बैताल ने पहले तो भाइयों और बहनों से शुरु किया। लेकिन फ़ौरन ही उसे भान हो गया कि सामने विशाल जन समुदाय नहीं लेकिन विक्रम की पीठ है तो उसने अपनी टेलिविजन देखते रहने की आदत को कोसा और कहानी शुरु की।
बहुत प्राचीन समय में भारत नाम का एक देश था। जिसे और प्राचीन समय में लोग जम्बूद्वीप कहते थे। वहां के निवासी इतने विद्वान थे कि कुछ पूछो मती। दुनिया में जो भी नयी से नयी रिसर्च होती उसको वे देखते ही बता देते कि यह तो उनके पूर्वज हज्जारों साल पहले कर चुके हैं। कुछ नया किया हो तो बताओ। प्रमाण स्वरूप वे कोई श्लोक निकाल के पटक देते। सामने वाला भारत देश के मनीषियों की बुद्धि को दंडवत करते हुये चला जाता।
देश के लोग इतना सहिष्णु और उदार थे कि बाहर से जो आता उसको अपने यहां टिका लेते। उसको अपना लेते। वे किसी बाहरी आक्रमणकारी से मिलकर लड़ते नहीं थे। केवल आपस में ही लड़ते थे। उनको डर सताता था कि कहीं सब मिलकर लड़े तो बाहर वाला यहां बस नहीं पायेगा। उनका ’ वसुधैव कुटुम्बकम’ का उद्धेश्य अधूरा रह जायेगा। बाहर से आने वाला इतना अपनापा पाकर यहीं का हो जाता। देश के निवासियों में ऐसे घुलमिल जाता जैसे दूध में नल का पानी मिल जाता है।
होते करते एक बार अंग्रेज कौम आयी। वे तो लड़ने के लिये आये ही नहीं थे। तो देशवासियों को समझ में नहीं आया कि कैसे निपटें उससे। देश के राजा महाराजाओं में एका नहीं हो पाया इस मामले में। कोई बोलता भगा दो उनको। कोई कहता इन सालों से अपने ऊपर शासन करवाओ।
भारत की जनता इस मामले में एकदम शहंशाह टाइप है। वो राजकाज के चक्कर में नहीं पड़ती। किसी को भी पकड़कर थमा देती है शासन और कहती है- " आप ही चलायें हमारा शासन।"
कोई अगर किसी सरकार की बुराई करते हुये जनता की इस आदत की आलोचना करता है तो मानस मर्मज्ञ जनता एक ठो चौपाई पटक के सामने वाले वाला मुंह बंद कर देती है- "कोऊ नृप होय हमैं का हानि।"
बहरहाल फ़िर सर्वसम्मति टाइप से तय हुआ कि अंग्रेजों को अपने ऊपर शासन करने दिया जाये। उनसे जम के काम कराया जाये। उनके पढे-लिखे होने का फ़ायदा उठाया जाये।
फ़िर क्या करने लगे अंग्रेज शासन। दोनों को मजा आने लगा। सौ-सवा सौ साल चला मामला। बीच-बीच में कुछ लोग नाराज होते अंग्रेजों से तो उनसे लड़ने लगते। फ़िर जो लोग अंग्रेजों से खुश थे वे अंग्रेजों के समर्थन में लड़ते।
फ़िर एक बार एक वकील साहब गये थे कहीं नौकरी करने- दक्षिण अफ़्रीका। गांधी जी नाम था उनका। वहां एक अंग्रेज ने उनको डिब्बे से उतार दिया। जबकि उनका रिजर्वेशन कन्फ़र्म था। उतार क्या दिया -डिब्बे से बाहर फ़ेंक दिया। इसका वे बहुत बुरा मान गये। उन्होंने तय किया कि तुमने हमको डिब्बे से भगाया हम तुमको अपने देश से भगायेंगे।
फ़िर क्या था। बंदे ने पूरे देश में हल्ला-गुल्ला, हड़ताल-धरना करके अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया। वे राजकाल चला ही नहीं पा रहे थे। अब जिस काम के लिये रखा गया था वही नहीं कर पा रहे थे अंग्रेज तो क्या फ़ायदा ऐसे को रखने का। अंग्रेज भी बहुत कमा-धमा चुके थे। वे भी घर जाने को हुड़क रहे थे। वे एक दिन रात को चुपके से बिना बताये फ़ूट लिये। देश फ़िर से आजाद हुआ।
देश के लोगों ने गांधी जी की खूब तारीफ़ वगैरह की। उनके नाम से खूब किताबें लिखीं। उनको राष्ट्रपिता के नाम से नवाजा। उनके नाम से सड़क, योजनायें, परियोजनायें, स्कीम, फ़िस्कीम चलाईं। खूब घपले-घोटाले किये उनके नाम से।
अच्छा एक बात तो भूल ही गया मैं बताने को। गांधी जी सत्य और अहिंसा को बहुत मानते थे। उनका कहना था कि सत्य और अहिंसा मानव जाति के कल्याण के लिये मूल मंत्र है। साथ ही साथ वे और अच्छी बातों का प्रचार करते थे। अच्छी बातों के मामलों में तो समझो वे ’मॉल’ थे। ऐसी कौन सी अच्छी बात नहीं दुनिया की जो उनके पास मौजूद न हो।
सरकारें अपनी-अपनी सुविधा के हिसाब गांधी जी के नाम का उपयोग करती रहीं। दरिद्रनारायण की सेवा करने के नाम पर गांधी जी का नाम लेकर अपनी-अपनी दरिद्रता दूर करते रहे।
ऐसे ही एक सरकार ने गांधी जी के जन्मदिन के मौके पर ’स्वच्छता अभियान’ की घोषणा की। सारे देश में 2 अक्टूबर को सफ़ाई ऐसी हुई कि कूड़े की जान पर बन आयी। कूड़ा झाडू से ऐसे बचता बचता घूम रहा था जैसे दंगे में शरीफ़ आदमी दंगाई से बचता है। हाल यह था कि कूड़ा तक कूड़े को पहचान नहीं रहा था। कूड़े ने नदी, नाले, दीवार की आड़ , फ़टे तिरपाल के नीचे घुस कर अपनी जान बचाई। किसी-किसी ने कूड़े ने अपनी छाती पर नोटिस बोर्ड टांग लिया- "मैं कूड़ा नहीं हूं।ऐसे ही घूरे पर टहलने आया हूं। कोई मुझे कूड़ा साबित कर दे तो मैं खुद पेट्रोल से आग लगाकर जल मरूंगा।"
बहरहाल पूरे देश में कूड़ा साफ़ करने के अभियान चलते रहे। सब पार्टियों के नेताओं, अफ़सरों, लगुओं, भगुओं, ठगुओं ने यहां तक कि माफ़ियाओं तक ने अपने-अपने सफ़ाई करते हुये फ़ोटो सब जगह छपवाये। सोशल मीडिया में तो सिर्फ़ कूड़ा सफ़ाई करती फ़ोटुओं का ही कचरा छाया रहा।
विक्रम कहानी सुनते हुये ऊब चुका था। उसने बेताल से फ़ौरन सवाल पूछने के लिये कहा ताकि उसके दुखते कन्धे को कुछ आराम मिले।
बैताल ने अपनी जेब से पर्ची निकालते हुये प्रश्न उछाला:
"गांधी जी मूल मंत्र सत्य और अहिंसा थे। उनको छोड़कर सरकार ने उनके ’स्वच्छता अभियान’ वाले अभियान को क्यों चुना। इस प्रश्न का उत्तर अगर तुम जानते हुये भी नहीं दोगे तो तुम्हारा सर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा। दशहरे के समय कोई डाक्टर भी न मिलेगा।
विक्रम ने गला खंखारते हुये जबाब दिया। हे बैताल, कलयुग में किसी भी लोकतांत्रिक सरकार के चलने के लिये अच्छे काम करते हुये दिखाना बहुत अहम है।’ स्वच्छता अभियान’ में देश भर में जो कूड़ा साफ़ किया जायेगा उसको दिखाया जा सकता है। कुछ कमी होगी काम में तो कूड़ा कहीं डालकर फ़िर उसको साफ़ किया जा सकता है। लेकिन सत्य और अहिंसा का दिखावा नहीं किया जा सकता। वैसे भी लोकतंत्र में सरकार चलाने के लिये थोड़ा बहुत असत्य और हिंसा का सहारा लेना ही पड़ता है। बिना हिंसा और झूठ के कोई सरकार चलाना असंभव है। इसलिये सरकार ने गांधी जी का व्यवहारिक उपयोग किया। व्यापारिक बुद्धि भी यही कहती है।
बैताल विक्रम का जबाब सुनते ही पास के पेड़ पर जाकर उल्टा लटक गया। विक्रम ने भी कन्धे हल्के होते ही राहत की सांसें लीं और दशहरा मेला की तरफ़ चल पड़ा जहां उसकी सहेली उसका इंतजार कर रही थी।
क्या लल्लन टॉप लिखते हो आप ,,,,, वाकई .... तबियत झनझना जाती है !
ReplyDeleteक्या झन्नाट टिपियाये हैं प्रकाश गोविन्द जी। तबियत झक्क हो गयी।
Deleteगजब लिखे हैं सर!
ReplyDeleteलाजवाब व्यंगय !
सादर
धन्यवाद है! शुभकामनायें।
Deleteकल 05/अक्तूबर/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
ReplyDeleteधन्यवाद !
धन्यवाद! आभारी हैं।
Deleteबेताल ने अपनी जेब से पर्ची निकालते हुये प्रश्न उछाला:
ReplyDelete"गांधी जी मूल मंत्र सत्य और अहिंसा थे। उनको छोड़कर सरकार ने उनके ’स्वच्छता अभियान’ वाले अभियान को क्यों चुना। इस प्रश्न का उत्तर अगर तुम जानते हुये भी नहीं दोगे तो तुम्हारा सर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा। दशहरे के समय कोई डाक्टर भी न मिलेगा।
...वाह! बहुत सटीक चित्रण...
धन्यवाद कविता जी!
DeleteBhutay zabardast ....tabartod vyand ... Aabhaar!!
ReplyDeleteधन्यवाद लेखिका परी!
Deleteटिप्पणी पढकर तबियत हरी हो गयी! :)
वाह कूड़ा फैलाकर कूड़ा साफ करवाना ...। कितनी आम बात होगई है ।
ReplyDeleteहां सही में! परसाई जी ने एक लेख में लिखा है- वृक्षारोपण कार्यक्रम के लिये जंगल कटवाये गये। :)
Deleteराजू : -- मास्टर जी ! जब इलाहबाद में इत्ती बड़ी युनिभर्सिटी थी फिर ये उकील साहेब उकील बनने बिदेस काहे गए.....?
ReplyDelete" लो ! उस समय उनको थोड़े ही पता रहा होगा कि वो एक महान आत्मा हैं....."
सही है! वैसे भी महान तो चेले-चपाटे लोग बनाते हैं।
Deleteबहुत-बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया मज़ा आ गया।
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