आज उठ तो गए जल्दी ही लेकिन टहलने नहीं गए। आज हमारे साढ़ू भाईसाहब Ashok Kumar Avasthi और दीदी Nirupma Ashok
जबलपुर प्रवास पर आ रहे हैं। उनको लेने जाना है स्टेशन।ट्रेन लेट है।अभी
जाएंगे लेने उनको। अभी चाय मंगायी है। जब तक चाय आये तब तक जुगुलजोड़ी से
परिचय करा दें।
अशोक भाई साहब के पिताजी स्व.अवधेश अवस्थी सीतापुर के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। 97 साल जिए। आखिरी दिनों तक लेंस से अखबार और पत्रिकाएं पढ़ते रहे। जो भी पढ़ते उसके बारे में नोट्स बनाते।परम्परा और आधुनिकता का अद्भुत संगम थे पापा जी।आखिरी दिनों तक अपनी कर्मभूमि सीतापुर से जुड़े रहे। सीतापुर से निकलने वाले साप्ताहिक जनयुग अख़बार के सम्पादक रहे।अनगिनत किस्से हैं उनके।
अशोक भाई साहब पढ़ने में ऐसे थे कि हाईस्कूल सेकेण्ड डिवीजन पास हुए।लेकिन इसके बाद जो गियर बदला तो कानून की पढ़ाई में टॉपर बने और यह सिलसिला जारी रहा रिटायर होने तक। एल एल एम में टॉप करने के बाद अमेरिका गए। आखिर में लखनऊ विश्वविद्यालय से एल एल डी की। वहीं से प्रोफ़ेसर पद से रिटायर हुए।
चाय के शौक़ीन ऐसे हैं कि चाय की पत्ती और चीनी फाँकने के किस्से भी जुड़े हैं भाई साहब के नाम।पिता से खद्दर के कपड़े पहनने और खर्च का हिसाब लिखने की आदत विरासत में मिली है। 5/10 का हिसाब भी भाईसाहब की डायरी में मिल जाएगा।
दीदी अपने घर में सबसे बड़ी थीं। पिता की असामयिक मौत के बाद अचानक और बढ़ी हो गयीं। घर की सब जिम्मेदारी और निर्णय में निर्णायक भूमिका।तरुणाई से ही अपनी मम्मी और खुद को मिलाकर कुल चार बहनों और दो भाइयों की गार्जियन। यह संरक्षक वाली भावना अभी भी बनी हुई है। इसी के चलते जहां वे परिवार की धुरी बनी हुई हैं वहीँ कभी कभी यही उनके दुःख का कारण भी बनती हैं जब दूरियां और बदली परिस्थितियां उनको सम्बंधों में अलग एहसास कराती हैं।
शादी तय हुई दोनों की। इस बीच एक सड़क दुर्घटना में गहरी चोटें आईं भाई साहब को। लोगों ने दीदी से शादी के निर्णय पर पुनर्विचार करने का सुझाव दिया। दीदी ने कहा-'यह दुर्घटना शादी के बाद होती तो क्या करते? हमने शादी इनके व्यक्तित्व और प्रतिभा के कारण तय की है।हम शादी इनसे ही करेंगे।' समगोत्रीय होने की बात को पापा जी पहले ही स्वीकार चुके थे। सो शादी हुई। लखीमपुर के सब दामादों में भाईसाहब का जलवा सबसे अलग और धाँसू है।
शादी के बाद दीदी लखीमपुर और भाईसाहब लखनऊ रहे। दीदी आर्यकन्या डिग्री कालेज में पहले प्रवक्ता और अब प्रिंसिपल हैं। भाईसाहब लखनऊ विश्वविद्यालय से प्रोफ़ेसर पद से रिटायर हुए। इस दौरान बड़ी नफासत से रहने वाले भाईसाहब ने दोनों बच्चों को माँ-पिता के संयुक्त दायित्व से पाला पोसा। बच्चों के खाना कपड़े नहलाने धुलाने की जिम्मेदारी निभाते रहे। दीदी अपने साप्ताहिक दौरे में फेमिली ऑडिट कर जातीं। कमियां निकाली जातीं तो सुन लेते। पारिवारिक मिलन के मौके पर मेज पर बैठे हुए पैर हिलाते हुए मुस्कराते रहते हैं।कोई ख़ुशी की बात होती है ठठाकर हंसते हैं। वरिष्ठ नागरिक होने के बावजूद ऐसी निर्मल हंसी बनाये रखना उनके निर्मल व्यक्तित्व का परिचायक है।
दीदी का प्रभामण्डल गजब का है।लखीमपुर में अपने कालेज और अन्यत्र कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति अपने आप में अनूठी। कोई भी कार्यक्रम हो वो होना शानदार चाहिए। भाईसाहब हमेशा उनकी हर सफ़लता में पीछे सहयोगी की भूमिका में रहे। दीदी को उपलब्धियों के अनन्त आकाश में उड़ने का हौसला भाइसाहब से मिलता रहा।
पढ़ने के दोनों शौक़ीन हैं। हमारी शादी में दीदी ने मुझे दो किताबें दीं थीं-ययाति और चित्रप्रिया। बाद में तो अनगिनत किताबें मिलीं।
भाईसाहब हमारा लिखना हमेशा पढ़ते रहते हैं।खुद बेहतरीन लेखक हैं। भारतीय संविधान पर लिखने में उनकी खास रूचि है।विधिचर्चा ब्लॉग शुरू किया था। इधर उनका लिखना स्थगित है। फिर शुरू होगा शायद जल्द ही।
दीदी और भाईसाहब हमारे परिवार के हर सुख दुःख में शरीक रहते हैं। हमारी परिवार की सुप्रीम कोर्ट है यह जुगल जोड़ी। अब यह अलग बात है कि सुप्रीमकोर्ट को भी गाहे बगाहे निचली अदालतों से सहमत होना पड़ता है।
'हाँ हम बोल रहे हैं -दीदी।' से दीदी का फोन शुरू होता है और अक्सर बात करके कट। पहाड़ी नदी सा जो उमगती हुई प्रकट हुई और किसी मोड़ पर अचानक गुम। दुःख और सुख चेहरे और आवाज में चस्पा रहता है। कोई समस्या सुनी -फौरन हाजिर। किसी दूसरे की तो -'सुमन,अनूप पहुँचो।' सुख का कोई मौका बिना इनकी उपस्थिति के बेईमानी है।
'मैं अशोक अवस्थी बोल रहा हूँ' से बात शुरू करने वाले भाईसाहब सुख दुःख को समान भाव से ग्रहण करने वाले घराने के हैं। इनकी सिधाई का नाजायज फायदा उठाते हुए किसी भी काम में हुई गड़बड़ का ठीकरा दीदी भाईसाहब के ऊपर फोड़तीं रहीं। सर में सरसों के तेल की नियमित मालिश करते रहते हैं भाईसाहब ताकि इन सबके लिए सर मजबूत रहे।
एक समय बाद रिश्तों की सीमायें सेवई की तरह गड्ड मड्ड हो जाती हैं। दीदी हमारे लिए दीदी और सास हैं जो हमेशा उपदेश और सलाह के लिए मौजूद रहती हैं। वहीं ऐसे भी मौके आते हैं जब बच्चों की तरह उनकी क्लास भी ली जाती है। समझाइस दी जाती है। मजे की बात कि वे अच्छी बच्ची की तरह मान भी जाती हैं।
भाईसाहब भी ऐसे तो समन्दर की तरह धीर गम्भीर हैं। लेकिन कभी कभी उसकी हलचल भी महसूस होती है। लेकिन सुख दुःख को समान भाव से ग्रहण करने वाला भाव हलचल को नेपथ्य में कर देता है।
दीदी बहुत प्रभावशाली वक्ता हैं। कहानियाँ भी लिखती थीं खूब। कविताएँ भी। लेकिन जिंदगी का उपन्यास जीते हुये सब स्थगित सा हो गया।लेकिन मौका मिलते ही उसी मूड में आ जाती हैं। हमारी शादी की 25 वीं सालगिरह के मौके पर जो रची कविता मढ़वाकर जो पढ़ी थी घर के लॉन में उसकी याद इंद्रधनुष सी हमेशा चमकती रहती है।
भाईसाहब का लेखन उनके व्यक्तित्व की तरह सहज सरल है। उनको इस जबलपुर प्रवास के दौरान नेट और स्मार्टफोन का लिखने में उपयोग के बारे में सिखाना है। दीदी हमारे लिये किताबें भी ला रहीं हैं।
बातें तो अन्तहीन हैं लेकिन गाडी आने वाली है सो इसे पोस्ट करते हैं। बाकी किस्से फिर कभी।
जबलपुर रेलवे प्लेटफार्म नम्बर 5 की सीढ़ियों पर दीदी और भाईसाहब मतलब अपने परिवार की सब्से प्यारी जुगुल जोड़ी के इन्तजार में अपने स्मार्टफोन के साथ मैं अनूप शुक्ल.
अशोक भाई साहब के पिताजी स्व.अवधेश अवस्थी सीतापुर के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। 97 साल जिए। आखिरी दिनों तक लेंस से अखबार और पत्रिकाएं पढ़ते रहे। जो भी पढ़ते उसके बारे में नोट्स बनाते।परम्परा और आधुनिकता का अद्भुत संगम थे पापा जी।आखिरी दिनों तक अपनी कर्मभूमि सीतापुर से जुड़े रहे। सीतापुर से निकलने वाले साप्ताहिक जनयुग अख़बार के सम्पादक रहे।अनगिनत किस्से हैं उनके।
अशोक भाई साहब पढ़ने में ऐसे थे कि हाईस्कूल सेकेण्ड डिवीजन पास हुए।लेकिन इसके बाद जो गियर बदला तो कानून की पढ़ाई में टॉपर बने और यह सिलसिला जारी रहा रिटायर होने तक। एल एल एम में टॉप करने के बाद अमेरिका गए। आखिर में लखनऊ विश्वविद्यालय से एल एल डी की। वहीं से प्रोफ़ेसर पद से रिटायर हुए।
चाय के शौक़ीन ऐसे हैं कि चाय की पत्ती और चीनी फाँकने के किस्से भी जुड़े हैं भाई साहब के नाम।पिता से खद्दर के कपड़े पहनने और खर्च का हिसाब लिखने की आदत विरासत में मिली है। 5/10 का हिसाब भी भाईसाहब की डायरी में मिल जाएगा।
दीदी अपने घर में सबसे बड़ी थीं। पिता की असामयिक मौत के बाद अचानक और बढ़ी हो गयीं। घर की सब जिम्मेदारी और निर्णय में निर्णायक भूमिका।तरुणाई से ही अपनी मम्मी और खुद को मिलाकर कुल चार बहनों और दो भाइयों की गार्जियन। यह संरक्षक वाली भावना अभी भी बनी हुई है। इसी के चलते जहां वे परिवार की धुरी बनी हुई हैं वहीँ कभी कभी यही उनके दुःख का कारण भी बनती हैं जब दूरियां और बदली परिस्थितियां उनको सम्बंधों में अलग एहसास कराती हैं।
शादी तय हुई दोनों की। इस बीच एक सड़क दुर्घटना में गहरी चोटें आईं भाई साहब को। लोगों ने दीदी से शादी के निर्णय पर पुनर्विचार करने का सुझाव दिया। दीदी ने कहा-'यह दुर्घटना शादी के बाद होती तो क्या करते? हमने शादी इनके व्यक्तित्व और प्रतिभा के कारण तय की है।हम शादी इनसे ही करेंगे।' समगोत्रीय होने की बात को पापा जी पहले ही स्वीकार चुके थे। सो शादी हुई। लखीमपुर के सब दामादों में भाईसाहब का जलवा सबसे अलग और धाँसू है।
शादी के बाद दीदी लखीमपुर और भाईसाहब लखनऊ रहे। दीदी आर्यकन्या डिग्री कालेज में पहले प्रवक्ता और अब प्रिंसिपल हैं। भाईसाहब लखनऊ विश्वविद्यालय से प्रोफ़ेसर पद से रिटायर हुए। इस दौरान बड़ी नफासत से रहने वाले भाईसाहब ने दोनों बच्चों को माँ-पिता के संयुक्त दायित्व से पाला पोसा। बच्चों के खाना कपड़े नहलाने धुलाने की जिम्मेदारी निभाते रहे। दीदी अपने साप्ताहिक दौरे में फेमिली ऑडिट कर जातीं। कमियां निकाली जातीं तो सुन लेते। पारिवारिक मिलन के मौके पर मेज पर बैठे हुए पैर हिलाते हुए मुस्कराते रहते हैं।कोई ख़ुशी की बात होती है ठठाकर हंसते हैं। वरिष्ठ नागरिक होने के बावजूद ऐसी निर्मल हंसी बनाये रखना उनके निर्मल व्यक्तित्व का परिचायक है।
दीदी का प्रभामण्डल गजब का है।लखीमपुर में अपने कालेज और अन्यत्र कार्यक्रमों में उनकी उपस्थिति अपने आप में अनूठी। कोई भी कार्यक्रम हो वो होना शानदार चाहिए। भाईसाहब हमेशा उनकी हर सफ़लता में पीछे सहयोगी की भूमिका में रहे। दीदी को उपलब्धियों के अनन्त आकाश में उड़ने का हौसला भाइसाहब से मिलता रहा।
पढ़ने के दोनों शौक़ीन हैं। हमारी शादी में दीदी ने मुझे दो किताबें दीं थीं-ययाति और चित्रप्रिया। बाद में तो अनगिनत किताबें मिलीं।
भाईसाहब हमारा लिखना हमेशा पढ़ते रहते हैं।खुद बेहतरीन लेखक हैं। भारतीय संविधान पर लिखने में उनकी खास रूचि है।विधिचर्चा ब्लॉग शुरू किया था। इधर उनका लिखना स्थगित है। फिर शुरू होगा शायद जल्द ही।
दीदी और भाईसाहब हमारे परिवार के हर सुख दुःख में शरीक रहते हैं। हमारी परिवार की सुप्रीम कोर्ट है यह जुगल जोड़ी। अब यह अलग बात है कि सुप्रीमकोर्ट को भी गाहे बगाहे निचली अदालतों से सहमत होना पड़ता है।
'हाँ हम बोल रहे हैं -दीदी।' से दीदी का फोन शुरू होता है और अक्सर बात करके कट। पहाड़ी नदी सा जो उमगती हुई प्रकट हुई और किसी मोड़ पर अचानक गुम। दुःख और सुख चेहरे और आवाज में चस्पा रहता है। कोई समस्या सुनी -फौरन हाजिर। किसी दूसरे की तो -'सुमन,अनूप पहुँचो।' सुख का कोई मौका बिना इनकी उपस्थिति के बेईमानी है।
'मैं अशोक अवस्थी बोल रहा हूँ' से बात शुरू करने वाले भाईसाहब सुख दुःख को समान भाव से ग्रहण करने वाले घराने के हैं। इनकी सिधाई का नाजायज फायदा उठाते हुए किसी भी काम में हुई गड़बड़ का ठीकरा दीदी भाईसाहब के ऊपर फोड़तीं रहीं। सर में सरसों के तेल की नियमित मालिश करते रहते हैं भाईसाहब ताकि इन सबके लिए सर मजबूत रहे।
एक समय बाद रिश्तों की सीमायें सेवई की तरह गड्ड मड्ड हो जाती हैं। दीदी हमारे लिए दीदी और सास हैं जो हमेशा उपदेश और सलाह के लिए मौजूद रहती हैं। वहीं ऐसे भी मौके आते हैं जब बच्चों की तरह उनकी क्लास भी ली जाती है। समझाइस दी जाती है। मजे की बात कि वे अच्छी बच्ची की तरह मान भी जाती हैं।
भाईसाहब भी ऐसे तो समन्दर की तरह धीर गम्भीर हैं। लेकिन कभी कभी उसकी हलचल भी महसूस होती है। लेकिन सुख दुःख को समान भाव से ग्रहण करने वाला भाव हलचल को नेपथ्य में कर देता है।
दीदी बहुत प्रभावशाली वक्ता हैं। कहानियाँ भी लिखती थीं खूब। कविताएँ भी। लेकिन जिंदगी का उपन्यास जीते हुये सब स्थगित सा हो गया।लेकिन मौका मिलते ही उसी मूड में आ जाती हैं। हमारी शादी की 25 वीं सालगिरह के मौके पर जो रची कविता मढ़वाकर जो पढ़ी थी घर के लॉन में उसकी याद इंद्रधनुष सी हमेशा चमकती रहती है।
भाईसाहब का लेखन उनके व्यक्तित्व की तरह सहज सरल है। उनको इस जबलपुर प्रवास के दौरान नेट और स्मार्टफोन का लिखने में उपयोग के बारे में सिखाना है। दीदी हमारे लिये किताबें भी ला रहीं हैं।
बातें तो अन्तहीन हैं लेकिन गाडी आने वाली है सो इसे पोस्ट करते हैं। बाकी किस्से फिर कभी।
जबलपुर रेलवे प्लेटफार्म नम्बर 5 की सीढ़ियों पर दीदी और भाईसाहब मतलब अपने परिवार की सब्से प्यारी जुगुल जोड़ी के इन्तजार में अपने स्मार्टफोन के साथ मैं अनूप शुक्ल.
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