Wednesday, July 20, 2016

पेट पालने के लिए 'बहुधंधी' होना पड़ता है आदमी को



कल दफ़्तर के लिए जल्दी निकाल दिए गए घर से। समय पर पहुंचना चाहिए। आराम-आराम से सड़क के नजारे देखते हुए निकले।

आर्मापुर में एक बुजुर्ग रिक्शावाला स्कूली बच्चों को लेकर जा रहा था।बच्चे ज्यादा थे। उचक-उचक कर चला रहा था रिक्शा। शाम को आर्मापुर बाजार में सब्जी बेंचते हैं बुजुर्ग। पेट पालने के लिए 'बहुधंधी' होना पड़ता है आदमी को।

घर से दफ़्तर का रास्ता तो सीधा है। लेकिन 'सेक्टर' कई पड़ते हैं।
1.घर से आर्मापुर गेट
2.आर्मापुर गेट से विजय नगर चौराहा 
3. विजय नगर चौराहे से फजलगंज चौराहा
4.फजलगंज चौराहे से जरीबचौकी
5.जरीबचौकी से अफीमकोठी
6. अफीमकोठी से टाटमिल चौराहा
7.टाटमिल चौराहे से सीओडी मोड़।

सीओडी मोड़ से जहां आगे मुड़े बस फैक्ट्री गेट आ गए। सबसे ज्यादा भीड़ समय जरीब चौकी में लगती है रेलवे क्रासिंग के चलते या फिर सेक्टर 6 में बस अड्डे के कारण।

विजय नगर चौराहे के पहले एक होमगार्ड वाला अपनी फटफटिया डिवाइडर के ऊपर फुटपाथ वाली फुटपाथ पर धरे ड्यूटी बजा रहा था। चौराहे के आगे दो कुत्ते अगल-बगल बैठे सुबह की धूप सेंक रहे थे। क्या पता आपस में बतिया भी रहे हों -'गनीमत है गुरु ये डिवाइडर कम चौड़ा है। चौड़ा होता तो कोई धर्मरक्षक अपने धर्म की रक्षा के लिए कब्जिया के घेर लिया होता और हम सड़क पर आ गए होते। कुत्ते की तरह मारे-मारे घूमते सड़क पर। किसी टेम्पो के नीचे आ गए होते। साथी कुत्ते कहते-'भला कुत्ता था। भौकता बढ़िया था। किसी को मरते दम तक काटा नहीं। भौंककर ही भौकाल बनाये रखा।'

फैक्ट्री से लंच के समय बाहर टहलने निकले। फैक्ट्री के बाहर ही पोस्ट आफिस है। दो लोग काम करते हैं। फैक्ट्री की सब डाक वहां आती है। काफी काम है। एक स्पीडपोस्ट भेजा तो गोंद माँगा। लेई का पैकेट वहीँ धरा था। पता चला कि पोस्ट आफिस के लिए लेई, डाक के लिए रस्सी, लिखने के लिए पेन और सील करने के लिए लाख का खर्च महीने भर का 19 रुपया मिलता है। लेई का पैकेट ही एक रूपये का आता है। महीने में कम से कम 25 रूपये तो इसी के हो गए। सालों से यही पैसा स्वीकृत होता है। अपने पास से लगाते हैं।

मोड़ पर मिले सुरेन्द्र वर्मा। भुट्टा बेंचते हुए। साथ में लइया चना। रायबरेली के रहने वाले हैं। एक साल से यहाँ आये हुए हैं। कुछ देर मतलब 11 से 3 बजे तक यहां लगाते हैं ठेलिया। उसके बाद पास के हनुमान मन्दिर। पास ही रहते हैं।

एक भुना भुट्टा 10 रूपये में देते हैं। कच्चा 20 के तीन। दिन भर में दो बोरा भुट्टा मतलब करीब 120-130 भुट्टा निकल जाते हैं। जब भुट्टे का सीजन निकल जाता है तब दूसरा सामान बेंचते हैं। मूंगफली या कुछ और।

सुबह 4 बजे भुट्टा लेते के लिए जाते हैं गुरुदेव पैलेस के पास। वहां किसान आते हैं बेंचने। टेम्पो से लेकर फिर आते हैं और दुकान की तैयारी करते हैं। सब समय पेट के खटराग में खप जाता है। जिन्दा रहने के लिए कितना मरना पड़ता है।

कभी कोई रोकता नहीं है यहाँ लगाने से। पूछने पर बोले सुरेन्द्र -'भगाते हैं। कभी कोई पुलिस वाला, मिलेट्री वाला आता है, खेद (भगा) देता है। हम हट जाते हैं। फिर थोड़ी देर बाद आ जाते हैं। रोज की कहानी है यह तो।'

'घर परिवार है। सब हैं।बच्चे पढ़ते हैं।' -भुट्टा भुनते हुए बताया सुरेन्द्र ने।

शाम को लौटते हुए देखा कि सुरेन्द्र मंदिर के पास ठेलिया पर भुट्टा भून रहे थे। एक जोड़ा मुसकराते हुए इंतजार में था भुट्टे के। बगल में तौलऊ की मेवाठेलिया लगी थी।

बस अब चलें। दफ़्तर के लिए निकलने का समय हो गया। आप मजे करिये। हम निकलते हैं।

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