घर लौट रहे थे दफ़्तर से कल। फ़टफ़टिया फ़र्राटे से चलाते हुये। टाट मिल चौराहे तक तो मामला चौकस रहा। लेकिन आगे झकरकटी पुल पर ’थम’ हो गया। जाम लग गया था।
हमें लगा कि ये ससुर झकरकटी पुल भी भेडचाल फ़ैशन का शिकार हो गया। कल देखा उधर गुड़गांव को जाम के कारण मीडिया चर्चित होते देख लगता यह भी जाम के लिये हुड़कने लगा। जिसको देखो वो आजकल भेड़चाल फ़ैशन का शिकार है।
वैसे सच तो यह है कि फ़ैशन अपने में भेड़चाल है। अमेरिका , यूरोप का फ़ैशन दिल्ली, मुम्बई लपकती है। दिल्ली ,मुम्बई से बाकी शहर झपटते हैं। इसके बाद फ़िर छुटके , चिल्लर शहरों तक पहुंचता है फ़ैशन। कभी खरामा, खरामा। कभी फ़र्राटे से। बाजार की रुचि होती है तो फ़ैशन एकदम अफ़वाह की गति से फ़ैलता है।
एक बारगी तो मन तो किया पुल को हड़कायें -’जाम को क्या फ़ेसबुकिया फ़ोटो फ़ैशन समझ लिया क्या है बे कि जिसे देखो ’चैलेन्ज एक्सेप्टेड’ लिखकर तस्वीर काली कर रहा है। इत्ता तो अकल होनी चाहिये तेरे को कि फ़ोटो काली सफ़ेद करने में एक मिनट लगता है लेकिन जाम का झाम तो घंटो का होता है। पुराने पुल हो, ज्यादा जाम के लिये हुड़कोगे तो किसी दिन चू पडोगे और शान्त हो जाओगे।’
लेकिन फ़िर सोचा कि पुल बेचारे का क्या दोष! वह तो बेचारा चुपचाप अपने ऊपर से गुजरते हुये लोगों को देखता है। अब लोगों को ही सलीका नहीं पुल पार करने का तो अगला क्या करे।
खैर जब फ़ंस ही गये तो ’जाम सुषमा’ निहारने लगे। मेरे बाईं तरफ़ आटो, मोटर साइकिल और कारों की लाइन लगी थी। हम भी साथ में लग लिये। कुछ लोग अपनी फ़टफ़टिया उठाकर फ़ुटपाथ पर चढ़ा लिये और फ़र्राटा मारते हुये आगे निकल लिये। उनको देखकर अपन का जी भी ललचाया कि हम भी उचका कर निकल लें। लेकिन फ़िर यह सोचकर कि अकेले उठा न पायेंगे मोटरसाइकिल आधा फ़ुट ऊंची फ़ुटपाथ पर हम जाम में ही फ़ंसे रहे।
मोटरसाइकिल उठाने में सामर्थ्य के अभाव ने सभ्य नागरिक बने रहने में सहायता की।
हम सरकते हुये आगे बढ रहे थे तब तक देखा कि पीछे से एक एम्बुलेन्स हुंहुआती हुयी आगे आयी। हमने तो उसको अपने और बायें होते हुये रास्ता दे दिया लेकिन सामने से आते एक ट्रक ने ऐसा करने से इंकार कर दिया। उसकी भी गलती नहीं। वह आगे ही बढ सकता था। उसके पीछे जाम लग गया था। वह पीछे जा ही नहीं सकता था। मजबूरन एम्बुलेन्स को पीछे आना पड़ा। जाम तो उसके पीछे भी लगने लगा था लेकिन लोगों ने उसको पीछे आने दिया।
सामने से आता ट्रक बहुत धीरे-धीरे पुल पर आगे बढ रहा था। पचास पार का ड्राइवर दांत भींचे ट्रक हांक रहा था। ट्रक चींटी की रफ़्तार से तो नहीं पर बहुत धीरे-धीरे चल रहा था। लोगों अपनी-अपनी गाड़ियों के दामन ट्रक से बचाते हुये किनारे होते जा रहे थे- जैसे कभी और कुछ जगह तो आज भी लोग दलितों की छाया से भी बचते हैं उसी तरह सवारियां ट्रक के साये से दूर भाग रही थीं।
ट्रक के पीछे देखा कि एक रिकवरी वैन अपने पीछे एक ट्रक को गिरफ़्तार जैसा किये चली जा रही थी। जित्ती बड़ी रिकवरी वैन उससे दो गुना बड़ा ट्रक। दोनों के बीच में लोहे की जंजीर। ट्रक बेचारा बड़ा शरीफ़ था। अपने से आधी कद और ताकत की रिकवरी वैन के घसीटने से घिसटता हुआ पुल पर चला जा रहा था। घिसट क्या रहा था कि वह खुद अपना इंजन चालू किये वैन के पीछे शरीफ़त की चाल से चला जा रहा था।
एक मिनट के लिये लगा कि यह सोच डालें कि अपने से आधे कद काठी की वैन के पीछे शरीफ़ों की तरह चलता ट्रक अपने से आधे कद की घरैतिन के इशारे पर सहमते हुये चलते घरवाले जैसा लग रहा था।
जब रिकवरी वैन आगे ट्रक को लेकर आगे निकल गयी तब जाम कुछ कम सा हुआ। तब तक दायीं तरफ़ एक महिला फ़ुटपाथ पर अपना सामान लुढकाते हुये आती दिखी। जाम अचानक खूबसूरत टाइप लगने लगा। बहुत गोरी सी थी महिला। खूबसूरत भी। शायद जाम के चलते अपनी सवारी छोड़कर पैदल जाने को मजबूर हो गयी होगी। बस या ट्रेन न छूट जाये इसलिये 11 नम्बर की बस पकड़ ली।
पहले तो हमने सोचा कि जब जाम में फ़ंसे ही हैं और सामने से कोई महिला आ रही है तो उनको देखने में कोई बुराई नहीं है। लेकिन फ़िर याद आया कि कहीं ज्यादा देख लिया तो उसे घूरना कहा जायेगा। यह तो गंदी बात है। यह ध्यान में आते ही हमने फ़ौरन दूसरी-तीेसरी-चौथी तरफ़ देख डाला। कोई और नहीं दिखा तो मोटर साइकिल के शीशे में अपनी तरफ़ ही देख डाला। देखकर बड़ा खराब लगा कि सारी खूबसूरती मने कि स्मार्टनेस हेलमेट के नीचे कैद है। मन किया कि हेलमेट उतारकर बाल काढने के बहाने एक बार फ़िर देख लें चेहरा लेकिन फ़िर याद आया कि कंघा तो था ही नहीं जेब में। मन मारकर फ़िर इधर-उधर देखते हुये फ़िर उधर ही उधर देखने लगे जिधर देखने से बचने के लिये इधर-उधर देखना शुरु किया था।
चूंकि दायीं तरफ़ फ़ुटपाथ पर जाम नहीं लगा था इसलिये महिला आहिस्ता-आहिस्ता आगे और नजरों के पार चली गयीं। उनकी सुस्त चाल से ऐसा लगा कि शायद उनको इस तरह आगे चला जाना रास नहीं आ रहा था। बेमन से जाम के अभाव में उनको आगे निकलना पड़ रहा था। अनमने मन से जाते हुये शायद वे चाह रही थी कि थोड़ा जाम इधर फ़ुटपाथ पर भी लगता तो कित्ता अच्छा होता। हो सकता है कि वे यह भी सोच रही हों जाते हुये कि ये लोग जाम में क्यों फ़ंसे हुये हैं। इधर फ़ुटपाथ पर क्यों नहीं चलते जिधर जाम नहीं है।
खैर, कुछ देर में जाम खत्म हो गया। और हम आगे निकल लिये। पुल के नीचे देखा कुछ स्थानीय नागरिक पुलिस का सहयोग करते हुये गाड़ियों को सही से आगे -पीछे कर रहे थे। अराजक लोगों को तात्कालिक रूप से सभ्य बना रहे थे।
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