कल छुट्टी थी। बकरीद की। वैसे बुढवा मंगल भी था आज ! सबेरे तैयार होकर निकल लिये शहर मुआयने के लिये।
आज फ़ैक्ट्रियों की छुट्टी थी। उनके बाहर लगने वाली फ़ुटपाथिया दुकाने भी नहीं लगी थीं। जब ग्राहक नदारद तो दुकान क्या करेगी सजकर !
विजयनगर चौराहे के आगे एक महिला मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर बैठी चली जा रही थी। उसकी धोती का पल्लू हवा में हल्का सा उड़ रहा था। हमको याद आया कि लड़कियों के उड़ते दुपट्टे के गाने तो बहुत हैं फ़िल्मों में - ’हवा में उड़ता जाये मेरा लाल टुपट्टा मलमल का’ लेकिन गृहस्थिन की साडियों पर भी गीत लिखे गये हैं क्या कभी?
जरीब चौकी के पास बायीं तरफ़ की सड़क पर बकरीद की नमाज पढ रहे थे लोग। सफ़ेद झक्क कपड़े में। एकदम अनुशासित , लाइन में लगे नमाजी। एकदम क्रासिंग के आगे सड़क थोड़ी दूर के लिये बन्द कर दी गयी थी। लोग बगलिया के दायीं तरफ़ से निकल रहे थे। पुलिस वाले चुस्तैद थे व्यवस्था देखने के लिये।
क्रासिंग पार करके आगे पहुंचे जहां पंकज बाजपेयी बैठते हैं। वे अपने ठीहे पर ही थे। देखते ही लीबिया, जार्डन, कोहली, बच्चे, दंगा, पुलिस , दीदी वाली बातें कहने लगे। हमने पूछा - ’चाय पिये कि नहीं?’ बोले -’ अभी जायेंगे पीने मामा के यहां।’
हम बोले - ’चलो आज हम भी पीते हैं मामा की चाय।’
मामा के पास पहुंचकर पंकज जी ने अपने झोले से ग्लास निकाला। मामा ने उस ग्लास में चाय डाली। पंकज कुछ देर साथ खड़े चाय पिये। दो-चार घूंट सुड़कने के बाद अपने डीहे पर लौट गये। हम मामा से बतियाने लगे।
मामा ने बताया कि अफ़ीम कोठी से लेकर यहां (अनवरगंज के पास तक की सड़क) की सब प्रापर्टी इन्ही की थी। न जाने कैसे दिमाग का बैलन्स गड़बड़ा गया। सबेरे यहां रहते हैं, फ़िर दिन भर डीएम दफ़्तर के पास। सामने ’प्रकाश मशीनरी स्टोर्स’ जो दिख रहा है वो इनके ही मकान में किराये पर है।
मामा तो पंकज कहते हैं, कभी जीजा भी। कभी कुछ और जैसा मन आये। लेकिन नाम है सुरेन्द्र कुमार गुप्ता। जौनपुर के रहने वाले हैं। 12-15 साल पहले आये थे यहां। तब से जमे हुये हैं यहीं पर। आर्डर पर भी चाय और काफ़ी का काम करते हैं। पंकज को चाय मुफ़्त पिलाते हैं। बोले- "ये सब तो ऊपर वाला करता है।"
गुप्ता जी की चाय की दुकान पर कुछ मुस्लिम और हिन्दू भी चाय पी रहे थे। एक जन आये तो टोपी वाले ने उनको ठाकुर साहब कहकर मजे लिये। चुहलबाजी चली कुछ देर। हमको चाय छानकर दी गुप्ता जी ने। फ़ोटो लिये तो बोले- चाय छानते हुये फ़ोटू खैंचिये। खैंचा तो देखकर खुश हो गये। अपना विजिटिंग कार्ड निकालकर थमाया। उसमें उनका मोबाइल नंबर भी दिया था। मल्लब विजिटिंग कार्ड आजकल लकदक अटैची उठाये चलने वाले तक ही नहीं सीमित रहा। फ़ुटपाथ पर चाय बेचने वाले गुप्ता जी भी रखते हैं विजिटिंग कार्ड।
जब हम चाय पी रहे थे तभी एक बुजुर्ग व्यक्ति ने ,जिसको शायद दिखता नहीं था, जेब से माचिस निकाली। अंदाज से टटोलकर तीली निकाली। रगड़वाला हिस्सा टटोलकर तीली सुलगाई और बीड़ी जला कर सुट्टा मारने लगा। एक सुट्टा मारने के बाद उसने साथ के व्यक्ति के हाथ में अपना हाथ फ़ंसाया और उसके साथ सड़क पार करने लगा।
इस बीच पंकज अपने ठीहे पर जम गये थे। सामने से गुजरते एक बुजुर्ग को देखकर जोर से बोले-’ चाचा पांय लागी।’ चाचा नमाज पढकर लौटे थे शायद। उन्होंने हाथ हिलाकर चरण स्पर्श कबूल किया और आशीष में हाथ हिलाया।
हम वापस चले तो सोचा आज गली से चला जाये। जीटी रोड के अंदर से गली में घुसते ही एक चाय की दुकान दिखी। एक बड़ी सफ़ेद मूछों वाले बुजुर्ग फ़सक्का मारकर सड़क पर बैठे चाय पी रहे थे। एक महिला नाली के ऊपर ”बच्ची चरपईया’ पर बैठी अपनी बिटिया को खिला रही थी। आगे रेलवे क्रासिंग पर एक आदमी क्रासिंग पर जमा पत्थर पर अखबार अपने दोनों बाहों की चौड़ाई तक फ़ैलाये सारी खबर अकेले पढे जा रहा था।
गली में जगह-जगह छोटे-छोटे मन्दिर उगे हुये थे। एक जगह कथा चल रही थी। सड़क पर भण्डारा चल रहा था। पता चला कल बुढ़वा मंगल था। उसी का प्रसाद जगह-जगह बंट रहा था। लोग प्रसाद लेकर उसके दोने वहीं सड़क पर छितराकर निकल ले रहे थे।
हमने सोचा था कि कल पनकी मंदिर के पास स्थित वृद्धाश्रम जायेंगे। लेकिन पनकी तक पहुंचे तो देखा बीहड़ भीड़। हम आगे बढें कि पीछे हटे सोच ही रहे थे कि एक महिला पुलिस की सिपाही ने मोटर साइकिल देखकर लिफ़्ट मांगी। यह हमारे लिये आगे बढ़ने का संकेत था। सिपाही को पनकी थाने जाना था। रास्ते में पता चला कि वे 12 साल से नौकरी पर हैं। शहर से आती हैं रोज पनकी थाने डयूटी करने।
लिफ़्टित सवारी को थाने पर उतारकर हम आगे बढे। लेकिन आगे बैरियर लगा था। पास में एक मोटरसाइकिल पर बैठा एक पुलिस का सिपाहा अपने मोबाइल में मुंडी घुसाये कुछ देख रहा था। बाकी चार की मुंडिया भी उसकी खोपडिया के साथ टैग थी। हमने आगे जाने का रास्ता पूछा तो जिस तरह बताया उससे लगा कि आगे जाना ठीक नहीं। लेकिन फ़िर याद आयी कविता पंक्ति:
देखकर बाधा विविध बहु विध्न घबराते नहीं।
इस कविता पंक्ति की किक से हम आगे बढ लिये। एक जगह पूछने के लिये रुके तो बालक ने जबरियन पूडी का दोना थमा दिया। बिना छिले आलू और गांठ लगी पूडी को खाना अपने आप में वीरता का काम था। लेकिन फ़िर खाई एक पूड़ी वहीं खड़े-खड़े। फ़िर पूछते हुये वृद्धाश्रम पहुंच ही गये। उसका किस्सा आगे।
फ़िलहाल तो इतना ही। आप मजे से रहें।
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