साढ़े पांच बजे जगे आज। साइकिल सैर को निकले एक घण्टे बाद।इस बीच करवटे बदलते रहे। मेस के बाहर ही बुजुर्ग दम्पति टहलते हुए दिखे। हाथ भर की सुरक्षित दूरी बनाये हुए। यह हाथ भर की दूरी भारतीय समाज में दाम्पत्य के सुरक्षा कवच की तरह रखी जाती रही है।दूरी कम होने से दाम्पत्य की सुरक्षा को खतरा हो सकता है।
बच्चे पैदल,साइकिल , ऑटो,कार से स्कूल पहुंच रहे हैं।एक महिला अपनी बच्ची का हाथ थामे लिए चली आ रही है। कुछ सिखाती भी जा रही है। सड़क किनारे दो बुजुर्ग सीमेंट की बेंच पर बैठे हुए बतिया रहे हैं। अचानक किसी बात एक बुजुर्ग ठठाकर हंसने लगे। दूसरे भी संग लग लिए। आसपास के पेड़ पौधे भी खिलखिलाने लगे। हंसी का प्रभाव संक्रामक होता है। हंसी पर लिखी एक कविता में हमने लिखा था:
सड़क किनारे शाखा लग गयी है। आठ दस लोग विभिन्न उम्र के। बचपन से ही शाखाओं के माध्यम बच्चों को 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि' सिखाया जाता है। जबकि मरकस बाबा की कक्षाएं विश्वविद्यालयों से शुरू होती हैं। उसमें भी ज्यादातर कक्षाएं देर रात की होती हैं।मार्क्सवाद की पढ़ाई शुरू होने तक बच्चे शाखाओं की पढ़ाई पूरी करके जीवन संग्राम शुरू कर चुके होते हैं।दुनिया भर में मार्क्सवाद के पिछड़ते जाने का यह भी एक कारण है कि उनकी शाखाएं देर से शुरू होती हैं।
चाय की दुकान आज भी नहीं खुली हैं।इंदौर गए हैं किसी शादी में-बगल की दूकान वाला बताता है। सामने से एक आदमी मुंह में बीड़ी हेडलाइट की तरह ठूंसे तेजी से आता है। कई दिन के मैले कपड़े पहने आदमी को देखकर लगता है कि यह बिना कपड़े वाले आदमी से तो बेहतर है।
बेहतर की तुक मिलाते हुए मुक्तिबोध की कविता पंक्ति याद आती है:
गाना बज रहा है। दिल की बात करते हुए:
अगला गाना बज रहा है:
जब यह गाना बज रहा है तब अनगिनत लोग अपने अपने घरों से दूर निकल चुके होंगे काम पर। पैदल,साइकिल, रिक्शा,कार,बस,ट्राम या फिर मेट्रो में। गाना अभी भी लागू हो रहा होगा। बस प्रेमी/प्रेमिका की जगह जिंदगी/नौकरी ने ले ली होगी।
लौटते हुए बस स्टैंड पर बैठे लोग दीखते हैं। बुजुर्ग,बच्चे और युवा भी। सब मर्द हैं। उनको सामने से साईकिल पर प्लास्टिक के डिब्बे लादे बच्चियां दिखती हैं। ये पानी भरने जा रही हैं। पानी भरने का काम बच्चियों को ही सौंपा जाता है। बच्चियां भी इसी बहाने घर से निकलने का मौका पाती हैं।
पानी की बात से याद आया एक दिन भजन मण्डली के बाबा जी भगवान की मित्र विव्हलता की बात बताते हुए भजन सूना रहे थे:
भगवान ने परात का पानी छुआ तक नहीं।अपनी आँखों के पानी से ही पाँव धोये। मैं सोचता हूँ शायद द्वापर में भी पानी की इतनी कमी होती होगी कि बहुत महंगा होता होगा। पानी की कम्पनियों ने सारे पानी पर कब्जा कर लिया होगा। पानी इतना मंहगा हो गया होगा कि भगवान तक सोचने लगे होंगे कि मित्र के पाँव धोने के लिए परात भर पानी बर्बाद हो जाएगा। भगवान को अपनी विवशता पर रोना आ गया होगा कि भगवान होने के बावजूद वे पानी कम्पनियों की मनमानी पर काबू नहीं कर पा रहे हैं। कम्पनियों ने ही उनको भगवान बनाया है। अगर वे उन पर लगाम लगाने का प्रयास करेंगे तो कम्पनियां भगवान को बदल देंगी। यह सोचकर भगवान को इतना रोना आया होगा कि उन आंसुओं का उपयोग करके ही उन्होंने मित्र के पाँव पंखारे। भगवान के आंसू मित्र प्रेम के नहीं विवशता के आंसू थे। नरोत्तम दास चूँकि भगवान के लगाये हुए कवि थे इसलिए उन्होंने इसको उनके मित्र प्रेम के रूप में चित्रित किया।उनकी विवशता को उनकी महानता बताया।
तो मित्रों हम भले ही कलयुग में जी रहे हैं लेकिन शीघ्र ही हम द्वापर जैसी स्थितियों में पहुंच जाएंगे जब पानी इतना मंहगा हो जायेगा जब हम पानी की जगह नयन जलपान करेंगे।
ओह कहाँ से कहाँ पहुंच गए। चलें नहा लें। अभी द्वापर आने में देर है। नल में पानी आ रहा है। तब तक आप मजे से रहें। हंस लें। मुस्करा लें। हँसना मुस्कराना अभी टैक्स फ्री है।
बच्चे पैदल,साइकिल , ऑटो,कार से स्कूल पहुंच रहे हैं।एक महिला अपनी बच्ची का हाथ थामे लिए चली आ रही है। कुछ सिखाती भी जा रही है। सड़क किनारे दो बुजुर्ग सीमेंट की बेंच पर बैठे हुए बतिया रहे हैं। अचानक किसी बात एक बुजुर्ग ठठाकर हंसने लगे। दूसरे भी संग लग लिए। आसपास के पेड़ पौधे भी खिलखिलाने लगे। हंसी का प्रभाव संक्रामक होता है। हंसी पर लिखी एक कविता में हमने लिखा था:
हंसी तो भयंकर छूत की बीमारी है
एक से सौ तक फैलती इसकी क्यारी है।
सड़क किनारे शाखा लग गयी है। आठ दस लोग विभिन्न उम्र के। बचपन से ही शाखाओं के माध्यम बच्चों को 'नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमि' सिखाया जाता है। जबकि मरकस बाबा की कक्षाएं विश्वविद्यालयों से शुरू होती हैं। उसमें भी ज्यादातर कक्षाएं देर रात की होती हैं।मार्क्सवाद की पढ़ाई शुरू होने तक बच्चे शाखाओं की पढ़ाई पूरी करके जीवन संग्राम शुरू कर चुके होते हैं।दुनिया भर में मार्क्सवाद के पिछड़ते जाने का यह भी एक कारण है कि उनकी शाखाएं देर से शुरू होती हैं।
चाय की दुकान आज भी नहीं खुली हैं।इंदौर गए हैं किसी शादी में-बगल की दूकान वाला बताता है। सामने से एक आदमी मुंह में बीड़ी हेडलाइट की तरह ठूंसे तेजी से आता है। कई दिन के मैले कपड़े पहने आदमी को देखकर लगता है कि यह बिना कपड़े वाले आदमी से तो बेहतर है।
बेहतर की तुक मिलाते हुए मुक्तिबोध की कविता पंक्ति याद आती है:
"जैसी दुनिया है उससे बेहतर चाहिए
दुनिया साफ़ करने को मेहतर चाहिए।"
गाना बज रहा है। दिल की बात करते हुए:
"कभी छोड़ दिया कभी कैच किया रे
साड़ी के फॉल सा भी मैच किया रे।"
अगला गाना बज रहा है:
"तेरा मेरा रिश्ता है कैसा
एक पल दूर गवारा नहीं।"
जब यह गाना बज रहा है तब अनगिनत लोग अपने अपने घरों से दूर निकल चुके होंगे काम पर। पैदल,साइकिल, रिक्शा,कार,बस,ट्राम या फिर मेट्रो में। गाना अभी भी लागू हो रहा होगा। बस प्रेमी/प्रेमिका की जगह जिंदगी/नौकरी ने ले ली होगी।
लौटते हुए बस स्टैंड पर बैठे लोग दीखते हैं। बुजुर्ग,बच्चे और युवा भी। सब मर्द हैं। उनको सामने से साईकिल पर प्लास्टिक के डिब्बे लादे बच्चियां दिखती हैं। ये पानी भरने जा रही हैं। पानी भरने का काम बच्चियों को ही सौंपा जाता है। बच्चियां भी इसी बहाने घर से निकलने का मौका पाती हैं।
पानी की बात से याद आया एक दिन भजन मण्डली के बाबा जी भगवान की मित्र विव्हलता की बात बताते हुए भजन सूना रहे थे:
"पानी परात को हाथ छुओ नहिं
नैनन के जल सों पग धोये।"
भगवान ने परात का पानी छुआ तक नहीं।अपनी आँखों के पानी से ही पाँव धोये। मैं सोचता हूँ शायद द्वापर में भी पानी की इतनी कमी होती होगी कि बहुत महंगा होता होगा। पानी की कम्पनियों ने सारे पानी पर कब्जा कर लिया होगा। पानी इतना मंहगा हो गया होगा कि भगवान तक सोचने लगे होंगे कि मित्र के पाँव धोने के लिए परात भर पानी बर्बाद हो जाएगा। भगवान को अपनी विवशता पर रोना आ गया होगा कि भगवान होने के बावजूद वे पानी कम्पनियों की मनमानी पर काबू नहीं कर पा रहे हैं। कम्पनियों ने ही उनको भगवान बनाया है। अगर वे उन पर लगाम लगाने का प्रयास करेंगे तो कम्पनियां भगवान को बदल देंगी। यह सोचकर भगवान को इतना रोना आया होगा कि उन आंसुओं का उपयोग करके ही उन्होंने मित्र के पाँव पंखारे। भगवान के आंसू मित्र प्रेम के नहीं विवशता के आंसू थे। नरोत्तम दास चूँकि भगवान के लगाये हुए कवि थे इसलिए उन्होंने इसको उनके मित्र प्रेम के रूप में चित्रित किया।उनकी विवशता को उनकी महानता बताया।
तो मित्रों हम भले ही कलयुग में जी रहे हैं लेकिन शीघ्र ही हम द्वापर जैसी स्थितियों में पहुंच जाएंगे जब पानी इतना मंहगा हो जायेगा जब हम पानी की जगह नयन जलपान करेंगे।
ओह कहाँ से कहाँ पहुंच गए। चलें नहा लें। अभी द्वापर आने में देर है। नल में पानी आ रहा है। तब तक आप मजे से रहें। हंस लें। मुस्करा लें। हँसना मुस्कराना अभी टैक्स फ्री है।
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