http://web.archive.org/web/20140419212630/http://hindini.com/fursatiya/archives/2374
….एक और कलकतिया यात्रा
By फ़ुरसतिया on November 18, 2011
घर से बाहर निकलते ही आदमी ’स्टेटस जागरूक’ हो जाता है। क्षण-क्षण अपना
’स्टेटस’ अपडेट करता है। खुद अपना प्रवक्ता बन जाता है। घुमा-फ़िरा के
दुनिया भर को बताता है कि हम यहां हैं, वहां हैं, ये कर रहे हैं, वो कर रहे
हैं। उसको लगता है कि अगर उसने दुनिया भर को अपनी स्थिति न बतायी तो न
जाने कित्ते लोग उसके वियोग में पगला जायेंगे, न जाने कित्ती एफ़.आई.आर.
दर्ज हो जायेंगी दुनिया में। क्या पता लोग प्राइम टाइम चैनल चर्चा का विषय
ही बना लें – इनका स्टेटस नहीं मिल रहा है इस बारे में आपकी पार्टी क्या
सोचती है। आपके क्या विचार हैं।
स्टेटस के मामले में कुछ लोग बोल्ड होते हैं और वे सीधे-सीधे अपने स्टेटस बताते हैं जैसे-
-अभी-अभी दिल्ली में घुसे हैं।
-राजधानी एक्सप्रेस बहुत धीरे चल रही है। पता नहीं कब आयेगा कानपुर।
-अभी-अभी मॉल में घुसे हैं। पता नहीं इत्ती भीड़ कहां से आ गयी।
-कलकत्ते में मौसम अच्छा है।
कुछ लोग इशारों में बताने में भरोसा रखते हैं। उनको लगता है वे कि वे अलग तरह से अपनी बात कहते हैं। जैसे मैंने इस बार कलकत्ता पहुंचने पर ट्विट किया:
-कलकत्ता में सब कुछ चौड़ा है समय, सड़क, गाड़ी और आदमी भी!
-कलकत्ता में वाहन अपराध और राजनीति की तरह सट के चलते है!
ये बातें सिर्फ़ लिखने की हैं। अगर हम कलकत्ता की जगह कानपुर लिखते तब भी बात उतनी ही बेमतलब होती। लेकिन असल मकसद तो यह बताना था कि अब हम कलकत्ता में अवतरित हो चुके हैं और दूसरा यह भी कि अब हम भी उन लोगों में शामिल हो गये हैं जो अपना ’स्टेटस’ अपडेट करते रहते हैं। अचरज नहीं कि कल जब मोबाइल और आम हो जायें तो लोग अपने स्टेटस अपडेट करते हुये लिखें:
-मूछों पर ताव दे रहे हैं। बायीं पर दे चुके हैं। अब हाथ दायीं तरफ़ बढ़ रहा है।
-चाय बना रहे हैं। चीनी डाल चुके हैं। पत्ती के लिये डिब्बा खोल रहे हैं।
-अभी-अभी शॉपिंग करके बाहर निकले हैं। खरीदारी पर अफ़सोस और फ़िर झगड़ा शुरु होने वाला है।
-मोलभाव कर रहे हैं। पच्चास रुपये से शुरु हुयी बात पन्द्रह तक पहुंच चुकी है।
-गणित का सवाल हल कर चुका हूं ’इति सिद्धम’ लिखना बाकी है।
-अब सोने जा रहे हैं। ’गुड’ बोल चुके हैं बस ’नाइट’ लिखना बाकी है।
इस बार जब कोलकता गये तो एक बार फ़िर राजीव गांधी जी का बयान याद आया जिसमें उन्होंने कहा था- कोलकता एक मरता शहर है। उस बयान के इत्ते साल बाद भी मुझे हमेशा कलकत्ता एक जिंदादिल शहर लगा। हर प्रवासी को शरण देने वाला शहर। बिहार, उप्र के तमाम लोग कोलकता में आते रहते हैं। मेहनत के काम से रोजी-रोटी जुटाते हैं। कलकत्ता हमेशा से मुझे एक आत्मीय शहर लगा जो और महानगरों की तरह आतंकित सा नहीं करता।
जिस इलाके में मैं रहा वहां सुबह-सुबह फ़ुटपाथ पर सुबह-सुबह ही दुकाने जम गयीं। सड़क पर ’गंगा कल’ के पानी से नहाते, कपड़े धोते, गाड़ी धोते लोग हर चौराहे पर दिखे। पानी धड़ल्ले से बह रहा था। लोग दातून करते , दंत मंजन दांत रगड़ते आराम से नहाते दिखे। हर चौराहा जनता बाथरूम। दुकानों पर तीन रुपये में चाय। चाय सुड़कते लोग बतियाते लोग। एक वार्तालाप :
का हो बाबू का हाल है?
हाल ठीकै है। आज तुम हमें मजाक में बाबू कह रहे हो। लेकिन कभी हम भी बाबू सही में बाबू बनेंगे।
बाबू नहीं त घंटा बनोगे।
एक जगह पुलिस वैन रुकी। ड्राइवर पुलिस वाले से ज्यादा गुस्से में था। वो एक मरियल से फ़टेहाल आदमी को पकड़ के ले गये। पता चला कि वो आदमी पुलिस को गाली दे रहा था। पुलिस उसको सबक सिखाने के पवित्र इरादे से पकड़कर ले गया था। सब पुलिस पर हंस रहे थे यह कहकर कि उसके पास से क्या मिलेगा? साला मारकर छोड़ देगा। कोलकत्ता की पुलिस भी बहादुर पुलिस है। गाली देने वाले को मरियल आदमी को भी पकड़कर पीट देती है।
हमारे लिये हाथ रिक्शा और ट्राम हमेशा से कौतूहल का विषय रहे हैं । रामचन्दर साफ़ी हाथ रिक्शावाले से बहुत देर बात की। साठ पार के रामचन्दर बिहार के रहने वाले हैं। दस बच्चों के बाप हैं। आठ की शादी कर चुके हैं। दो की बाकी है। एक बारगी मन किया कि उनसे पूछें -आप किस बच्चे को ज्यादा प्यार करते हैं? लेकिन फ़िर मन को हड़का दिया- बदतमीजी नहीं। वे बिहार से कलकत्ता आते रहते हैं। यहां फ़ुटपाथ पर रह जाते हैं। ’बरसात में कैसे गुजर करते हैं’ के सवाल पर उन्होंने बताया – गुजर हो जाती है। बिहार के विकास की बात करने पर बोले- ऊ सब कागज पर हो रहा है।
हाथ रिक्शा का किराया पच्चीस रुपया रोज है। नये रिक्शे के लाइसेंस अब नहीं बन रहे हैं। पुलिस वालों से लेन-देन रिक्शा का मालिक ही करता है। कुल मिलाकर किसी तरह गुजारा हो जाता है।
अपने आसपास इसी तरह की लोगों को देखकर परसाई जी का डायलाग , इस देश का आदमी चूहे की तरह आचरण करना कब सीखेगा’ याद करके अपना काम पूरा कर लेते हैं।
अगले दिन पैदल टहलते हुये विक्टोरिया मेमोरियल देखने गये। अंग्रेजों के बनाये इस भव्य स्मारक के सामने बंधे, लीद करते घोड़े लगता है हमारा प्रतिशोध है अंग्रेजों के प्रति। यहां चाय दो रुपये मंहगी हो गयी थी। क्वालिटी घटिया। जिस तरह हाथ का पंजा खोलते-बंद करते हुये चाय वाले ने पांच रुपये देने का इशारा किया उससे लगा कि वह संकेतों में बता रहा है कि अगर पैसे न मिले तो टेटुआ दबा सकता है। मुझे एक बार फ़िर लगा कि मशहूर चीजों के पास पहुंचते ही आदमी किस तरह बदल जाता है।
विक्टोरिया मेमोरियल में घुसने का ही चार रुपया लग गया। सामने ही किसी अंग्रेज की मूर्ति लगी थी। मूर्ति श्रीलाल शुक्ल जी के शब्दों में फ़र्नीचर सी लेटी थी। उसके पीछे एक शेर दुबका सा था। लगा वह समय से छुपा-छुपौउल खेल रहा हो। हम बाहर निकल आये। खैरियत की बात कि वहां से निकलने के पैसे नहीं पड़े।
लौटते हुये ट्राम की सवारी की। इस्प्लेनेड पर उतरे। वहां से खरामा-खरामा टहलते हुये रहने की जगह पहुंचे। रास्ते में हर जगह देखा कि जहां भी कोई सड़क मिलती है वहां कोई न कोई दुकान है।
शाम को कोलकता के अपने शिवबाबू के स्थाई अड्डे पर जमावड़ा हुआ। इस बार प्रियंकरजी के दुश्मनों की तबियत कुछ नासाज सी थी। बहुत दिन बाद फ़िर ठेलुहा नरेश और बिनोद गुप्ता से मुलाकात हुई। ठेलुहा नरेश ने तमाम ब्लाग प्रसंगों का जिक्र करते हुये यह प्रमाण दिया कि उन्होंने लिखना भले छोड़ दिया हो लेकिन ब्लाग पढ़ते बराबर रहते हैं। दोनों कलकतिया शिवकुमार मिसिर के सामने हमारी खिंचाई करते हुये हमसे अपने आत्मीय/अंतरंग संबंध का प्रमाण देते रहे।
संयोग से आज बिनोद का जन्मदिन है। मुबारक ! कालेज में बिनोद हमसे एक साल बाद आये थे पढ़ने। हम लोग अगल-बगल के कमरों में रहते थे। पहली बार जब हम कलकत्ता गये थे साइकिल से तो इंद्र अवस्थी और बिनोद गुप्ता ने ही पूरा कलकत्ता घुमाया था हमें। इतने सालों बाद ( 28 साल बाद एक साथ फ़िर मुलाकात हुई मिसिरजी की कृपा से)। यह भी संयोग है कि इतने सालों बाद हमारा बच्चा और बिनोद का बच्चा एक ही संस्थान में पढ़ाई कर रहे हैं।
अगले दिन हम कोलकता से कानपुर लौट आये। इस बीच तमाम बार स्टेटस बदलते हुये फ़ाइनली कानपुर पहुंच के लिखा – कानपुर चहुंप गये।
कलकत्ते के बाकी फोटो मय कमेंट्री यहां देखें।
स्टेटस के मामले में कुछ लोग बोल्ड होते हैं और वे सीधे-सीधे अपने स्टेटस बताते हैं जैसे-
-अभी-अभी दिल्ली में घुसे हैं।
-राजधानी एक्सप्रेस बहुत धीरे चल रही है। पता नहीं कब आयेगा कानपुर।
-अभी-अभी मॉल में घुसे हैं। पता नहीं इत्ती भीड़ कहां से आ गयी।
-कलकत्ते में मौसम अच्छा है।
कुछ लोग इशारों में बताने में भरोसा रखते हैं। उनको लगता है वे कि वे अलग तरह से अपनी बात कहते हैं। जैसे मैंने इस बार कलकत्ता पहुंचने पर ट्विट किया:
-कलकत्ता में सब कुछ चौड़ा है समय, सड़क, गाड़ी और आदमी भी!
-कलकत्ता में वाहन अपराध और राजनीति की तरह सट के चलते है!
ये बातें सिर्फ़ लिखने की हैं। अगर हम कलकत्ता की जगह कानपुर लिखते तब भी बात उतनी ही बेमतलब होती। लेकिन असल मकसद तो यह बताना था कि अब हम कलकत्ता में अवतरित हो चुके हैं और दूसरा यह भी कि अब हम भी उन लोगों में शामिल हो गये हैं जो अपना ’स्टेटस’ अपडेट करते रहते हैं। अचरज नहीं कि कल जब मोबाइल और आम हो जायें तो लोग अपने स्टेटस अपडेट करते हुये लिखें:
-मूछों पर ताव दे रहे हैं। बायीं पर दे चुके हैं। अब हाथ दायीं तरफ़ बढ़ रहा है।
-चाय बना रहे हैं। चीनी डाल चुके हैं। पत्ती के लिये डिब्बा खोल रहे हैं।
-अभी-अभी शॉपिंग करके बाहर निकले हैं। खरीदारी पर अफ़सोस और फ़िर झगड़ा शुरु होने वाला है।
-मोलभाव कर रहे हैं। पच्चास रुपये से शुरु हुयी बात पन्द्रह तक पहुंच चुकी है।
-गणित का सवाल हल कर चुका हूं ’इति सिद्धम’ लिखना बाकी है।
-अब सोने जा रहे हैं। ’गुड’ बोल चुके हैं बस ’नाइट’ लिखना बाकी है।
इस बार जब कोलकता गये तो एक बार फ़िर राजीव गांधी जी का बयान याद आया जिसमें उन्होंने कहा था- कोलकता एक मरता शहर है। उस बयान के इत्ते साल बाद भी मुझे हमेशा कलकत्ता एक जिंदादिल शहर लगा। हर प्रवासी को शरण देने वाला शहर। बिहार, उप्र के तमाम लोग कोलकता में आते रहते हैं। मेहनत के काम से रोजी-रोटी जुटाते हैं। कलकत्ता हमेशा से मुझे एक आत्मीय शहर लगा जो और महानगरों की तरह आतंकित सा नहीं करता।
जिस इलाके में मैं रहा वहां सुबह-सुबह फ़ुटपाथ पर सुबह-सुबह ही दुकाने जम गयीं। सड़क पर ’गंगा कल’ के पानी से नहाते, कपड़े धोते, गाड़ी धोते लोग हर चौराहे पर दिखे। पानी धड़ल्ले से बह रहा था। लोग दातून करते , दंत मंजन दांत रगड़ते आराम से नहाते दिखे। हर चौराहा जनता बाथरूम। दुकानों पर तीन रुपये में चाय। चाय सुड़कते लोग बतियाते लोग। एक वार्तालाप :
का हो बाबू का हाल है?
हाल ठीकै है। आज तुम हमें मजाक में बाबू कह रहे हो। लेकिन कभी हम भी बाबू सही में बाबू बनेंगे।
बाबू नहीं त घंटा बनोगे।
एक जगह पुलिस वैन रुकी। ड्राइवर पुलिस वाले से ज्यादा गुस्से में था। वो एक मरियल से फ़टेहाल आदमी को पकड़ के ले गये। पता चला कि वो आदमी पुलिस को गाली दे रहा था। पुलिस उसको सबक सिखाने के पवित्र इरादे से पकड़कर ले गया था। सब पुलिस पर हंस रहे थे यह कहकर कि उसके पास से क्या मिलेगा? साला मारकर छोड़ देगा। कोलकत्ता की पुलिस भी बहादुर पुलिस है। गाली देने वाले को मरियल आदमी को भी पकड़कर पीट देती है।
हमारे लिये हाथ रिक्शा और ट्राम हमेशा से कौतूहल का विषय रहे हैं । रामचन्दर साफ़ी हाथ रिक्शावाले से बहुत देर बात की। साठ पार के रामचन्दर बिहार के रहने वाले हैं। दस बच्चों के बाप हैं। आठ की शादी कर चुके हैं। दो की बाकी है। एक बारगी मन किया कि उनसे पूछें -आप किस बच्चे को ज्यादा प्यार करते हैं? लेकिन फ़िर मन को हड़का दिया- बदतमीजी नहीं। वे बिहार से कलकत्ता आते रहते हैं। यहां फ़ुटपाथ पर रह जाते हैं। ’बरसात में कैसे गुजर करते हैं’ के सवाल पर उन्होंने बताया – गुजर हो जाती है। बिहार के विकास की बात करने पर बोले- ऊ सब कागज पर हो रहा है।
हाथ रिक्शा का किराया पच्चीस रुपया रोज है। नये रिक्शे के लाइसेंस अब नहीं बन रहे हैं। पुलिस वालों से लेन-देन रिक्शा का मालिक ही करता है। कुल मिलाकर किसी तरह गुजारा हो जाता है।
अपने आसपास इसी तरह की लोगों को देखकर परसाई जी का डायलाग , इस देश का आदमी चूहे की तरह आचरण करना कब सीखेगा’ याद करके अपना काम पूरा कर लेते हैं।
अगले दिन पैदल टहलते हुये विक्टोरिया मेमोरियल देखने गये। अंग्रेजों के बनाये इस भव्य स्मारक के सामने बंधे, लीद करते घोड़े लगता है हमारा प्रतिशोध है अंग्रेजों के प्रति। यहां चाय दो रुपये मंहगी हो गयी थी। क्वालिटी घटिया। जिस तरह हाथ का पंजा खोलते-बंद करते हुये चाय वाले ने पांच रुपये देने का इशारा किया उससे लगा कि वह संकेतों में बता रहा है कि अगर पैसे न मिले तो टेटुआ दबा सकता है। मुझे एक बार फ़िर लगा कि मशहूर चीजों के पास पहुंचते ही आदमी किस तरह बदल जाता है।
विक्टोरिया मेमोरियल में घुसने का ही चार रुपया लग गया। सामने ही किसी अंग्रेज की मूर्ति लगी थी। मूर्ति श्रीलाल शुक्ल जी के शब्दों में फ़र्नीचर सी लेटी थी। उसके पीछे एक शेर दुबका सा था। लगा वह समय से छुपा-छुपौउल खेल रहा हो। हम बाहर निकल आये। खैरियत की बात कि वहां से निकलने के पैसे नहीं पड़े।
लौटते हुये ट्राम की सवारी की। इस्प्लेनेड पर उतरे। वहां से खरामा-खरामा टहलते हुये रहने की जगह पहुंचे। रास्ते में हर जगह देखा कि जहां भी कोई सड़क मिलती है वहां कोई न कोई दुकान है।
शाम को कोलकता के अपने शिवबाबू के स्थाई अड्डे पर जमावड़ा हुआ। इस बार प्रियंकरजी के दुश्मनों की तबियत कुछ नासाज सी थी। बहुत दिन बाद फ़िर ठेलुहा नरेश और बिनोद गुप्ता से मुलाकात हुई। ठेलुहा नरेश ने तमाम ब्लाग प्रसंगों का जिक्र करते हुये यह प्रमाण दिया कि उन्होंने लिखना भले छोड़ दिया हो लेकिन ब्लाग पढ़ते बराबर रहते हैं। दोनों कलकतिया शिवकुमार मिसिर के सामने हमारी खिंचाई करते हुये हमसे अपने आत्मीय/अंतरंग संबंध का प्रमाण देते रहे।
संयोग से आज बिनोद का जन्मदिन है। मुबारक ! कालेज में बिनोद हमसे एक साल बाद आये थे पढ़ने। हम लोग अगल-बगल के कमरों में रहते थे। पहली बार जब हम कलकत्ता गये थे साइकिल से तो इंद्र अवस्थी और बिनोद गुप्ता ने ही पूरा कलकत्ता घुमाया था हमें। इतने सालों बाद ( 28 साल बाद एक साथ फ़िर मुलाकात हुई मिसिरजी की कृपा से)। यह भी संयोग है कि इतने सालों बाद हमारा बच्चा और बिनोद का बच्चा एक ही संस्थान में पढ़ाई कर रहे हैं।
अगले दिन हम कोलकता से कानपुर लौट आये। इस बीच तमाम बार स्टेटस बदलते हुये फ़ाइनली कानपुर पहुंच के लिखा – कानपुर चहुंप गये।
कलकत्ते के बाकी फोटो मय कमेंट्री यहां देखें।
Posted in बस यूं ही, संस्मरण | 30 Responses
आशीष ‘झालिया नरेश’ विज्ञान विश्व वाले की हालिया प्रविष्टी..स्ट्रींग सिद्धांत : क्वांटम भौतिकी और साधारणा सापेक्षतावाद
कोलकता से सकुशल कानपुर चहुंप गये।:)
……..
आप ने कोलकता को आत्मीय और जिंदादिल शहर बताया ..
मैंने कभी देखा नहीं यह शहर ,सुना बहुत है!
……..
चित्र देखे .
..आभार.
“फुरसतिया पे ताज़ा पोस्ट पढ़ चुका हूँ..कमेन्ट भी कर दिया है”….
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..फर्जी पोस्ट…
लिंक ( यहां) देना पड़ेगा क्या?
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..“कैसर-ए-हिन्द” की उपाधि
मतलब पहुँच गए न ..स्टेटस अपडेट से लेकर कलकतिया वृत्तांत तक जोरदार फ़ुरसतिया शैली …
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..हुई ब्लॉग की वापसी -कृतज्ञता ज्ञापन!
डॉ0 मानवी मौर्य की हालिया प्रविष्टी..हिन्दी के प्रथम स्थापित गजलकार: शमशेर बहादुर सिंह
अब कानपुर चहुंप गए या पहुँच गए,एक ‘स्टेटस’ तो बन ही गया ,कोलकाता-रिटर्न !
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..प्राइमरी का मास्टर :मेरे नज़रिए से !
बकिया, कोलकाता के सचित्र बरनन पुरनका याद ताज़ा कर दिया………………..सच्ची में कोलकाता ‘आत्मीय’
नगर है
प्रणाम.
संतोष त्रिवेदी की हालिया प्रविष्टी..प्राइमरी का मास्टर :मेरे नज़रिए से !
और मेरी फेवरेट लाइन -
“मशहूर चीजों के पास पहुंचते ही आदमी किस तरह बदल जाता है।”
aradhana की हालिया प्रविष्टी..दिए के जलने से पीछे का अँधेरा और गहरा हो जाता है…
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..इलाहाबाद और किताबों पर केन्द्रित एक मुलाकात
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..मन तरसे इक आंगन को
Shikha Varshney की हालिया प्रविष्टी..रूहानी प्यार "रॉक स्टार"
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..दुई ठो टइटू (पटना ८)
शुभकामनायें !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..लड़कियों का घर ? – सतीश सक्सेना
विवेक रस्तोगी की हालिया प्रविष्टी..हैलो… हिन्दी आता है क्या ? (Hello ! Do you know Hindi ?)
मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास पर आधारित गबन फिल्म में भी दिखाया गया है कि एक कलकत्तावासी सड़क पर ही नल के आगे बाल्टी लगा मस्त लोटे से नहा रहा है। इधर आपने भी वही विवरण दे डाला मस्त।
सतीश पंचम की हालिया प्रविष्टी..पूंजीवादी पोल-डांस v / s मेहनतकश भिखमंगे ……..
** थोड़ा भीतरो झांक लेते …
मनोज कुमार की हालिया प्रविष्टी..मन तरसे इक आंगन को
neeraj tripathi की हालिया प्रविष्टी..सभी नन्हें मुन्नों को बाल दिवस की ढेरों शुभकामनायें
dr anurag की हालिया प्रविष्टी..उस जानिब से जब उतरोगे तुम !!