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अथ अमरकंटक यात्रा कथा
By फ़ुरसतिया on January 29, 2013
दो
दिन पहले अमरकंटक घूमने गये। गणतंत्र दिवस के बाद इतवार था। सो झण्डा
फ़हराने के बाद नर्मदा दर्शन के लिये निकल लिये। साथ हितेश ,डॉ नमिता
(श्रीमती हितेश) और देवांजन भी। कार के मुख्य सारथी हितेश थे। बाकी -ड्राइवर इन रिजर्व।
खमरिया पार करते ही बकौल श्रीलाल शुक्ल भारतीय देहात का महासागर शुरु हो गया। सड़क (SH 22) अमरकंटक तक चकाचक। सड़क की चिकनाई देते हुये लालू जी का सड़क बयान (बिहार की सड़के हेमामालिनी के गाल की तरह चिकनी) याद आया। सड़क जगह-जगह नदी की तरह लहराते हुये बनी है। धुमावदार सड़क पर चलते हुये चलाने वाला सजग सा रहता है। एकरस नहीं होता मामला। भिडंत बची रहती है।
रास्ते में छोटे-छोटे कस्बे दिखे। हर जगह हाट-बाजार लगे थे। सड़क के दोनो ओर खरीद-बिक्री में तल्लीन लोग। जमीन, खटिया, तखत पर दुकाने सजी थीं। एक जगह एक महिला दर्जी सड़क पर अपनी सिलाई मशीन धरे सिलाई कर रही थी। वह पास ही कहीं रहती होगी। रोज मशीन उठाकर लाती होगी। दिन में सिलाई की दुकान चलाती होगी। शाम को उठा ले जाती होगी।
ऐसे ही हम अपने वाहन से उतरकर हाट मुआइना कर रहे थे। इस बीच एक कार से हमको इशारा करके बुलाया गया। देखा तो गिरीश बिल्लौरे थे। ढिंढौरी में झंडा फ़हराकर घर लौट रहे थे। हमने उनसे अमरकंटक में रुकने का इंतजाम करने को कहा था। उन्होंने कार में बैठे-बैठे इंतजाम की जानकारी दी। बाद में एक फोन नंबर भी दिया। इंतजाम कथा आगे।
आगे एक जगह सड़क जरा ज्यादा सीधी हो गयी कुछ दूर। कार चलाते हुये हितेश कुछ ऊंघ से गये। कार लहराई तो बगल में बैठी उनकी श्रीमती डा.नमिता ने उनको फ़ौरन हिलाया। ड्राइवर के हिलने से कार का लहराना और हिलना थमा। इससे एक बार फ़िर से यह सिद्ध हुआ कि समझदार पत्नियां अपने जीवनसाथी पर हमेशा निगाह रखती हैं। सतर्क करती हैं। खतरे से बचाती हैं। हम रास्ते भर उस पल भर के हिलने-लहराने को याद करते रहे। कुछ ड्राइवर हिलते-डुलते, मटकते-लहराते शायद इसीलिये वाहन चलाते हैं ताकि उनके वाहन स्थिर रहें।
ढिढौंरी में चाय पी गयी। गिरीश के दिये फ़ोन नंबर पर संपर्क किया गया। संपर्क सूत्र ने अमरकंटक में इंतजाम करने का वायदा किया। एक लड़का अपनी बुजुर्ग मां का हाथ पकड़े अमरकंटक की तरफ़ लपका चला जा रहा था। शायद नर्मदा परिक्रमा के लिये निकले हों वे लोग।
रास्ते में अपने घरों को वापस लौटते लोग दिखे। शाम को लोग कहीं जाता दिखे ऐसा लगता है कि वह अपने घर ही वापस जा रहा होगा। एक जगह सड़क पर एक बुजुर्ग गायों को हांकते वापस लौट रहे थे। इधर-उधर होती गायों को बुजुर्गवार बार-बार उधर-इधर कर रहे थे।
अंधेरा होने के कुछ देर बाद अमरकंटक पहुंचे। नर्मदा उद्गगम ऊंघने लगा था। इधर-उधर खुदी सड़कों पर कारों की बहुतायत बता रही थी कि खूब सारे लोग झण्डा फ़हराकर अमरकंटक निकल आये हैं। कारों पर CG लिखा देखकर हम काफ़ी देर तक कयास लगाते रहे कि यहां चंडीगढ़ से इत्ते लोग क्यों आये हैं। बाद में पता लगा कि वे कारे चंड़ीगढ़ की नहीं छत्तीसगढ़ की थीं।
ठहरने के हम म.प्र. टूरिस्ट होम में जगह तलाशने पहुंचे। वहां सब कमरे भरे थे। हमने वहीं से गिरीश के संपर्क सूत्र को फोन किया। उन्होंने बताया MPT (एम पी टूरिज्म) चले जाइये। हम बोले वहीं से बोल रहे हैं। यहां सब फ़ुल है। आगे बताया जाये। वे बोले बताते हैं लेकिन फ़िर कुछ पता नहीं चला। MPT वालों ने ही बताया अमरकण्टक गेस्ट हाउस चले जाइये। एक कमरा खाली है। वहां पता चला कि दो हो जायेंगे। हम निशाखातिर हो गये अब तो ठहरने का जुगाड़ हो ही गया। लेकिन वहां जाने के पहले हम एकाध जगह कमरा खोजते रहे। इंसानी फ़ितरत है शायद यह। हमेशा विकल्प खोजता है। लेकिन दूसरी जगह भी यही बताया गया कि अमरकंटक गेस्ट हाउस में ही कमरा मिल सकता है। बाकी जगह फ़ुल है।
गेस्ट हाउस में दो कमरे हमारा ही इंतजार कर रहे थे। एक बड़ा और एक छोटा (बड़े का लगभग आधा) । दोनों का किराया बराबर। । हमें लगा कि हम किसी माल में कमरा खरीद रहे हैं। बड़े कमरे के साथ छोटा मुफ़्त। मोलभाव नको!
सामान धरते ही हम गेस्ट हाउस मालिक के परिवार के साथ विनजिफ़ फ़ाइल की तरह खुल गये। मूलत: जयपुर के रहने वाले और अब शहडोल में बसे राजेश जी जब कभी मन आता है सपरिवार अमरकंटक चले आते हैं। पत्नी विदिशा की हैं। एक बच्ची जयपुर के इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ रही है। बच्चा आर्यन आठवी में पढ़ रहा है। देखते-देखते हमको चाय-पानी और शादी की मिठाइयां रसगुल्ला सब मिलने लगे खाने को। गेस्ट हाउस घरेलू बन गया। हम मेहमान टाइप।
अगले दिन सबेरे घूमने के लिये निकलते समय चाय-पकौड़ी टूंगते हुये हमने घर वालों को जानकारी दी कि हमारे नामिता डाक्टर हैं। कोई दवा-सवा लेना हो तो बताइये। मकान मैडम ने तुरंत अपनी पीड़ा बयान की कि उनके बाल झड़ते हैं। अगर वे बतातीं नहीं तो हम सोचते भी नहीं कि उनके बाल कम टाइप हैं। अलबत्ता उनके पति के सर के बाल खल्वाट सीमा की तरफ़ बढ़ते साफ़ दिखे। हमने कहा आपके बाल कम तो दीखते नहीं। लगता है फ़िजूल चिंता के कारण बाल झड़ते दीखते हैं। आप मस्त रहा करें। इस पर उन्होंने कहा- मस्त रहती हूं तभी तो वजन बढ़ रहा है। शायद बढ़ता वजन और झड़ते बाल हर संतुष्ट परिवार की समस्या है।
जहां ठहरे थे वहां से सोन उद्गम पास था। उसको देखने के पहले हम पास ही स्थित यंत्र मंदिर देखने गये। वहां कुछ परकम्मावासी निकलते दिखे। पचास से सत्तर के बीच की उमर वाले बुजुर्ग नर्मदा परिक्रमा करने निकले थे। अपना सामान सर पर लादे हुये परकम्मावासियों के मन में नर्मदा के प्रति अद्भुत श्रद्धा, अगाध आस्था है। उनको भरोसा है मईया उनकी देखभाल करेगी। हम अपनी एक दिन की यात्रा के लिये तमाम ताम-झाम समेटते चलते हैं। यहां ये और इनकी तरह के अनगिनत लोग हर साल महीनों नर्मदा किनारे बिताते हैं। साथ में कुछ सामान और मन में नर्मदा भक्ति धारण किये।
शोण और भद्र ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। शोण और भद्र का उद्गगम पास-पास ही। निकलने के बाद दो-चार मीटर चलकर वे आगे मिलते हैं और शोणभद्र ( सोनभद्र) बनते हैं। यह कथा है कि शोण और नर्मदा का विवाह होने वाला था। लेकिन नर्मदा ने शोण को उनकी संदेशवाहिका दासी जुहेला के साथ देख लिया तो नाराज होकर उल्टी तरफ़ चली गयीं। चिरकुमारी रहीं।
शोण की धारा अपने उद्गगम पर इतनी क्षीण है कि विश्वास ही नहीं होता कि यही आगे चलकर विशाल सोन नदी बनती होगी।
सोन उद्गगम स्थल पर खूब सारे बंदर दिखे। निश्चिंत धूप में टहलते। आरामफ़र्मा। सड़क पर कार के हार्न से बेखबर। एक दूसरे के शरीर संवारते। जुंये निकालते। एक बंदर पेड़ की जड़ पर जिस तरह बैठा था उसको देखकर लगा कि अपने सिंहासन पर किसी फ़रियादी के इंतजार में कोई राजा बैठा है। एक बंदर दूसरे की लंबी पूंछ को साइकिल के रिम की तरह गोल किये सहला रहा था। एक महिला अपने हाथ में कुछ सामान ले जारी जा रही थी। बंदर ने झपट्टा मारकर उनके हाथ से खाने का सामान झटक लिया। बाकी किसी से कुछ मतलब नहीं।
यहां लोग सूर्योदय देखने आते हैं। हमारे पहुंचने तक सूरज निकल आया था। हमें लगा कि हमारे ऊपर तमतमा रहे हैं महाराज- हमेशा देर से आते हो।
पास ही एक बुजुर्गवार अपनी दूरबीन लिये बैठे थे। पांच रुपये में घाटी और गांव दर्शन करा रहे थे। बताइन कि पांच हजार में बिलासपुर से खरीदी थी पिछले साल दूरबीन। पैसा पूरा वसूल हो गया है। हमने देखा तो कोहरे के कारण दूर की चीजें साफ़ नहीं दिख रहीं थीं।
वहीं पर एक किताबों की दुकान भी थी। नर्मदा से संबंधित किताबों के अलावा ब्यूटी टिप्स और गृहशोभा टाइप पत्रिकायें थीं। बेगड़जी की किताबें नहीं दिखीं। नर्मदा परिक्रमा से संबधित एक किताब लेकर हम आगे कि अमरकंटक दर्शन के लिये निकल लिये।
खमरिया पार करते ही बकौल श्रीलाल शुक्ल भारतीय देहात का महासागर शुरु हो गया। सड़क (SH 22) अमरकंटक तक चकाचक। सड़क की चिकनाई देते हुये लालू जी का सड़क बयान (बिहार की सड़के हेमामालिनी के गाल की तरह चिकनी) याद आया। सड़क जगह-जगह नदी की तरह लहराते हुये बनी है। धुमावदार सड़क पर चलते हुये चलाने वाला सजग सा रहता है। एकरस नहीं होता मामला। भिडंत बची रहती है।
रास्ते में छोटे-छोटे कस्बे दिखे। हर जगह हाट-बाजार लगे थे। सड़क के दोनो ओर खरीद-बिक्री में तल्लीन लोग। जमीन, खटिया, तखत पर दुकाने सजी थीं। एक जगह एक महिला दर्जी सड़क पर अपनी सिलाई मशीन धरे सिलाई कर रही थी। वह पास ही कहीं रहती होगी। रोज मशीन उठाकर लाती होगी। दिन में सिलाई की दुकान चलाती होगी। शाम को उठा ले जाती होगी।
ऐसे ही हम अपने वाहन से उतरकर हाट मुआइना कर रहे थे। इस बीच एक कार से हमको इशारा करके बुलाया गया। देखा तो गिरीश बिल्लौरे थे। ढिंढौरी में झंडा फ़हराकर घर लौट रहे थे। हमने उनसे अमरकंटक में रुकने का इंतजाम करने को कहा था। उन्होंने कार में बैठे-बैठे इंतजाम की जानकारी दी। बाद में एक फोन नंबर भी दिया। इंतजाम कथा आगे।
आगे एक जगह सड़क जरा ज्यादा सीधी हो गयी कुछ दूर। कार चलाते हुये हितेश कुछ ऊंघ से गये। कार लहराई तो बगल में बैठी उनकी श्रीमती डा.नमिता ने उनको फ़ौरन हिलाया। ड्राइवर के हिलने से कार का लहराना और हिलना थमा। इससे एक बार फ़िर से यह सिद्ध हुआ कि समझदार पत्नियां अपने जीवनसाथी पर हमेशा निगाह रखती हैं। सतर्क करती हैं। खतरे से बचाती हैं। हम रास्ते भर उस पल भर के हिलने-लहराने को याद करते रहे। कुछ ड्राइवर हिलते-डुलते, मटकते-लहराते शायद इसीलिये वाहन चलाते हैं ताकि उनके वाहन स्थिर रहें।
ढिढौंरी में चाय पी गयी। गिरीश के दिये फ़ोन नंबर पर संपर्क किया गया। संपर्क सूत्र ने अमरकंटक में इंतजाम करने का वायदा किया। एक लड़का अपनी बुजुर्ग मां का हाथ पकड़े अमरकंटक की तरफ़ लपका चला जा रहा था। शायद नर्मदा परिक्रमा के लिये निकले हों वे लोग।
रास्ते में अपने घरों को वापस लौटते लोग दिखे। शाम को लोग कहीं जाता दिखे ऐसा लगता है कि वह अपने घर ही वापस जा रहा होगा। एक जगह सड़क पर एक बुजुर्ग गायों को हांकते वापस लौट रहे थे। इधर-उधर होती गायों को बुजुर्गवार बार-बार उधर-इधर कर रहे थे।
अंधेरा होने के कुछ देर बाद अमरकंटक पहुंचे। नर्मदा उद्गगम ऊंघने लगा था। इधर-उधर खुदी सड़कों पर कारों की बहुतायत बता रही थी कि खूब सारे लोग झण्डा फ़हराकर अमरकंटक निकल आये हैं। कारों पर CG लिखा देखकर हम काफ़ी देर तक कयास लगाते रहे कि यहां चंडीगढ़ से इत्ते लोग क्यों आये हैं। बाद में पता लगा कि वे कारे चंड़ीगढ़ की नहीं छत्तीसगढ़ की थीं।
ठहरने के हम म.प्र. टूरिस्ट होम में जगह तलाशने पहुंचे। वहां सब कमरे भरे थे। हमने वहीं से गिरीश के संपर्क सूत्र को फोन किया। उन्होंने बताया MPT (एम पी टूरिज्म) चले जाइये। हम बोले वहीं से बोल रहे हैं। यहां सब फ़ुल है। आगे बताया जाये। वे बोले बताते हैं लेकिन फ़िर कुछ पता नहीं चला। MPT वालों ने ही बताया अमरकण्टक गेस्ट हाउस चले जाइये। एक कमरा खाली है। वहां पता चला कि दो हो जायेंगे। हम निशाखातिर हो गये अब तो ठहरने का जुगाड़ हो ही गया। लेकिन वहां जाने के पहले हम एकाध जगह कमरा खोजते रहे। इंसानी फ़ितरत है शायद यह। हमेशा विकल्प खोजता है। लेकिन दूसरी जगह भी यही बताया गया कि अमरकंटक गेस्ट हाउस में ही कमरा मिल सकता है। बाकी जगह फ़ुल है।
गेस्ट हाउस में दो कमरे हमारा ही इंतजार कर रहे थे। एक बड़ा और एक छोटा (बड़े का लगभग आधा) । दोनों का किराया बराबर। । हमें लगा कि हम किसी माल में कमरा खरीद रहे हैं। बड़े कमरे के साथ छोटा मुफ़्त। मोलभाव नको!
सामान धरते ही हम गेस्ट हाउस मालिक के परिवार के साथ विनजिफ़ फ़ाइल की तरह खुल गये। मूलत: जयपुर के रहने वाले और अब शहडोल में बसे राजेश जी जब कभी मन आता है सपरिवार अमरकंटक चले आते हैं। पत्नी विदिशा की हैं। एक बच्ची जयपुर के इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ रही है। बच्चा आर्यन आठवी में पढ़ रहा है। देखते-देखते हमको चाय-पानी और शादी की मिठाइयां रसगुल्ला सब मिलने लगे खाने को। गेस्ट हाउस घरेलू बन गया। हम मेहमान टाइप।
अगले दिन सबेरे घूमने के लिये निकलते समय चाय-पकौड़ी टूंगते हुये हमने घर वालों को जानकारी दी कि हमारे नामिता डाक्टर हैं। कोई दवा-सवा लेना हो तो बताइये। मकान मैडम ने तुरंत अपनी पीड़ा बयान की कि उनके बाल झड़ते हैं। अगर वे बतातीं नहीं तो हम सोचते भी नहीं कि उनके बाल कम टाइप हैं। अलबत्ता उनके पति के सर के बाल खल्वाट सीमा की तरफ़ बढ़ते साफ़ दिखे। हमने कहा आपके बाल कम तो दीखते नहीं। लगता है फ़िजूल चिंता के कारण बाल झड़ते दीखते हैं। आप मस्त रहा करें। इस पर उन्होंने कहा- मस्त रहती हूं तभी तो वजन बढ़ रहा है। शायद बढ़ता वजन और झड़ते बाल हर संतुष्ट परिवार की समस्या है।
जहां ठहरे थे वहां से सोन उद्गम पास था। उसको देखने के पहले हम पास ही स्थित यंत्र मंदिर देखने गये। वहां कुछ परकम्मावासी निकलते दिखे। पचास से सत्तर के बीच की उमर वाले बुजुर्ग नर्मदा परिक्रमा करने निकले थे। अपना सामान सर पर लादे हुये परकम्मावासियों के मन में नर्मदा के प्रति अद्भुत श्रद्धा, अगाध आस्था है। उनको भरोसा है मईया उनकी देखभाल करेगी। हम अपनी एक दिन की यात्रा के लिये तमाम ताम-झाम समेटते चलते हैं। यहां ये और इनकी तरह के अनगिनत लोग हर साल महीनों नर्मदा किनारे बिताते हैं। साथ में कुछ सामान और मन में नर्मदा भक्ति धारण किये।
शोण और भद्र ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। शोण और भद्र का उद्गगम पास-पास ही। निकलने के बाद दो-चार मीटर चलकर वे आगे मिलते हैं और शोणभद्र ( सोनभद्र) बनते हैं। यह कथा है कि शोण और नर्मदा का विवाह होने वाला था। लेकिन नर्मदा ने शोण को उनकी संदेशवाहिका दासी जुहेला के साथ देख लिया तो नाराज होकर उल्टी तरफ़ चली गयीं। चिरकुमारी रहीं।
शोण की धारा अपने उद्गगम पर इतनी क्षीण है कि विश्वास ही नहीं होता कि यही आगे चलकर विशाल सोन नदी बनती होगी।
सोन उद्गगम स्थल पर खूब सारे बंदर दिखे। निश्चिंत धूप में टहलते। आरामफ़र्मा। सड़क पर कार के हार्न से बेखबर। एक दूसरे के शरीर संवारते। जुंये निकालते। एक बंदर पेड़ की जड़ पर जिस तरह बैठा था उसको देखकर लगा कि अपने सिंहासन पर किसी फ़रियादी के इंतजार में कोई राजा बैठा है। एक बंदर दूसरे की लंबी पूंछ को साइकिल के रिम की तरह गोल किये सहला रहा था। एक महिला अपने हाथ में कुछ सामान ले जारी जा रही थी। बंदर ने झपट्टा मारकर उनके हाथ से खाने का सामान झटक लिया। बाकी किसी से कुछ मतलब नहीं।
यहां लोग सूर्योदय देखने आते हैं। हमारे पहुंचने तक सूरज निकल आया था। हमें लगा कि हमारे ऊपर तमतमा रहे हैं महाराज- हमेशा देर से आते हो।
पास ही एक बुजुर्गवार अपनी दूरबीन लिये बैठे थे। पांच रुपये में घाटी और गांव दर्शन करा रहे थे। बताइन कि पांच हजार में बिलासपुर से खरीदी थी पिछले साल दूरबीन। पैसा पूरा वसूल हो गया है। हमने देखा तो कोहरे के कारण दूर की चीजें साफ़ नहीं दिख रहीं थीं।
वहीं पर एक किताबों की दुकान भी थी। नर्मदा से संबंधित किताबों के अलावा ब्यूटी टिप्स और गृहशोभा टाइप पत्रिकायें थीं। बेगड़जी की किताबें नहीं दिखीं। नर्मदा परिक्रमा से संबधित एक किताब लेकर हम आगे कि अमरकंटक दर्शन के लिये निकल लिये।
Posted in बस यूं ही, संस्मरण | 21 Responses
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..ठंड में स्नान
घूम-घाम करते रहें लेकिन जाम-झाम से बचते रहें…………..
प्रणाम.
Kajal Kumar की हालिया प्रविष्टी..कार्टून :- कुछ नी हो सक्ता …
चार दिन से समारोह की तैयारी में अपना पोर पोर पिरावत रहा.तिस पै डिंडोरी जिले का जाडा़ उफ़्फ़ कुल्फ़ी जम गई थी.
२५ जनवरी की रात तो ऐसा सोया कि न सोये के बराबर. कमिश्नर साब के दौरे के चलते डिंडोरी का रेस्ट हाउस पैक था फ़ुरसतिया जी अनूपपुर जिले वाले अमरकंटक में रुकना चाहते थे सो बस अब दूसरे जिले में अपना बस न चला. काजल भाई गोली नहीं दी हा हा हा
Girish Billore की हालिया प्रविष्टी..बड़े बड़े लोगों को बक़नू बाय की बीमारी हो गई है..!!
arvind mishra की हालिया प्रविष्टी..कौन सा भारत,किसका भारत?
अमरकंटक का जिक्र आते ही आशुतोष मुखर्जी की ’सोना काठी रूपा काठी’ याद आ जाती है।
संजय @ मो सम कौन की हालिया प्रविष्टी..बिना शीर्षक
राहुल सिंह की हालिया प्रविष्टी..काल-प्रवाह
परकम्मावासियों से मिल लिए..पुण्य लाभ तो हुआ…नर्मदा मईया तो मिलीं ही।
अमा यार हर इंसान इंतनी कानपुरी फुर्सत में फुरसतिया नहीं होता.
जो भी हो, कल ही ये रागदरबारी हाथ में वाया अमरकंट आया .. देर आयेद दुरुस्त आयेद.
रागदरबारी को इस मायाजाल में प्रस्तुत करने के लिए साधुवाद और आभार.