आज सबेरे जब निकले तो घर के बाहर ही एक पिल्ला अपने मम्मी पापा के साथ बैठा सड़क पर धूप सेंक रहा था। हम हार्न बजाए जोर से कि भैया जाय देव ड्यूटी। लेकिन वो सुना नहीँ। हम फिर हल्ला मचाये लेकिन वो बैठा रहा। सोचा पास ले जाएँ तो भागेगा कि किकिआते हुए। लेकिन फिर गाडी उसकी बायीं तरफ से निकाली। ज्यादा घूम गयी तो बगल की फेन्स से टकराते बची। जरा सा चूक जाते तो कल खबर बनती -'कुत्ते को ओवर टेक करने की कोशिश में अफसर घायल।' लगा कि जो बाएं से ओवरटेक न करने का नियम है वह गाड़ी और कुत्ते दोनों पर लागू होता है।
आज सड़क पर कुछ जमावड़ा ज्यादा था। खरामा-खरामा चलते रहे। एक महिला स्कूटर पर पीछे बैठी मोबाईल पर झुकी थी। हमें लगा कि शायद हमारा ही स्टेटस लाइक कर रही हो। शक्ल देख नहीं पाये वरना कन्फर्म भी हो जाता।
आगे क्रासिंग बंद देखकर ऑटो वाले ने अपना ऑटो उलटी तरफ लगा दिया जिस तरह चुनाव आते देखकर संभावना के हिसाब से एक पार्टी से दूसरी में टहल लेते हैं। हम भी इंजन बन्दकर मोबाईल में मुंडी घुसा लिया। क्रासिंग खुलते ही ऑटो वाले ने गाडी क्रासिंग पर वज्रगुणन वाले अंदाज में निकाली और फिर हमारी लाइन में हो गया। हमसे आगे।
आज पंकज बाजपेयी से मुलाकात हुई। कल भी हुई थी। बात भी हुई। शीशा नीचे करके बतिया रहे थे तो बोले-' ये कूलर काहे चल रहा है।' हम बताये-'कूलर नहीं एसी चल रहा है। बतियाने के लिए खिड़की खोले हैं।' पता चला कि दो दिन जब दिखे नहीँ पंकज जी तो वो सामने की पट्टी पर चाय की दुकान पर थे और वहां से हमको गुजरते देख रहे थे। मतलब उनको भी हमारा इंतजार रहता है।
हमने बताया कि हमारे मित्रों ने याद किया है उनको। बातचीत से पता चला कि पंकज बाजपेयी बीए पास हैं। हलीम मुश्लिम कालेज से सन 1982 के स्नातक हुए हैं। फैक्ट्री की देरी न हो रही होती तो और गुफ्तगू करते।
आगे सड़क किनारे तीन आदमी उकड़ू बैठे बतिया रहे थे। त्रिभुज के तीन बिंदुओं की तरह आराम से बतियाते देखकर थोड़ी जलन टाइप हुई। लेकिन वे मेरी जलन से बेपरवाह आपस में बतियाने में मशगूल रहे। हम हड़बड़ी में थे दफ़्तर पहुँचने की इसलिए जलन स्थगित करके सामने देखने लगे। जबलपुर में होते तो थोड़ा और रूककर बतियाते शायद।
कानपुर और जबलपुर में यह बड़ा अंतर है। वहां पुलिया पर जिस तसल्ली से बतियाने का सुकून था उत्ता यहां नहीं। वहाँ दफ़्तर, मेस सब जगह सीधे कुदरत के सीधे संपर्क में थे। यहां दफ़्तर में बैठे रहो तो पता ही नहीं चलता कि बहार झमाझम बारिश हो रही या सूरज भाई का जलवा पसरा है। वहां कमरे की खिड़की दरवाजा खोलते ही शानदार प्रकृति का पूरा नजारा दीखता था।
सूरज भाई से मिले तो हफ्तों बीत जाते हैं। जब कभी मिलते हैं मुंह फुलाये रहते हैं। मानो कहना चाहते हों -'कानपुर आते ही भाव बढ़ गए।' किरणें भी बात नहीं करतीं जैसे कोई बॉस जब किसी से खफा होता है तो बॉस के चमचे, चेले भी उससे मुंह फिरा लेते हैं, बात बन्द कर देते हैं यह सोचकर कि कहीं बॉस उनसे भी खफा न हो जाए।
सबसे बड़ी असुविधा फोन और इंटरनेट की है। दफ्तर पहुँचते ही इंटरनेट और फोन कनेक्शन मोबाइल से अपना नेट कनेक्शन अपना समर्थन वापस ले लेता है। जब कब्बी ऑनलाइन पेमेंट करना होता है कभी तो अर्दली को बाहर भेजते हैं। वह बाहर किसी ऐसे कोने में खड़ा होता है जहां सिग्नल आता है। जैसे ही वन टाइम पासवर्ड आता है नेट में टप्प से वह भागकर मेरे पास आता है। दस में से बीस बार ऐसा होता है कि जब तक वह मेरे पास तक आता है, पासवर्ड भरने की मियाद खत्म हो जाती है। पैसे भले बचते हैं लेकिन बचत के खुशनुमा एहसास पर कभी-कभी खीझ हाबी हो जाती है।
हमारे यहां तो खैर गनीमत है कि सिग्नल बिल्कुलै गोल रहते हैं। आते ही फोन तहा के धर देते है। फोन मेज पर मार्गदर्शक की तरह निस्पंद पड़ा रहता है। लफ़ड़ा उनके यहाँ होता है कुछ-कुछ जगह सिग्नल की एकाध डण्डी आती है। उनमें से कुछ तो शांत भाव से सिग्नल देखते रहते हैं। लेकिन सिग्नल डण्डी आते ही अगर कोई फोन भी आ जाता है तो इत्ती तेजी से बाहर की तरफ भागते हैं फुल सिग्नल वाली जगह की तरफ कि देखकर लगता है कि अगर इतना तेज ओलम्पिक में भागते भारत की तरफ से तो बोल्ट को रजत पदक से ही संतोष करके रिटायर होना पड़ता।
लेकिन यह सब तो चलता रहता है। यहां मोबाइल सिग्नल न मिलने की वजह से बैटरी बचती है। नेट का खर्च कम होता है। बार-बार चार्ज न करने के चलते चार्जर और चार्ज करने वाली डोरी अभी तक चल रही है। जिसको फोन करना भूल जाओ तो परमानेंट बहाना , मुआ फोन मिलता ही नहीँ। असुविधा से भी सुविधा का एहसास खींच लेते हैं।
इन सब बाधाओं के बीच भी दिन में एकाध पोस्ट घसीट ही देते हैं। ये वाली कविता को मूर्तिमान करते हुए:
"देखकर बाधा विविध बहुत विघ्न घबराते नहीं।"
खैर यह सब तो राज-काज हैं जिंदगी के। मजे से रहना चाहिए। झींकने से कोई फायदा नहीं। है कि नहीं ?
https://www.facebook.com/anup.shukla.14/posts/10208954648396907
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