Saturday, May 23, 2015

देश की धक्काड़े से उन्नति हो रही है

शहर के छोर का आखिरी किनारा जिसे पार करते ही भारतीय देहात का महासागर शुरू हो जाता है। कुछ इसी अंदाज में वीएफजे और जीआईएफ फैक्ट्री की सीमा फलांगते हुए मढ़ई पहुंचे। सामने से मोटर साइकिलों में दूध के कनस्तर लादे लोग आते दिखे। ये लोग महाराजपुर के पास की दूध डेरियों से दूध लाते है।शहर में बेंचते हैं।

मढ़ई में कई घर कुम्हारों के हैं। लोग घरों के बाहर सांचे से ईंट बनाते दिखे। भट्टे भी लगे थे। एक आदमी हाथगाड़ी पर घर के अहाते में बने भट्टे से पकी ईंटें बाहर लाता हुआ दिखा। बच्चियां मुंह में कपड़ा बांधे हुए हथगाड़ी से ईंटे उठाकर चट्टे लगा रहीं थीं। कुछ खुद भी एक-एक करके ईंट लाकर चट्टे पर सजा रहीं थीं। फोटो खींचा तो बच्चियां अपनी दादी को बुला लाईं और बोलीं-'इन्हउन की खींच देव।' खींच दी तो दादी प्रफुल्लित हो गयीं। उस समय सोचा कि इनकी फ़ोटो बनवाकर इनको दे देंगे। देखते हैं कि कितना अमल कर पाते हैं सोच पर।

रेलवे ट्रैक पारकर सड़क के दोनों तरफ खेत दिखे। एक गुलमोहर का पेड़ झुककर हमको ऐसे देख रहा था मानों झुककर फरसी सलाम मार रहा हो। दो महिलाएं सड़क की तरफ पीठ किये पुलिया पर बैठीं थीं। गोया वो शहर का बहिष्कार कर रहीं हों।



व्हीकल मोड़ पर पहुंचकर कटनी राजमार्ग शुरू हो गया। सड़क पर ट्रक,कार,मोटरसाईकल और साइकल आती-
जातीं मिलीं। दोनों तरफ चाय-नास्ते की दुकानें चहकती हुईं गुलजार हो रहीं थीं। लोग वहां चाय-नास्ता कर रहे थे।

करौंदा नाले के पास एक महिला गोबर के कण्डे पाथ रही थी। बगल की पक्की बिल्डिंग में तमाम भैंसे पूँछ फटकारते हुए आपस में एक दुसरे को शुभ प्रभात कर रहीं थीं। कोई कोई तो डकारते हुए गुडमॉर्निंग करती दिखी।

पास ही एक बुजुर्ग दिखे। पास के इमलिया गाँव के रहने वाले हैं। विष्णु नाम है। घर से टहलने निकले थे। बता रहे थे कि इटारसी के रहने वाले थे। 30 साल पहले इमलिया आ गए। यहीं ग्राम समाज की जमीन मिल गयी तो मकान बना लिया बस गए।

डेरी में दूध दूहने का काम करते थे विष्णु जी। 11 से 15 भैंसे रोज दुहते थे। 6000 रूपये मिलते थे। अब उम्र हो गयी । 70 के हैं। काम छोड़ दिया। डेयरी में 50 भैंसे थीं। अब 70 हो गयीं हैं।


अपनी कहानी आगे सुनाई विष्णु ने- 'दो बेटियों की शादी कर दी।लड़के को पढ़ाया लिखाया लेकिन साला हरामी निकला। मन नहीं लगा पढ़ने में। अब वहीं डेरी में कच्ची नौकरी कर रहा है।गए साल बीमार हो गए। मलेरिया पकड़ लिया। कमजोरी है। ईसई लाने टहलने निकलते हैं।'

आगे परियट नदी मिली। सूखकर काँटा हो गयी हो जैसे। अगल-बगल की डेरियों से आती गन्दगी से नदी बीमार होकर आई सी यू में भर्ती हो गयी हो जैसे। किसी तरह काँखती हुई सी बह रही थी बस।


लौटते में एक जगह कण्डे माँ-बेटे कण्डे पाथते मिले। ठेलिया में डेरी से गोबर लाती हैं। 20 रूपये प्रति भैंस प्रति महीना गोबर खरीदती हैं। कण्डे 50 रूपये के 100 के हिसाब से बेंचती हैं। बस मजूरी निकल आती है। बरसात में काम बन्द कर देती हैं। जाड़े में मुश्किल होती है लेकिन करना पड़ता है।

 बच्चा 9 वीं में पढ़ता है। स्कूल बन्द हो गए हैं तो माँ का सहयोग कर रहा है। मोबाईल में गाना सुनते हुए बच्चा कण्डे पाथ रहा है। माँ जमीन से ही धूल उठाकर कण्डे पाथने के पहले फैलाती जा रही है। जैसे रोटी बेलते समय चोकर वाले आटे का परथन लगाने से रोटी चिपकती नहीं कुछ उसी तरह कण्डे के लिए धूल का परथन लगाती जा रही है जमीन पर।

'मोबाइल पर गाना सुनते हुए मन लगता है बच्चे का पाथने में' -माँ मुस्कराते हुए बतातीं हैं।


जमीन का कोई किराया नहीं पड़ता। सरकार की है जमीन। बड़ी बात नहीं कल को सरकार अपनी जमीन के अस्थायी उपयोग के लिए भी कोई कर लगा दे। रोज कोई दरोगा परची काटने आ जाये। बिना पर्ची कण्डे पाथने पर जुर्माना ठोंक दे या फिर दया करके छोड़ दे-100/200 कण्डे का नजराना लेकर।

जवाहर लाल कृषि विश्वविद्यालय के पास की पुलिया पर लोग बैठे हुए थे। महिलाएं मड़ई से घड़े लेकर महाराजपुर बेंचने जा रहीं थीं। एक जनी शादी के बरतन ले जा रहीं थीं। एक बच्ची भी थी साथ में। वह दो छोटे-छोटे घड़े एक दूसरे से बांधकर ले जा रही थी। सुस्ताने के लिए रुकी थीं सब वहां। अंदर विश्वविद्यालय के लड़के इधर-उधर टहलते दिखे।

एक पेड़ के नीचे एक भाईजी अखबार पढ़ते दिखे। पेड़ के तने का तकिया बनाये हुए। गाय चराने निकले थे। यह सीन देख सवा सदी पहले (1884 में) बलिया जिले के ददरी मेले में भारतेंदु हरिश्चंद्र का दिया व्याख्यान याद आ गया जिसे हमने इंटरमीडियट में 'भारतवर्षोंन्ति कैसे हो सकती है' निबन्ध के बहाने पढ़ा था। उसमें भारतेंदु जी लिखते हैं-' विलायत में गाड़ी के कोचवान भी अखबार पढते हैं। जब मालिक उतरकर किसी दोस्त के यहां गया उसी समय कोचवान ने गद्दी के नीचे से अखबार निकाला। यहां उतनी देर में कोचवान हुक्का पियेगा व गप्प करेगा। सो गप्प भी निकम्मी "वहां के लोग गप्प ही में देश का प्रबन्ध छांटते हैं" सिद्दांत यह कि वहां के लोगों का यह सिद्धांत है कि एक भी छिन व्यर्थ न जाये।" (पूरा भाषण यहां देखिये- http://www.debateonline.in/090912/)

इस लिहाज से देखा जाए तो एक सदी में भारत में बहुत उन्नति हो गयी। कोचवान तो छोड़िये अब चरवाहे तक अखबार बांचने लगे हैं। अब यह अलग बात है कि वहां कोचवान अब टैक्सी ड्राइवर में बदल गए हैं और वे अखबार अब गद्दी के नीचे से निकालकर नहीं बल्कि मोबाइल टेबलेट जेब से निकाल कर उस पर खबरें बांचते हैं।
लेकिन यह बात बताने के लिए अब भारतेंदु जैसे लोग भी नहीं रहे।

 रहे तो खैर ददरी के मेले भी नहीं। बस मॉल बचे हैं। वैसे मेले की जरूरत भी कहां रही अब। पूरा देश एक बाजार में बदल गया है। मेलों में आसपास के लोग ही आते थे। यहां तो पूरी दुनिया से लोग बेचने खरीदने के लिए आते रहते हैं। अपना माल बेंचते हैं बदले में थोडा सा हमारा देश खरीदकर वापस चले जाते हैं। इसी तरह भारतवर्ष की धक्काड़े से उन्नति हो रही। धकापेल विकास हो रहा है।

मुस्कराइए कि आप भारत देश के नागरिक हैं।

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