आजकल जाड़े का मौसम है। जाड़े के साथ जुगलबंदी करने के लिये चुनाव का मौसम भी आ गया है। चुनाव आयोग ने चुनावों की घोषणा कर दी है।
जाड़े में रजाई का जुगाड़ किया जाता है। चुनाव के मौसम में देशसेवा के ठेके तय किये जाते हैं। ठेका हासिल करने के लिये आजकल टेंडर भरे जा रहे हैं। लोकतंत्र में जनसेवा करने का यही तरीका चलन में है। इसमें सारे काम जनता के लिये होते हैं। अपने यहां लोकतंत्र है। लिहाजा यहां भी जो होता है सब जनता के लिये होता है। विकास, प्रगति, उन्नति, लड़ाई, झगड़ा, हत्या, बलात्कार, घपला-घूस मतलब कि दुनिया के सारे अल्लम-गल्लम काम जनता के लिये ही होते हैं। अंग्रेजी में तो कह भी दिया गया है- ’डेमोक्रेसी इज ऑफ़ द प्युपल, बाई द प्युपल, फ़ॉर द प्युपल।’ लोकतंत्र में सब काम जनता करती है। करना पड़ता है। देश भी जनता ही चलाती है। चलाना पड़ता है।
लेकिन जनता को तो पचास काम होते हैं। रोजी-रोटी का जुगाड़ करना होता है, घूस-घपले का इंतजाम करना होता है, हत्या-बलात्कार का शिकार होना होता है, दंगे-भूख-ठंड-बाढ़-सूखे-आपदा-दुर्घटना में मरने का काम निपटाना होता है। इस सब में ही इतना समय खप जाता है कि देश के लिये समय ही नहीं मिलता उसको। इसलिये वो अपने प्रतिनिधि चुनती है। उनको सेवा का मौका देती है। इसके लिये चुनाव होते हैं।
चुनाव में लोग जनता के सामने आते हैं। हाथ जोड़कर सेवा का मौका देने के लिये गिड़गिड़ाते हैं। दीगर दिनों में जनता की ’मां-बहन’ एक करने वाले चुनाव के समय जनता को ’माई-बाप’ बताते हैं। गली-गली में शोर मचाते हैं। नारे लगाते हैं। जलवा कायम बताते हैं। खुद को जनता का सच्चा सेवक बताते हैं।
इस मामले में अपने देश की जनता एकदम भोला भंडारी है। जैसे शंकर जी वरदान के मामले में एक के साथ चार फ़्री वाली स्कीम चलाते हैं वैसे ही जनता भी लोगों को सेवा के मौके बार-बार थमाती है। गुंडे, जाहिलों, गंवारों तक को सेवा का मौका दे देती है। चिरकुट से चिरकुट को देश की बागडोर सौंपने में नहीं हिचकती अपनी पब्लिक-“लो बेटा तुम भी कर लो सेवा। तुम भी क्या याद करोगे। फ़िर न कहना मौका नहीं दिया सेवा का।“
जाहिलों और काहिलों तक से सेवा करवा लेती है देश की जनता। सेवा करवाने के के मामले में देश का आत्मविश्वास चरमतम है। अईसी कान्फ़िडेंट डेमोक्रेसी और कहां? बड़ा झन्नाटेदार है अपना लोकतंत्र।
पहले के जनसेवक जनता की सेवा का काम चुपचाप करते थे। जनता उनके काम देखकर सेवा का काम सौंप देती थी उनको। जिसको चुना जाता था वो सेवा काम में लग जाता था। सेवा में चूक होने पर कोई बता देता था तो ’सेवा सुधार’ हो जाता था। तब लोगों को ’सेवा करने से मेवा’ मिलने वाली बात पता नहीं थी। लोग अपने संतोष के लिये सेवा करते थे।
लेकिन जब से लोगों को यह पता चला है कि सेवा करने से मेवा मिलती है तबसे जनसेवा के काम में गजब कम्पटीशन हो गया है। जिसे देखो वो मुंडी उठाये देशसेवा के मैदान की तरफ़ भागता दिखता है। पहले लोग अपने बच्चों के अच्छे भविष्य के लिये उनको वकील-डाक्टर-इंजीनियर बनाते की कोशिश करते थे। आजकल देशसेवा का धंधा टॉप पर है। हाल यह है कि लोग अब अपने बच्चों को नाड़ा बांधना सिखाने के पहले ही देशसेवा का ककहरा सिखाने लगते हैं।
पहले सेवा काम निस्वार्थ होता था। फ़िर ’सेवा से मेवा’ का चलन शुरु हुआ तो लोग मेवा के लालच में सेवा करने लगे। आज के समय में ’मेवा के लिये सेवा’ की स्कीम लागू है राजनीति में। फ़ायदे का धंधा हो गयी है जनसेवा। फ़ायदे के धंधे से बाजार कैसे दूर हो रह सकता है भला। जैसे बाजार फ़ायदे के लिये नये-नये उत्पाद उतारता है वैसे ही चुनाव में भी बाजार अपने प्रतिनिधि उतारता है। उन पर पैसा लगाता है। चुनाव जीता हुआ आइटम भी बाजार का होता है, हारा हुआ भी नमूना भी उसी का। जीते हुये प्रतिनिधि के माध्यम से बाजार अपना लगाया हुआ पैसा कई गुना करके वसूल लेता है।
अब हाल यह है जनसेवा का काम एकदम दंगल सरीखा हो गया है। बिना दूसरे जनसेवक को चुनाव के अखाड़े में पटके सेवा का काम नहीं मिलता। रोम में सामन्त लोग अपने मनोरंजन के लिये दो गुलाम ग्लैडियेटरों को तब तक लड़ाते थे जब तक दोनों में से एक ग्लैडियेटर मर नहीं जाता था। वैसे ही सेवा के काम से मिलने वाली मेवा के लालच में जनसेवा का अधिकार पाने के लिये कटा-जुज्झ मचाये रहते हैं।
चुनाव के मौसम में भाई-भाई, चाचा-भतीजा, बाप-बेटा जनता की सेवा का अधिकार पाने के लिये जानी दुश्मन बन जाते हैं। एक ही स्थान विशेष से प्रात:कालीन उठते ही किया जाने वाला कर्म विशेष करने वाले लोग तक पार्टी पर कब्जे के लिये लड़ने लगते हैं। कुर्सी, पार्टी, चुनाव चिन्ह के लिये बाप-बेटे एक-दूसरे के रकीब बन जाते हैं। बाप से सीखे हुये दांव से ही बाप को पटकनी देकर बेटा चुनाव लड़ना चाहता है। श्रवणकुमार बनकर बाप को जबरियन तीर्थयात्रा कराना चाहता है। लेकिन बाप को लगता अभी तो वो जवान है। उसके लिये पागल जहान है। दंगल चलता रहता है।
जनता अपनी सेवा के लिये हुड़कते, आपस में लड़ते हुये लोगों को देखती है। कभी-कभी कहती भी है कि भाई तुम लोग मिलकर सेवा कर लो। हम तो सेवा कराने के लिये अभिशप्त हैं। कोई भी सेवा करेगा तो दुर्दशा हमारी ही होनी है। तुम क्यों लड़े-मरे जा रहे हो आपस में।
इस पर दोनों शायद जनता को घुड़क देते होंगे। तू जनता है। जनता की तरह चुपचाप रह। ज्यादा चूं-चपड़ मत कर। सेवा तो तेरी होनी ही है। कहां तक बचेगी? किस-किस सेवक से बचेगी? सेवा तो तुझे करानी ही होगी। बस जरा तय हो जाये कि तेरा असली सेवक कौन है। यही तय करने के लिये यह दंगल हो रहा है। इसे तू मनोरंजन समझकर देख। इससे ज्यादा मत समझ।
जनता बेचारी अपने सेवकों के बीच होते हुये दंगल को सहमी हुई देख रही है। वह दंगल खत्म होने का इंतजार कर रही है। दंगल में जीतने वाले पहलवान को उसी अपनी सेवा की विजयमाला पहनानी है। सहमते हुये अपनी सेवा का अधिकार देना है। इसके बाद अपने काम में जुट जाना है- लुटने, पिटने, हत्या-बलात्कार का शिकार होने, दंगे-भूख-ठंड-बाढ़-सूखे-आपदा-दुर्घटना में मरने खपने के शाश्वत काम में।
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