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ब्लॉगजगत के बहाने इधर-उधर की
By फ़ुरसतिया on February 25, 2013
परसों कलकत्ता से कानपुर लौटे तो देखा कि मिसिरजी के हाल बेहाल
हो चुके थे। अब अच्छा हो गया है। मिसिरजी की कुछ हसीन अदाओं में से एक ये
है कि वे गाहे-बगाहे अपने साथ जुड़े लोगों को याद करते रहते हैं। जिनसे जैसे
संबंध हैं उस हिसाब से। हम तो उनसे मौज लेते ही रहते हैं। सो वे भी मौका
निकाल के हमारी खिंचाई करने की कोशिश करते हैं- नाम लेकर। लेकिन तमाम लोगों
से उनके कसकन वाले संबंध भी रहे उसे वे कसकते हुये याद करते हैं (जो कभी
दिन रात चौबीसों प्रहर समय असमय कुशल क्षेम पूछते थे अब बिल्कुल ही बेगाने
हैं)।
मिसिरजी मजेदार जीव हैं। उनसे अपन की कहा-सुनी चलती रहती है। उनकी पोस्टों में नाटकीय तत्व बहुत रहता है। ज्ञान छलकता रहता है अक्सर। लोगों से लड़ने-झगड़ने, रूठ जाने और फ़िर मान जाने/मना लेने का उनका कौशल अद्भुत है। गुस्से में तो वे खोया पानी के मिर्जा हो जाते हैं जिनके लिये युसुफ़ी साहब लिखते हैं- मिज़ाज, ज़बान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट,पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था। प्रेम/यौन संबंधी उनकी अधिकतर पोस्टें/टिप्पणियां -”हिन्दी पट्टी के किसी अदबदाकर जवान हो गये शख्स की अभिव्यक्तियां” लगती हैं।
मिसिरजी हमारे लिखे पर टिपियाते लगभग हमेशा रहते हैं। शुरुआती दौर की अतितारीफ़ाना टिप्पणियों से लेकर हालिया ’अब चुक गये हैं अनूप शुक्ल’ तक उनकी रेंज रहती है। न हुआ तो वर्तनी पर ही टोंकते रहते हैं- श्रोत नहीं स्रोत । हम भी अब उनके लिखे को छिद्रान्वेषी नजरों से ही देखते हैं। उनके “पोस्ट-गुब्बारे” में सुई चुभाने की फ़िराक में रहते हैं।
बहरहाल मिसिरजी के बारे में कभी विस्तार से लिखा जायेगा। अभी वे फ़ुल ठीक हो लें जरा। हड़बड़ी में जितना लिखेंगे उससे ज्यादा छूट जायेगा। फ़िलहाल कुछ बातें ब्लॉगजगत के बारे में।
ब्लॉगजगत से जुड़े अपन को जुड़े आठ साल से ज्यादा होने को आये। इस दौरान तमाम बदलाव देखे। शुरुआती दौर में लोग एक दूसरे के बारे में खूब लिखते थे। एक-दूसरे की पोस्टों का जिक्र करते थे। जबाबी पोस्टें लिखते थे। पोस्ट की जबाब में पोस्ट और फ़िर प्रतिपोस्ट। धीरे-धीरे यह सिलसिला कम हुआ। कई कारण होंगे। उनमें से एक यह भी रहा कि लोग अपनी आलोचना सहन नहीं कर पाते थे। जिसकी खिंचाई हो गयी उसका मुंह फ़ूल गया। अपवाद कम ही मिले मुझे इतने दिनों के अनुभव में। कुछ ने तो कोर्ट-कचहरी की भी धमकी दी। ऐसे लोगों से (और उनसे जुड़े लोगों से भी) संबंध-संपर्क भले ही बना रहा लेकिन वे निगाह से हमेशा के लिये उतर गये। कभी सहज नहीं हो पाये उनसे। शायद न आगे हो पायेंगें। हमारे बारे में भी लोगों के कुछ विचार होंगे।
शुरुआती दिनों में यहां मामला संयुक्त परिवार सरीखा था। धीरे-धीरे एकल परिवार बने। लड़ाई-झगड़े तक कम हो गये। लोगों ने एक-दूसरे की पोस्टों का लिंक देना कम कर दिया। एक-दूसरे का जिक्र भी कम कर दिया। अभी भी शुरु में ब्लॉगर आपस में जिक्र करते हैं एक-दूसरे का। लेकिन फ़िर धीरे-धीरे समझदार लोग समझदार हो जाते हैं।
ब्लॉगिंग की शुरुआत में दो बातों का जिक्र होता था। एक तो अभिव्यक्ति की आजादी और दूसरे ब्लॉगिंग से कमाई। कमाई के किस्से तो बहुत चले। किसी ने बताया कि उसके खाते में पचास रुपये आये किसी ने बताया सत्तर। अभिव्यक्ति की आजादी तो खूब मिली। इसके साथ ही जिन अखबारों और पत्रिकाओं में न छप पाने के चलते ब्लॉग लिखने शुरु हुये होंगे उनमें ही ब्लॉगरों के लेख छपने लगे। ब्लॉगर भी खुश हो गये। मजाक-मजाक में वे लेखक बन गये। अखबार में छपने लगे।
अखबार में छपने का और लगातार छपने का साइड इफ़ेक्ट यह हुआ कि लोग अब ज्यादा से ज्यादा अखबार में छपने के लिये लालायित होने लगे। पहले जहां बात यह थी कि अच्छा लिखेंगे तो लोग ब्लॉग पर आयेंगे तो हिट्स बढ़ेंगी तो कमाई के अवसर बढेंगे। अब ब्लॉगर के दिमाग में अखबार में छपना भी दस्तक देता है। लेख का हुलिया ऐसा हो कि अखबार वाले उसे हमारे यहां से उठाकर छाप लें।
फ़ेसबुक ने और बवाल किया है। कहीं जरा सा आइडिया आया नहीं कि उसे चेंप दिया वहां पर। उसके बाद दूसरा आइडिया भी। खूब सारे आइडिया ठेल दिये जाते हैं दिन भर में। अगले दिन या उसी दिन शाम को उनको लेकर एक ठो पोस्ट तैयार हो जाती है।
ब्लॉग से कमाई का एक नया पहलू इधर सामने आया है। ब्लॉगरों की अपनी पोस्टों को छपाने की मासूम इच्छा का फ़ायदा कुछ प्रकाशकों ने उठाया। ब्लॉगरों की ब्लॉग पोस्टों के संकलन छापे। उनसे छपाई के लिये अर्थ सहयोग लिया और उनके रचनायें प्रकाशित कीं। कविताओं पर सबसे ज्यादा कृपा रही प्रकाशकों की। पता चला कि तीस-चालीस ब्लॉगर कवियों को इकट्ठा करके उनकी कवितायें छाप दीं। हरेक से दो-तीन हजार रुपये लेकर उनकी चार-पांच कवितायें संकलन में प्रकाशित की। चार-पांच प्रतियां दे दीं। विमोचन हो गया। ब्लॉगर खुश कि उसका भी संकलन छप गया। प्रकाशक खुश कि उसकी तीस-चालीस हजार की कमाई हो गयी-बिना एक भी किताब बेंचे हुये। ब्लॉगिंग अंतत: कमाई का साधन तो बन ही गया।
हमने अपने मित्र से कहा कि जो कवितायें संकलन में छपी हैं उनका जिक्र अपने ब्लॉग में कर दें ताकि हमको उनको दुबारा पढ़ सकें। ब्लॉग पर पोस्ट होने में मात्र दो रुपये लगे होंगे लेकिन कविता संकलन में छपने में उसका खर्चा पांच सौ आया।
हमको जब यह पता चला तो हमें इस बात की बहुत खुशी हुई कि हम कविता नहीं लिखते। यह भी लगा कि अच्छी आदतें कभी न कभी सुकून देती ही हैं।
इस बीच कलकत्ता जाना हुआ। शिवकुमार जी और प्रियंकर जी से मुलाकात हुई। चर्चा हुई कि ज्ञानजी ने लिखना कम कर दिया है। ब्लॉग छोड़ फ़ेसबुक पर टहलते रहते हैं। जब यह बताया गया ज्ञानजी को तो उन्होंने राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता की तरह उलट सवाल किया – वे ही लोग कौन तीर मार रहे हैं ब्लॉगिंग में?
अब यह चर्चा तो हुई नहीं थी वहां सो इस बात का क्या जबाब दिया जाये।
वैसे ज्ञानजी ने हमारे एक फ़ेसबुक स्टेटस पर यह उलाहना दिया था कि कभी हम सुबह-सुबह चिट्ठाचर्चा करते थे। (अब खाली स्टेटस ठेलते हैं)। अब उनकी इस बात का क्या जबाब दिया जाये बताइये भला।
नोट: ऊपर की पहली फोटो कलकत्ता एयरपोर्ट के बाहर की। दूसरी फोटो हमारे बगीचे की।
मिसिरजी मजेदार जीव हैं। उनसे अपन की कहा-सुनी चलती रहती है। उनकी पोस्टों में नाटकीय तत्व बहुत रहता है। ज्ञान छलकता रहता है अक्सर। लोगों से लड़ने-झगड़ने, रूठ जाने और फ़िर मान जाने/मना लेने का उनका कौशल अद्भुत है। गुस्से में तो वे खोया पानी के मिर्जा हो जाते हैं जिनके लिये युसुफ़ी साहब लिखते हैं- मिज़ाज, ज़बान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट,पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था। प्रेम/यौन संबंधी उनकी अधिकतर पोस्टें/टिप्पणियां -”हिन्दी पट्टी के किसी अदबदाकर जवान हो गये शख्स की अभिव्यक्तियां” लगती हैं।
मिसिरजी हमारे लिखे पर टिपियाते लगभग हमेशा रहते हैं। शुरुआती दौर की अतितारीफ़ाना टिप्पणियों से लेकर हालिया ’अब चुक गये हैं अनूप शुक्ल’ तक उनकी रेंज रहती है। न हुआ तो वर्तनी पर ही टोंकते रहते हैं- श्रोत नहीं स्रोत । हम भी अब उनके लिखे को छिद्रान्वेषी नजरों से ही देखते हैं। उनके “पोस्ट-गुब्बारे” में सुई चुभाने की फ़िराक में रहते हैं।
बहरहाल मिसिरजी के बारे में कभी विस्तार से लिखा जायेगा। अभी वे फ़ुल ठीक हो लें जरा। हड़बड़ी में जितना लिखेंगे उससे ज्यादा छूट जायेगा। फ़िलहाल कुछ बातें ब्लॉगजगत के बारे में।
ब्लॉगजगत से जुड़े अपन को जुड़े आठ साल से ज्यादा होने को आये। इस दौरान तमाम बदलाव देखे। शुरुआती दौर में लोग एक दूसरे के बारे में खूब लिखते थे। एक-दूसरे की पोस्टों का जिक्र करते थे। जबाबी पोस्टें लिखते थे। पोस्ट की जबाब में पोस्ट और फ़िर प्रतिपोस्ट। धीरे-धीरे यह सिलसिला कम हुआ। कई कारण होंगे। उनमें से एक यह भी रहा कि लोग अपनी आलोचना सहन नहीं कर पाते थे। जिसकी खिंचाई हो गयी उसका मुंह फ़ूल गया। अपवाद कम ही मिले मुझे इतने दिनों के अनुभव में। कुछ ने तो कोर्ट-कचहरी की भी धमकी दी। ऐसे लोगों से (और उनसे जुड़े लोगों से भी) संबंध-संपर्क भले ही बना रहा लेकिन वे निगाह से हमेशा के लिये उतर गये। कभी सहज नहीं हो पाये उनसे। शायद न आगे हो पायेंगें। हमारे बारे में भी लोगों के कुछ विचार होंगे।
शुरुआती दिनों में यहां मामला संयुक्त परिवार सरीखा था। धीरे-धीरे एकल परिवार बने। लड़ाई-झगड़े तक कम हो गये। लोगों ने एक-दूसरे की पोस्टों का लिंक देना कम कर दिया। एक-दूसरे का जिक्र भी कम कर दिया। अभी भी शुरु में ब्लॉगर आपस में जिक्र करते हैं एक-दूसरे का। लेकिन फ़िर धीरे-धीरे समझदार लोग समझदार हो जाते हैं।
ब्लॉगिंग की शुरुआत में दो बातों का जिक्र होता था। एक तो अभिव्यक्ति की आजादी और दूसरे ब्लॉगिंग से कमाई। कमाई के किस्से तो बहुत चले। किसी ने बताया कि उसके खाते में पचास रुपये आये किसी ने बताया सत्तर। अभिव्यक्ति की आजादी तो खूब मिली। इसके साथ ही जिन अखबारों और पत्रिकाओं में न छप पाने के चलते ब्लॉग लिखने शुरु हुये होंगे उनमें ही ब्लॉगरों के लेख छपने लगे। ब्लॉगर भी खुश हो गये। मजाक-मजाक में वे लेखक बन गये। अखबार में छपने लगे।
अखबार में छपने का और लगातार छपने का साइड इफ़ेक्ट यह हुआ कि लोग अब ज्यादा से ज्यादा अखबार में छपने के लिये लालायित होने लगे। पहले जहां बात यह थी कि अच्छा लिखेंगे तो लोग ब्लॉग पर आयेंगे तो हिट्स बढ़ेंगी तो कमाई के अवसर बढेंगे। अब ब्लॉगर के दिमाग में अखबार में छपना भी दस्तक देता है। लेख का हुलिया ऐसा हो कि अखबार वाले उसे हमारे यहां से उठाकर छाप लें।
फ़ेसबुक ने और बवाल किया है। कहीं जरा सा आइडिया आया नहीं कि उसे चेंप दिया वहां पर। उसके बाद दूसरा आइडिया भी। खूब सारे आइडिया ठेल दिये जाते हैं दिन भर में। अगले दिन या उसी दिन शाम को उनको लेकर एक ठो पोस्ट तैयार हो जाती है।
ब्लॉग से कमाई का एक नया पहलू इधर सामने आया है। ब्लॉगरों की अपनी पोस्टों को छपाने की मासूम इच्छा का फ़ायदा कुछ प्रकाशकों ने उठाया। ब्लॉगरों की ब्लॉग पोस्टों के संकलन छापे। उनसे छपाई के लिये अर्थ सहयोग लिया और उनके रचनायें प्रकाशित कीं। कविताओं पर सबसे ज्यादा कृपा रही प्रकाशकों की। पता चला कि तीस-चालीस ब्लॉगर कवियों को इकट्ठा करके उनकी कवितायें छाप दीं। हरेक से दो-तीन हजार रुपये लेकर उनकी चार-पांच कवितायें संकलन में प्रकाशित की। चार-पांच प्रतियां दे दीं। विमोचन हो गया। ब्लॉगर खुश कि उसका भी संकलन छप गया। प्रकाशक खुश कि उसकी तीस-चालीस हजार की कमाई हो गयी-बिना एक भी किताब बेंचे हुये। ब्लॉगिंग अंतत: कमाई का साधन तो बन ही गया।
हमने अपने मित्र से कहा कि जो कवितायें संकलन में छपी हैं उनका जिक्र अपने ब्लॉग में कर दें ताकि हमको उनको दुबारा पढ़ सकें। ब्लॉग पर पोस्ट होने में मात्र दो रुपये लगे होंगे लेकिन कविता संकलन में छपने में उसका खर्चा पांच सौ आया।
हमको जब यह पता चला तो हमें इस बात की बहुत खुशी हुई कि हम कविता नहीं लिखते। यह भी लगा कि अच्छी आदतें कभी न कभी सुकून देती ही हैं।
इस बीच कलकत्ता जाना हुआ। शिवकुमार जी और प्रियंकर जी से मुलाकात हुई। चर्चा हुई कि ज्ञानजी ने लिखना कम कर दिया है। ब्लॉग छोड़ फ़ेसबुक पर टहलते रहते हैं। जब यह बताया गया ज्ञानजी को तो उन्होंने राजनीतिक पार्टी के प्रवक्ता की तरह उलट सवाल किया – वे ही लोग कौन तीर मार रहे हैं ब्लॉगिंग में?
अब यह चर्चा तो हुई नहीं थी वहां सो इस बात का क्या जबाब दिया जाये।
वैसे ज्ञानजी ने हमारे एक फ़ेसबुक स्टेटस पर यह उलाहना दिया था कि कभी हम सुबह-सुबह चिट्ठाचर्चा करते थे। (अब खाली स्टेटस ठेलते हैं)। अब उनकी इस बात का क्या जबाब दिया जाये बताइये भला।
नोट: ऊपर की पहली फोटो कलकत्ता एयरपोर्ट के बाहर की। दूसरी फोटो हमारे बगीचे की।
Posted in बस यूं ही | 18 Responses
“यह भी लगा कि अच्छी आदतें कभी न कभी सुकून देती ही हैं।” कविता न करना अच्छी आदत हैं- हैं. कवियों से भी निपटिए. हम खिसकते हैं. जब थोड़ा तमाशा हो जाएगा, तब आयेंगे
aradhana की हालिया प्रविष्टी..New Themes: Blocco, Crafty, and Hustle Express
कविगण क्या करेंगे? एक ठो कविता रच डालेंगे।
eswam की हालिया प्रविष्टी..कटी-छँटी सी लिखा-ई
Gyandutt Pandey की हालिया प्रविष्टी..बिसखोपड़ा
ब्लॉग जगत के बहाने गुब्बारे में सूई चुभा ही दी है आपने. हम भी अराधना की तरह आते हैं बाद में धमाका देखने हा हा हा .
प्रवीण पाण्डेय की हालिया प्रविष्टी..अनिश्चितता का सिद्धान्त
दयानिधि की हालिया प्रविष्टी..जूता चल गया
आगे सब खैरियत है
आलेख ग़ज़ब धार का लिक्खे हो मनीजर सा’ब
एक बात कहे चाहता हूं
मज़े तो सबके लेते हौ आप
गिरीश बिल्लोरे की हालिया प्रविष्टी..आतंकवाद क्या ब्लैकहोल है सरकार के लिये
.
.हम तो बहुत मजे में हैं, तब भी थे !
सतीश सक्सेना की हालिया प्रविष्टी..मैं अब खुश हूँ … – सतीश सक्सेना
संजय @ मो सम कौन की हालिया प्रविष्टी..धुंधली सी धुंध…..कहानी.(समापन)
Abhishek की हालिया प्रविष्टी..नए जमाने के विद्वान (पटना १६)
अंगरेजी में भाग्य आजमा सकते हैं!
सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की हालिया प्रविष्टी..फरवरी यूँ बीती…
वैसे जवाबी पोस्टें पढ़ने में मज़ा बड़ा आता है , मामला थोड़ा कम हो गया है | खिंचाई के लिए भी फेसबुक ज्यादा बढ़िया प्लेटफोर्म दिख रहा है , टैगिया दिए सबको, इन्टीमेशन पहुँच गया | लेओ जवाब दे दनादन |
देवांशु निगम की हालिया प्रविष्टी..वो दिन कैसा होगा !!!!