाद !!
वरना मैं गगन को गाता।
निःशब्द !
रमानाथ जी अद्भुत गीतकार थे।
वरना बुजुर्गों की निशानी कौन रखता है।
सार्थक प्रयास है अवस्थी जी को सदा जीवित रखने का, साधुवाद
2005 में अशोक जी (चक्रधर) के एक कार्यक्रम के लिए मुझे अवस्थी जी की कविता “चन्दन है तो बरसेगा ही..”
पर एक फ्लैश फिल्म जैसा कुछ करने का सौभाग्य मिला था..तब काफी कुछ जानकारी मुझे अशोक जी के
माध्यम से उनके बारे में मिलीं..स्व. बच्चन साहब के वह काफी करीब थे ..उनकी शादी का कार्ड अशोक जी ने
दिखाया..जो बच्चन साहब के चाणक्य पुरी दिल्ली के निवास पर सम्पन्न हुई थी..बड़ा रोचक किस्सा था..
अवस्थी जी जितना खूबसूरत लिखते थे उतनी ही मधुर आवाज उनकी थी..जिससे उनकी सरलता, सहजता
का अनुमान लगाया जा सकता है..सुखद बात तो यह है की वह हमारे ही जिले फतेहपुर उ.प्र. के थे..
आपके माध्यम से उनके बारे में और जानकारी मिली..बहुत बहुत धन्यवाद..
संभव हो तो उनके आडियो भी ब्लॉग में लगाएं..
सादर,
-विज
-
आज आपनें मेरी सभी पोस्ट देखी-अपनी राय से अवगत कराया.
इतनी व्यस्तता में आपनें इतना समय दिया मैं आपका बहुत आभारी हूँ.
इसी तरह स्नेह बनाये रखियेगा,
सादर.
मनोज.
“मुझे सबने शक से देखा
मैं किसको क्या बताता?
मेरे पंख कट गये हैं
वरना मैं गगन को गाता। ”
वास्तव में उनकी प्रत्येक रचना मर्मस्पर्शी,सार गर्भित है सत्य कहूँ तो मेरे पास उचित शब्दों की गरीबी है इसलिए मै कितना भी कहूँ,कह नहीं पाउँगा………..
आपको कोटि कोटि धन्यवाद…..
rajendra awasthi. की हालिया प्रविष्टी..अंग्रेजी में हगीस हिंदी में हगास