हमारी नियमित साइकिलिंग के किस्से तो आप रोज बांचते हैं। आज बांचिये एक 32 साल पुराना एक किस्सा जो मुझे अक्सर याद आता है जैसे कल की बात हो।
बहुत दिनों से हमारी साइकिल यात्रा के किस्से अटके हुये हैं। सिलसिलेवार लिखने के चक्कर में सब सिलसिला टूट जाता है। बहरहाल जबतक वह सिलसिला शुरु हो तब तक एक मुख्तसर सा किस्सा। इससे हमारी पोस्ट की लम्बाई से आक्रांत लोग भी चैन की सांस लेंगे और कहेंगे शार्ट एंड स्वीट।
हम अपने जिज्ञासु यायावरी की मंजिल हासिल करके घर वापस लौट रहे थे। हमारा लक्ष्य था कि हम 15 अगस्त की सुबह कन्याकुमारी पर झंडा फहराता हुआ देखें।
हम तमाम बाधाओं को धता बताते हुये 14 अगस्त को ही कन्याकुमारी की चाय पीते हुये विवेकानंद स्मारक को अपनी आंखों से देख रहे थे।
लौटते में हम केरल होते हुये आये। उस समय शायद संपूर्ण साक्षर न हुआ हो लेकिन बच्चों की भीड़ की भीड़ स्कूल जाती दिखती। घर साफ़ सुथरे। एक दूसरे से सटे सड़क के किनारे के गांव।
घर से इतनी दूर आने के बावजूद, भाषा की स्वाभाविक छोटी-मोटी समस्या के बावजूद हमें कहीं से यह नहीं लग रहा था कि हम कहीं पराये देश में हैं।
उस दिन ऒणम का त्योहार था। हर घर के सामने अल्पना सजी हुयी थी। साफ़ घर। खुशियों का त्योहार अपनी पूरी धूम-धाम से मनाया जा रहा था।
दोपहर हो चुकी थी। हम एक कस्बे में पहुंचे। खाने-पीने का हिसाब-किताब बनाने की सोच रहे थे। एक होटल में जब घुसे तो वहां बैठे एक सज्जन से बातचीत होने लगी। आराम से हिंदी में बतियाते उन सज्जन ने हमारी साइकिल पर लगे बोर्ड को देखते ही कहा हमारा स्वागत किया। साइकिल पर हमारे नाम और जिज्ञासु यायावर, साइकिल यात्रा शुरु करने की तारीख आदि लिखे थे।
वे बोले- आओ भाई हम तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे। तुम्हारे पिताजी हमारे दोस्त हैं।
हमारे लिये यह आश्चर्य था। मेरे पिताजी कभी केरल आये नहीं। अवस्थी के पिताजी अर्सा पहले गुजर चुके थे। फिर यह कैसे हमारे पिताजी को जानता है। मैंने पूछा भी कि आपके पिताजी हमारे कैसे दोस्त हैं? आप कहां के रहने वाले हैं? बताइये।
लेकिन उन्होंने कहा- अरे सब बतायेंगे तुमको। हड़बड़ाऒ नहीं। पहले आराम से खाना खाओ। भूखे लग रहे हो। बताओ क्या खाने का मन है?
हमने वहां उपलब्ध जो भी भोजन था वह किया। इस बीच वे सज्जन हमारे रास्ते के अनुभव सुनते रहे। बड़ी तल्लीनता के साथ। हम भी सुनाने में खो गये। उन्होंने हमारे अभियान की बहुत तारीफ़ की। देश को देखने का इससे अच्छा तरीका नहीं कि सड़क से यात्रा की जाये। आदि-इत्यादि।
खाने के बाद उन्होंने हमसे अपने घर में रुक जाने के लिये और अगले दिन आगे जाने के लिये कहा। हमें इस तरह के पहले भी बहुत से पस्ताव अनजान लोगों से मिलते रहे थे। लेकिन हम दिन में अपनी यात्रा स्थगित करके कहीं रुकते नहीं थे। यात्रा ही मंजिल है का गाना गाते हुये आगे बढ़ते रहते। रात को अगर कोई प्रस्ताव मिलता तो हम उसको निराश नहीं करते। इसलिये हमने कहा- हमें तो आगे जाना है इसलिये रुकेंगे नहीं।
उन्होंने हमें आगे जाने की अनुमति दे दी। अपने पास से कुछ पैसे भी दिये।
चलने से पहले हमने पूछा- अच्छा, अब तो बता दीजिये कि हमारे पिताजी आपके दोस्त कैसे हैं?
उन्होंने कहा- "तुम्हारे पिताजी कमोबेश हमारी ही उमर के होंगे। तुम्हारी उमर के हमारे लड़के हैं। हम तुम्हारे पिताजी से कभी मिले नहीं। न ही हम उनको जानते हैं। लेकिन अगर तुमको देखकर मुझे लगता है कि तुम लोग हमारे बच्चों के समान हो और तुम्हारे पिताजी हमारे दोस्त हैं तो तुमको इससे क्या परेशानी है बेटा! दोस्ती के लिये क्या मिलना जरूरी होता है?"
हमारे पास कोई जवाब! न तब था न अब।
इस घटना को 32 साल के करीब होने को आये। आज हमारे पिताजी नहीं है, अवस्थी के पिताजी पहले जा चुके थे। उन सज्जन का कुछ पता है। न उनका नाम पूछा था। न पता ने पेशा। न कौम। न राज्य। न जिला। लेकिन उनकी कही बात मेरे दिमाग में अभी भी धंसी है और अक्सर याद आती है। मैं जब भी किसी अजनबी को देखता और उससे दूरी का जरा सा भी अहसास होता है तो दिमाग के न जाने किस कोने से फड़फड़ाती हुयी आवाज सुनायी देती है- हम तुम्हारे पिताजी के दोस्त हैं।
क्या आपको भी इस तरह की कोई आवाज कभी सुनायी देती है?
साइकिल यात्रा के और किस्से बांचने के लिये यहां आइये
बहुत दिनों से हमारी साइकिल यात्रा के किस्से अटके हुये हैं। सिलसिलेवार लिखने के चक्कर में सब सिलसिला टूट जाता है। बहरहाल जबतक वह सिलसिला शुरु हो तब तक एक मुख्तसर सा किस्सा। इससे हमारी पोस्ट की लम्बाई से आक्रांत लोग भी चैन की सांस लेंगे और कहेंगे शार्ट एंड स्वीट।
हम अपने जिज्ञासु यायावरी की मंजिल हासिल करके घर वापस लौट रहे थे। हमारा लक्ष्य था कि हम 15 अगस्त की सुबह कन्याकुमारी पर झंडा फहराता हुआ देखें।
हम तमाम बाधाओं को धता बताते हुये 14 अगस्त को ही कन्याकुमारी की चाय पीते हुये विवेकानंद स्मारक को अपनी आंखों से देख रहे थे।
लौटते में हम केरल होते हुये आये। उस समय शायद संपूर्ण साक्षर न हुआ हो लेकिन बच्चों की भीड़ की भीड़ स्कूल जाती दिखती। घर साफ़ सुथरे। एक दूसरे से सटे सड़क के किनारे के गांव।
घर से इतनी दूर आने के बावजूद, भाषा की स्वाभाविक छोटी-मोटी समस्या के बावजूद हमें कहीं से यह नहीं लग रहा था कि हम कहीं पराये देश में हैं।
उस दिन ऒणम का त्योहार था। हर घर के सामने अल्पना सजी हुयी थी। साफ़ घर। खुशियों का त्योहार अपनी पूरी धूम-धाम से मनाया जा रहा था।
दोपहर हो चुकी थी। हम एक कस्बे में पहुंचे। खाने-पीने का हिसाब-किताब बनाने की सोच रहे थे। एक होटल में जब घुसे तो वहां बैठे एक सज्जन से बातचीत होने लगी। आराम से हिंदी में बतियाते उन सज्जन ने हमारी साइकिल पर लगे बोर्ड को देखते ही कहा हमारा स्वागत किया। साइकिल पर हमारे नाम और जिज्ञासु यायावर, साइकिल यात्रा शुरु करने की तारीख आदि लिखे थे।
वे बोले- आओ भाई हम तुम्हारा ही इंतजार कर रहे थे। तुम्हारे पिताजी हमारे दोस्त हैं।
हमारे लिये यह आश्चर्य था। मेरे पिताजी कभी केरल आये नहीं। अवस्थी के पिताजी अर्सा पहले गुजर चुके थे। फिर यह कैसे हमारे पिताजी को जानता है। मैंने पूछा भी कि आपके पिताजी हमारे कैसे दोस्त हैं? आप कहां के रहने वाले हैं? बताइये।
लेकिन उन्होंने कहा- अरे सब बतायेंगे तुमको। हड़बड़ाऒ नहीं। पहले आराम से खाना खाओ। भूखे लग रहे हो। बताओ क्या खाने का मन है?
हमने वहां उपलब्ध जो भी भोजन था वह किया। इस बीच वे सज्जन हमारे रास्ते के अनुभव सुनते रहे। बड़ी तल्लीनता के साथ। हम भी सुनाने में खो गये। उन्होंने हमारे अभियान की बहुत तारीफ़ की। देश को देखने का इससे अच्छा तरीका नहीं कि सड़क से यात्रा की जाये। आदि-इत्यादि।
खाने के बाद उन्होंने हमसे अपने घर में रुक जाने के लिये और अगले दिन आगे जाने के लिये कहा। हमें इस तरह के पहले भी बहुत से पस्ताव अनजान लोगों से मिलते रहे थे। लेकिन हम दिन में अपनी यात्रा स्थगित करके कहीं रुकते नहीं थे। यात्रा ही मंजिल है का गाना गाते हुये आगे बढ़ते रहते। रात को अगर कोई प्रस्ताव मिलता तो हम उसको निराश नहीं करते। इसलिये हमने कहा- हमें तो आगे जाना है इसलिये रुकेंगे नहीं।
उन्होंने हमें आगे जाने की अनुमति दे दी। अपने पास से कुछ पैसे भी दिये।
चलने से पहले हमने पूछा- अच्छा, अब तो बता दीजिये कि हमारे पिताजी आपके दोस्त कैसे हैं?
उन्होंने कहा- "तुम्हारे पिताजी कमोबेश हमारी ही उमर के होंगे। तुम्हारी उमर के हमारे लड़के हैं। हम तुम्हारे पिताजी से कभी मिले नहीं। न ही हम उनको जानते हैं। लेकिन अगर तुमको देखकर मुझे लगता है कि तुम लोग हमारे बच्चों के समान हो और तुम्हारे पिताजी हमारे दोस्त हैं तो तुमको इससे क्या परेशानी है बेटा! दोस्ती के लिये क्या मिलना जरूरी होता है?"
हमारे पास कोई जवाब! न तब था न अब।
इस घटना को 32 साल के करीब होने को आये। आज हमारे पिताजी नहीं है, अवस्थी के पिताजी पहले जा चुके थे। उन सज्जन का कुछ पता है। न उनका नाम पूछा था। न पता ने पेशा। न कौम। न राज्य। न जिला। लेकिन उनकी कही बात मेरे दिमाग में अभी भी धंसी है और अक्सर याद आती है। मैं जब भी किसी अजनबी को देखता और उससे दूरी का जरा सा भी अहसास होता है तो दिमाग के न जाने किस कोने से फड़फड़ाती हुयी आवाज सुनायी देती है- हम तुम्हारे पिताजी के दोस्त हैं।
क्या आपको भी इस तरह की कोई आवाज कभी सुनायी देती है?
साइकिल यात्रा के और किस्से बांचने के लिये यहां आइये
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