कल घर से जब चले तो गाड़ी आने में डेढ़ घण्टा था। घर से स्टेशन आधा घण्टा की दूरी है। 'जाम एलाउंस' लगाकर समय से पहले निकल लिए।
आशा के अनुरूप जाम मिला गोविन्द नगर में। फुटपाथ पर दुकानें लगीं थीं। सड़क के दोनों तरफ दुकानदारों के दुपहिया वाहन लम्बे खड़े थे। बाकी बची सड़क पर दोनों तरफ से गाड़ियां आ-जा रहीं थीं। हर बीस कदम बाद जाम की स्थिति बन जाती। कुछ देर में फिर गाड़ियां सरकने लगतीं। साथ में हमारा ऑटो भी।
बीच-बीच में इंटरनेट पर गाड़ी की स्थिति भी देखते जा रहे थे। पता चला गाड़ी लखनऊ से चली ही नहीं थी। मतलब अगर तुरन्त भी चल देती तो कम से कम एक घण्टा लेट होना था। ट्रेन में देरी देखते हुए हम जाम का भव सागर आराम से शांत भाव से पार करते थे। गाड़ी लेट न दिखती तो जाम मिलते ही ऑटो छोड़ पैदल भागते स्टेशन की तरफ।
स्टेशन से करीब 200 मीटर पहले एक जगह सड़क बन रही थी। पानी का टैंकर बीच सड़क पर खड़ा करके सड़क बनाने वाले लोग जा चुके थे। टैंकर के सड़क पर होने की स्थिति में दुपहिया वाहन के अलावा और किसी भी वाहन के निकलने कि कोई गुंजाईश नहीँ थी। ऑटो वाले ने दायें-बाएं करके निकलने की पूरी कोशिश की। असफल रहा। आखिर में हमको वहीं उतारकर चला गया। हमारी ऑटो छोड़ पैदल भागने की मंशा भले न पूरी हुई। चलने का इंतजाम तो हो ही गया।
स्टेशन पर पता किया तो पता चला कि गाडी तो राइट टाइम है। नेट पर देखा तो बता रहा था कि अभी तो गाड़ी लखनऊ से ही नहीँ चली। हम नेट की बात पर भरोसा करके गाड़ी को लेट मानकर इंतजार करने लगे। गाड़ी का छूटने का समय 0730 था। 0715 तक गाड़ी की स्थिति यही बताता रहा नेट कि अभी वह लखनऊ से ही नहीँ चली। सवा सात के बाद नेट ने कुछ भी बताना बन्द कर दिया।
साथ के एक यात्री को उसके मित्र ने बताया कि वह गाड़ी में ही बैठा है और गाड़ी कानपुर सेंट्रल स्टेशन पर खड़ी है। मतलब नेट ने पूरा दो घण्टे का झूठ बोल दिया। जो गाड़ी लखनऊ से चली ही नहीँ वह कानपुर पहुंच गयी थी। वो तो अच्छा हुआ कि हमने घर में नेट नहीँ देखा वरना तो हमारी गाड़ी छूटती। पैसा डूबता।कम से कम दो दिन की छुट्टी और बर्बाद होती।
गाड़ी में बैठते ही साथ की सीट पर वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जी दिखे। दिसम्बर की वागर्थ पत्रिका को पढ़ते हुए पढ़े हुए पर निशान लगाते जा रहे थे। 27 दिसम्बर को नरेश जी मैंने लखनऊ में सुना था। कुछ दिन के ही अन्तराल में दूसरी मुलाकात होने का संयोग बना। नरेश जी जबलपुर में होने वाले एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आ रहे थे।
नरेश जी को मैंने उनको 27 दिसम्बर की 'वलेस' कार्यक्रम की याद दिलाते हुए उसकी रिपोर्टिंग भी दिखाई। अपनी ब्लॉगर साथी सुशीला पुरी के हवाले से जानने का हवाला दिया और उनकी कविता
'पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना।'
की पंक्तियाँ सुनाकर यह जताने की कोशिश की कि हम उनको अच्छे से जानते हैं।
नरेश जी ने 1964 में जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज से इंजीनियरिंग की थी। यह मेरा पैदाइश का वर्ष है।
इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई के दिनों में परसाईजी के संपर्क में रहने के कई अनुभव नरेश जी सुनाये। साथ-साथ शरद जोशी, रामावतार त्यागी, श्रीलाल शुक्ल, ज्ञान चतुर्वेदी तथा के.पी. सक्सेना जी और जबलपुर जुड़ी कई बातें/यादें साझा की।
नेपियर टाउन में परसाई जी के जिस घर में उनसे मिलने नरेश जी जाते रहें होंगे उसके एक गैरेज में बदल जाने की बात मैंने बताई तो दुःख प्रकट करते हुए यूरोप के देशों में अपने लेखकों से जुडी समृतियों को संरक्षित करने की जानकारी देते हुए नरेश जी बताया कि कैसे वहां शेक्सपियर, पिकासो और अन्य लेखकों/कलाकारों से जुड़ी यादें संजोई जाती हैं।
के.पी. सक्सेना जी की बात चलने पर साथ की एक महिला यात्री ने बताया कि उनको के.पी. सक्सेना बहुत अच्छे लेखक लगते हैं।
श्रीलाल जी की 'राग दरबारी' का जिक्र होने पर इस उपन्यास में कोई स्त्री और बच्चा पात्र न होने का जिक्र करते हुये अपनी राय में इसके उपन्यास होने में कमी बताई। किसी उपन्यास में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई चरित्र तो होना चाहिए -ऐसा नरेश जी का मानना है।
मुझे मुद्राराक्षस जी की भी कुछ आपत्तियां याद आयीं जिनके हिसाब से रागदरबारी में तमाम खामियां हैं।
रागदरबारी के बारे में अपने-अपने हिसाब से पाठकों की राय अलग-अलग हो सकती है पर सच यह भी है कि जब से यह उपन्यास छपा है तबसे इसके लगातार संस्करण आते जा रहे हैं और आज भी यह हिंदी के सबसे लोकप्रिय उपन्यासों में है।
नरेश जी ने अपनी कविता भी सुनाई। उनकी यह कविता उनसे सुनकर बहुत अच्छा लगा:
"पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना
पुल पार करने से
पुल पार नहीं होता
सिर्फ लोहा-लंगड़ पार होता है
कुछ भी नहीं होता पार
नदी में धँसे बिना
न पुल पार होता है
न नदी पार होती है।"
स्टेशन पर उतरकर नरेश जी की फोटो खींची तो साथ में हम भी खड़े होकर खिंचा लिये फोटो।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207061544910503
आशा के अनुरूप जाम मिला गोविन्द नगर में। फुटपाथ पर दुकानें लगीं थीं। सड़क के दोनों तरफ दुकानदारों के दुपहिया वाहन लम्बे खड़े थे। बाकी बची सड़क पर दोनों तरफ से गाड़ियां आ-जा रहीं थीं। हर बीस कदम बाद जाम की स्थिति बन जाती। कुछ देर में फिर गाड़ियां सरकने लगतीं। साथ में हमारा ऑटो भी।
बीच-बीच में इंटरनेट पर गाड़ी की स्थिति भी देखते जा रहे थे। पता चला गाड़ी लखनऊ से चली ही नहीं थी। मतलब अगर तुरन्त भी चल देती तो कम से कम एक घण्टा लेट होना था। ट्रेन में देरी देखते हुए हम जाम का भव सागर आराम से शांत भाव से पार करते थे। गाड़ी लेट न दिखती तो जाम मिलते ही ऑटो छोड़ पैदल भागते स्टेशन की तरफ।
स्टेशन से करीब 200 मीटर पहले एक जगह सड़क बन रही थी। पानी का टैंकर बीच सड़क पर खड़ा करके सड़क बनाने वाले लोग जा चुके थे। टैंकर के सड़क पर होने की स्थिति में दुपहिया वाहन के अलावा और किसी भी वाहन के निकलने कि कोई गुंजाईश नहीँ थी। ऑटो वाले ने दायें-बाएं करके निकलने की पूरी कोशिश की। असफल रहा। आखिर में हमको वहीं उतारकर चला गया। हमारी ऑटो छोड़ पैदल भागने की मंशा भले न पूरी हुई। चलने का इंतजाम तो हो ही गया।
स्टेशन पर पता किया तो पता चला कि गाडी तो राइट टाइम है। नेट पर देखा तो बता रहा था कि अभी तो गाड़ी लखनऊ से ही नहीँ चली। हम नेट की बात पर भरोसा करके गाड़ी को लेट मानकर इंतजार करने लगे। गाड़ी का छूटने का समय 0730 था। 0715 तक गाड़ी की स्थिति यही बताता रहा नेट कि अभी वह लखनऊ से ही नहीँ चली। सवा सात के बाद नेट ने कुछ भी बताना बन्द कर दिया।
साथ के एक यात्री को उसके मित्र ने बताया कि वह गाड़ी में ही बैठा है और गाड़ी कानपुर सेंट्रल स्टेशन पर खड़ी है। मतलब नेट ने पूरा दो घण्टे का झूठ बोल दिया। जो गाड़ी लखनऊ से चली ही नहीँ वह कानपुर पहुंच गयी थी। वो तो अच्छा हुआ कि हमने घर में नेट नहीँ देखा वरना तो हमारी गाड़ी छूटती। पैसा डूबता।कम से कम दो दिन की छुट्टी और बर्बाद होती।
गाड़ी में बैठते ही साथ की सीट पर वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना जी दिखे। दिसम्बर की वागर्थ पत्रिका को पढ़ते हुए पढ़े हुए पर निशान लगाते जा रहे थे। 27 दिसम्बर को नरेश जी मैंने लखनऊ में सुना था। कुछ दिन के ही अन्तराल में दूसरी मुलाकात होने का संयोग बना। नरेश जी जबलपुर में होने वाले एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए आ रहे थे।
नरेश जी को मैंने उनको 27 दिसम्बर की 'वलेस' कार्यक्रम की याद दिलाते हुए उसकी रिपोर्टिंग भी दिखाई। अपनी ब्लॉगर साथी सुशीला पुरी के हवाले से जानने का हवाला दिया और उनकी कविता
'पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना।'
की पंक्तियाँ सुनाकर यह जताने की कोशिश की कि हम उनको अच्छे से जानते हैं।
नरेश जी ने 1964 में जबलपुर इंजीनियरिंग कालेज से इंजीनियरिंग की थी। यह मेरा पैदाइश का वर्ष है।
इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई के दिनों में परसाईजी के संपर्क में रहने के कई अनुभव नरेश जी सुनाये। साथ-साथ शरद जोशी, रामावतार त्यागी, श्रीलाल शुक्ल, ज्ञान चतुर्वेदी तथा के.पी. सक्सेना जी और जबलपुर जुड़ी कई बातें/यादें साझा की।
नेपियर टाउन में परसाई जी के जिस घर में उनसे मिलने नरेश जी जाते रहें होंगे उसके एक गैरेज में बदल जाने की बात मैंने बताई तो दुःख प्रकट करते हुए यूरोप के देशों में अपने लेखकों से जुडी समृतियों को संरक्षित करने की जानकारी देते हुए नरेश जी बताया कि कैसे वहां शेक्सपियर, पिकासो और अन्य लेखकों/कलाकारों से जुड़ी यादें संजोई जाती हैं।
के.पी. सक्सेना जी की बात चलने पर साथ की एक महिला यात्री ने बताया कि उनको के.पी. सक्सेना बहुत अच्छे लेखक लगते हैं।
श्रीलाल जी की 'राग दरबारी' का जिक्र होने पर इस उपन्यास में कोई स्त्री और बच्चा पात्र न होने का जिक्र करते हुये अपनी राय में इसके उपन्यास होने में कमी बताई। किसी उपन्यास में आधी आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला कोई चरित्र तो होना चाहिए -ऐसा नरेश जी का मानना है।
मुझे मुद्राराक्षस जी की भी कुछ आपत्तियां याद आयीं जिनके हिसाब से रागदरबारी में तमाम खामियां हैं।
रागदरबारी के बारे में अपने-अपने हिसाब से पाठकों की राय अलग-अलग हो सकती है पर सच यह भी है कि जब से यह उपन्यास छपा है तबसे इसके लगातार संस्करण आते जा रहे हैं और आज भी यह हिंदी के सबसे लोकप्रिय उपन्यासों में है।
नरेश जी ने अपनी कविता भी सुनाई। उनकी यह कविता उनसे सुनकर बहुत अच्छा लगा:
"पुल पार करने से
पुल पार होता है
नदी पार नहीं होती
नदी पार नहीं होती नदी में धँसे बिना
नदी में धँसे बिना
पुल का अर्थ भी समझ में नहीं आता
नदी में धँसे बिना
पुल पार करने से
पुल पार नहीं होता
सिर्फ लोहा-लंगड़ पार होता है
कुछ भी नहीं होता पार
नदी में धँसे बिना
न पुल पार होता है
न नदी पार होती है।"
स्टेशन पर उतरकर नरेश जी की फोटो खींची तो साथ में हम भी खड़े होकर खिंचा लिये फोटो।
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10207061544910503
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