आज हम लंच के लिए निकलने वाले थे तब तक किसी ने बताया कि रामलीला मैदान में कोई कम्बल वाले बाबा आये हैं। उनका शिविर चल रहा है।हर शुक्रवार को लगेगा शिविर। पांच शुक्रवार चलेगा।
गुजरात के रहने शुक्रवारी बाबा लकवा, आर्थराइटिस, डायबिटीज आदि बीमारियों का इलाज करते हैं। इलाज में वो मरीजों के ऊपर कम्बल उढ़ाते हैं। लकवा वाले रोगियों के लकवाग्रस्त अंग खींचते हैं। गले लगाते हैं। भींचते हैं। छोड़ देते हैं। लोग मरीजों को ले जाते हैं। पांच शुक्रवार होने पर ऐसा कहते हैं कि मरीज ठीक हो जाते हैं।
हम गए रामलीला मैदान तो बाबा जी मंच पर लोगों के लाये हुए नारियल छू-छूकर उनको देते जा रहे थे। एक यन्त्र बिक रहा था 100 रूपये जिसमें कुछ मन्त्र लिखे थे उसको भी लोगों को छूकर देते जा रहे थे। 10 रूपये का काले घागे में बंधा ताबीज भी बिक रहा था।
एक महिला अपने मन्दबुद्धि बच्चे को लेकर आई थी। बताया उसने -'यह बोलता नहीं है। सब जगह इलाज करके हार गए। आज बाबाजी का पता चला तो यहां आ गए।'
कुछ देर में बाबाजी मंच से उतरकर मरीजों की भीड़ में चले गए। एक लकवाग्रस्त मरीज को कम्बल उढ़ाया। उसका हाथ पकड़कर खींचा और कसकर भींच लिया। मरीज पर पकड़ देखकर धृतराष्ट्र द्वारा भीम के लोहे को पुतले को भींचकर चकनाचूर कर देने की याद आ गई।
भींचने के बाद बाबा जी ने उस लकवाग्रस्त मरीज को छोड़कर उसके परिजनों से उसको ले जाने को कहा। परिजन उसको समेटकर पंडाल से बाहर आये तो हमने उनसे पूछा - 'क्या तबियत ठीक हो गयी? अभी आज तो पहला दिन है।' मैंने मरीज से पूछा तो उसने भी बताया कि कुछ फर्क तो नहीं लग रहा। अभी तो पहला ही दिन है। मतलब उसको आशा है कि 5 दिन कम्बल थेरेपी हो जायेगी तो उसकी बीमारी ठीक हो सकती है।
बाबा जी के वालंटियर्स में से एक ने बताया कि अभी बिहार में कैम्प लगा था छपरा में। फिर सीहोरा में। लोग ठीक होते होंगे तभी तो इतने लोग आये हैं।
हम सवाल पूछते हैं कि क्या कोई आंकड़ा है इस बात का कि कितने लोग बाबा जी में इलाज से ठीक हुए।
अगर ठीक नहीँ होते तो इतनी भीड़ क्यों लगती यहां पर इलाज के लिए? -सवाल आ जाता है।
मतलब कोई काम सही है या गलत यह भीड़ के इकट्ठे होने से तय होगा। हो ही रहा है। भीड़ को इकट्ठा करने का हुनर रखने वाले लोकतन्त्र के राजा बनते ही हैं।
पूरा मजमा लगा था वहां। मेले का सीन। मेले की सहायक खाने-पीने की दुकाने खुल गयीं थीं। कोई अमरुद बेच था था कोई गोलगप्पे। कहीं चाय चल रही थी कहीं पकौड़ी। हर तरह की तुरन्त लग जाने वाली दुकान लग गई थी वहां।
कम्बल थेरेपी के साथ-साथ एक थाली में आरती ज्योति घुमाई जा रही थी। उसमें लोग श्रद्धानुसार चन्दा डालते जा रहे थे। थाली ऊपर टक भर गयी थी। शिविर शाम तक चलना है। ऐसे ही 5 दिन चलेगा शिविर।
कम्बल बाबा के इलाज से कितने लोग ठीक होंगे यह पता नहीं पर मैदान में खिली धूप में विटामिन डी के असर से बहुतों के मन जरूर खिल गये होंगे।
बाहर निकले तो एक आदमी कहता हुआ जा रहता--'पैसा बहूत पीट रहा है कम्बल बाबा।'
अब जब इलाज मुफ़्त है तो पैसा पीटने की बात कहना कैसे ठीक कहा जाएगा? लेकिन यह पैसा कमाना भी तो ऐसा ही जैसा फेसबुक मुफ़्त है लेकिन उसकी कमाई से जुकरबर्ग जो दान सामाजिक कार्य के लिए देता है वह कई देशों के कुल राष्ट्रीय उत्पाद सरीखा है।
मुफ्तिया इलाज के लिए दूर से सैकड़ों लोग आये हैं गाड़ियों में हजारों रुपया फूंक कर। मुफ़्त में कुछ भी मिलता है तो लोग टूट पड़ते हैं। यह तो इलाज है। मुफ़्त में कोई जहर भी बेंचे तो भी शायद भीड़ लग जाए।
मुझे लगता है यह अन्धविश्वास है। कोई ठीक नहीं होता इस इलाज। अगर सही में ठीक होता हो तो देश के मेडिकल कालेज बन्द करके सब काम ठेके पर दे देना चाहिए बाबा जी को।
वैसे देखा जाये तो अपने यहां बाबा बहुत कुछ चला रहे हैं। काला धन, नोबल पुरस्कार,टैक्स नीति और प्रधानमन्त्री तक तय करने का दावा बाबाजी कर रहे हैं।
लौटते में ड्राइवर बोला-'बाबाओं का जलवा उनकी पोल खुलने तक ही रहता है। बापू आशाराम का देखिये -राम के वेश में रासलीला करते थे। आज जेल की चक्की पीस रहे हैं।'
पुलिया पर शिवप्रसाद मिले। बोले-' बाबा का इलाज करवाकर आ रहे हैं। दमा की शिकायत है।'सब्जीबेंचते हैं शिवप्रसाद। सुबह 9 बजे से लगे थे लाइन में।हमने पूछा-'कुछ ताबीज वगैरह खरीदा? बोले- नहीं। उनके चेहरे पर बेवकूफ बनने से बच जाने भाव था। पर 4 घण्टे लुट जाने और भीड़ का हिस्सा बनकर बाबाजी कमाई में अप्रत्यक्ष सहयोग का उनको अंदाज ही नहीं था।
बातचीत करते हुए जेब से निकाल कर तम्बाकू खाने लगे शिवप्रसाद।
इस बीच एक कार रुकी। उसमें बैठे लोगों ने रामलीला मैदान का पता पूछा। तेजी से चले गए।
लौटकर आते समय मैं सोच रहा था कि अपना देश भी तो इसी तरह चल रहा है। तमाम समस्याओं से लकवाग्रस्त देश। लोग आते हैं। कम्बल उढ़ाते हैं। इलाज का दावा करते हैं। कोई पूछता है कि अभी हालत सुधरी नहीं तो कह देते हैं--अभी तो इलाज शुरू हुआ है। जनता भी सालों तक इन्तजार करती रहती है। कभी एक बाबा से मन उचट जाता है तो दूसरे बाबा की शरण में चली जाती है।
बाबाओं की कमी थोड़ी है देश में। बाबाओं के हाथ में है देश |
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